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क्यों शरीर पर भस्म लगाते हैं शिव?


धार्मिक मान्यता के अनुसार भगवान शिव को मृत्यु का स्वामी माना गया है. इसीलिए शव से शिव नाम बना. उनके अनुसार शरीर नश्वर है और इसे एक दिन इस भस्म की तरह शरीर राख हो जाना है. जीवन के इसी पड़ाव का भगवान शिव सम्मान करते हैं और इस सम्मान को वो खुदपर भस्म लगाकर जताते हैं.

वहीं, दूसरी तरफ एक और कथा प्रचलित है जब भगवान शिव और माता सति को यज्ञ के लिए निमंत्रण ना मिलने पर सति ने क्रोध में आकर खुद को अग्नि के हवाले कर दिया था. उस वक्त भगवान शिव माता सति का शव लेकर धरती से लेकर आकाश तक हर जगह घूमे. विष्णु जी भगवान शिव की ये दशा देख ना पाए और माता सति के शव को छूकर उन्होंने उसे भस्म में बदल दिया. अपने हाथों में सति की जगह भस्म देखकर शिव शान्त हो गए और सति जी को याद कर वो राख उन्होंने अपने शरीर पर लगा ली. 
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हर हर महादेव

Motivation

एक अस्पताल में दो रोगी एक कमरे में दाखिल हुए | एक रोगी को खिड़की के पास बिस्तर मिला तो दुसरे को उससे कुछ दूरी पर | दोनों का रोग चरम सीमा पर था इसलिए उस कमरे में दोनों के अतिरिक्त ओर कोई नही था | खिड़की के पास वाले रोगी को खिड़की से बाहर झाकते देखकर दुसरे रोगी को मन ही मन इर्ष्या होती थी किन्तु बीमारी की दशा में वह क्या तर्क वितर्क करे | यह सोचकर चुप रह जाता था | बिस्तर में लेटे लेटे एक दिन जब वह बहुत उकता गया तो उसने अपने साथी रोगी से कहा “मित्र ! तुम्हारा बिस्तर तो खिड़की के समीप है अत: तुम मुझे खिड़की के बाहर क्या क्या हो रहा है देखकर जरा बताओ | ऐसा करने से मेरा मनोरंजन होगा”

“ठीक है सुनो” कहते हुए दुसरे रोगी ने बाहर के दृश्यों का सजीव वर्णन करना आरम्भ कर दिया  ” बाहर एक लॉन है जिसमे चार गुलाब है ……..उनमे से एक बड़ा गुलाबी रंग का है | लॉन के पास ही एक बच्चा हल्के हल्के कदमो से चल रहा है | उसने अपनी माँ की उंगली पकड़ रखी है ………..लो वह गिर पड़ा | अब उसकी माँ ने उसे उठा लिया है तथा खूब प्यार कर रही है | बच्चा फिर से मुस्कुरा रहा है ……..” वह रोगी बोलता जाता | इतना रोचक और सजीव वर्णन सुनते सुनते दुसरे रोगी को नीदं आ जाती | वह आराम से बिना दवाई लिए भी सो जाता था जबकि घटना सुनाने वाले रोगी को बड़ी मुश्किल से नींद आ पाती थी |

जागने पर बाते सुनने वाला रोगी फिर से फरमाइश करता कि उसका साथी ओर कुछ रोचक वर्णन करे | उसका अनुरोध उसका साथी कभी नही टालता था | वह उसे नये नये दृश्यों का आँखों देखा हाल सुनाता रहता | पहले रोगी की बाते सुनकर दुसरे रोगी का मनोरंजन तो खूब होता किन्तु वह अपनी ईर्ष्यालु प्रवृति के कारण फिर मन ही मन कुढ़ता कि उसका बिस्तर खिड़की के पास नही है | अत: असली आनन्द तो उसका साथी ले रहा है और जो सब कुछ देख भी पा रहा है उसे तो केवल सुनने को ही मिल रहा है | इसे अपना दुर्भाग्य मानकर वह सोचता है कि “काश उसका पलंग उस खिड़की के पास होता ”

एक दिन रात को दृश्य का वर्णन करने वाले रोगी की स्थिति बहुत खराब हो गयी और वह चल बसा | अस्पताल के कर्मचारी उसे ले गये | अब पीछे केवल वह दूसरा रोगी ही कमरे में था ,जो एकदम अकेला रह गया था | उसे खिड़की के पास वाले पलंग पर लिटाने की व्यवस्था कर दी गयी | मन ही मन रोगी अब सोच रहा था अब वह स्वयं आनन्द से उन दृश्यों को देखेगा जिसको वह केवल पहले वर्णन ही सुना करता था | जैसे ही उसने खिड़की के बाहर नजर डाली तो वह दंग रह गया | खिडके के बाहर तो कुछ भी नही था केवल एक लम्बी ऊँची दीवार थी जो अस्पताल की अंतिम दीवार थी | अस्पताल का विस्तार वहा खत्म था |

