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एक कदम आध्यात्म की ओर




आत्मा जब शरीर छोड़ती है तो मनुष्य को पहले ही पता चल जाता है । ऐसे में वह स्वयं भी हथियार डाल देता है अन्यथा उसने आत्मा को शरीर में बनाये रखने का भरसक प्रयत्न किया होता है और इस चक्कर में कष्ट झेला होता है । 


अब उसके सामने उसके सारे जीवन की यात्रा चल-चित्र की तरह चल रही होती है । उधर आत्मा शरीर से निकलने की तैयारी कर रही होती है इसलिये शरीर के पाँच प्राण एक 'धनंजय प्राण' को छोड़कर शरीर से बाहर निकलना आरम्भ कर देते हैं । 


ये प्राण, आत्मा से पहले बाहर निकलकर आत्मा के लिये सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं जो कि शरीर छोड़ने के बाद आत्मा का वाहन होता है । धनंजय प्राण पर सवार होकर आत्मा शरीर से निकलकर इसी सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है । 


बहरहाल अभी आत्मा शरीर में ही होती है और दूसरे प्राण धीरे-धीरे शरीर से बाहर निकल रहे होते हैं कि व्यक्ति को पता चल जाता है । 


उसे बेचैनी होने लगती है, घबराहट होने लगती है । सारा शरीर फटने लगता है, खून की गति धीमी होने लगती है । सांँस उखड़ने लगती है । बाहर के द्वार बंद होने लगते हैं । 


अर्थात् अब चेतना लुप्त होने लगती है और मूर्च्छा आने लगती है । चैतन्य ही आत्मा के होने का संकेत है और जब आत्मा ही शरीर छोड़ने को तैयार है - तो चेतना को तो जाना ही है और वो मूर्छित होने लगता है ।


 बुद्धि समाप्त हो जाती है और किसी अनजाने लोक में प्रवेश की अनुभूति होने लगती है - यह चौथा आयाम होता है ।


फिर मूर्च्छा आ जाती है और आत्मा एक झटके से किसी भी खुली हुई इंद्रिय से बाहर निकल जाती है । इसी समय चेहरा विकृत हो जाता है । यही आत्मा के शरीर छोड़ देने का मुख्य चिह्न होता है । 


शरीर छोड़ने से पहले - केवल कुछ पलों के लिये आत्मा अपनी शक्ति से शरीर को शत-प्रतिशत सजीव करती है - ताकि उसके निकलने का मार्ग अवरुद्ध न रहे - और फिर उसी समय आत्मा निकल जाती है और शरीर खाली मकान की तरह निर्जीव रह जाता है । 

इससे पहले घर के आसपास कुत्ते-बिल्ली के रोने की आवाजें आती हैं । इन पशुओं की आँखे अत्याधिक चमकीली होती है  जिससे ये रात के अँधेरे में तो क्या सूक्ष्म-शरीर धारी आत्माओं को भी देख लेते हैं । 


जब किसी व्यक्ति की आत्मा शरीर छोड़ने को तैयार होती है तो उसके अपने सगे-संबंधी जो मृतात्माओं के रूप में होते है  उसे लेने आते हैं और व्यक्ति उन्हें यमदूत समझता है और कुत्ते-बिल्ली उन्हें साधारण जीवित मनुष्य ही समझते हैं और अनजान होने की वजह से उन्हें देखकर रोते हैं और कभी-कभी भौंकते भी हैं ।


शरीर के पाँच प्रकार के प्राण बाहर निकलकर उसी तरह सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं । जैसे गर्भ में स्थूल-शरीर का निर्माण क्रम से होता है । 


सूक्ष्म-शरीर का निर्माण होते ही आत्मा अपने मूल वाहक धनंजय प्राण के द्वारा बड़े वेग से निकलकर सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है ।


