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धर्म ?

🌹 जय गुरुदेव 🌹

पहली बात यह है की धर्म की बात हम मान लेते हैं और जो समझाया गया है वैसे करते हैं। धर्म की बात मानने की नहीं है मगर अपने अभ्यास से उसका अनुभव करने की बात है समझना ठीक है मगर अनुभव तो हर गुरु भक्त को करना पड़ेगा । अपना खुद का अनुभव आपको मंजिल तक ले जाएगा ।
जो अपना शरीर है वह अपनी आत्मा का मंदिर है । शरीर मरण धर्मा है सबका शरीर मरने वाला तो है मगर यह शरीर में एक अमर तत्व भी है उसको अपनी आत्मा बोलते हैं । अपने पास एक ही शरीर में दो चीज का अनुभव तो हो गया । एक शरीर जो मरण धर्मा है । दूसरा अमर आत्मा है । शरीर और आत्मा के बीच में मन है ।
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आज तक किसी का शरीर ने कोई झंझट कि नहीं है । जो भी झंझट है वह आपके मन की है । मन क्या करता है । मन का काम कुछ ना कुछ करना और शांति से बैठने नहीं देना यह मन का काम है आपको ऑक्यूपाइड रखना उसका काम है । जिसे आप अहंकार भी बोल सकते हो । धर्म के मार्ग में अपना अहंकार आत्म अनुभूति के लिए बाधक है ।
अभी साधक को क्या करना पड़ेगा ?
साधक को अपने मन में रहते हुए भी मन के बाहर होना पड़ेगा । यह कैसे होगा ?
पहले तो आप की मान्यता है कि आप शरीर हो । दूसरी मान्यता है आप मन हो । तीसरी मान्यता है आप भाव हो । सामान्य मनुष्य की यही मान्यता है ।
सिद्ध पुरुष का कहना है आप की मान्यता सही नहीं है और आप आत्मा हो और अपनी आत्मा को जानकर आप परमात्मा का भी अनुभव कर सकते हो ।
सभी गुरु भक्तों यह समझ लेना आपके भीतर दो चीज है एक है शरीर जो मरण धर्मा है और दूसरा आत्मा जो अमर ही है । यह भी अनुभव करना जरूरी है ।
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कुंडलिनी शक्ति क्या है ?

🌹 जय गुरुदेव 🌹
कुंडलिनी शक्ति क्या है ?
सबसे पहले सभी गुरु भक्तों यह समझ ले यह जगत में एक ही शक्ति है और उसका नाम अलग अलग है ।
यह शक्ति सभी जिवमे है ही सबके भीतर यह शक्ति का खजाना पड़ा हुआ है । यह शक्ति छोटा सा बीज के रूप में पड़ी है । यह शक्ति को जानना और उसका अनुभव करना और अपने स्वभाव में जीना यही धर्म है ।
यही शक्ति संसार में भी है और सन्यास में भी है । प्रत्येक के जीवन में भी है और प्रत्येक के मृत्यु में भी है । अभी आप जो जीवन संसार में जी रहे हो वह यह शक्ति की बाहर की परिधि है और जिन लोगों ने इसका अनुभव कर लिया है तो वह लोग अपने स्वभाव के केंद्र में पहुंच गया है ऐसा अनुभव है । यह शक्ति का जगाना और उसका अनुभव करना एक प्रयत्न भी है और यह कभी भी तो आपको अनुभव होगा तो अदृश्य शक्ति का एक प्रसाद होगा ऐसा आपको अनुभव होगा ।
यह शक्ति को जगाने का कि उसका अनुभव करने का बहुत सरल रास्ता यह है कि आप साक्षी बन जाओ और यह जो शक्ति का जो खेल है उसको साक्षी के रूप में आपको देखना है । आपको कुछ करना नहीं है और और यह खेल को देखना है ।
अपने मन का निरीक्षण करना यह सबसे बड़ी तपस्या है । और धीरे धीरे अपने शरीर से दूर होते जाना और अपने मन से भी दूर होते जाना और अपने भाव से भी दूर होते जाना यही तपस्या है और उसका एक ही मार्ग है क्या आपको साक्षी के रूप में सम्मिलित होना पड़ेगा ।
यही कुंडलिनी शक्ति सभी गुरु भक्तों को आशीर्वाद देती है आप भी उसका स्वीकार करें और उसका अनुभव करने की दिशा में प्रयत्न करें ।
                 

15 AUGUST SPECIAL.

हम गुलाम क्यों बने?? हम तरक्की क्यों नहीं कर पाये??? हमें अंग्रेज़ो ने कैसे 200 साल गुलाम बनाकर रखा??
जिस देश में विश्व की पहली यूनिवर्सिटी खुली वो देश शिक्षा के क्षेत्र में इतना पिछड़ कैसे गया??? जबकि होना तो ये चाहिए था की विश्व की शीर्ष 10 यूनिवर्सिटी भारत के नाम होती
जिस देश ने शल्य(सर्जरी) क्रिया की खोज की और ऋषि श्रुसुत शल्य क्रिया के जनक कहलाये वहां आज अच्छे हॉस्पिटल क्यों नहीं है???
जिस देश ने दुनिया को गिनती सिखाई,गणित जैसा विषय पैदा किया..वो देश आज जमीनी तौर पर विज्ञान में इतना पीछे क्यों???
जिस देश में ऋषि पतंजलि ने योग की खोज की...उस देश के लोग गंभीर बीमारियो से दम क्यों तोड़ रहे है??
जिस देश में गाय पूजनीय थी आज वहां गाय खायी क्यों जा रही है??
जिस देश में मुफ़्त गुरुकुल होते थे आज वहां सड़कछाप सरकारी स्कूल क्यों????
जिस देश में दूध की नदिया बहती थी आज वहां पाउडर वाला नकली देश क्यों बेचा जा रहा है??
जिस देश में प्राणवायु को शुद्ध करने के लिए यज्ञ होते थे आज वहां की राजधानी दिल्ली की हवा में ज़हर क्यों??
जिस देश की स्त्रीया लज्जा से लैस होती थी आज वहां की स्त्रीया लज्जाहीन कैसे हो गयी???
इन सबका उत्तर हासिल करने के लिए पीछे मुड़कर देखने की आवश्यकता नहीं.... इसी वर्तमान में अगर हम झांके तो इसका उत्तर मिल जाएगा... हम अपने वास्तविक मूल्यों से भटक गए या उन्हें भूल गए। हमारे नेता सत्ता हासिल करने के लिए देश की आहूति तक देने को तैयार बैठे है।

Basis on Husband wife Relationship in hindi.

#अत्यंत प्रेरणादायक कहानी।
अवश्य पढ़ें।

#शादी की वर्षगांठ की पूर्वसंध्या पर पति-पत्नी साथ में बैठे चाय की चुस्कियां ले रहे थे।

#संसार की दृष्टि में वो एक आदर्श युगल था।

#प्रेम भी बहुत था दोनों में लेकिन कुछ समय से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि संबंधों पर समय की धूल जम रही है। शिकायतें धीरे-धीरे बढ़ रही थीं।

#बातें करते-करते अचानक पत्नी ने एक प्रस्ताव रखा कि मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना होता है लेकिन हमारे पास समय ही नहीं होता एक-दूसरे के लिए।

#इसलिए मैं दो डायरियाँ ले आती हूँ और हमारी जो भी शिकायत हो हम पूरा साल अपनी-अपनी डायरी में लिखेंगे।

अगले साल इसी दिन हम एक-दूसरे की डायरी पढ़ेंगे ताकि हमें पता चल सके कि हममें कौन सी कमियां हैं जिससे कि उसका पुनरावर्तन ना हो सके।

पति भी सहमत हो गया कि विचार तो अच्छा है।

डायरियाँ आ गईं और देखते ही देखते साल बीत गया।

अगले साल फिर विवाह की वर्षगांठ की पूर्वसंध्या पर दोनों साथ बैठे।

एक-दूसरे की डायरियाँ लीं। पहले आप, पहले आप की मनुहार हुई।

आखिर में महिला प्रथम की परिपाटी के आधार पर पत्नी की लिखी डायरी पति ने पढ़नी शुरू की।

पहला पन्ना...... दूसरा पन्ना........ तीसरा पन्ना

..... आज शादी की वर्षगांठ पर मुझे ढंग का तोहफा नहीं दिया।

.......आज होटल में खाना खिलाने का वादा करके भी नहीं ले गए।

.......आज मेरे फेवरेट हीरो की पिक्चर दिखाने के लिए कहा तो जवाब मिला बहुत थक गया हूँ

........ आज मेरे मायके वाले आए तो उनसे ढंग से बात नहीं की

.......... आज बरसों बाद मेरे लिए साड़ी लाए भी तो पुराने डिजाइन की

ऐसी अनेक रोज़ की छोटी-छोटी फरियादें लिखी हुई थीं।

पढ़कर पति की आँखों में आँसू आ गए।

पूरा पढ़कर पति ने कहा कि मुझे पता ही नहीं था मेरी गल्तियों का।
मैं ध्यान रखूँगा कि आगे से इनकी पुनरावृत्ति ना हो।

अब पत्नी ने पति की डायरी खोली
पहला पन्ना……… कोरा
दूसरा पन्ना……… कोरा
तीसरा पन्ना ……… कोरा

अब दो-चार पन्ने साथ में पलटे वो भी कोरे

फिर 50-100 पन्ने साथ में पलटे तो वो भी कोरे

पत्नी ने कहा कि मुझे पता था कि तुम मेरी इतनी सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकोगे।
मैंने पूरा साल इतनी मेहनत से तुम्हारी सारी कमियां लिखीं ताकि तुम उन्हें सुधार सको।
और तुमसे इतना भी नहीं हुआ।

पति मुस्कुराया और कहा मैंने सब कुछ अंतिम पृष्ठ पर लिख दिया है।

पत्नी ने उत्सुकता से अंतिम पृष्ठ खोला। उसमें लिखा था :-

मैं तुम्हारे मुँह पर तुम्हारी जितनी भी शिकायत कर लूँ लेकिन तुमने जो मेरे और मेरे परिवार के लिए त्याग किए हैं और इतने वर्षों में जो असीमित प्रेम दिया है उसके सामने मैं इस डायरी में लिख सकूँ ऐसी कोई कमी मुझे तुममें दिखाई ही नहीं दी।
ऐसा नहीं है कि तुममें कोई कमी नहीं है लेकिन तुम्हारा प्रेम, तुम्हारा समर्पण, तुम्हारा त्याग उन सब कमियों से ऊपर है।
मेरी अनगिनत अक्षम्य भूलों के बाद भी तुमने जीवन के प्रत्येक चरण में छाया बनकर मेरा साथ निभाया है। अब अपनी ही छाया में कोई दोष कैसे दिखाई दे मुझे।

अब रोने की बारी पत्नी की थी।

उसने पति के हाथ से अपनी डायरी लेकर दोनों डायरियाँ अग्नि में स्वाहा कर दीं और साथ में सारे गिले-शिकवे भी।

फिर से उनका जीवन एक नवपरिणीत युगल की भाँति प्रेम से महक उठा ।

जब जवानी का सूर्य अस्ताचल की ओर प्रयाण शुरू कर दे तब हम एक-दूसरे की कमियां या गल्तियां ढूँढने की बजाए अगर ये याद करें हमारे साथी ने हमारे लिए कितना त्याग किया है, उसने हमें कितना प्रेम दिया है, कैसे पग-पग पर हमारा साथ दिया है तो निश्चित ही जीवन में प्रेम फिर से पल्लवित हो जाएग💕💕💕

परिक्रमा का महत्व क्या है?