उसे सच्चाई समझते देर न लगी कि उसका उदार साथी इतना महान था कि केवल उसका मन बहलाने के लिए अपनी कल्पना से ही , सुंदर सुंदर दृश्यों और घटनाओं का वर्णन सुनाया करता था | वह जानता था कि मृत्यु कभी भी आ सकती है किन्तु इसके लिए विलाप करना आवश्यक नही माना वरन अन्तिम सांस तक सकारात्मक रहा व उसे निराश होने से रोकता रहा ।

Motivation

एक राजा ने अपने सारे बुद्धिमानों को बुलाया और उनसे कहा – मैं कुछ ऐसा सूत्र चाहता हूँ, जो छोटा हो, बड़े शास्त्र नहीं चाहिए, मुझे फुर्सत भी नहीं बड़े शास्त्र पढने की. वह ऐसा सूत्र हो जो एक वचन में पूरा हो जाये और जो हर घड़ी में काम आये. दुःख हो या सुख, जीत हो या हार, जीवन हो या मृत्यु सब में काम आये, तुम लोग ऐसा सूत्र खोज कर लाओ.

उन बुद्धिमानों ने बड़ी मेहनत की, बड़ा विवाद किया कुछ निष्कर्ष नहीं हो सका. वे आपस में बात कर रहे थे, एक ने कहा– “हम बड़ी मुश्किल में पड़े हैं बड़ा विवाद है, संघर्ष है, कोई निष्कर्ष नहीं हो पाया, हमने सुना हैं एक सिद्ध संत नगर में आए हैं,वह प्रज्ञावान व्यक्ति है, क्यों न हम उन्ही के  पास चलें?”

वे लोग संत के पास पहुँचे और उनसे राजभवन आने के लिए निवेदन किया। संत राजभवन आए और उन्होंने एक अंगुठी पहन रखी थी. अपनी अंगुली में वह निकालकर राजा को दे दी और कहा – इसे पहन लो. इसमें लगे पत्थर के नीचे एक छोटा सा कागज रखा है, उसमें सुत्र लिखा है, वह मेरे गुरू ने मुझे दिया था, मुझे तो जरूरत भी न पड़ी इसलिए मैंने अभी तक खोलकर देखा भी नहीं.

उन्होंने एक शर्त रखी थी कि जब कुछ उपाय न रह जायें, सब तरफ से निरुपाय हो जाओ, तब इसे खोलकर पढना, ऐसी कोई घड़ी न आयी उनकी बड़ी कृपा है इसलिए मैंने इसे खोलकर पढ़ा नहीं, लेकिन इसमें जरूर कुछ राज होगा आप रख लो, लेकिन शर्त याद रखना इसका वचन दे दो कि जब कोई उपाय न रह जायेगा सब तरफ से असहाय हो जाओगे तभी अंतिम घड़ी में इसे खोलोगे.

क्योंकि यह सुत्र बड़ा बहुमूल्य है अगर इसे साधारणतः खोला गया तो अर्थहीन होगा. राजा ने अंगुठी पहन ली, वर्षों बीत गये कई बार जिज्ञासा भी हुई फिर सोचा कि कहीं खराब न हो जाए, फिर काफी वर्षो बाद एक युद्ध हुआ जिसमें राजा हार गया, और दुश्मन जीत गया. उसके राज्य को हड़प लिया.

वह राजा एक घोड़े पर सवार होकर अपनी जान बचाने के लिए भागा, राज्य तो गया संघी साथी, दोस्त, परिवार सब छूट गये, दो–चार सैनिक और रक्षक उसके साथ थे, वे भी धीरे–धीरे हट गये. क्योंकि अब कुछ बचा ही नहीं था तो रक्षा करने का भी कोई सवाल न था.

दुश्मन उस राजा का पीछा कर रहा था, तो राजा एक पहाड़ी घाटी से होकर भागा जा रहा था. उसके पीछे घोडों की आवाजें आ रही थी, टापें सुनाई दे रही थी. प्राण संकट में थे, अचानक उसने पाया कि रास्ता समाप्त हो गया, आगे तो भयंकर गहरी गहरी घाटी है जहाँ वह लौट भी नहीं सकता था, एक पल के लिए राजा स्तब्ध खड़ा रह गया कि क्या करें ?

फिर अचानक याद आयी, अंगुठी खोली पत्थर हटाया कागज निकाला उसमें एक छोटा सा वचन लिखा था “यह भी बीत जायेगा”. सुत्र पढ़ते ही उस राजा के चेहरे पर मुस्कान आ गयी, उसे इस बात का खयाल आया कि सब तो बीत गया, मैं राजा नहीं रहा, मेरा साम्राज्य गया, सुख बीत गया, जब सुख बीत जाता है तो दुख भी स्थिर नहीं हो सकता.