 आत्मा शरीर के जिस अंग से निकलती है उसे खोलती, तोड़ती हुई निकलती है । जो लोग भयंकर पापी होते है उनकी आत्मा मूत्र या मल-मार्ग से निकलती है । जो पापी भी हैं और पुण्यात्मा भी हैं उनकी आत्मा मुख से निकलती है । जो पापी कम और पुण्यात्मा अधिक है उनकी आत्मा नेत्रों से निकलती है और जो पूर्ण धर्मनिष्ठ हैं, पुण्यात्मा और योगी पुरुष हैं उनकी आत्मा ब्रह्मरंध्र से निकलती है ।


अब तक शरीर से बाहर सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हुआ रहता है । लेकिन ये सभी का नहीं हुआ रहता । जो लोग अपने जीवन में ही मोहमाया से मुक्त हो चुके योगी पुरुष है  उन्ही के लिये तुरंत सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हो पाता है । 


अन्यथा जो लोग मोहमाया से ग्रस्त हैं परंतु बुद्धिमान हैं, ज्ञान-विज्ञान से अथवा पांडित्य से युक्त हैं ,  ऐसे लोगों के लिये दस दिनों में सूक्ष्म शरीर का निर्माण हो पाता है ।


हिंदू धर्म-शास्त्र में - दस गात्र का श्राद्ध और अंतिम दिन मृतक का श्राद्ध करने का विधान इसीलिये है कि - दस दिनों में शरीर के दस अंगों का निर्माण इस विधान से पूर्ण हो जाये और आत्मा को सूक्ष्म-शरीर मिल जाये ।


 ऐसे में, जब तक दस गात्र का श्राद्ध पूर्ण नहीं होता और सूक्ष्म-शरीर तैयार नहीं हो जाता आत्मा, प्रेत-शरीर में निवास करती है ।


 अगर किसी कारणवश ऐसा नहीं हो पाता है तो आत्मा प्रेत-योनि में भटकती रहती है । 


एक और बात, आत्मा के शरीर छोड़ते समय व्यक्ति को पानी की बहुत प्यास लगती है । शरीर से प्राण निकलते समय कण्ठ सूखने लगता है । ह्रदय सूखता जाता है और इससे नाभि जलने लगती है । लेकिन कण्ठ अवरुद्ध होने से पानी पिया नहीं जाता और ऐसी ही स्थिति में आत्मा शरीर छोड़ देती है । प्यास अधूरी रह जाती है । इसलिये अंतिम समय में मुख में 'गंगा-जल' डालने का विधान है । 


इसके बाद आत्मा का अगला पड़ाव होता है शमशान का 'पीपल' ।


 यहाँ आत्मा के लिये 'यमघंट' बंँधा होता है । जिसमें पानी होता है । यहाँ प्यासी आत्मा यमघंट से पानी पीती है जो उसके लिये अमृत तुल्य होता है । इस पानी से आत्मा तृप्ति का अनुभव करती है । 


 हिन्दू धर्म शास्त्रों में विधान है कि - मृतक के लिये यह सब करना होता है ताकि उसकी आत्मा को शान्ति मिले । अगर किसी कारण वश मृतक का दस गात्र का श्राद्ध न हो सके और उसके लिये पीपल पर यमघंट भी न बाँधा जा सके तो उसकी आत्मा प्रेत-योनि में चली जायेगी और फिर कब वहांँ से उसकी मुक्ति होगी, कहना कठिन होगा l


*हांँ,  कुछ उपाय अवश्य हैं। पहला तो यह कि किसी के देहावसान होने के समय से लेकर तेरह दिन तक  निरन्तर भगवान् के नामों का उच्च स्वर में जप अथवा कीर्तन किया जाय और जो संस्कार बताये गये हैं उनका पालन करने से मृतक भूत प्रेत की योनि, नरक आदि में जाने से बच जायेगा , लेकिन यह करेगा कोन ?*


*यह संस्कारित परिजन, सन्तान, नातेदार ही कर सकते हैं l अन्यथा आजकल अनेक लोग केवल औपचारिकता निभाकर केवल दिखावा ही अधिक करते हैं l*


*दूसरा उपाय कि मरने वाला व्यक्ति स्वयं भजनानंदी हो, भगवान का भक्त हो और अंतिम समय तक यथासंभव हरि स्मरण में रत रहा हो ।*


इसी संदर्भ में , भक्त कहता है...