Jay gurudev

जब हम मंदिर जाते है तो हम भगवान की परिक्रमा जरुर लगाते है | पर क्या कभी हमने ये सोचा है कि देव मूर्ति की परिक्रमा क्यों की जाती है? शास्त्रों में लिखा है जिस स्थान पर मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा हुई हो, उसके मध्य बिंदु से लेकर कुछ दूरी तक दिव्य प्रभा अथवा प्रभाव रहता है | यह निकट होने पर अधिक गहरा और दूर दूर होने पर घटता जाता है, इसलिए प्रतिमा के निकट परिक्रमा करने से दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मंडल से निकलने वाले तेज की सहज ही प्राप्ति हो जाती है।

कैसे करें परिक्रमा
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देवमूर्ति की परिक्रमा सदैव दाएं हाथ की ओर से करनी चाहिए क्योकि दैवीय शक्ति की आभामंडल की गति दक्षिणावर्ती होती है । बाएं हाथ की ओर से परिक्रमा करने पर दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मडल की गति और हमारे अंदर विद्यमान दिव्य परमाणुओं में टकराव पैदा होता है, जिससे हमारा तेज नष्ट हो जाता है | जाने-अनजाने की गई उल्टी परिक्रमा का दुष्परिणाम भुगतना पडता है |
किस देव की कितनी परिक्रमा करनी चाहिये ?
वैसे तो सामान्यत: सभी देवी-देवताओं की एक ही परिक्रमा की जाती है परंतु शास्त्रों के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं के लिए परिक्रमा की अलग संख्या निर्धारित की गई है। इस संबंध में धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान की परिक्रमा करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है और इससे हमारे पाप नष्ट होते है | सभी देवताओं की परिक्रमा के संबंध में अलग-अलग नियम बताए गए हैं।

1. महिलाओं द्वारा “वटवृक्ष” की परिक्रमा करना सौभाग्य का सूचक है।

2. “शिवजी” की आधी परिक्रमा की जाती है शिव जी की परिक्रमा करने से बुरे खयालात और अनर्गल स्वप्नों का खात्मा होता है। भगवान शिव की परिक्रमा करते समय अभिषेक की धार को न लांघे।

3. “देवी मां” की एक परिक्रमा की जानी चाहिए।

4. “श्रीगणेशजी और हनुमानजी” की तीन परिक्रमा करने का विधान है गणेश जी की परिक्रमा करने से अपनी सोची हुई कई अतृप्त कामनाओं की तृप्ति होती है गणेशजी के विराट स्वरूप व मंत्र का विधिवत ध्यान करने पर कार्य सिद्ध होने लगते हैं।

5. “भगवान विष्णुजी” एवं उनके सभी अवतारों की चार परिक्रमा करनी चाहिए विष्णु जी की परिक्रमा करने से हृदय परिपुष्ट और संकल्प ऊर्जावान बनकर सकारात्मक सोच की वृद्धि करते हैं।

6. सूर्य मंदिर की सात परिक्रमा करने से मन पवित्र और आनंद से भर उठता है तथा बुरे और कड़वे विचारों का विनाश होकर श्रेष्ठ विचार पोषित होते हैं हमें भास्कराय मंत्र का भी उच्चारण करना चाहिए, जो कई रोगों का नाशक है जैसे सूर्य को अर्घ्य देकर “ॐ भास्कराय नमः” का जाप करना देवी के मंदिर में महज एक परिक्रमा कर नवार्ण मंत्र का ध्यान जरूरी है; इससे सँजोए गए संकल्प और लक्ष्य सकारात्मक रूप लेते हैं।
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परिक्रमा के संबंध में नियम
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1. परिक्रमा शुरु करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए; साथ ही परिक्रमा वहीं खत्म करें जहां से शुरु की गई थी ध्यान रखें कि परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नही मानी जाती।

2. – परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत कतई ना करें जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें।

3. उलटी अर्थात बाये हाथ की तरफ परिक्रमा नहीं करनी चाहिये।

इस प्रकार देवी-देवताओं की परिक्रमा विधिवत करने से जीवन में हो रही उथल-पुथल व समस्याओं का समाधान सहज ही हो जाता है। इस प्रकार सही परिक्रमा करने से पूर्ण लाभ होता है ।

पूजन में प्रयोग होने वाले कुछ शब्द

JAY GURUDEV
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1. पंचोपचार – गन्ध , पुष्प , धूप , दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने को ‘पंचोपचार’ कहते हैं |

2. पंचामृत – दूध , दही , घृत , मधु { शहद ] तथा शक्कर इनके मिश्रण को ‘पंचामृत’ कहते हैं |

3. पंचगव्य – गाय के दूध , घृत , मूत्र तथा गोबर इन्हें सम्मिलित रूप में ‘पंचगव्य’ कहते हैं |

4. षोडशोपचार – आवाहन् , आसन , पाध्य , अर्घ्य , आचमन , स्नान , वस्त्र, अलंकार , सुगंध , पुष्प , धूप , दीप , नैवैध्य , ,अक्षत , ताम्बुल तथा दक्षिणा इन सबके द्वारा पूजन करने की विधि को ‘षोडशोपचार’ कहते हैं |

5. दशोपचार – पाध्य , अर्घ्य ,
आचमनीय , मधुपक्र , आचमन , गंध , पुष्प , धूप , दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने की विधि को ‘दशोपचार’ कहते हैं |

6. त्रिधातु – सोना , चांदी और
लोहा |कुछ आचार्य सोना , चांदी, तांबा इनके मिश्रण को भी ‘त्रिधातु’ कहते हैं |

7. पंचधातु – सोना , चांदी , लोहा
, तांबा और जस्ता |

8. अष्टधातु – सोना , चांदी ,
लोहा , तांबा , जस्ता , रांगा , कांसा और पारा |

9. नैवैध्य – खीर , मिष्ठान आदि
मीठी वस्तुये |

10. नवग्रह – सूर्य , चन्द्र , मंगल , बुध, गुरु , शुक्र , शनि , राहु और केतु |

11. नवरत्न – माणिक्य , मोती ,
मूंगा , पन्ना , पुखराज , हीरा ,
नीलम , गोमेद , और वैदूर्य |

12. [A] अष्टगंध – अगर , तगर , गोरोचन, केसर , कस्तूरी , ,श्वेत चन्दन , लाल चन्दन और सिन्दूर [ देवपूजन हेतु ]

[B] अगर , लाल चन्दन , हल्दी , कुमकुम ,गोरोचन , जटामासी , शिलाजीत और कपूर [ देवी पूजन हेतु ]

13. गंधत्रय – सिन्दूर , हल्दी , कुमकुम |

14. पञ्चांग – किसी वनस्पति के
पुष्प , पत्र , फल , छाल ,और जड़ |

15. दशांश – दसवां भाग |

16. सम्पुट – मिट्टी के दो शकोरों को एक-दुसरे के मुंह से मिला कर बंद करना |

17. भोजपत्र – एक वृक्ष की छाल | मन्त्र प्रयोग के लिए भोजपत्र का
ऐसा टुकडा लेना चाहिए , जो
कटा-फटा न हो |
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18. मन्त्र धारण – किसी भी मन्त्र
को स्त्री पुरुष दोनों ही कंठ में
धारण कर सकते हैं ,परन्तु यदि भुजा में धारण करना चाहें तो पुरुष को अपनी दायीं भुजा में और स्त्री को बायीं भुजा में धारण करना चाहिए |

19. ताबीज – यह तांबे के बने हुए
बाजार में बहुतायत से मिलते हैं | ये गोल तथा चपटे दो आकारों में मिलते हैं | सोना , चांदी , त्रिधातु तथा अष्टधातु आदि के ताबीज

गायत्री मन्त्र के प्रयोग

🌹🌞🌹JAY GURUDEV 🌹🌞🌹
शास्त्रों के अनुसार गायत्री वेदमाता हैं एवं मनुष्य के समस्त पापों का नाश करने की शक्ति उनमें है। गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी कहा गया है। गायत्री मंत्र को वेदों का सर्वश्रेष्ठ मंत्र बताया गया है। इसके जप के लिए तीन समय बताए गए हैं।
गायत्री मन्त्र का जप का पहला समय है प्रात:काल, सूर्योदय से थोड़ी देर पहले मन्त्र जप शुरू किया जाना चाहिए। जप सूर्योदय के पश्चात तक करना चाहिए। मन्त्र जप के लिए दूसरा समय है दोपहर का। दोपहर में भी इस मन्त्र का जप किया जाता है। तीसरा समय है शाम को सूर्यास्त के कुछ देर पहले मन्त्र जप शुरू करके सूर्यास्त के कुछ देर बाद तक जप करना चाहिए। इन तीन समय के अतिरिक्त यदि गायत्री मन्त्र का जप करना हो तो मौन रहकर या मानसिक रूप से जप करना चाहिए। मन्त्र जप तेज आवाज में नहीं करना चाहिए।
गायत्री मन्त्र :----------
।। ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् ।।
गायत्री मंत्र का अर्थ :----------
सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परामात्मा के तेज का हम ध्यान करते हैं, वह परमात्मा का तेज हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करें।
अथवा
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्त:करण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें।
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दरिद्रता का नाश :----------
व्यापार, नौकरी में हानि हो रही है या कार्य में सफलता नहीं मिलती, आमदनी कम है तथा व्यय अधिक है तो गायत्री मन्त्र का जाप काफी फायदा पहुँचाता है। शुक्रवार को पीले वस्त्र पहनकर हाथी पर विराजमान गायत्री माता का ध्यान कर गायत्री मन्त्र के आगे और पीछे ‘श्रीं’ बीज का सम्पुट लगाकर जप करने से दरिद्रता का नाश होता है। इसके साथ ही रविवार को व्रत किया जाए तो अधिक लाभ होता है।
गायत्री हवन से रोग नाश :-----------
किसी भी शुभ मुहूर्त में दूध, दही, घी एवं शहद को मिलाकर १००० गायत्री मन्त्रों के साथ हवन करने से चेचक, आँखों के रोग एवं पेट के रोग समाप्त हो जाते हैं। इसमें समिधाएँ पीपल की होना चाहिए।
गायत्री मन्त्रों के साथ नारियल का बुरा एवं घी का हवन करने से शत्रुओं का नाश हो जाता है। नारियल के बुरे में यदि शहद का प्रयोग किया जाए तो सौभाग्य में वृद्धि होती है।
सन्तान का वरदान :----------
किसी दम्पत्ति को सन्तान प्राप्त करने में कठिनाई आ रही हो या सन्तान से दुःखी हो अथवा सन्तान रोगग्रस्त हो तो प्रात: पति-पत्नी एक साथ सफेद वस्त्र धारण कर ‘यौं’ बीज मन्त्र का सम्पुट लगाकर गायत्री मन्त्र का जप करें। सन्तान सम्बन्धी किसी भी समस्या से शीघ्र मुक्ति मिलती है।
शत्रुओं पर विजय :----------
शत्रुओं के कारण परेशानियाँ झेल रहे हैं तो मंगलवार, अमावस्या अथवा रविवार को लाल वस्त्र पहनकर माता दुर्गा का ध्यान करते हुए गायत्री मन्त्र के आगे एवं पीछे ‘क्लीं’ बीज मन्त्र का तीन बार सम्पुट लगाकार १०८ बार जाप करने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है।
विवाह कराए गायत्री मन्त्र :----------
यदि विवाह में देरी हो रही हो तो सोमवार को सुबह के समय पीले वस्त्र धारण कर माता पार्वती का ध्यान करते हुए ‘ह्रीं’ बीज मन्त्र का सम्पुट लगाकर १०८ बार जाप करने से विवाह कार्य में आने वाली समस्त बाधाए दूर होती हैं। यह साधना स्त्री-पुरुष दोनों कर सकते हैं।
रोग निवारण :----------
यदि किसी रोग से मुक्ति जल्दी चाहते हैं तो किसी भी शुभ मुहूर्त में एक काँसे के पात्र में स्वच्छ जल भरकर रख लें एवं उसके सामने लाल आसन पर बैठकर गायत्री मन्त्र के साथ ‘ऐं ह्रीं क्लीं’ का सम्पुट लगाकर गायत्री मन्त्र का जप करें। जप के पश्चात जल से भरे पात्र का सेवन करने से गम्भीर से गम्भीर रोग का नाश होता है। यही जल किसी अन्य रोगी को पीने देने से उसका रोग भी नाश होता हैं।
चेहरे की चमक बढ़ाए :----------
।। ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् ।।
इस मन्त्र के नियमित जाप से त्वचा में चमक आती है। नेत्रों में तेज आता है। सिद्धि प्राप्त होती है। क्रोध शान्त होता है। ज्ञान की वृद्धि होती है।
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आकर्षण के नियम , आत्म ज्ञान , सहस्रार-चक्र
पढ़ाई में मन लगाए सरल उपाय :----------
विशेष तौर पर विद्यार्थियों के लिए गायत्री मन्त्र बहुत लाभदायक है। रोजाना इस मन्त्र का १०८ बार जाप करने से विद्यार्थी को सभी प्रकार की विद्या प्राप्त करने में आसानी होती है। पढऩे में मन नहीं लगना, याद किया हुआ भूल जाना, शीघ्रता से याद न होना आदि समस्याओं से भी मुक्ति मिल जाती है।
🌹🌹।। जय माँ भगवती ।। 🌹🌹
🙏🙏🙏।। जय सद्गुरुदेव ।। 🙏🙏