शायद सूत्र ठीक कहता हैं अब करने को कुछ भी नहीं हैं लेकिन सूत्र ने उसके भीतर कोई सोया तार छेड़ दिया. कोई साज छेड़ दिया. “यह भी बीत जायेगा” ऐसा बोध होते ही जैसे सपना टूट गया. अब वह व्यग्र नहीं, बैचेन नहीं, घबराया हुआ नहीं था. वह बैठ गया.

संयोग की बात थी, थोड़ी देर तक तो घोड़ों की टापें सुनायी देती रही फिर टापें बंद हो गयी, शायद सैनिक किसी दूसरे रास्ते पर मुड़ गये. घना जंगल और बिहड़ पहाड़ उन्हें पता नहीं चला कि राजा किस तरफ गया है. धीरे–धीरे घोड़ों की टापें दूर हो गयी, अंगुठी उसने वापस पहन ली.

कुछ दिनों बाद हिम्मत जुटाकर दोबारा उसने अपने मित्रों को वापस इकठ्ठा कर लिया, फिर उसने वापस अपने दुश्मन पर हमला किया, पुनः जीत हासिल की फिर अपने सिंहासन पर बैठ गया. जब राजा अपने सिंहासन पर बैठा तो बड़ा आनंदित हो रहा था.

तभी उसे फिर पुनः उस अंगुठी की याद आयी उसने अंगुठी खोली कागज को पढा फिर मुस्कराया दोबारा विजय का दंभ विदा हो गया. वजीरों ने पूछा– आप बडे प्रसन्न थे अब एक दम शांत हो गये, क्या हुआ ?

राजा ने कहा – अंगुठी में यह सूत्र दिया गया है – “यह भी बीत जायेगा.” जो हमारे लिए सुख–दुःख दोनों में काम आता है. दोनों में हमें सावचेत करता है और हमें गलतियाँ करने व निराशा से बचाता है. हमें हमेशा उत्तेजित करने वाली परस्थितियों में शांति का एहसास करता है. इस दुनिया में मानसिक शांति से बड़ा कोई सुख नहीं है. शांति में ही हम हर तरह की प्रगति और समृद्धि हासिल कर सकते है. अत: अब हमें शांति से राज्य और जनता की भलाई पर ध्यान देना चाहिये.

जीवित गुरु

अगर कभी तुम्हें कोई जीवित गुरु मिल जाए,
तो उन क्षणों को मत चूकना।
मुर्दा संप्रदायों से तुम्हें कुछ भी न मिलेगा।
मुर्दा संप्रदाय ऐसे हैं
जैसे तुम कभी—कभी फूलों को किताब में रख देते हो,
सूख जाते हैं, गंध भी खो जाती है,
सिर्फ एक याददाश्त रह जाती है।
फिर कभी वर्षों बाद किताब खोलते हो,
एक सूखा फूल मिल जाता है।
संप्रदाय सूखे फूल हैं,
शास्त्र किताबों में दबे हुए सूखे फूल हैं।
उनसे न गंध आती है, न उनमें जीवन का उत्सव है,
न उनसे परमात्मा का अब कोई संबंध है।
क्योंकि उनकी कहीं जड़ें नहीं अब,
पृथ्वी से कहीं वे जुड़े नहीं, आकाश से जुड़े नही,
सूर्य से उनका कुछ अब संवाद नहीं,
 सब तरफ से कट गए, टूट गए,
अब तो शास्त्र में पड़े हैं। सूखे फूल हैं।

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अगर तुम्हें जिंदा फूल मिल जाए तो
सूखे फूल के मोह को छोडना।
जानता हूं मैं, अतीत का बड़ा मोह होता है।
जानता हूं मैं, परंपरा में बंधे रहने में बड़ी सुविधा होती है।
 छोड़ने की कठिनाई भी मुझे पता है।
अड़चन बहुत है। अराजकता आ जाती है।
जिंदगी जमीन खो देती है।
कहां खड़े हैं, पता नहीं चलता।
अकेले रह जाते हैं।
भीड़ का संग—साथ नहीं रह जाता।
लेकिन धर्म रास्ता अकेले का है।
 वह खोज तनहाई की है।
और व्यक्ति ही वहां तक पहुंचता है,
समाज नहीं।
अब तक तुमने कभी किसी समाज को बुद्ध होते देखा?
किसी भीड़ को तुमने समाधिस्थ होते देखा?
व्यक्ति—व्यक्ति पहुंचते हैं, अकेले—अकेले पहुंचते हैं।
परमात्मा से तुम डेपुटेशन लेकर न मिल सकोगे,
अकेला ही साक्षात्कार करना होगा।

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