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भादो का घी

 


भाद्रपद मास आते आते घास पक जाती है।

जिसे हम घास कहते हैं, वह वास्तव में अत्यंत दुर्लभ #औषधियाँ हैं।

इनमें धामन जो कि गायों को अति प्रिय होता है, खेतों और मार्गों के किनारे उगा हुआ साफ सुथरा, ताकतवर चारा होता है।

सेवण एक और घास है जो गुच्छों के रूप में होता है। इसी प्रकार गंठिया भी एक ठोस खड़ है। मुरट, भूरट,बेकर, कण्टी, ग्रामणा, मखणी, कूरी, झेर्णीया,सनावड़ी, चिड़की का खेत, हाडे का खेत, लम्प, आदि वनस्पतियां इन दिनों पक कर लहलहाने लगती हैं।

यदि समय पर वर्षा हुई है तो पड़त भूमि पर रोहिणी नक्षत्र की तप्त से संतृप्त उर्वरकों से ये घास ऐसे बढ़ती है मानो कोई विस्फोट हो रहा है।

इनमें विचरण करती गायें, पूंछ हिलाकर चरती रहती हैं। उनके सहारे सहारे सफेद बगुले भी इतराते हुए चलते हैं। यह बड़ा ही स्वर्गिक दृश्य होता है।

इन जड़ी बूटियों पर जब दो शुक्ल पक्ष गुजर जाते हैं तो चंद्रमा का अमृत इनमें समा जाता है। आश्चर्यजनक रूप से इनकी गुणवत्ता बहुत बढ़ जाती है।

कम से कम 2 कोस चलकर, घूमते हुए गायें इन्हें चरकर, शाम को आकर बैठ जाती है।

रात भर जुगाली करती हैं।

अमृत रस को अपने दुग्ध में परिवर्तित करती हैं।

यह दूध भी अत्यंत गुणकारी होता है।

इससे बने दही को जब मथा जाता है तो पीलापन लिए नवनीत निकलता है।

5से 7 दिनों में एकत्र मक्खन को गर्म करके, घी बनाया जाता है।

इसे ही #भादवे_का_घी कहते हैं।

इसमें अतिशय पीलापन होता है। ढक्कन खोलते ही 100 मीटर दूर तक इसकी मादक सुगन्ध हवा में तैरने लगती है।

बस,,,, मरे हुए को जिंदा करने के अतिरिक्त, यह सब कुछ कर सकता है।

ज्यादा है तो खा लो, कम है तो नाक में चुपड़ लो। हाथों में लगा है तो चेहरे पर मल दो। बालों में लगा लो।

दूध में डालकर पी जाओ।

सब्जी या चूरमे के साथ जीम लो।

बुजुर्ग है तो घुटनों और तलुओं पर मालिश कर लो।

इसमें अलग से कुछ भी नहीं मिलाना। सारी औषधियों का सर्वोत्तम सत्व तो आ गया!!

इस घी से हवन, देवपूजन और श्राद्ध करने से अखिल पर्यावरण, देवता और पितर तृप्त हो जाते हैं।

कभी सारे मारवाड़ में इस घी की धाक थी।

इसका सेवन करने वाली विश्नोई महिला 5 वर्ष के उग्र सांड की पिछली टांग पकड़ लेती और वह चूं भी नहीं कर पाता था।

मेरे प्रत्यक्ष की घटना में एक व्यक्ति ने एक रुपये के सिक्के को मात्र उँगुली और अंगूठे से मोड़कर दोहरा कर दिया था!!

आधुनिक विज्ञान तो घी को #वसा के रूप में परिभाषित करता है। उसे भैंस का घी भी वैसा ही नजर आता है। वनस्पति घी, डालडा और चर्बी में भी अंतर नहीं पता उसे।

लेकिन पारखी लोग तो यह तक पता कर देते थे कि यह फलां गाय का घी है!!

यही वह घी था जिसके कारण युवा जोड़े दिन भर कठोर परिश्रम करने के बाद, रात भर रतिक्रीड़ा करने के बावजूद, बिलकुल नहीं थकते थे (वात्स्यायन)!