तंत्र उत्कीलन त्रिपुरा साधना

Jay Gurudev
यदि हम जीवन का गहराई से विश्‍लेषण करें, तो पायेंगे, कि व्यक्ति हर पल, हर क्षण, भय एवं बाधाओं से आशंकित रहता है। गहराई से विश्‍लेषण करने पर ऐसा ही प्रतीत होता है कि मनुष्य की शक्तियां कीलित हो गई हैं। शक्तियों का यह कीलन स्वार्थी लोगों द्वारा या उनकी स्वयं की गलतियों से भी हो सकता है। इस कारण जीवन में भय का वातावरण बना रहता है और यह भी सत्य है कि निर्भय हुए बिना जीवन का आनन्द संभव ही नहीं है।


जीवन में निर्भयता एवं बाधाओं के निवारण के लिए व्यक्ति अनेक उपाय करता ही रहता है। जिस प्रकार कांटे से कांटा निकाला जा सकता है उसी प्रकार जीवन में कुछ ऐसी बाधाएं, ऐसी समस्याएं होती हैं जिन्हें उच्च तंत्र साधनाओं द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है।


आवश्यकता केवल इस बात कि है कि हम अपने जीवन का विश्‍लेषण करें तथा इस बात को समझें कि हमारे जीवन में जो घटित हो रहा है वह सामान्य है अथवा असामान्य। सामान्य समस्याओं का हल तो सामान्य प्रयोगों से किया जा सकता है। किन्तु असामान्य समस्याओं का हल तो विशेष तंत्र प्रयोगों से ही संभव है और इस हेतु उच्चस्तरीय तंत्र साधनाएं सम्पन्न करनी होती हैं। इस हेतु गुरुदेव के मार्गदर्शन में श्रेष्ठ उपाय है – ‘तंत्र उत्कीलन त्रिपुरा साधना’।


त्रिपुर भैरवी दस महाविद्याओं में अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं तीव्र शक्ति स्वरूपा हैं। इनकी कृपा से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सुरक्षा प्राप्त होेने लगती है और समस्त बाधाएं समाप्त हो जाती हैं। इनकी तंत्र शक्ति के माध्यम से साधक पूर्ण क्षमतावान एवं वेगवान बन सकता है।


भगवती त्रिपुर भैरवी, महाभैरव की ही शक्ति हैं, उनकी मूल शक्ति होने के कारण उनसे भी सहस्र गुणा अधिक तीव्र तथा क्रियाशील हैं। साधक जिन लाभों को भैरव साधना सम्पन्न करने से प्राप्त करता है, जैसे शत्रुबाधा निवारण, वाद-विवाद मुकदमा आदि में विजय, आकस्मिक दुर्घटना टालना, रोग निवारण आदि इस साधना के माध्यम से इन विषम स्थितियों पर भी आसानी से नियंत्रण कर सकता है।
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कैसा भी वशीकरण प्रयोग करवा दिया गया हो, कैसा भी भीषण तांत्रिक प्रयोग कर दिया गया हो, दुर्भावना वश वशीकरण प्रयोग कर दिया गया हो, गृहस्थ या व्यापार बन्ध प्रयोग हुआ हो, तो तंत्र उत्कीलन त्रिपुरा साधना सम्पन्न करने पर वह बेअसर हो जाता है।


उच्च स्तरीय तंत्र प्रयोग


जब किसी व्यक्ति पर या उसके परिवार पर द्वेष वश तांत्रिक प्रयोग होता है, तो वह परिवार अत्यन्त कष्ट भोगने के लिए विवश हो जाता है। तांत्रिक बाधा के कारण उसके समस्त कार्य बाधित हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में तंत्र साधना सम्पन्न करने पर व्यक्ति का जीवन निष्कंटक तथा तेजस्वी क्षमताओं से युक्त हो जाता है।


लोग साधना करते हैं, मंत्र, अनुष्ठान करते हैं और जब सफलता नहीं मिलती तब या तो दोष मंत्र, अनुष्ठान पर ही डालते हैं अथवा अपने दोषों का फल स्वयं भुगतते हैं और गुरुदेव जी को कहते हैं कि – मैं इतनी बार आपके पास आया, इतनी बार अनुष्ठान किया पूरी विधि से कार्य किया, इनसे सफलता नहीं मिली तो शास्त्र ही झूठे हैं, क्या किसी ने यह विचार किया है, …हो सकता है, मेरी ही क्रिया प्रक्रिया, मेरी ही क्षमता में कोई दोष हो, मेरे ही पाप कर्मों के कारण सफलता नहीं मिल रही हो, क्या ऐसा तो नहीं है, कि मेरा जीवन ही कीलित किया हुआ हो, …प्रत्येक साधक को इस प्रश्‍न पर भी विचार करना आवश्यक है।


कीलन दोष क्या है?


कीलन का तात्पर्य है, एक बन्धन। जिस प्रकार एक खूंटे से बंधा पशु उस खूंटे के चारों ओर तो चक्कर लगा सकता है लेकिन वह सीमा से आगे नहीं बढ़ सकता, खूंटे से गले तक की रस्सी किसी के लिए छोटी हो सकती है और किसी के लिए बड़ी, परन्तु बन्धन तो बन्धन ही है, वह एक पक्षी की भांति स्वच्छन्द विचरण तो नहीं कर सकता,  इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति की शक्तियों का कीलन किया हुआ है, और यह कीलन उसके कर्मों के कारण, उसके दोषों के कारण, उस पर किये गये किसी तांत्रिक प्रयोगों द्वारा आदि शक्ति के प्रभाव से हो जाता है, और जब तक यह दोष दूर नहीं हो जाता तब तक वह कितना ही प्रयास करे, उसके कार्य सफल नहीं हो पाते, उसके देखते-देखते उसके साथ वाले जीवन की दौड़ में आगे निकल जाते हैं और वह एक पशु की भांति अपने ही स्थान पर बंधा छटपटाता रहता है।

 Nikhil Mantra Vigyan at Jodhpur, India:
Nikhil Mantra Vigyan
14A, Main Road, High Court Colony Road, Near Senapati Bhawan
Jodhpur - 342001, Rajasthan, India

Telephone: +91-291-2638209/2624081 Fax: +91-291-5102540 SMS: +91-960-2334847 MailId: nmv.guruji@gmail.com

उत्कीलन क्या?


क्या कीलन दोष का कोई उपाय है? क्या कीलन दोष ऐसा कलंक है, जिसे उतारा ही नहीं जा सकता? क्या साधक अपने भीतर अपनी शक्ति का उस स्तर तक विकास नहीं कर सकता, जिससे कीलन दोष दूर हो जाय?


ठीक यही प्रश्‍न तंत्र के आदि रचियता भगवान शिव से पार्वती ने किया था कि – हे प्रभु! आप तो भक्तों पर परम कृपा करने वाले हैं, आगम-निगम बीज मंत्रों के स्वरूप हैं, भक्ति मुक्ति के प्रदाता हैं फिर आपने मन्त्रों का कीलन क्यों किया? क्यों सांसारिक प्राणियों को मंत्र सिद्धि में पूर्णता प्राप्त नहीं होती?


देवों के देव महादेव ने कहा, कि जैसे-जैसे युग बदलेगा वैसे-वैसे लोगों में भक्ति-प्रीति कम होगी, राग, द्वेष, ईर्ष्या, विरोध, शत्रुता में वृद्धि होगी, एक प्राणी दूसरे प्राणी को देखकर प्रसन्न नहीं होगा, अपितु ईर्ष्या करेगा और इस ईर्ष्या के वशीभूत अपनी शक्तियों का उपयोग बुरे कार्यों में करेगा, यदि ऐसे गलत व्यक्तियों के हाथ में मंत्र सिद्धि, तंत्र सिद्धि लग गई तो वे संसार में विपत्ति की स्थिति उत्पन्न कर देंगे।


उत्कीलन महाविद्या


मनुष्य जीवन में ऐसा ही हो रहा है, कुछ स्वार्थी व्यक्तियों या स्वयं की कुछ गलतियों के कारण भी जीवन कीलित हो जाता है और उसके द्वारा किये गये कार्यों का उसे पूर्ण फल नहीं मिल पा रहा है। जीवन में उसे किसी भी प्रकार के कीलन को समाप्त करने हेतु ही पत्रिका के इन पृष्ठों पर गुरुदेव की आज्ञा से विशेष ‘तंत्र उत्कीलन त्रिपुरा साधना’ प्रकाशित की जा रही है। जिससे कीलन दोष शांत करने में सफलता प्राप्त होगी, वह अपने ऊपर अन्य व्यक्तियों द्वारा किये गये तंत्र दूर कर सकेगा, अपने तंत्र ज्ञान को अपनी रक्षा के लिए प्रयोग कर सकेगा।

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साधना विधान


यह साधना विशेष रूप से होली की रात्रि को 10 बजे के पश्‍चात् सम्पन्न करें। इस साधना हेतु आवश्यक है – ‘तांत्रोक्त उत्कीलन यंत्र’, ‘11 तांत्रोक्त फल’ और ‘भैरवी माला’ आवश्यक है।


मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठिायुक्त ‘तांत्रोक्त उत्कीलन यंत्र’ विशेष रौद्र शिव एवं त्रिपुरा के मंत्रों से प्राण प्रतिष्ठित किया गया है। इस यंत्र के सामने जब साधक मंत्र जप करता है तो कैसा ही कीलन प्रयोग हुआ हो वह स्वतः ही समाप्त हो जाता है।


अपने सामने एक बाजोट पर लाल कपड़ा बिछा दें तथा उस लाल कपड़े पर कुंकुम से रंगे चावल और अष्टगन्ध फैला दें, उस पर एक पंक्ति में तिल तथा सरसों बराबर मात्रा में मिलाकर उनकी 11 ढेरियां बनाएं तथा प्रत्येक ढेरी पर एक-एक ‘तांत्रोक्त फल’ रख दें, अब इनके सामने ही ‘तांत्रोक्त उत्कीलन यंत्र’ को दूध से धोकर एक ताम्र पात्र में स्थापित कर दें। यंत्र और तांत्रोक्त फल का पंचोपचार पूजन करें। सर्वप्रथम विनियोग करें –


विनियोग –


ॐ अस्य श्री सर्वयंत्रमंत्राणां उत्कीलनमंत्र स्तोत्रस्य मूल प्रकृतिर्ॠषिर्जगतीच्छन्दः, निरंजनी देवता क्लीं बीजं ह्रीं शक्तिः, ह्रः लौं कीलकं सप्तकोटिमन्त्रयन्त्रतन्त्रकीलकानां संजीवन सिद्धर्थे जपे विनियोगः।


विनियोग के पश्‍चात् त्रिपुर भैरवी का ध्यान निम्न मंत्र का जप करते हुए करें –


उद्यद्भानु सहस्र कांति मरुणा क्षौमां शिरोमालिकाम् रक्तालिप्त पयोधरां जपपटीं विद्यामभीतिं वरम् हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्र विलसद् वक्त्रार विन्द श्रियम् देवी बद्ध हिमांशु रत्न मुकुटां वन्दे – रमन्दस्तिाम्।


भगवती त्रिपुर भैरवी की देह कान्ति उदीयमान सहस्र सूर्यों की कांति के समान है। वे रक्त वर्ण के रेशमी वस्त्र धारण किए हुए हैं। उनके गले में मुण्ड माला तथा दोनों स्तन रक्त से लिप्त हैं। वे अपने हाथों में जप-माला, पुस्तक, अभय मुद्रा तथा वर मुद्रा धारण किए हुए हैं। उनके ललाट पर चन्द्रमा की कला शोभायमान है। रक्त कमल जैसी शोभा वाले उनके तीन नेत्र हैं। आपके मस्तक पर रत्न जटित मुकुट है तथा मुख पर मन्द मुस्कान है। आपको मेरा प्रणाम स्वीकार हो।


अपने दाहिने हाथ से तांत्रोक्त उत्कीलन यंत्र को स्पर्श करते हुए निम्न मंत्रों का उच्चारण करें –


