समर्पण का क्या अर्थ होता है?
यह व्यक्ति मेरा गुरु और इस व्यक्ति के अतिरिक्त मेरा कोई गुरु नहीं। इससे वहां अर्थ बिल्कुल नहीं होता कि दूसरे गुरु नहीं है। दूसरे गुरु हैं, वहीं दूसरे समर्पित लोगों के गुरु होंगे। जब तक तुम किसी के प्रति समर्पित नहीं हो, तब तक वह व्यक्ति तुम्हारे लिए गुरु नहीं है। ख्याल रखना, गुरु कोई ऐसी चीज नहीं है कि किसी के ऊपर छाप लगी है गुरु होने की। गुरु तुम शिष्य और ज्ञानी के सम्बन्ध का नाम है। कृष्ण नारायण किसी के गुरु होंगे। रामण किसी के गुरु होंगे। रामकृष्ण किसी के गुरु होंगे।
यह व्यक्ति मेरा गुरु और इस व्यक्ति के अतिरिक्त मेरा कोई गुरु नहीं। इससे वहां अर्थ बिल्कुल नहीं होता कि दूसरे गुरु नहीं है। दूसरे गुरु हैं, वहीं दूसरे समर्पित लोगों के गुरु होंगे। जब तक तुम किसी के प्रति समर्पित नहीं हो, तब तक वह व्यक्ति तुम्हारे लिए गुरु नहीं है। ख्याल रखना, गुरु कोई ऐसी चीज नहीं है कि किसी के ऊपर छाप लगी है गुरु होने की। गुरु तुम शिष्य और ज्ञानी के सम्बन्ध का नाम है। कृष्ण नारायण किसी के गुरु होंगे। रामण किसी के गुरु होंगे। रामकृष्ण किसी के गुरु होंगे।
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जो ऐसे करते हैं, कभी इनके पास, कभी उनके पास वे न तो शिष्य है, न समर्पित है और फिर चोरी - छुपे करने की तो कोई जरूरत ही नहीं है। चोरी-छिपे इसलिए करते हैं कि है तो विद्यार्थी, लेकिन दिखलाना चाहते हैं शिष्य हैं, शिष्य होने की जो गरिमा है, वह भी अहंकार छोड़ना नहीं चाहता। यह मानकर मन में कष्ट होता है कि मैं और विद्यार्थी तो चोरी - छुपे करते हैं।कुछ हर्ज नहीं है। जो करना है सीधे-सीधे करना चाहिये। चोरी-छिपे करने की क्या जरूरत है? चोरी - छुपे तो और उल्टा पाप हुआ। चोरी - छुपे तो यह मतलब हुआ कि तुम मुझसे छुपाते हों, तो मुझसे सारे संबंध टूट गये। मेरे सामने खुलोगे तो संबंध घनिष्ठ होंगे। मुझसे छुपा होगा तो कैसे संबंध गहन होंगे।
( परम पूज्य सद्गुरुदेव कैलाश चंद्र श्रीमालीजी )
( कैलाश सिद्धाश्रम दिल्ली )
अगस्त की पत्रिका पेज नंबर 28,