 एक बकरे को आधा सेर घी पिलाने पर वह एक ही रात में 200 बकरियों को "हरी" कर देता था!!

कुंवारे रात भर कबड्डी खेलते रहते थे!!

इसमें #स्वर्ण की मात्रा इतनी रहती थी, जिससे सर कटने पर भी धड़ लड़ते रहते थे!!


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बाड़मेर जिले के #गूंगा गांव में घी की मंडी थी। वहाँ सारे मरुस्थल का अतिरिक्त घी बिकने आता था जिसके परिवहन का कार्य बाळदिये भाट करते थे। वे अपने करपृष्ठ पर एक बूंद घी लगा कर सूंघ कर उसका परीक्षण कर दिया करते थे।

इसे घड़ों में या घोड़े के चर्म से बने विशाल मर्तबानों में इकट्ठा किया जाता था जिन्हें "दबी" कहते थे।

घी की गुणवत्ता तब और बढ़ जाती, यदि गाय पैदल चलते हुए स्वयं गौचर में चरती थी, तालाब का पानी पीती, जिसमें प्रचुर विटामिन डी होता है और मिट्टी के बर्तनों में बिलौना किया जाता हो।

वही गायें, वही भादवा और वही घास,,,, आज भी है। इस महान रहस्य को जानते हुए भी यदि यह व्यवस्था भंग हो गई तो किसे दोष दें?

पुनःश्च

अपनी सामर्थ्य अनुसार कुछ मित्रों को यह घी, इधर उधर से जुगाड़ करके उपलब्ध करवाता रहा हूँ। वे ही इसके अनुमोदन में अपनी प्रतिक्रिया दें। जो इस अमृत का उपभोग कर रहे हैं वे निश्चय ही भाग्यशाली हैं। यदि घी शुद्ध है तो जिस किसी भी भाव से मिले, अवश्य ले लें।

यदि भादवे का घी नहीं मिले तो गौमूत्र सेवन करें। वह भी गुणकारी है।


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देवी - देवता मंत्रो के अधीन है।

 

मंत्रा$धीनस्थः देवता 


यज्ञ के माध्यम से भगवती लक्ष्मी का प्राकट्य


आत्मीय गुरु भाई बहनो एवं प्रबुद्ध मित्रों :-

 हमारे शास्त्रों में वर्णित जो भी व्याख्यान हमारे पूज्य ऋषि मुनियों द्वारा उच्चरित किए गए ,लिपिबद्ध किए गए , वह सर्वथा प्रामाणिक एवं सौ टंच खरे हैं , हमें हमारे शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए तथा उनकी प्रमाणिकता का यज्ञ साधना मंत्र जप के माध्यम से समय-समय पर प्रयोग करके मानव हित चिन्तन हेतु प्रयोग कर आकलन कर विश्वास करना चाहिए ।

            शास्त्र कहता है कि मन्त्राधीनस्थ देवता , यानी देवता मंत्रों के आधीन कार्य करते ही हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि शक्ति संपन्नता द्वारा बल अथवा प्रभाव के प्रयोग से किसी देवी देवता को प्रभावित कर अपने मनोनुकूल कार्य नहीं लिया जा सकता है ।

                            हमारे शास्त्रों में वर्णित अग्नि देव, जलदेव ,सूर्य देव, पवन देव और 33प्रकार के मुख्य देव सृजनकर्तादेव ,पालनकर्ता देव और संहारक कर्ता मुख्य  त्रिदेव तथा इनके प्रमुख सहायक 26 गण देव

तथा उनके अनेकानेक समस्तउप देव ।

 हम पृथ्वी लोक निवासियों के लिए शास्त्र सम्मत विधियों के द्वारा मनोनुकूल फल देने के लिए आतुर रहते हैं ।हमें केवल वह विधि और उस ज्ञान का शुद्ध अनुभव होना चाहिए, जिससे कि हम उन्हें प्रकट कर सके ,और यह कोई बहुत कठिन एवं दुष्कर कार्य नहीं है । 