ॐ मण्डूकाय नमः। ॐ कालाग्निरुद्राय नमः। ॐ मूलप्रकृत्यै नमः। ॐ आधारशक्त्यै नमः। ॐ कूर्माय नमः। ॐ अनन्ताय नमः। ॐ वाराहाय नमः। ॐ पृथिव्यै नमः। ॐ सुधाम्बुधये नमः। ॐ सर्वसागराय नमः। ॐ मणिद्विषाय नमः। ॐ चिन्तामणि गृहाय नमः। ॐ श्मशानाय नमः। ॐ पारिजाताय नमः। ॐ रत्न वेदिकायै नमः। ॐ मणिपीठाय नमः। ॐ नानामुनिभ्यो नमः। ॐ शिवेभ्यो नमः। ॐ शिवमुण्डेभ्यो नमः। ॐ बहुमांसास्थिमोदमान शिवोभ्यो नमः। ॐ धर्माय नमः। ॐ ज्ञानाय नमः। ॐ वैराज्ञाय नमः। ॐ ऐश्‍वर्याय नमः। ॐ अधर्माय नमः। ॐ अज्ञानाय नमः। ॐ अवराज्ञानाय नमः। ॐ अनैश्‍वर्याय नमः। ॐ आनन्दकन्दाय नमः। ॐ सर्वतत्वात्मपद्माय नमः। ॐ प्रकृतिमयपत्रेभ्यो नमः। ॐ विकारमयकेसरेभ्यो नमः। ॐ पंचाशद्वर्णढ़यकर्णिकायै नमः। ॐ अर्कमण्डलाय नमः। ॐ सोममण्डलाय नमः। ॐ महीमण्डलाय नमः। ॐ सत्वाय नमः। ॐ रजसे नमः। ॐ तमसे नमः। ॐ आत्मने नमः। ॐ अन्तरात्मने नमः। ॐ परमात्मने नमः। ॐ ज्ञानात्मने नमः। ॐ क्रियायै नमः। ॐ आनन्दायै नमः। ॐ ऐं पारयै नमः। ॐ परापरायै नमः। ॐ निस्धानाय नमः। ॐ महारुद्र भैरवाय नमः॥


मंत्र उच्चारण के पश्‍चात् मानसिक रूप से भगवान सदाशिव का ध्यान करें तथा भगवान सदाशिव से तंत्र बाधाओं से मुक्त कराने का निवेदन करें।


भगवान शिव के ध्यान के पश्‍चात् साधक ‘त्रिपुर भैरवी माला’ से निम्न भैरवी उत्कीलन मंत्र की एक माला जप करें।
मंत्र
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं षट् पंचाक्षराणाम उत्कीलय उत्कीलय स्वाहा। ॐ जूं सर्वमन्त्र यन्त्र तन्त्राणां संजीवनं कुरु कुुरु स्वाहा॥
भैरवी उत्कीलन मंत्र पश्‍चात् साधक निम्न त्रिपुर भैरवी मंत्र की 3 माला मंत्र जप करें –


मंत्र
॥ह्सैं ह्सकरीं ह्सैं॥
मंत्र जप की पूर्णता पर शक्ति स्वरूपा त्रिपुरा से तंत्र बाधाओं की समाप्ति की प्रार्थना करें तथा समस्त साधना सामग्री को लाल कपड़े में बांधकर होली की अग्नि में विसर्जित कर दें।


अन्य किसी मुहूर्त पर साधना प्रारम्भ करने पर सात दिन तक नित्य साधना सम्पन्न करने के पश्‍चात् आठवें दिन समस्त साधना सामग्री को किसी निर्जन स्थान पर जमीन में गाड़ दें। यह विशेष तांत्रोक्त प्रयोग प्राण प्रतिष्ठित साधना सामग्री पर ही सम्पन्न किया जा सकता है।


साधना सामग्री – 490/-
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बिजनेस

एक बडी कंपनी के गेट के सामने एक प्रसिद्ध समोसे की दुकान थी, लंच टाइम मे अक्सर कंपनी के कर्मचारी वहाँ आकर समोसे खाया करते थे।
एक दिन कंपनी के एक मैनेजर समोसे खाते खाते समोसेवाले से मजाक के मूड मे आ गये।
मैनेजर साहब ने समोसेवाले से कहा, "यार गोपाल, तुम्हारी दुकान तुमने बहुत अच्छे से maintain की है, लेकीन क्या तुम्हे नही लगता के तुम अपना समय और टैलेंट समोसे बेचकर बर्बाद कर रहे हो.? सोचो अगर तुम मेरी तरह इस कंपनी मे काम कर रहे होते तो आज कहा होते.. हो सकता है शायद तुम भी आज मैंनेजर होते मेरी तरह.."
इस बात पर समोसेवाले गोपाल ने बडा सोचा, और बोला, " सर ये मेरा काम अापके काम से कही बेहतर है, 10 साल पहले जब मै टोकरी मे समोसे बेचता था तभी आपकी जाॅब लगी थी, तब मै महीना हजार रुपये कमाता था और आपकी पगार थी १० हजार।
इन 10 सालो मे हम दोनो ने खूब मेहनत की..
आप सुपरवाइजर से मॅनेजर बन गये.
और मै टोकरी से इस प्रसिद्ध दुकान तक पहुँच गया.
आज आप महीना ५०,००० कमाते है
और मै महीना २,००,०००
लेकिन इस बात के लिए मै मेरे काम को आपके काम से बेहतर नही कह रहा हूँ।
ये तो मै बच्चों के कारण कह रहा हूँ।
जरा सोचिए सर मैने तो बहुत कम कमाई पर धंधा शुरू किया था, मगर मेरे बेटे को यह सब नही झेलना पडेगा।
मेरी दुकान मेरे बेटे को मिलेगी, मैने जिंदगी मे जो मेहनत की है, वो उसका लाभ मेरे बच्चे उठाएंगे। जबकी आपकी जिंदगी भर की मेहनत का लाभ आपके मालिक के बच्चे उठाएंगे।
अब आपके बेटे को आप डाइरेक्टली अपनी पोस्ट पर तो नही बिठा सकते ना.. उसे भी आपकी ही तरह जीरो से शुरूआत करनी पडेगी.. और अपने कार्यकाल के अंत मे वही पहुच जाएगा जहाँ अभी आप हो।
जबकी मेरा बेटा बिजनेस को यहा से और आगे ले जाएगा..
और अपने कार्यकाल मे हम सबसे बहुत आगे निकल जाएगा..
अब आप ही बताइये किसका समय और टैलेंट बर्बाद हो रहा है ?"
मैनेजर साहब ने समोसेवाले को २ समोसे के २० रुपये दिये और बिना कुछ बोले वहाँ से खिसक लिये.......!!!

भारतीय डॉक्टर

एक भारतीय ने जॉब छोड़कर कनाडा के 1 बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर में सेल्समेन की नोकरी ज्वाइन की ।

बॉस ने पूछा:- तुम्हे कुछ तज़ुर्बा है?
उसने कहा कि मैं भारत में डॉक्टर था ।

पहले दिन उस भारतीय डॉक्टर ने पूरा मन लगाकर काम किया ।
शाम के 6 बजे बॉस ने पूछा : आज पहले दिन तुमने कितने सेल किये ?

भारतीय डॉक्टर ने कहा कि सर मैंने 1 सेल किया ।
बॉस चौंककर बोले:- क्या मात्र 1 ही सेल ?
सामान्यत: यहाँ कार्य करने वाले हर सेल्समेन 20 से 30 सेल रोज़ाना करते हैं । अच्छा ये बताओं तुमने कितने का सेल किया।

"93300 डॉलर" भारतीय डॉक्टर बोला ।

बॉस चौंक कर बोला : क्या ? 93,300 डॉलर !
लेकिन तुमने यह कैसे किया ? आश्चर्यचकित बॉस ने पूछा ।

भारतीय डॉक्टर ने कहा : एक व्यक्ति आया और मैंने उसे एक छोटा मछली पकड़ने का हुक बेचा ।
फिर एक मझोला और फिर अंततः एक बड़ा हुक बेचा । फिर उसे मैंने 1 बड़ी फिशिंग रॉड और कुछ फिशिंग गियर बेचे।

फिर मैंने उससे पूछा कि तुम कहा मछली पकड़ोगे और उसने कहा कि वह कोस्टल एरिया में पकड़ेगा ।
तब मैंने कहा कि इसके लिए 1 नाव की ज़रूरत पड़ेगी । अतः मैं उसे नीचे बोट डिपार्टमेंट में ले गया और उसे 20 फीट की डबल इंजन वाली स्कूनर बोट बेच दी । जब उसने कहा कि यह बोट उसकी वोल्कस वेगन में नहीं आएगीब।
तब मैं उसे अपने ऑटो मोबाइल सेक्शन में ले गया और उसे बोट केरी करने के लिए नई डीलक्स 4 × 4 ब्लेज़र बेची । और जब मैंने उसे पूछा कि तुम मछली पकड़ते वक़्त कहाँ रहोगे ? उसने कुछ प्लान नहीं किया था । तो मैं उसे कैम्पिंग सेक्शन में ले गया और उसे six sleeper camper tent बेच दिया ।
और तब उसने कहा कि उसने जब इतना सब कुछ ले ही लिया है तो 200 पाउण्ड की ग्रासरी और बियर के 2 केस भी लेगा ।

अब बॉस 2 कदम पीछे हटा और बेहद ही भौचक्के अंदाज़ में पूछने लगा : तुमने इतना सब उस आदमी को बेच दिया जो केवल 1 Fish Hook खरीदने आया था ?

"NO, SIR," वह तो केवल सरदर्द दूर करने की 1 टेबलेट लेने आया था । मैंने उसे समझाया कि मछली पकड़ना सरदर्द दूर करने का सबसे अच्छा उपाय है ।

बॉस : तुमने इसके पहले भारत में कहाँ काम किया था ?

भारतीय डॉक्टर : जी मैं प्राइवेट हॉस्पिटल में डॉक्टर था ।  घबराहट की मामूली शिकायत पर हम लोग, मरीजों से पैथोलॉजी, ईको, ईसीजी, टीएमटी,सी टी स्केन,एक्सरे, एम आर आई इत्यादि टेस्ट करवाते हैं।

बॉस : तुम मेरी कुर्सी पर बैठो।  मैं इंडिया में ट्रेनिंग के लिये प्राइवेट हॉस्पिटल ज्वाईन करने जा रहा हूँ ।  वास्तव में यह असली कहानी है यह एक मजाक नहीं है आजकल ऐसा ही हो रहा है आपके आसपास के लोग कुछ ऐसा ही कर रहे हैं

गुरु और श्रद्धा

गुरु के प्रति अगर श्रद्धा नहीं हो तो मनुष्य का जीवन व्यर्थ हो जाता है उसकी की गई सारी साधनाएं तपस्या और पूजा सभी कुछ व्यर्थ हो जाता है क्योंकि मुक्ति का मार्ग केवल गुरु ही दिख जा सकता है अगर गुरु नहीं है तो आपके अंदर कुछ कोई भी विकास संभव हो ही नहीं सकता मानव का सबसे बड़ा अस्तित्व अगर कोई बनाए रखता है तो वह गुरु ही है जो स्वयं ब्रह्म होते हैं आपके समक्ष आपके जैसा बनकर आपके सामने प्रस्तुत होता है आपकी ही तरह वह हंसता है आपकी तरह ही रोता है आपकी तरह ही मजाक करता है और आपकी तरह ही रहन-सहन जीवन यापन करता है सुख दुख का भी उपयोग करता है पर मनुष्य यहीं पर भूल कर जाता है की गुरु तो जो हैं और उनकी माया में फंस जाता है मनुष्य को ही जो भ्रम पैदा होता है इसी कारण होता है कि उसकी जो कर्म dos हैं वही उसके पैरों में बेड़िया बन जाति है जो गुरु के पास पहुंचने पर रोक देती है और वह असहाय होकर दुखों का भोग करता है गुरु तो हमेशा ही आवाज देते रहते हैं शिष्य को साधक को कि आप आइए मेरे साथ चलिए पर शिष्य और साधक अपनी ही कर्म दोषों से से बने हुए वही पर पड़े रहते हैं गुरु हमेशा ही आपकी उस बंधन को खोलने का प्रयास करते हैं बार-बार आपको उस यंत्र को काटने का मार्ग बताते हैं और आपको कभी-कभी खुद भी आपके सामने प्रकट होकर उस बंधनों को काटने का प्रयास करते हैं पर जैसे ही वह बंधनकटता है मनुष्य के अंदर फिर से भ्रम और माया का आवरण उस को रोक देती है और वह फिरसे गुरु को मानव समझने की भूल कर जाता है क्योंकि जी परीक्षा साधक को देनी ही पड़ती है और बार-बार देनी पड़ती है क्योंकि बिना परीक्षा के आपको उच्च कक्षा में प्रवेश पाने की अनुमति को भी कैसे सकती है परीक्षाएं गुरु ना दे तो आपके जीवन में कैसे पता चले कि आप योग्य हुए या नहीं आप योग्यता के अनुसार ही आपको मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया जाता है आपको यह लगता होगा कि सामान्य बातें हैं पर सामान्य बातें कैसे हो सकती है आप गुरु को अपनी आंखों से देख नहीं सकते हैं क्योंकि इन आंखों की क्षमता बहुत ही कम है कि केवल अपनी ही बारे में कम दृष्टि रखती है तो दूसरों के प्रति तो बिल्कुल भी दृष्टिहीन हो जाती आपको पता होगा यह जो बातें आपको बताई जाती हैं यह सब आपको पता है सब आप जानते भी हैं सुना भी है पर आप फिर भी गलती कर ही जाती है और जब आप जानबूझकर गलती करते हैं तो यही हमारे कर्म   dos  बन जाते है।

ये मिट्टी शूरवीरों की है|

वियतनाम विश्व का एक छोटा सा देश है जिसने अमेरिका जैसे बड़े बलशाली देश को झुका दिया।

लगभग बीस वर्षों तक चले युद्ध में अमेरिका पराजित हुआ था। अमेरिका पर विजय के बाद वियतनाम के राष्ट्राध्यक्ष से एक पत्रकार ने एक सवाल पूछा...