कृष्ण त्वदीय पदपंकजपंजरांके अद्यैव मे विशतु मानस राजहंसः


प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः कंठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते।।


श्रीकृष्ण कहते हैं....


कफवातादिदोषेन मद्भक्तो न तु मां स्मरेत् 


अहं स्मरामि तद्भक्तं ददामि परमां गतिम्।।


फिर श्रीकृष्ण को लगता है कि यह मैं कुछ अनुचित बोल गया।


पुनश्च वे कहते हैं....


कफवातादिदोषेन मद्भक्तो न च मां स्मरेत्


तस्य स्मराम्यहं नो चेत् कृतघ्नो नास्ति मत्परः


ततस्तं मृयमाणं तु काष्ठपाषाणसन्निभं 


अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्।।


*तीसरा भगवान के धामों में देह त्यागी हो, अथवा दाह संस्कार काशी, वृंदावन या चारों धामों में से किसी में हुआ हो l*


*स्वयं विचार करना चाहिये कि हम दूसरों के भरोसे रहें या अपना हित स्वयं साधें l*


 जीवन बहुत अनमोल है, इसको व्यर्थ मत गँवायें। एक - एक पल को सार्थक करें। हरिनाम का नित्य आश्रय लें । मन के दायरे से बाहर निकल कर सचेत होकर जीवन को जियें, न कि मन के अधीन होकर। 


यह मानव शरीर बार- बार नहीं मिलता। 


जीवन का एक- एक पल जो जीवन का गुजर रहा है ,वह फिर वापस नहीं मिलेगा। इसमें जितना अधिक हो भगवान् का स्मरण जप करते रहें,   हर पल जो भी कर्म करो बहुत सोच कर करें। क्योंकि कर्म परछाईं की तरह मनुष्य के साथ रहते है। इसलिये सदा शुभ कर्मों की शीतल छाया में रहें।


 वैसे भी कर्मों की ध्वनि शब्दों की धवनि से अधिक ऊँची होती है।


अतः सदा कर्म सोच विचार कर करें। जिस प्रकार धनुष में से तीर छूट जाने के बाद वापस नहीं आता, इसी प्रकार जो कर्म आपसे हो गया वह उस पल का कर्म वापस नहीं होता चाहे अच्छा हो या बुरा।


इसलिये इससे पहले कि आत्मा इस शरीर को छोड़ जाये, शरीर मेँ रहते हुए आत्मा को यानी स्वयं को जान लें और जितना अधिक हो सके मन से, वचन से, कर्म से भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण का ध्यान, चिंतन, जप कीर्तन करते रहें, निरन्तर स्मरण से हम यम पाश से तो बचेंगे ही बचेंगे, साथ ही हमें भगवत् धाम भी प्राप्त हो सकेगा जो कि जीवन

 का वास्तविक लक्ष्य है ।


आयुष्यक्षणमेकोSपि न लभ्यः स्वर्णकोटिभिः


स वृथा नीयते येन तस्मै मूढात्मने नमः।।


।। हरिः ओम् तत् सत् ।।


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 


( साभार )

भारतीय इतिहास की भयंकर भूल

 


भारतीय इतिहास की भयंकर भूले काला_पहाड़

बांग्लादेश यह नाम स्मरण होते ही भारत के पूर्व में एक बड़े भूखंड का नाम स्मरण हो उठता है। 

जो कभी हमारे देश का ही भाग था।

 जहाँ कभी बंकिम के ओजस्वी आनंद मठ, कभी टैगोर की हृद्यम्य कवितायेँ, कभी अरविन्द का दर्शन, कभी वीर सुभाष की क्रांति ज्वलित होती थी। 