केवल हमारे अंदर इस ज्ञान के लिए ललक और उत्साह होना चाहिए तथा उसके लिए योग्य सशक्त गुरु का होना भी अति आवश्यक माना गया है।

            समस्त साधना ओं का मूल गुरु ही होता है यदि गुरु देव कृपा करते हैं अपने शिष्य साधक पर , तो अनेक अप्रत्यक्ष देवी देवता प्रत्यक्ष होकर दर्शन देते ही हैं किसी न किसी विधि द्वारा ।

 इसका स्पष्ट अर्थ यही होता है कि हमारे शास्त्र कोई कपोल कल्पित उपन्यास नहीं है यह आधारभूत तथ्यों द्वारा प्रमाणिक विधियों के द्वारा विधि पूर्वक संपन्न करने के बाद लिपिबद्ध किए गए हैं । हमें केवल आवश्यकता है इन्हें पूरी तरह से समझ कर आत्मसात करने की ।

                 यह कार्य केवल सद्गुरु ही करवा सकने में सक्षम होते हैं हमें हमारे गुरु पर पूर्ण निष्ठा , समर्पण और विश्वास होना बहुत आवश्यक है यदि हमारे श्रद्धा समर्पण और विश्वास में लेश मात्र भी त्रुटि हुई तो यह सब कार्य असंभव प्रतीत होने लगता है । 

शुद्ध चैतन्य उपकरण यन्त्र न होने के कारण भी कई बार साधक अपनी साधना में सफल नहीं हो पाता है । इसके लिए हमें जागरूकता की आवश्यकता है , कि यथा सम्भव हम यन्त्र ,माला एवं गुटिकाएं वगैरह गुरुधाम से ही

प्राप्त करें ,उचित साधना दीक्षा लेकर साधना हेतु उचित स्थान चयन करसाधना में तत्पर हों।


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 इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि साधनाएं प्रमाणिक नहीं है कहीं न कहीं पर हमारी कार्य शैली भी हमें कार्य में सहायक नहीं होने देती है ,हमारे पूर्व जन्म कृत दोष भी

शत्रु ही है । जिनको  केवल योग गुरु के द्वारा बताए हुए पथ पर चलकर , दीक्षाओं एंव शक्तिपात के माध्यम से ही

शीघ्रता पूर्वक समन करना संभव है ,अथवा साधक अपने कठिन परिश्रम के द्वारा जप ,तप करके नियन्त्रित कर  साधनाओं में सफलता प्राप्त कर सकता है ।


 सनातन पद्धति में यज्ञ विधान एक बहुत ही सरल साधना विधान है जिसके माध्यम से हम इतर लोक के किसी भी देवी देवता से अपने मनोनुकूल कार्य को सिद्ध करने के लिए आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं ।इसके लिए हमारी बैठने की दिशा ,आसन ,सांकल्य की शुद्धता ,मंत्रोचार का शुद्ध उच्चारण, तथा सबसे महत्वपूर्ण होता है उचित समय यह सभी मूल बिंदु होते हैं देवता के प्रत्यक्षीकरण के लिए । 


 आपने शास्त्रों में ,इतिहास में पढ़ा है ,की बड़े-बड़े राजा

 महाराजा भी अपनी बड़ी महत्वपूर्ण इच्छाओं के लिए यज्ञ का सहारा लेते थे क्योंकि उनके पास श्रेष्ठ गुरु, श्रेष्ठ विद्वान ,ऋषि मुनि सहायक रहते थे तथा उनका कार्य संम्पन्न करते थे ।

क्योंकि उनके पास इतना समय नहीं होता था कि वह लंबी कंटकीय साधनाएं कर सकें अतएव वह अपने पुरोहित को उचित मात्रा में सहायता सामग्री देकर कार्य के लिए नियुक्त करते थे, तथा वह पुरोहित उनके निमित्त मंत्र जप पूर्ण करने के उपरांत राजा के द्वारा यज्ञ संपूर्ण करता था। जिससे कि अतिशीघ्र मनोनुकूल वर प्राप्त कर,  राजा वंश वृद्धि ,राज्य वृद्धि एवं दैवीय आपदाओं से राज्य की प्रजा का हित चिन्तन करता था।


