*निखिल उपनिषद*
सदगुरु ऐसे संपर्क की जगह है, जहां दो सीमाएं मिलती हैं। यहां मनुष्य का अंत होता है और परमात्मा के दीदार होते हैं। अब मनुष्य की तकलीफ को परमात्मा सीधा नहीं सुनता और न ही इसकी तरफ से कोई सीधा उत्तर आता है…
मनुष्य की पहली अवस्था अंधकार, अज्ञान और भटकना है, जबकि परमात्मा परम ज्ञान और सच्चिदानंद है। परमात्मा परम अवस्था और परम शून्यता का नाम है, इसलिए परमात्मा के साथ मनुष्य का सीधा संबंध नहीं जुड़ सकता। मनुष्य और परमात्मा के बीच एक महान कड़ी मानो एक महान सेतु की परम आवश्यकता है, जो मनुष्य और परमात्मा की आपसी मेल करा सके। आध्यात्मिक जगत में ऐसी महान विभूति का नाम सदगुरु है, जो मनुष्य और परमात्मा ही होता है। सदगुरु ऐसे संपर्क की जगह है, जहां दो सीमाएं मिलती हैं। यहां मनुष्य का अंत होता है और परमात्मा के दीदार होते हैं। अब मनुष्य की तकलीफ को परमात्मा सीधा नहीं सुनता और न ही इसकी तरफ से कोई सीधा उत्तर आता है। मनुष्य पूर्ण सदगुरु से सब कुछ कह सकता है। इधर, सदगुरु मनुष्य की सारी बात भली भांति सुनता है और पूर्ण तौर से समझता भी है और उत्तर भी देता है, क्योंकि यह ( सदगुरु ) भी वहां से गुजरा है, जहां से मनुष्य गुजर रहा है। इन कष्टों, चिंताओं और दुखों से यह भी जिया है, जिनमें मनुष्य अब जी रहा है।
|मानों मनुष्य का जो वर्तमान है वह सद्गुरु का अतीत था और जो मनुष्य का भविष्य है वह भी सदगुरु का वर्तमान है, क्योंकि सदगुरु का जीवन और प्राण परमात्मा में लीन होते हैं और सदगुरु का एक हाथ मनुष्य के हाथ में और दूसरा हाथ परमात्मा से मिला होता है। इसलिए अब जो मनुष्य कहेगा वह सदगुरु के द्वारा परमात्मा तक आसानी से पहुंच सकता है, क्योंकि केवल सदगुरु ही मनुष्य की भाषा समझ सकता है। इस लिहाज से सद्गुरु परमात्मा से भी ऊपर है-
तीन लोक नौ खंड में गुरु ते बड़ा न कोय।
कर्ता करे न कर सके गुरु करे सो होय।।
अब आम दृष्टिकोण से साधन साध्य से इस तरह से ऊपर है, क्योंकि साधन के बगैर, मनुष्य साध्य तक नहीं पहुंच सकता। मार्ग इस मंजिल से बड़ा है, मंजिल तो सिर्फ मार्ग का आखिरी छोर है जैसे बिना सीढ़ी के कोई छत पर नहीं चढ़ सकता। सीढी छत से बड़ी हो गईं, परंतु आध्यात्मिक दृष्टिकोण में सदगुरु परमात्मा को मिलाने वाला साधन ही नहीं, अपितु स्वयं साध्य भी है। ,
क्योंकि ठीक सदगुरु की शरण ही परमात्मा की शरण है। सदगुरु के पास तो विराट होता है और यह भी जरूरी है कि शिष्य सदगुरु के पास अपना मैं (अहंकार) बनकर न जाए कि मुझे मिलना चाहिए, क्योंकि मैं पात्र हूं। बल्कि याचक बनकर सदगुरु के चरणों में जाए।
सदगुरु ऐसे संपर्क की जगह है, जहां दो सीमाएं मिलती हैं। यहां मनुष्य का अंत होता है और परमात्मा के दीदार होते हैं। अब मनुष्य की तकलीफ को परमात्मा सीधा नहीं सुनता और न ही इसकी तरफ से कोई सीधा उत्तर आता है…
मनुष्य की पहली अवस्था अंधकार, अज्ञान और भटकना है, जबकि परमात्मा परम ज्ञान और सच्चिदानंद है। परमात्मा परम अवस्था और परम शून्यता का नाम है, इसलिए परमात्मा के साथ मनुष्य का सीधा संबंध नहीं जुड़ सकता। मनुष्य और परमात्मा के बीच एक महान कड़ी मानो एक महान सेतु की परम आवश्यकता है, जो मनुष्य और परमात्मा की आपसी मेल करा सके। आध्यात्मिक जगत में ऐसी महान विभूति का नाम सदगुरु है, जो मनुष्य और परमात्मा ही होता है। सदगुरु ऐसे संपर्क की जगह है, जहां दो सीमाएं मिलती हैं। यहां मनुष्य का अंत होता है और परमात्मा के दीदार होते हैं। अब मनुष्य की तकलीफ को परमात्मा सीधा नहीं सुनता और न ही इसकी तरफ से कोई सीधा उत्तर आता है। मनुष्य पूर्ण सदगुरु से सब कुछ कह सकता है। इधर, सदगुरु मनुष्य की सारी बात भली भांति सुनता है और पूर्ण तौर से समझता भी है और उत्तर भी देता है, क्योंकि यह ( सदगुरु ) भी वहां से गुजरा है, जहां से मनुष्य गुजर रहा है। इन कष्टों, चिंताओं और दुखों से यह भी जिया है, जिनमें मनुष्य अब जी रहा है।
|मानों मनुष्य का जो वर्तमान है वह सद्गुरु का अतीत था और जो मनुष्य का भविष्य है वह भी सदगुरु का वर्तमान है, क्योंकि सदगुरु का जीवन और प्राण परमात्मा में लीन होते हैं और सदगुरु का एक हाथ मनुष्य के हाथ में और दूसरा हाथ परमात्मा से मिला होता है। इसलिए अब जो मनुष्य कहेगा वह सदगुरु के द्वारा परमात्मा तक आसानी से पहुंच सकता है, क्योंकि केवल सदगुरु ही मनुष्य की भाषा समझ सकता है। इस लिहाज से सद्गुरु परमात्मा से भी ऊपर है-
तीन लोक नौ खंड में गुरु ते बड़ा न कोय।
कर्ता करे न कर सके गुरु करे सो होय।।
अब आम दृष्टिकोण से साधन साध्य से इस तरह से ऊपर है, क्योंकि साधन के बगैर, मनुष्य साध्य तक नहीं पहुंच सकता। मार्ग इस मंजिल से बड़ा है, मंजिल तो सिर्फ मार्ग का आखिरी छोर है जैसे बिना सीढ़ी के कोई छत पर नहीं चढ़ सकता। सीढी छत से बड़ी हो गईं, परंतु आध्यात्मिक दृष्टिकोण में सदगुरु परमात्मा को मिलाने वाला साधन ही नहीं, अपितु स्वयं साध्य भी है। ,
क्योंकि ठीक सदगुरु की शरण ही परमात्मा की शरण है। सदगुरु के पास तो विराट होता है और यह भी जरूरी है कि शिष्य सदगुरु के पास अपना मैं (अहंकार) बनकर न जाए कि मुझे मिलना चाहिए, क्योंकि मैं पात्र हूं। बल्कि याचक बनकर सदगुरु के चरणों में जाए।