आज बंगाल प्रदेश एक मुस्लिम राष्ट्र के नाम से प्रसिद्द है। जहाँ हिन्दुओं की दशा दूसरे दर्जें के नागरिकों के समान हैं। 

क्या बंगाल के हालात पूर्व से ऐसे थे? बिलकुल नहीं। अखंड भारतवर्ष की इस धरती पर पहले हिन्दू सभ्यता विराजमान थी।

कुछ ऐतिहासिक भूलों ने इस प्रदेश को हमसे सदा के लिए दूर कर दिया। एक ऐसी ही भूल का नाम कालापहाड़ है।

 बंगाल के इतिहास में काला पहाड़ का नाम एक अत्याचारी के नाम से स्मरण किया जाता है। काला पहाड़ का असली नाम कालाचंद राय था। कालाचंद राय एक बंगाली ब्राहण युवक था।


पूर्वी बंगाल के उस वक्‍त के मुस्लिम शासक की बेटी को उससे प्‍यार हो गया। बादशाह की बेटी ने उससे शादी की इच्‍छा जाहिर की। 

वह उससे इस कदर प्‍यार करती थी। वह उसने इस्‍लाम छोड़कर हिंदू विधि से उससे शादी करने के लिए तैयार हो गई। 

ब्राहमणों को जब पता चला कि कालाचंद राय एक मुस्लिम राजकुमारी से शादी कर उसे हिंदू बनाना चाहता है तो ब्राहमण समाज ने कालाचंद का विरोध किया। 


उन्होंने उस मुस्लिम युवती के हिंदू धर्म में आने का न केवल विरोध किया, बल्कि कालाचंद राय को भी जाति बहिष्‍कार की धमकी दी। कालाचंद राय को अपमानित किया गया। अपने अपमान से क्षुब्ध होकर कालाचंद गुस्‍से से आग बबुला हो गया और उसने इस्‍लाम स्‍वीकारते हुए उस युवती से निकाह कर उसके पिता के सिंहासन का उत्‍तराधिकारी हो गया। अपने अपमान का बदला लेते हुए राजा बनने से पूर्व ही उसने तलवार के बल पर ब्राहमणाों को मुसलमान बनाना शुरू किया।


 उसका एक ही नारा था मुसलमान बनो या मरो। पूरे पूर्वी बंगाल में उसने इतना कत्‍लेआम मचाया कि लोग तलवार के डर से मुसलमान होते चले गए। इतिहास में इसका जिक्र है कि पूरे पूर्वी बंगाल को इस अकेले व्‍यक्ति ने तलवार के बल पर इस्‍लाम में धर्मांतरित कर दिया। यह केवल उन मूर्ख, जातिवादी, अहंकारी व हठधर्मी ब्राहमणों को सबक सिखाने के उददेश्‍य से किया गया था। उसकी निर्दयता के कारण इतिहास उसे काला पहाड़ के नाम से जानती है। अगर अपनी संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर कुछ हठधर्मी ब्राह्मणों ने कालाचंद राय का अपमान न किया होता तो आज बंगाल का इतिहास कुछ ओर ही होता।।

अखण्ड भारत स्वप्न या सत्य



 अखण्ड_भारत: स्वप्न या सत्य.... आजादी का 75वां वर्ष है। देश अमृत महोत्सव मना रहा है। आजादी अपने साथ जनाधिकार, भागीदारी, समानता व समग्र विकास का लक्ष्य लेकर आयी। लेकिन जो डूरंड व रेडक्लिफ रेखाओं से विभाजन का अभिशाप था उससे मुक्ति हमारे नये नेताओं का लक्ष्य नहीं बना। क्या गांधार काबुल से लेकर रंगून तक विस्तारित अपनी अखण्ड सांस्कृतिक भूमि तक पहुंचने का हमारा स्वप्न, स्वप्न ही रहेगा? 