 मंत्र जप के बाद साधक के लिए जो दशांश हवन का विधान है वह भी उस साधना में प्रयुक्त देवी या देवता को प्रत्यक्षीकरण करने का ही एक सरल उपक्रम है।

 साधक मंत्र जप के द्वारा अपने इष्ट को प्रसन्न करता है ।

 कई साधनाओं में देवी देवता प्रत्यक्ष  दर्शन नहीं देते हैं यह उनके अपने नियम उप नियम होते हैं ।लेकिन वह हवन के माध्यम से प्रत्यक्ष होकर अपना हविष्य ग्रहण कर साधक को मनोनुकूल फल के लिए पूर्ण आशीर्वाद प्रदान करते ही हैं ।

मैं  आपको यहां पर एक चित्र प्रस्तुत कर रहा हूं जो कि आश्रम में हवन के माध्यम से पूर्ण चैतन्य महालक्ष्मी साधना के उपरांत अग्नि के माध्यम से प्रकट होकर अपना हविष्य ग्रहण कर ,साधना की सफलता का अप्रत्यक्ष स्वरूप द्वारा अपनी उपस्थिति का अहसास करवाया ।

                               

 विज्ञान द्वारा सिद्ध है कि मानव की आंख से कैमरे की आंख ज्यादा सूक्ष्म होती है ,और वह इतर प्राणियों के भी चित्र लेने में सक्षम होती है ।अतएव आवश्यकता है आज इस पद्धति को जानने वाले साधकों की , उच्च शिक्षा प्राप्त गुरु की एवं उनके ज्ञान की प्रामाणिकता की ।


 मैं आज के इस आपाधापी के असहज , अंधकार पूर्ण भौतिक युग में एक छोटा सा प्रयास कर रहा हूं कि आपको अपने अनुभव संस्मरण के माध्यम से उस द्वापर त्रेता और सतयुग के उल्लिखित ग्रंथों की शुद्धता का प्रमाण आपको प्राप्त हो और आपकी दृढ़ आस्था अपने सनातन धर्म अपने देवी-देवताओं के प्रति अपने इष्ट अपने पूज्य गुरुदेव के प्रति दृढ़ और बलवती हो यह मेरा एक अकिंचित प्रयास है ।


आप कितना विश्वास करेंगे आप कितना हम से सहमत होंगे यह महत्वपूर्ण नहीं है महत्वपूर्ण यह है कि हम अपने मनीषियों ऋषि-मुनियों के महान भारत का पुनर्निर्माण कर इस अंधकार युक्त अग्रिम महत्वाकांक्षी युग में भौतिक संसाधनों से विहीन जीवन हेतु ,एक प्रकाश का दीपक जला सकें। जिसकी रोशनी में आने वाली पीढ़ी रास्ता देख कर आगे बढ़ सके ,और अपने जीवन को अति सुंदर भौतिकता से दूर हटाकर भी सुखी एवं संपन्न रख सके ।


 यही एक प्रयास है और यही हमारे पूज्य गुरुदेव स्वामी निखिलेश्वरानंद का चिंतन है जिसके आधार पर हम उनका एक पग रज कण शिष्य आपका स्वागत एवं अभिनंदन करता हूँ ।                                            यदि आप इस मार्ग पर एक कदम बढ़ेंगे तो मैं अपने गुरुआज्ञा से वचनबद्ध होकर आपका आठ कदम आगे तक का मार्ग प्रशस्त करेंगे ,और आपको अपने जीवन के अंतिम क्षण तक इस प्रयास में सहायता करेंगे यह मेरा वचन है और यही मेरी गुरु के लिए पूर्ण निष्ठा और सेवा और समर्पण है ।                              

    जय निखिलेश्वर ,जय नारायण, जय सद्गुरुदेव

इति श्री गुरुशरणम् 

Sab kuch

माँ पर शायरी

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