जाहिर सी बात है कि सवाल यही होगा कि आप युद्ध कैसे जीते या अमेरिका को कैसे झुका दिया?

पर उस प्रश्न का दिए गए उत्तर को सुनकर आप हैरान रह जायेंगे और आपका सीना भी गर्व से भर जायेगा।

दिया गया उत्तर पढ़िये-

सभी देशों में सबसे शक्ति शाली देश अमेरिका को हराने के लिए मैंने एक महान व् श्रेष्ठ भारतीय राजा का चरित्र पढ़ा और उस जीवनी से मिली प्रेरणा व युद्धनीति का प्रयोग कर हमने सरलता से विजय प्राप्त की।

आगे पत्रकार ने पूछा: "कौन थे वो महान राजा ?"

मित्रों, जब मैंने पढ़ा तब से जैसे मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो गया। आपका भी सीना गर्व से भर जायेगा।

वियतनाम के राष्ट्राध्यक्ष ने खड़े होकर जवाब दिया: "वो थे भारत के राजस्थान में मेवाड़ के महाराजा महाराणा प्रताप सिंह।"

महाराणा प्रताप का नाम लेते समय उनकी आँखों में एक वीरता भरी चमक थी। आगे उन्होंने कहा:

"अगर ऐसे राजा ने हमारे देश में जन्म लिया होता तो हमने सारे विश्व पर राज किया होता।"

कुछ वर्षों के बाद उस राष्ट्राध्यक्ष की मृत्यु हुई तो जानिए उसने अपनी समाधि पर क्या लिखवाया...

"यह महाराणा प्रताप के एक शिष्य की समाधि है"

कालांतर में वियतनाम के विदेशमंत्री भारत के दौरे पर आए थे। पूर्व नियोजित कार्य क्रमानुसार उन्हें पहले लाल किला व बाद में गांधीजी की समाधि दिखलाई गई।

ये सब दिखलाते हुए उन्होंने पूछा: "मेवाड़ के महाराजा महाराणा प्रताप की समाधि कहाँ है ?"

तब भारत सरकार के अधिकारी चकित रह गए और उन्होंने वहाँ उदयपुर का उल्लेख किया। वियतनाम के विदेशमंत्री उदयपुर गये, वहाँ उन्होंने महाराणा प्रताप की समाधि के दर्शन किये।

समाधी के दर्शन करने के बाद उन्होंने समाधि के पास की मिट्टी उठाई और उसे अपने बैग में भर लिया इस पर पत्रकार ने मिट्टी रखने का कारण पूछा।

उन विदेशमंत्री महोदय ने कहा:

"ये मिट्टी शूरवीरों की है। इस मिट्टी में एक महान् राजा ने जन्म लिया ये मिट्टी मैं अपने देश की मिट्टी में मिला दूंगा..."

"ताकि मेरे देश में भी ऐसे ही वीर पैदा हो। मेरा यह राजा केवल भारत का गर्व न होकर सम्पूर्ण विश्व का गर्व होना चाहिए।"

(सिर्फ अपेक्षा की जाती है कि यह पोस्ट आप अभिमान के साथ सभी मित्रों के साथ शेयर करेंगे।)
🙏🏻  🙏🏻

माँ कामाख्या अम्बूवाची पर्व विशेष

Gurudev  Dr. Narayanan dutt shrimali ji
(Nikhil)

•साधक और जिज्ञासु भक्त अवश्य पढ़ें•
#कामाख्या मंदिर असम की राजधानी दिसपुर के पास गुवाहाटी से 8 किलोमीटर दूर कामाख्या मे है। कामाख्या से भी 10 किलोमीटर दूर नीलाचल पव॑त पर स्थित हॅ। यह मंदिर शक्ति की देवी सती का मंदिर है। यह मंदिर एक पहाड़ी पर बना है व इसका महत् तांत्रिक महत्व है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहे जाने वाले असम राज्य की राजधानी दिसपुर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमालाओं पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) स्थित है।

#अम्बुवाची पर्व●
विश्व के सभी तांत्रिकों, मांत्रिकों एवं सिद्ध-पुरुषों के लिये वर्ष में एक बार पड़ने वाला अम्बूवाची योग पर्व वस्तुत एक वरदान है। यह अम्बूवाची पर्वत भगवती (सती) का रजस्वला पर्व होता है। पौराणिक शास्त्रों के अनुसार सतयुग में यह पर्व 16 वर्ष में एक बार, द्वापर में 12 वर्ष में एक बार, त्रेता युग में 7 वर्ष में एक बार तथा कलिकाल में प्रत्येक वर्ष जून माह में तिथि के अनुसार मनाया जाता है। इस बार अम्बूवाची योग पर्व जून की 22 से 26 जून तक मनाया जाएगा।

#पौराणिक महात्म्य●

पौराणिक सत्य है कि अम्बूवाची पर्व के दौरान माँ भगवती रजस्वला होती हैं और मां भगवती की गर्भ गृह स्थित महामुद्रा (योनि-तीर्थ) से निरंतर तीन दिनों तक जल-प्रवाह के स्थान से रक्त प्रवाहित होता है। यह अपने आप में, इस कलिकाल में एक अद्भुत आश्चर्य का विलक्षण नजारा है। कामाख्या तंत्र के अनुसार -

योनि मात्र शरीराय कुंजवासिनि कामदा। रजोस्वला महातेजा कामाक्षी ध्येताम सदा।।

अम्बूवाची योग पर्व के दौरान मां भगवती के गर्भगृह के कपाट स्वत ही बंद हो जाते हैं और उनका दर्शन भी निषेध हो जाता है। इस पर्व की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूरे विश्व से इस पर्व में तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना हेतु सभी प्रकार की सिद्धियाँ एवं मंत्रों के पुरश्चरण हेतु उच्च कोटियों के तांत्रिकों-मांत्रिकों, अघोरियों का बड़ा जमघट लगा रहता है। तीन दिनों के उपरांत मां भगवती की रजस्वला समाप्ति पर उनकी विशेष पूजा एवं साधना की जाती है।

कामाख्या के बारे में किंवदंती है कि घमंड में चूर असुरराज नरकासुर एक दिन मां भगवती कामाख्या को अपनी पत्नी के रूप में पाने का दुराग्रह कर बैठा था। कामाख्या महामाया ने नरकासुर की मृत्यु को निकट मानकर उससे कहा कि यदि तुम इसी रात में नील पर्वत पर चारों तरफ पत्थरों के चार सोपान पथों का निर्माण कर दो एवं कामाख्या मंदिर के साथ एक विश्राम-गृह बनवा दो, तो मैं तुम्हारी इच्छानुसार पत्नी बन जाऊँगी और यदि तुम ऐसा न कर पाये तो तुम्हारी मौत निश्चित है। गर्व में चूर असुर ने पथों के चारों सोपान प्रभात होने से पूर्व पूर्ण कर दिये और विश्राम कक्ष का निर्माण कर ही रहा था कि महामाया के एक मायावी कुक्कुट (मुर्गे) द्वारा रात्रि समाप्ति की सूचना दी गयी, जिससे नरकासुर ने क्रोधित होकर मुर्गे का पीछा किया और ब्रह्मपुत्र के दूसरे छोर पर जाकर उसका वध कर डाला। यह स्थान आज भी `कुक्टाचकि' के नाम से विख्यात है। बाद में मां भगवती की माया से भगवान विष्णु ने नरकासुर असुर का वध कर दिया। नरकासुर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र भगदत्त कामरूप का राजा बना। भगदत्त का वंश लुप्त हो जाने से कामरूप राज्य छोटे-छोटे भागों में बंट गया और सामंत राजा कामरूप पर अपना शासन करने लगा।

नरकासुर के नीच कार्यों के बाद एवं विशिष्ट मुनि के अभिशाप से देवी अप्रकट हो गयी थीं और कामदेव द्वारा प्रतिष्ठित कामाख्या मंदिर ध्वंसप्राय हो गया था।
यह भी पढ़े

आद्य-शक्ति महाभैरवी कामाख्या के दर्शन से पूर्व महाभैरव उमानंद, जो कि गुवाहाटी शहर के निकट ब्रह्मपुत्र नदी के मध्य भाग में टापू के ऊपर स्थित है, का दर्शन करना आवश्यक है। यह एक प्राकृतिक शैलदीप है, जो तंत्र का सर्वोच्च सिद्ध सती का शक्तिपीठ है। इस टापू को मध्यांचल पर्वत के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यहीं पर समाधिस्थ सदाशिव को कामदेव ने कामबाण मारकर आहत किया था और समाधि से जाग्रत होने पर सदाशिव ने उसे भस्म कर दिया था। भगवती के महातीर्थ (योनिमुद्रा) नीलांचल पर्वत पर ही कामदेव को पुन जीवनदान मिला था। इसीलिए यह क्षेत्र कामरूप के नाम से भी जाना जाता है।

#सर्वोच्च कौमारी तीर्थ●

सती स्वरूपिणी आद्यशक्ति महाभैरवी कामाख्या तीर्थ विश्व का सर्वोच्च कौमारी तीर्थ भी माना जाता है। इसीलिए इस शक्तिपीठ में कौमारी-पूजा अनुष्ठान का भी अत्यन्त महत्व है। यद्यपि आद्य-शक्ति की प्रतीक सभी कुल व वर्ण की कौमारियाँ होती हैं। किसी जाति का भेद नहीं होता है। इस क्षेत्र में आद्य-शक्ति कामाख्या कौमारी रूप में सदा विराजमान हैं। इस क्षेत्र में सभी वर्ण व जातियों की कौमारियां वंदनीय हैं, पूजनीय हैं। वर्ण-जाति का भेद करने पर साधक की सिद्धियां नष्ट हो जाती हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि ऐसा करने पर इंद्र तुल्य शक्तिशाली देव को भी अपने पद से वंछित होना पड़ा था। जिस प्रकार उत्तर भारत में कुंभ महापर्व का महत्व माना जाता है, ठीक उसी प्रकार उससे भी श्रेष्ठ इस आद्यशक्ति के अम्बूवाची पर्व का महत्व है। इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की दिव्य आलौकिक शक्तियों का अर्जन तंत्र-मंत्र में पारंगत साधक अपनी-अपनी मंत्र-शक्तियों को पुरश्चरण अनुष्ठान कर स्थिर रखते हैं। इस पर्व में मां भगवती के रजस्वला होने से पूर्व गर्भगृह स्थित महामुद्रा पर सफेद वस्त्र चढ़ाये जाते हैं, जो कि रक्तवर्ण हो जाते हैं। मंदिर के पुजारियों द्वारा ये वस्त्र प्रसाद के रूप में श्रद्धालु भक्तों में विशेष रूप से वितरित किये जाते हैं। इस पर्व पर भारत ही नहीं बल्कि बंगलादेश, तिब्बत और अफ्रीका जैसे देशों के तंत्र साधक यहां आकर अपनी साधना के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त करते हैं। वाममार्ग साधना का तो यह सर्वोच्च पीठ स्थल है। मछन्दरनाथ, गोरखनाथ, लोनाचमारी, ईस्माइलजोगी इत्यादि तंत्र साधक भी सांवर तंत्र में अपना यहीं स्थान बनाकर अमर हो गये हैं।

#कामाख्या देवी साधना ●

शक्ति के उपासकों के लिए ‘कामाख्या-मन्त्र’ की साधना अत्यन्त आवश्यक है। यह ‘कामाख्या-मन्त्र’ कल्प-वृक्ष के समान है। सभी साधकों को एक, दो या चार बार इसका साधना एक वर्ष मे अवश्य करना चाहिए। इस मन्त्र की साधना में चक्रादि-शोधन या कलादि-शोधन की आवश्यकता नहीं है। इसकी साधना से सभी विघ्न दूर होते हैं और शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त होती है।
इस पोस्ट के माध्यम से हम सरलतम साधना विधि बता रहे है आशा है आप लोग इसका उपयोग कर प्रारब्ध भोग काटकर उन्नति के मार्ग में सफल होंगे।