हमारा सबसे बड़ा विष्णु मंदिर अंकोरवाट कम्बोडिया में है। हमारी संस्कृति धर्म व इतिहास गांधार अफगानिस्तान से म्यानमार इंडोनेशिया तक इस अखण्ड सांस्कृतिक क्षेत्र के कण कण में मुखर है। लेकिन यह भी सत्य है कि राष्ट्रवादी हिंदू संगठनों विशेषकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अतिरिक्त कोई प्रभावी विमर्श सामने नहीं आया है। आज हमारा कोई ऐसा अध्ययन संस्थान भी नहीं है जो इस सांस्कृतिक-राजनैतिक एकता के विचार को समर्पित हो। लेकिन हम वसीम रिजवी, अली अकबर कालीदासी आदि बहुत से लोगों से बदलते समय की आहटें सुन रहे हैं। अखंडता बेचैन होकर अपना मार्ग तलाश रही है।


हमारा बिखराव आठवीं शताब्दी से हो रहे इस्लामिक आक्रमणों से प्रारंभ होता है। आजादी के आंदोलन के दौरान अस्तित्व में आयी सत्ता आकांक्षी राजनीति ने अपना भविष्य धर्म से विभाजित हुए भारत में देखा। देश को बांटने वाले ही जब सत्ता में आ गये तो अखण्ड भारत उनका लक्ष्य हो, यह संभव ही नहीं था। उन्होंने देश को बांटा फिर कश्मीर को बांटा। जो चला गया वह उन्हें वापस नहीं चाहिए था।


इस खण्डित भारत के विद्यालयों में हमें कभी अफगानिस्तान, पंजाब, सिंध, श्रीलंका, म्यांमार व सुदूर श्रीविजय साम्राज्य का इतिहास नहीं पढ़ाया गया। आजाद भारत के नये शासकों को चिंता तो यह थी कि यदि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जागरण हो गया तो उनके सत्ता के मुख्य उपकरण छद्म धर्मनिरपेक्षता का क्या होगा? यह विभाजन के गुनाहगारों की मूल समस्या थी।


वे जो इस्लामिक सेनाओं से गांधार, गजनी, काबुल, पुरुषपुर और जाबुल की पश्चिमी सरहद पर सैकड़ों वर्ष तक जूझते रहे, आज हमें उनके नाम भी नहीं मालूम हैं। आज का अफगानिस्तान, सम्पूर्ण पंजाब, सिंधु प्रदेश इतिहास के प्रारंभ से आर्य सभ्यता का आदि क्षेत्र रहा है। यही पंजाब है जहां की सात नदियों के तटों पर वेदों की रचना हुई, जहां का महान् हिंदूशाही राज्य 250 वर्षों तक विधर्मियों से लड़ता रहा। 


जिन लोगों ने अपना बलिदान देकर 450 वर्षों तक इस्लामिक आक्रांताओं को सीमाओं पर रोके रखा, वे तो वही पुरु की सेना के वारिस वीर सैनिक थे, जिन्होंने कभी विश्व विजयी सिकंदर को वापस जाने को मजबूर कर दिया था। अरब आक्रांता, पंजाब सिंध से वापस खदेड़ दिये गये थे। बकौल अरब इतिहासकार अरब सेनाओं को भागने के लिए जमीन कम पड़ गयी थी। ऐसे बहादुर जुझारू योद्धा, बहादुर सैनिक आखिर धर्मपरिवर्तन को क्यों मजबूर हुए? जब वे जूझ रहे थे तब शेष भारत उनके पीछे दीवार बन कर क्यों खड़ा नहीं हुआ? 


अपना सिर कटा देना उन योद्धाओं के लिए क्या मुश्किल था? लेकिन अपने पीछे बेटियों और पत्नियों को कैसे भेड़ियों के हवाले चले जाने दें? ये जो आठवीं शताब्दी से लेकर आज तक धर्म रक्षा के युद्धों में दस करोड़ हिंदुओं की आहुति हुई है, इसमें गांधार पंजाब के हिंदुओं का एक बड़ा हिस्सा रहा है।


अपनी पुत्रियों, महिलाओं को अपहरण व बलात्कार से बचाने के लिए पीढ़ियों से युद्धरत हिंदू समाज कन्वर्जन को बाध्य हुआ। भारत की मुख्यभूमि में उस संक्रमण कालखण्ड में संभवतः रणनैतिक दायित्वबोध, धर्मरक्षाभाव विहीनता के कारण तराइन पानीपत जैसे युद्ध हिंदुकुश, गांधार में न होकर भारत भूमि पर दिल्ली के निकट आकर हुए। छोटे राज्यों के ये बड़ी उपाधियों वाले राजा देश के महान सम्राटों चंद्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त, विक्रमादित्य, कनिष्क का इतिहास भूल चुके थे। 


जब जेहादी सुलतानों ने मुख्यभूमि में आकर कटे हुए सरों की मीनारें सजानी शुरू कीं, मजहब के अनुसार मंदिरों देव मूर्तियों को तोड़ना, जजिया लगाना, बहनों बेटियों को गुलाम व रखैलें बनाना और बाजारों में बेचना प्रारंभ किया, तब धनाढ्य मोटे राजाओं, सेठों, मठाधीशों को समझ में आया कि गांधार व पंजाब पर पिछले चार सौ वर्षों से क्या बीत रहा था।

कतिपय सुविधा आकांक्षी नगरजीवी दरबारियों में लालच, सत्ता की आकांक्षा, लूट में हिस्सेदारी का भाव हो सकता है। लेकिन कन्वर्जन मूलतः तलवार से बलात् हुआ। लेकिन जब कभी समय आया तो भी अपने इस धर्म दूषित समाज को धर्म में वापस लाने का कोई अभियान नहीं चलाया गया। यहीं से अखण्ड भारत का संकट प्रारंभ हुआ। बहुत से लोग तो आज भी उस दिवस की प्रतीक्षा में हैं, जब धर्म के द्वार उनके लिए खुलेंगे।


 आज तो हमारे सामने इंडोनेशिया की राजकुमारी सुकमावती सुकर्णोपुत्री व उनके साथ हिंदू धर्म में वापस आए हजारों इंडोनेशियाइयों का गर्व करने वाला आह्लादकारी उदाहरण भी है। अब धर्माधिकारियों के सम्मुख धर्म में वापसी का अभियान न चलाने का कोई बहाना भी नहीं है।


हमारी पीढ़ियों को अपने देश-धर्म के बलिदानों का असल इतिहास जानना कितना जरूरी हो गया है। हम अपने धर्मांतरित समाज को, उनकी परंपरा व इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में बताएं और जब भी कभी अवसर बने, उन्हें विधर्मियों के इंद्रजाल से निकाल कर वापस ले आने का आह्वान भी करें। 


यही भविष्य की अखण्डता की दिशा होगी। जो मोर्चा कल गांधार मुलतान में था, वह आज मुख्य भूमि में बंगाल, केरल तक लगा है। यह युद्धरत भारत है। हम मध्यांतर को युद्ध का समापन न समझें। इसमें सभी की भूमिका है।

धारा 370 गयी तो हमें पीओके स्पष्ट दिखने लगा। इसी तरह जब डूरंड और रेडक्लिफ लाइनों के मध्य अंग्रेजों द्वारा बनाया गया नकली देश पाकिस्तान जाएगा, तब हमें गांधार का मार्ग भी साफ दिखेगा। हमें उन सरहदों तक पहुंचना है जो हमारे पूर्वजों ने, हमारे इतिहास ने हमें दी हैं। हम वो नहीं हैं जो धर्मशत्रुओं के साथ सह-अस्तित्व को लक्ष्य बनाएं। 