इस साधना में शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि की अतिआवश्यकता होती है इसलिये प्रातःकाल अथवा रात्रि काल मे स्नान आदि से निवृत होकर पश्चिम अथवा उत्तर दिशा में मुख्य कर लाल ऊनि आसन बिछाकर बैठे साधना पर बैठने से पहले यह सुनिश्चित कर ले बीच मे किसी भी प्रकार का विक्षेप ना हो इसके लिय सभी आवश्यक कार्य पहले ही पूर्ण कर ले हो सके तो साधना स्थल (कमरे) को अंदर से बंद कर के रखें।
आसान पर स्थान ग्रहण करने के बाद शरीर एवं आसन पवित्रीकरण के बाद अपने सामने एक चौकी पर लाल कपड़ा बिछा कर उसपर किसी भी देवी की प्रतिमा अथवा चित्र केवल प्रतीकात्मक रूप में रखे चित्र ना भी हो तब केवल घी के दीपक से ही काम चल सकता है। दीपक जलाने के बाद नीचे दिए गए मंत्र क्रिया अनुसार साधना आरम्भ करें।

।। विनियोग ।।
ॐ अस्य कामाख्या-मन्त्रस्य श्री अक्षोभ्य ऋषि:, अनुष्टुप् छन्द: , श्री कामाख्या देवता, सर्व- सिद्धि-प्राप्त्यर्थे जपे विनियोग:।

।। ऋष्यादि-न्यास ।।
श्रीअक्षोभ्य-ऋषये नम: शिरसि,
अनुष्टुप्-छन्दसे नम: मुखे,
श्रीकामाख्या-देवतायै नम: हृदि,
सर्व- सिद्धि-प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगाय नम: सर्वाङ्गे।

।। कर-न्यास ।।

त्रां अंगुष्ठाभ्यां नम:,
त्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा,
त्रूं मध्यमाभ्यां वषट्,
त्रैं अनामिकाभ्यां हुम्,
त्रीं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्,
त्र: करतल-कर-पृष्ठाभ्यां फट्।

।। अङ्ग-न्यास ।।

त्रां हृदयाय नम:,
त्रीं शिरसे स्वाहा,
त्रूं शिखायै वषट्,
त्रैं कवचाय हुम्,
त्रौं नेत्र-त्रयाय वौषट्,
त्र: अस्त्राय फट्।

#कामाख्या देवी का ध्यान●

उक्त प्रकार न्यासादि करने के बाद भगवती कामाख्या का निम्न प्रकार से ध्यान करना चाहिए-

भगवती कामाख्या लाल वस्त्र-धारिणी, द्वि-भूजा, सिन्दूर-तिलक लगाए हैं।भगवती कामाख्या निर्मल चन्द्र के समान उज्ज्वल एवं कमल के समान सुन्दर मुखवाली हैं।भगवती कामाख्या स्वर्णादि के बने मणि-माणिक्य से जटित आभूषणों से शोभित हैं। भगवती कामाख्या विविध रत्नों से शोभित सिंहासन पर बैठी हुई हैं। भगवती कामाख्या मन्द-मन्द मुस्करा रही हैं। भगवती कामाख्या उन्नत पयोधरोंवाली हैं। कृष्ण-वर्णा भगवती कामाख्या के बड़े-बड़े नेत्र हैं। भगवती कामाख्या विद्याओं द्वारा घिरी हुई हैं। डाकिनी-योगिनी द्वारा शोभायमान हैं। सुन्दर स्त्रियों से विभूषित हैं। विविध सुगन्धों से सु-वासित हैं। हाथों में ताम्बूल लिए नायिकाओं द्वारा सु-शोभिता हैं।भगवती कामाख्या समस्त सिंह-समूहों द्वारा वन्दिता हैं। भगवती कामाख्या त्रि-नेत्रा हैं। भगवती के अमृत-मय वचनों को सुनने के लिए उत्सुका सरस्वती और लक्ष्मी से युक्ता देवी कामाख्या समस्त गुणों से सम्पन्ना, असीम दया-मयी एवं मङ्गल- रूपिणी हैं।
उक्त प्रकार से ध्यान कर कामाख्या देवी की पूजा कर कामाख्या मन्त्र का ‘जप’ करना चाहिए।’जप’ के बाद निम्न प्रकार से ‘प्रार्थना’ करनी चाहिए।

  #प्रार्थना●

कामाख्ये काम-सम्पन्ने, कामेश्वरि! हर-प्रिये!
कामनां देहि मे नित्यं, कामेश्वरि! नमोऽस्तु ते।।
कामदे काम-रूपस्थे, सुभगे सुर-सेविते!
करोमि दर्शनं देव्या:, सर्व-कामार्थ-सिद्धये।।
अर्थात् हे कामाख्या देवि! कामना पूर्ण करनेवाली,कामना की अधिष्ठात्री, शिव की प्रिये! मुझे सदा शुभ कामनाएँ दो और मेरी कामनाओं को सिद्ध करो। हे कामना देनेवाली, कामना के रूप में ही स्थित रहनेवाली, सुन्दरी और देव-गणों से सेविता देवि! सभी कामनाओं की सिद्धि के लिए मैं आपके दर्शन करता हूँ।

कामाख्या देवी का 22 अक्षर का मन्त्र ‘कामाख्या तन्त्र’ के चतुर्थ पटल में कामाख्या देवी का 22 अक्षर का मन्त्र उल्लिखित है निम्न मंत्र की 41 दिन कम से कम 31 या 41 माला प्रतिदिन करने से माता की कृपा प्राप्त कर मनुष्य अपने अभीष्ट कार्यो को पूर्ति कर सकता है।

#मंत्र●
   ll त्रीं त्रीं त्रीं हूँ हूँ स्त्रीं स्त्रीं कामाख्ये प्रसीद स्त्रीं स्त्रीं हूँ हूँ त्रीं त्रीं त्रीं स्वाहा ll

उक्त मन्त्र महा-पापों को नष्ट करनेवाला, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष देनेवाला है। इसके ‘जप’ से साधक साक्षात् देवी-स्वरूप बन जाता है। इस मन्त्र का स्मरण करते ही सभी विघ्न नष्ट हो जाते हैं।इस मन्त्र के ऋष्यादि ‘त्र्यक्षर मन्त्र’ (त्रीं त्रीं त्रीं) के समान हैं।’ध्यान’ इस प्रकार किया जाता हैमैं योनि-रूपा भवानी का ध्यान करता हूँ, जो कलि-काल के पापों का नाश करती हैं और समस्त भोग-विलास के उल्लास से पूर्ण करती हैं।मैं अत्यन्त सुन्दर केशवाली, हँस-मुखी, त्रि-नेत्रा, सुन्दर कान्तिवाली, रेशमी वस्त्रों से प्रकाशमाना, अभय और वर-मुद्राओंसे युक्त, रत्न-जटित आभूषणों से भव्य, देव-वृक्ष केनीचे पीठ पर रत्न-जटित सिंहासन पर विराजमाना, ब्रह्मा-विष्णु-महेश द्वारा वन्दिता, बुद्धि-वृद्धि-स्वरूपा, काम-देव के मनो-मोहक बाण के समान अत्यन्तकमनीया, सभी कामनाओं को पूर्णकरनेवाली भवानी का भजन करता हूँ।

#नोट ●
माँ कामख्या तंत्र शास्त्र की आराध्या है इनका सकाम अनुष्ठान करने से पहले गुरुआज्ञा अतिआवश्यक है।

ॐ महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धिमही तन्नो देवी प्रचोदयात् ।।

#माँ कामाख्या स्तोत्र●
आज हर व्यक्ति उन्नति, यश, वैभव, कीर्ति, धन-संपदा चाहता है वह भी बिना बाधाओं के। मां कामाख्या देवी का कवच पाठ करने से सभी बाधाओं से मुक्ति मिल जाती है। आप भी कवच का नित्य पाठ कर अपनी मनोवांछित अभिलाषा पूरी कर सकते हैं।

#नारद उवाच ●

कवच कीदृशं देव्या महाभयनिवर्तकम। कामाख्यायास्तु तद्ब्रूहि साम्प्रतं मे महेश्वर।।

नारद जी बोले-महेश्वर!महाभय को दूर करने वाला भगवती कामाख्या कवच कैसा है, वह अब हमें बताएं।

#महादेव उवाच●

शृणुष्व परमं गुहयं महाभयनिवर्तकम्।कामाख्याया: सुरश्रेष्ठ कवचं सर्व मंगलम्।।
यस्य स्मरणमात्रेण योगिनी डाकिनीगणा:।
राक्षस्यो विघ्नकारिण्यो याश्चान्या विघ्नकारिका:।।क्षुत्पिपासा तथा निद्रा तथान्ये ये च विघ्नदा:।दूरादपि पलायन्ते कवचस्य प्रसादत:।।
निर्भयो जायते मत्र्यस्तेजस्वी भैरवोयम:।समासक्तमनाश्चापि जपहोमादिकर्मसु।
भवेच्च मन्त्रतन्त्राणां निर्वघ्नेन सुसिद्घये।।

महादेव जी बोले-सुरश्रेष्ठ! भगवती कामाख्या का परम गोपनीय महाभय को दूर करने वाला तथा सर्वमंगलदायक वह कवच सुनिये, जिसकी कृपा तथा स्मरण मात्र से सभी योगिनी, डाकिनीगण, विघ्नकारी राक्षसियां तथा बाधा उत्पन्न करने वाले अन्य उपद्रव, भूख, प्यास, निद्रा तथा उत्पन्न विघ्नदायक दूर से ही पलायन कर जाते हैं। इस कवच के प्रभाव से मनुष्य भय रहित, तेजस्वी तथा भैरवतुल्य हो जाता है। जप, होम आदि कर्मों में समासक्त मन वाले भक्त की मंत्र-तंत्रों में सिद्घि निर्विघ्न हो जाती है।।

मां कामाख्या देवी कवच
ओं प्राच्यां रक्षतु मे तारा कामरूपनिवासिनी।आग्नेय्यां षोडशी पातु याम्यां धूमावती स्वयम्।।नैर्ऋत्यां भैरवी पातु वारुण्यां भुवनेश्वरी।
वायव्यां सततं पातु छिन्नमस्ता महेश्वरी।।
कौबेर्यां पातु मे देवी श्रीविद्या बगलामुखी।
ऐशान्यां पातु मे नित्यं महात्रिपुरसुन्दरी।।
ऊध्र्वरक्षतु मे विद्या मातंगी पीठवासिनी।सर्वत: पातु मे नित्यं कामाख्या कलिकास्वयम्।।
ब्रह्मरूपा महाविद्या सर्वविद्यामयी स्वयम्।
शीर्षे रक्षतु मे दुर्गा भालं श्री भवगेहिनी।।
त्रिपुरा भ्रूयुगे पातु शर्वाणी पातु नासिकाम।
चक्षुषी चण्डिका पातु श्रोत्रे नीलसरस्वती।।
मुखं सौम्यमुखी पातु ग्रीवां रक्षतु पार्वती।
जिव्हां रक्षतु मे देवी जिव्हाललनभीषणा।।
वाग्देवी वदनं पातु वक्ष: पातु महेश्वरी।
बाहू महाभुजा पातु कराङ्गुली: सुरेश्वरी।।
पृष्ठत: पातु भीमास्या कट्यां देवी दिगम्बरी।
उदरं पातु मे नित्यं महाविद्या महोदरी।।
उग्रतारा महादेवी जङ्घोरू परिरक्षतु।
गुदं मुष्कं च मेदं च नाभिं च सुरसुंदरी।।
पादाङ्गुली: सदा पातु भवानी त्रिदशेश्वरी।रक्तमासास्थिमज्जादीनपातु देवी शवासना।।
महाभयेषु घोरेषु महाभयनिवारिणी।
पातु देवी महामाया कामाख्यापीठवासिनी।।
भस्माचलगता दिव्यसिंहासनकृताश्रया।
पातु श्री कालिकादेवी सर्वोत्पातेषु सर्वदा।।
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं कवचेनापि वर्जितम्।
तत्सर्वं सर्वदा पातु सर्वरक्षण कारिणी।।
इदं तु परमं गुह्यं कवचं मुनिसत्तम।
कामाख्या भयोक्तं ते सर्वरक्षाकरं परम्।।
अनेन कृत्वा रक्षां तु निर्भय: साधको भवेत।
न तं स्पृशेदभयं घोरं मन्त्रसिद्घि विरोधकम्।।
जायते च मन: सिद्घिर्निर्विघ्नेन महामते।
इदं यो धारयेत्कण्ठे बाहौ वा कवचं महत्।।
अव्याहताज्ञ: स भवेत्सर्वविद्याविशारद:।
सर्वत्र लभते सौख्यं मंगलं तु दिनेदिने।।
य: पठेत्प्रयतो भूत्वा कवचं चेदमद्भुतम्।
स देव्या: पदवीं याति सत्यं सत्यं न संशय:।।