पाकिस्तान का अस्तित्व अखण्ड भारत के लक्ष्य में सबसे बड़ी बाधा है। उनसे बड़ी बाधा है यहां विकसित हो गया पाक-समर्थक राष्ट्र विरोधी राजनैतिक तंत्र। अतः भारत का सशक्त होते जाना पाकिस्तान विचारधारा की स्वाभाविक पराजय है।


भारत और स्पेन लगभग समान काल तक विधर्मियों के गुलाम रहे थे। स्पेन में धर्मयुद्धों के बाद आज उस गुलामी के निशान भी नहीं हैं। सबकी घर वापसी हो गयी। यहां उसी समयकाल में खानवा में राणा सांगा की हार हुई और मुगल साम्राज्य स्थापित हो गया। अखण्ड भारत समझौतापरस्तों का स्वप्न नहीं है। आपका लक्ष्य यदि सबल समृद्ध भारत है तो आप स्वतः अखण्ड भारत के योद्धा हैं। सामाजिक एकता, अखण्ड भारत की सबसे बड़ी शक्ति होगी। अखण्डता मात्र राजनैतिक विचार नहीं बल्कि एकात्म सांस्कृतिक रणनीति भी है। एक महान् लक्ष्य जिसकी कार्ययोजना को आकार दिया जाना अभी शेष है।


साभार- पाथेय कण

हिंदू धर्म का इतिहास

 हमारा धर्म पहले संपूर्ण धरती पर व्याप्त था।




पहले धरती के सात द्वीप थे- जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौंच, शाक एवं पुष्कर। इसमें से जम्बूद्वीप सभी के बीचोबीच स्थित है। राजा प्रियव्रत संपूर्ण धरती के और राजा अग्नीन्ध्र सिर्फ जम्बूद्वीप के राजा थे। 


जम्बूद्वीप में नौ खंड हैं- इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। इसमें से भारतखंड को भारत वर्ष कहा जाता था। भारतवर्ष के 9 खंड हैं- इसमें इन्द्रद्वीप, कसेरु, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व और वारुण तथा यह समुद्र से घिरा हुआ द्वीप उनमें नौवां है। भारतवर्ष के इतिहास को ही हिन्दू धर्म का इतिहास नहीं समझना चाहिए।


ईस्वी सदी की शुरुआत में जब अखंड भारत से अलग दुनिया के अन्य हिस्सों में लोग पढ़ना-लिखना और सभ्य होना सीख रहे थे, तो दूसरी ओर भारत में विक्रमादित्य, पाणीनी, चाणक्य जैसे विद्वान व्याकरण और अर्थशास्त्र की नई इमारत खड़ी कर रहे थे। इसके बाद आर्यभट्ट, वराहमिहिर जैसे विद्वान अंतरिक्ष की खाक छान रहे थे। वसुबंधु, धर्मपाल, सुविष्णु, असंग, धर्मकीर्ति, शांतारक्षिता, नागार्जुन, आर्यदेव, पद्मसंभव जैसे लोग उन विश्वविद्यालय में पढ़ते थे जो सिर्फ भारत में ही थे। तक्षशिला, विक्रमशिला, नालंदा आदि अनेक विश्व विद्यालयों में देश विदेश के लोग पढ़ने आते थे।


तो यदि आप हिन्दू हैं , तो गर्व कीजिए कि आप एक महान विरासत का हिस्सा हैं, अपने धर्मग्रंथो का अध्ययन कीजिये और उनके ज्ञान से स्वयं को उन्नत और श्रेष्ठ बनाइये । और यदि आप हिन्दू नहीं भी हैं तब भी हर मनुष्य को स्वयं को अच्छाई की और ले जाने का जन्मजात हक है । आइये और हिंदुत्व की महान विरासत से, अद्भुत ज्ञान से अपने जीवन का निर्माण कीजिये । और प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं।


जय श्री राम

Sab kuch

माँ पर शायरी

  "माँ के कदमों में बसी जन्नत की पहचान, उसकी दुआओं से ही रोशन है हर इंसान। जिंदगी की हर ठोकर से बचा लेती है, माँ की ममता, ये दुन...