#हिन्दी में अर्थ●

कामरूप में निवास करने वाली भगवती तारा पूर्व दिशा में, पोडशी देवी अग्निकोण में तथा स्वयं धूमावती दक्षिण दिशा में रक्षा करें।। 1।।

नैऋत्यकोण में भैरवी, पश्चिम दिशा में भुवनेश्वरी और वायव्यकोण में भगवती महेश्वरी छिन्नमस्ता निरंतर मेरी रक्षा करें।। 2।।

उत्तरदिशा में श्रीविद्यादेवी बगलामुखी तथा ईशानकोण में महात्रिपुर सुंदरी सदा मेरी रक्षा करें।। 3।।

भगवती कामाख्या के शक्तिपीठ में निवास करने वाली मातंगी विद्या ऊध्र्वभाग में और भगवती कालिका कामाख्या स्वयं सर्वत्र मेरी नित्य रक्षा करें।। 4।।

ब्रह्मरूपा महाविद्या सर्व विद्यामयी स्वयं दुर्गा सिर की रक्षा करें और भगवती श्री भवगेहिनी मेरे ललाट की रक्षा करें।। 5।।

त्रिपुरा दोनों भौंहों की, शर्वाणी नासिका की, देवी चंडिका आँखों की तथा नीलसरस्वती दोनों कानों की रक्षा करें।। 6।।

भगवती सौम्यमुखी मुख की, देवी पार्वती ग्रीवा की और जिव्हाललन भीषणा देवी मेरी जिव्हा की रक्षा करें।। 7।।

वाग्देवी वदन की, भगवती महेश्वरी वक्ष: स्थल की, महाभुजा दोनों बाहु की तथा सुरेश्वरी हाथ की, अंगुलियों की रक्षा करें।। 8।।

भीमास्या पृष्ठ भाग की, भगवती दिगम्बरी कटि प्रदेश की और महाविद्या महोदरी सर्वदा मेरे उदर की रक्षा करें।।9।।

महादेवी उग्रतारा जंघा और ऊरुओं की एवं सुरसुन्दरी गुदा, अण्डकोश, लिंग तथा नाभि की रक्षा करें।।10।।

भवानी त्रिदशेश्वरी सदा पैर की, अंगुलियों की रक्षा करें और देवी शवासना रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा आदि की रक्षा करें।।11।।

भगवती कामाख्या शक्तिपीठ में निवास करने वाली, महाभय का निवारण करने वाली देवी महामाया भयंकर महाभय से रक्षा करें। भस्माचल पर स्थित दिव्य सिंहासन विराजमान रहने वाली श्री कालिका देवी सदा सभी प्रकार के विघ्नों से रक्षा करें।।12।।

जो स्थान कवच में नहीं कहा गया है, अतएव रक्षा से रहित है उन सबकी रक्षा सर्वदा भगवती सर्वरक्षकारिणी करे।। 13।।

मुनिश्रेष्ठ! मेरे द्वारा आप से महामाया सभी प्रकार की रक्षा करने वाला भगवती कामाख्या का जो यह उत्तम कवच है वह अत्यन्त गोपनीय एवं श्रेष्ठ है।।14।।

इस कवच से रहित होकर साधक निर्भय हो जाता है। मन्त्र सिद्घि का विरोध करने वाले भयंकर भय उसका कभी स्पर्श तक नहीं करते हैं।। 15।।

महामते! जो व्यक्ति इस महान कवच को कंठ में अथवा बाहु में धारण करता है उसे निर्विघ्न मनोवांछित फल मिलता है।। 16।।

वह अमोघ आज्ञावाला होकर सभी विद्याओं में प्रवीण हो जाता है तथा सभी जगह दिनोंदिन मंगल और सुख प्राप्त करता है। जो जितेन्द्रिय व्यक्ति इस अद्भुत कवच का पाठ करता है वह भगवती के दिव्य धाम को जाता है। यह सत्य है, इसमें संशय नहीं है।। 17।।
!!जय सद्गुरुदेव, जय महाँकाल!!

Gurudev Nikhil





यह पत्र सदगुरुदेव जी ने सिद्धाश्रम जाने से पहले लिखा था
.....
जब जब इसको पड़ता हु रोना अता है।....आप भी
एक एक शब्द पढ़े इसे  ..
गुरु पूर्णिमा, वि॰ संवत् 2056,
मेरे परम आतमीय पुत्रों,
तुम क्यों निराश हो जाते हो, मुझे ना पाकर अपने
बीच ? मगर मैं तो तुम्हारे बिलकुल बीच ही हूँ, क्या
तुमने अपने ह्रदय की आवाज़ को ध्यान से कान
लगाकर नहीं सुना है ?शायद नहीं भी सुन पा रहे
होगे..... और मुझे मालूम था, कि एक दिन यह
स्थिति आएगी, इसीलिए ये पत्र मैंने पहले ही
लिखकर रख दिया था, कि अगली गुरु पूर्णिमा में
शिष्यों के लिए पत्रिका में दिया जा सके... परन्तु
मैं तुमसे दूर हुआ ही कहाँ हूँ ! तुमको लगता है, कि मैं
चला गया हूँ, परन्तु एक बार फिर अपने ह्रदय को
टहोक कर देखो, पूछ कर देखो तो सही एक बार कि
क्या वास्तव में गुरुदेव चले गये हैं ? ऐसा हो ही नहीं
सकता, कि तुम्हारा ह्रदय इस बात को मान ले,
क्यूंकि उस ह्रदय में मैंने प्राण भरे हैं, मैंने उसे सींचा है
खुद अपने रक्त कणों से ! तो फिर उसमें से ऐसी
आवाज़ भला आ भी कैसे सकेगी ?
जिसे तुम अपना समझ रहे हो, वह शरीर तो तुम्हारा
है ही नहीं, और जब तुम तुम हो ही नहीं, तो फिर
तुम्हारा जो ये शरीर है, जो ह्रदय है, तुम्हारी आँखों
में छलछलाते जो अश्रुकण हैं, वो मैं ही नहीं हूँ तो और
कौन है ? तुम्हारे अन्दर ही तो बैठा हुआ हूँ मैं, इस
बात को तुम समझ नहीं पाते हो, और कभी-कभी
समझ भी लेते हो, परन्तु दूसरे व्यक्ति अवश्य ही इस
बात को समझते हैं, अनुभव करते हैं, की कुछ न कुछ
विशेष तुम्हारे अन्दर है तो जरूर.. और वो विशेष मैं ही
तो हूँ, जो तुममें हूँ !
......और फिर अभी तो मेरे काफी कार्य शेष पड़े हैं,
इसीलिए तो अपने खून से सींचा है तुम्हें, सींचकर
अपनी तपस्या को तुममें डालकर तैयार किया है तुम
सबको, उन कार्यों को तुम्हें ही पूर्णता देनी है ! मेरे
कार्यों को मेरे ही तो मानस पुत्र परिणाम दे सकते
हैं, अन्य किसमें वह पात्रता है, अन्य किसी में वह
सामर्थ्य हो भी नहीं सकता, क्यूंकि वह योग्यता
मैंने किसी अन्य को दी भी तो नहीं है ?
उस नित्य लीला विहारिणी को एक कार्य मुझसे
कराना था, इसलिए देह का अवलम्बन लेकर मैं
उपस्थित हुआ तुम्हारे मध्य !...... और वह कारण था -
तुम्हारा निर्माण ! तुमको गढ़ना था और जब मुझे
विश्वास हो गया कि अपने मानस पुत्रों को ऊर्जा
प्रदान कर दी है, चेतना प्रदान कर दी है ! तुम्हें तैयार
कर दिया है, तो मेरे कार्य का वह भाग समाप्त हो
गया, परन्तु अभी तो मेरे अवशिष्ट कार्यों को
पूर्णता नहीं मिल पायी है, वे सब मैंने तुम्हारे मजबूत
कन्धों पर छोड़ दिया है ! ये कौन से कार्य तुम्हें
अभी करने हैं, किस प्रकार से करने हैं, इसके संकेत तुम्हें
मिलते रहेंगे !
तुम्हें तो प्रचण्ड दावानल बनकर समाज में व्याप्त
अविश्वास, अज्ञानता, कुतर्क, पाखण्ड, ढोंग और
मिथ्या अहंकार के खांडव वन को जलाकर राख कर
देना है ! और उन्हीं में से कुछ ज्ञान के पिपासु भी
होंगे, सज्जन भी होंगे, हो सकता है वो कष्टों से
ग्रस्त हों, परन्तु उनमें ह्रदय हो और वो ह्रदय की
भाषा को समझते हों, तो ऐसे लोगों पर प्रेम बनकर
भी तुम बरस जाना ! और गुरुदेव का सन्देश देकर उनको
भी प्रेम का एक मेघ बना देना !
फिर वो दिन दूर नहीं होगा जब इस धरती पर प्रेम के
ही बादल बरसा करेंगे, और उन जल बूंदों से जो पौधे
पनपेंगे, उस हरियाली से भारतवर्ष झूम उठेगा ! फिर
हिमालय का एक छोटा स भू-भाग ही नहीं पूरा
भारत ही सिद्धाश्रम बन जायेगा, और पूरा भारत
ही क्यूं, पूरा विश्व ही सिद्धाश्रम बन सकेगा !
कौन कहता है, ये सब संभव नहीं है ? एक अकेला मेघ
खण्ड नहीं कर सकता ये सब, पूरी धरती को एक
अकेला मेघ खण्ड नहीं सींच सकता अपनी पावन
फुहारों से ..... परन्तु जब तुम सभी मेघ खण्ड बनकर
एक साथ उड़ोगे, तो उस स्थान पर जहाँ प्रचण्ड धूप में
धरती झुलस रही होगी, वहां पर एकदम से मौसम बदल
जायेगा !
“अलफांसो” अव्वल दर्जे के आम होते हैं, उन्हें भारत में
नहीं रखा जाता, उन्हें तो विदेश में भेज दिया
जाता है, नियात कर दिया जाता है, और भारत
विदेशों में इन्हीं आमों से भारत की छवि बनती है !
तुम भी अव्वल दर्जे के मेरे शिष्य हो, तुम्हें भी फैल
जाना है, मेरे प्रतीनिधी बनकर और सुगंध को बिखेर
देना है, सुवासित कर देना है पुरे विश्व को, उस गंध से,
जिसको तुमने एहसास किया है !
गुरु नानक एक गाँव में गए, उस गाँव के लोगों ने उनका
खूब सत्कार किया ! जब वे गाँव से प्रस्थान करने लगे,
तो गाँव के सब लोग उनको विदाई देने के लिए
एकात्र हुए ! वे सब गुरूजी के आगे हाँथ जोड़कर और
शीश झुकाकर खाए हो गए ! नानक ने कहा – “आप
सब बड़े नेक और उपकारी हैं, इसीलिए आपका गाँव
और आप सब उजड़ जायें !”
इस प्रकार आशीर्वा देकर आगे चल दिए और एक दूसरे
गाँव पहुंचे ! दूसरे गाँव के लोगों ने गुरु नानक के साथ
अच्छा व्यवहार नहीं किया ! नानक जी ने वहाँ से
प्रस्थान करते समय वहाँ के लोगों को आशीर्वाद
देते हुए कहा – “तुम्हारा गाँव और तुम सदा बसे
रहो !”
मरदाना जो उनका सेवक था, उसने नानक से पूछा –
“आपने अछे लोगों को बुरा, और बुरे लोगों को
अच्छा आशीर्वाद दिया, ऐसा क्यों ?”
नानक मुस्कुराए और बोले – “तुम इस बात को नहीं
समझे, तो सुनो ! जो लोग बुरे हैं, उन्हें एक ही स्थान
पर बने रहना चाहिए, जिससे वे अपनी बुराई से दूसरों
को हानि नहीं पहुँचा सकें ! परन्तु जो लोग अछे हैं
उन्हें एक जगह नहीं रहना चाहिए ! उन्हें सब जगह फैल
जाना चाहिए जिससे उनके गुण और आदर्श दूसरे लोग
भी सीखकर अपना सकें !
इसीलिए मैं तुम्हें कह रहा हूँ, की तुम्हें किसी एक
जगह ठहरकर नहीं रहना है, तुम्हें तो गतिशील रहना
है, खलखल करती नदी की तरेह, जिससे तुम्हारे जल से
कई और भी कई प्यास बुह सकें, क्यूंकि वह जल
तुम्हारा नहीं है, वह तो मेरा दिया हुआ है ! इसलिए
तुम्हें फैल जाना है पूरे भारत में, पूरे विश्व में......
..... और यूँ ही निकल पड़ना घर से निहत्थे एक दिन
प्रातः को नित्य के कार्यों को एक तरफ रखकर,
हाँथ में दस-बीस पत्रिकाएँ लेकर.... और घर वापिस
तभी लौटना जब उन पत्रिकाओं को किसी सुपात्र
के हाथों पर अर्पित कर तुमने यह समझ लिया हो,
कि वह तुम्हारे सद्गुरुदेव का और उनके इस ज्ञान का
अवश्य सम्मान करेगा !
...... और फिर देख लेना कैसे नहीं सद्गुरुदेव की कृपा
बरसती है ! तुम उसमें इतने अधिक भींग जाओगे, कि
तुम्हें अपनी सुध ही नहीं रहेगी !
एक बार बगावत करके तो देखो, एक बार अपने अन्दर
तूफ़ान लाकर तो देखो ! देखो तो सही एक बार
गुरुदेव का हाँथ बनकर ! फिर तुम्हें खुद कुछ करना भी
नहीं पड़ेगा ! सबकुछ स्वतः ही होता चला जायेगा,
पर पहला कदम तो तुम्हें उठाना ही होगा, एक बार
प्रयास तो करना ही होगा ! निकल के देखो तो
सही घर के बंद दरवाज़ों से बाहर समाज में और फैल
जाओ बुद्ध के श्रमणों की तरेह पूरे भारतवर्ष में और पूरे
विश्व में भी !
फिर देखना कैसे नहीं गुरुदेव का वरद्हस्त तुम्हें अपने
सिर पर अनुभव होता है और छोटी समस्याओं से
घबराना नहीं, डरना नहीं ! समुद्र में अभी इतना जल
नहीं है की वह निखिलेश्वरानंद के शिष्यों को डुबो
सके ! क्योंकि तुम्हारे पीछे हमेशा से ही मैं खड़ा हूँ
और खड़ा रहूँगा भी !
तुम मुझसे न कभी अलग थे और ना ही हो सकते हो !
दीपक की लौ से प्रकाश को अलग नहीं किया जा
सकता और ना ही किया जा सकता है पृथक सूर्य
की किरणों को सूर्य से ही ! तुम तो मेरी किरणें
हो, मेरा प्रकाश हो, मेरा सृजन हो, मेरी कृति हो,
मेरी कल्पना हो, तुमसे भला मैं कैसे अलग हो सकता
हूँ !
‘तुम भी तो....’ (जुलाई-98 के अंक में) मैंने तुम्हें पत्र
दिया था यही तो उसका शीर्षक था, लेकिन अब
‘तुम भी तो’ नहीं, वरण ‘तुम ही तो’ मेरे हाँथ-पाँव
हो, और फिर कौन कहता है, कि मैं शरीर रूप में
उपस्थित नहीं हूँ ! मैं तो अब पहले से भी अधिक
उपस्थित हूँ ! और अभी इसका एहसास शायद नहीं
भी हो, की मेरा तुमसे कितना अटूट सम्बन्ध है,
क्योंकि अभी तो मैंने इस बात का तुम्हें पूरी तरह
एहसास होने भी तो नहीं दिया है !
पर वो दिन भी अवश्य आएगा, जब तुम रोम-रोम में
अपने गुरुदेव को, माताजी को अनुभव कर सकोगे,
शीग्र ही आ सके, इसी प्रयास में हूँ और शीघ्र ही
आयेगा !
मैंने तुम्हें बहुत प्यार से, प्रेम से पाला-पोसा है, कभी
भी निखिलेश्वरानंद कि कठोर कसौटी पर
तुम्हारी परीक्षा नहीं ली है, हर बार नारायणदत्त
श्रीमाली बनकर ही उपस्थित हुआ हूँ, तुम्हारे मध्य !
और परीक्षा नहीं ली, तो इसलिए कि तुम इस प्यार
को भुला न सको, और न ही भुला सको इस परीवार
को जो तुम्हारे ही गुरु भाई-बहनों का है, तुम्हें इसी
परिवार में प्रेम से रहना है !
समय आने पर यह तो मेरा कार्य है, मैं तुम्हें गढ़ता
चला जाऊंगा, और मैंने जो-जो वायदे तुमसे किये हैं,
उन्हें मैं किसी भी पल भूला नहीं हूँ, तुम उन सब
वायदों को अपने ही नेत्रों से अपने सामने साकार
होते हुए देखते रहोगे ! तुम्हारे नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के
अलावा और किसी सिद्धि की चाह बचेगी ही
नहीं, क्योंकि मेरा सब कुछ तो तुम्हारा हो चुका
होगा, क्यूंकि ‘तुम ही तो मेरे हो..’
सदा की ही भांति स्नेहासिक्त आशीर्वाद
नारायणदत्त श्रीमाली

॥ महिषासुरमर्दिनिस्तोत्रम् ॥


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अयि गिरिनंदिनि नंदितमेदिनि विश्वविनोदिनि नंदनुते
गिरिवरविंध्यशिरोधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुंबिनि भूरिकुटुंबिनि भूरिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१॥

सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते।
दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥२॥

अयि जगदंब मदंब कदंबवनप्रियवासिनि हासरते
शिखरिशिरोमणितुंगहिमालयशृंगनिजालयमध्यगते।
मधुमधुरे मधुकैटभगंजिनि कैटभभंजिनि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥३॥

अयि शतखण्डविखण्डितरुण्डवितुण्डितशुण्डगजाधिपते
रिपुगजगण्डविदारणचण्डपराक्रमशुण्ड मृगाधिपते।
निजभुजदण्डनिपातितखण्डनिपातितमण्डभटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥४॥

अयि रणदुर्मदशत्रुवधोदितदुर्धरनिर्जरशक्तिभृते
चतुरविचारधुरीणमहाशिवदूतकृतप्रमथाधिपते।
दुरितदुरीहदुराशयदुर्मतिदानवदूतकृतांतमते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥५॥

अयि शरणागतवैरिवधूवरवीरवराभयदायकरे
त्रिभुवनमस्तकशूलविरोधिशिरोधिकृतामलशूलकरे।
दुमिदुमितामरदुंदुभिनादमहोमुखरीकृततिग्मकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥६॥

अयि निजहुँकृतिमात्रनिराकृतधूम्रविलोचनधूम्रशते
समरविशोषितशोणितबीजसमुद्भवशोणितबीजलते।
शिवशिव शुंभनिशुंभमहाहवतर्पितभूतपिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥७॥

धनुरनुसंगरणक्षणसंगपरिस्फुरदंगनटत्कबके
कनकपिशंगपृषत्कनिषंगरसद्भटशृंगहतावटुके।
कृतचतुरंगबलक्षितिरंगघटद्बहुरंगरटद्बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥८॥

सुरललनाततथेयितथेयितथाभिनयोत्तरनृत्यरते
हासविलासहुलासमयि प्रणतार्तजनेऽमितप्रेमभरे।
धिमिकिटधिक्कटधिकटधिमिध्वनिघोरमृदंगनिनादरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥९॥

जय जय जप्यजये जयशब्दपरस्तुतितत्परविश्वनुते
झणझणझिंजिमिझिंकृतनूपुरसिंजितमोहितभूतपते।
नटितनटार्धनटीनटनायकनाटितनाट्यसुगानरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१०॥

अयि सुमनःसुमनः सुमनः सुमनः सुमनोहरकांतियुते
श्रितरजनीरजनीरजनीरजनीरजनीकरवक्त्रवृते।
सुनयनविभ्रमरभ्रमरभ्रमरभ्रमरभ्रमराधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥११॥

सहितमहाहवमल्लमतल्लिकमल्लितरल्लकमल्लरते
विरचितवल्लिकपल्लिकमल्लिकझिल्लिकभिल्लिकवर्गवृते।
सितकृतफुल्लिसमुल्लसितारुणतल्लजपल्लवसल्ललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१२॥

अविरलगण्डगलन्मदमेदुरमत्तमतंगजराजपते
त्रिभुवनभूषणभूतकलानिधिरूपपयोनिधिराजसुते।
अयि सुदती जनलालसमानसमोहनमन्मथराजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१३॥

कमलदलामलकोमलकांतिकलाकलितामलभाललते
सकलविलासकलानिलयक्रमकेलिचलत्कलहंसकुले।
अलिकुलसंकुलकुवलयमण्डलमौलिमिलद्भकुलालिकुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१४॥

करमुरलीरववीजितकूजितलज्जितकोकिलमंजुमते
मिलितपुलिन्दमनोहरगुंजितरंजितशैलनिकुंजगते।
निजगुणभूतमहाशबरीगणसद्गुणसंभृतकेलितले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१५॥

कटितटपीतदुकूलविचित्रमयूखतिरस्कृतचंद्ररुचे
प्रणतसुरासुरमौलिमणिस्फुरदंशुलसन्नखचंद्ररुचे।
जितकनकाचलमौलिपदोर्जितनिर्झरकुंजरकुंभकुचे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१६॥

विजितसहस्रकरैकसहस्रकरैकसहस्रकरैकनुते
कृतसुरतारकसंगरतारकसंगरतारकसूनुसुते।
सुरथसमाधिसमानसमाधिसमाधिसमाधिसुजातरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१७॥

पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं स शिवे
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत्।
तव पदमेव परंपदमेवमनुशीलयतो मम किं न शिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१८॥

कनकलसत्कलसिन्धुजलैरनुसिंचिनुते गुण रंगभुवं
भजति स किं न शचीकुचकुंभतटीपरिरंभसुखानुभवम्।
तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणिनिवासि शिवं
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१९॥

तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते
किमु पुरुहूतपुरीन्दुमुखीसुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥२०॥

अयि मयि दीनदयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथाऽनुमितासि रते।
यदुचितमत्र भवत्युररीकुरुतादुरुतापमपाकुरुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥२१॥

समर्पण का क्या अर्थ होता है?


यह व्यक्ति मेरा गुरु और इस व्यक्ति के अतिरिक्त मेरा कोई गुरु नहीं। इससे वहां अर्थ बिल्कुल नहीं होता कि दूसरे गुरु नहीं है। दूसरे गुरु हैं, वहीं दूसरे समर्पित लोगों के गुरु होंगे। जब तक तुम किसी के प्रति समर्पित नहीं हो, तब तक वह व्यक्ति तुम्हारे लिए गुरु नहीं है। ख्याल रखना, गुरु कोई ऐसी चीज नहीं है कि किसी के ऊपर छाप लगी है गुरु होने की। गुरु तुम शिष्य और ज्ञानी के सम्बन्ध का नाम है। कृष्ण नारायण किसी के गुरु होंगे। रामण किसी के गुरु होंगे। रामकृष्ण किसी के गुरु होंगे।
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     जो ऐसे करते हैं, कभी इनके पास, कभी उनके पास वे न तो शिष्य है, न समर्पित है और फिर चोरी - छुपे करने की तो कोई जरूरत ही नहीं है। चोरी-छिपे इसलिए करते हैं कि है तो विद्यार्थी, लेकिन दिखलाना चाहते हैं शिष्य हैं, शिष्य होने की जो गरिमा है, वह भी अहंकार छोड़ना नहीं चाहता। यह मानकर मन में कष्ट होता है कि मैं और विद्यार्थी तो चोरी - छुपे करते हैं।
कुछ हर्ज नहीं है। जो करना है सीधे-सीधे करना चाहिये। चोरी-छिपे करने की क्या जरूरत है? चोरी - छुपे तो और उल्टा पाप हुआ। चोरी - छुपे तो यह मतलब हुआ कि तुम मुझसे छुपाते हों, तो मुझसे सारे संबंध टूट गये। मेरे सामने खुलोगे तो संबंध घनिष्ठ होंगे। मुझसे छुपा होगा तो कैसे संबंध गहन होंगे।
                 ( परम पूज्य सद्गुरुदेव कैलाश चंद्र श्रीमालीजी )
                           ( कैलाश सिद्धाश्रम दिल्ली )
अगस्त की पत्रिका पेज नंबर 28,

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