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सिद्धि-चण्डी महा-विद्या सहस्राक्षर मन्त्र

 


वन्दे परागम-विद्यां, सिद्धि-चण्डीं सङ्गिताम् ।

महा-सप्तशती-मन्त्र-स्वरुपां सर्व-सिद्धिदाम् ।।

विनियोगः- ॐ अस्य सर्व-विज्ञान-महा-राज्ञी-सप्तशती रहस्याति-रहस्य-मयी-परा-शक्ति श्रीमदाद्या-भगवती-सिद्धि-चण्डिका-सहस्राक्षरी-महा-विद्या-मन्त्रस्य श्रीमार्कण्डेय-सुमेधा ऋषि, गायत्र्यादि नाना-विधानि छन्दांसि, नव-कोटि-शक्ति-युक्ता-श्रीमदाद्या-भगवती-सिद्धि-चण्डी देवता, श्रीमदाद्या-भगवती-सिद्धि-चण्डी-प्रसादादखिलेष्टार्थे जपे विनियोगः ।

ऋष्यादि-न्यासः- श्रीमार्कण्डेय-सुमेधा ऋषिभ्यां नमः शिरसि, गायत्र्यादि नाना-विधानि छन्देभ्यो नमः मुखे, नव-कोटि-शक्ति-युक्ता-श्रीमदाद्या-भगवती-सिद्धि-चण्डी देवतायै नमः हृदि, श्रीमदाद्या-भगवती-सिद्धि-चण्डी-प्रसादादखिलेष्टार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।

महा-विद्या-न्यासः- ॐ श्रीं नमः सहस्रारे । ॐ ह्रीं नमः भाले। क्लीं नमः नेत्र-युगले। ॐ ऐं नमः कर्ण-द्वये। ॐ सौं नमः नासा-पुट-द्वये। ॐ ॐ नमो मुखे।ॐ ह्रीं नमः कण्ठे। ॐ श्रीं नमो हृदये। ॐ ऐं नमो हस्त-युगे। ॐ क्लीं नमः उदरे। ॐ सौं नमः कट्यां। ॐ ऐं नमो गुह्ये। ॐ क्लीं नमो जङ्घा-युगे। ॐ ह्रीं नमो जानु-द्वये। ॐ श्रीं नमः पादादि-सर्वांगे।।

ॐ या माया मधु-कैटभ-प्रमथनी, या माहिषोन्मूलनी,

या धूम्रेक्षण-चण्ड-मुण्ड-दलनी, या रक्त-बीजाशनी।

शक्तिः शुम्भ-निशुम्भ-दैत्य-मथनी, या सिद्ध-लक्ष्मी परा,

सा देवी नव-कोटि-मूर्ति-सहिता, मां पातु विश्वेश्वरी।।

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह्मौं श्रीं ह्रीं क्लौं ऐं सौं ॐ ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौं ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं जय जय महा-लक्ष्मि जगदाद्ये बीज-सुरासुर-त्रिभुवन-निदाने दयांकुरे सर्व-तेजो-रुपिणि महा-महा-महिमे महा-महा-रुपिणि महा-महा-माये महा-माया-स्वरुपिणि विरञ्चि-संस्तुते ! विधि-वरदे सच्चिदानन्दे विष्णु-देह-व्रते महा-मोहिनि मधु-कैटभ-जिह्वासिनि नित्य-वरदान-तत्परे ! महा-स्वाध्याय-वासिनि महा-महा-तेज्यधारिणि ! सर्वाधारे सर्व-कारण-करणे अचिन्त्य-रुपे ! इन्द्रादि-निखिल-निर्जर-सेविते ! साम-गानं गायन्ति पूर्णोदय-कारिणि! विजये जयन्ति अपराजिते सर्व-सुन्दरि रक्तांशुके सूर्य-कोटि-शशांकेन्द्र-कोटि-सुशीतले अग्नि-कोटि-दहन-शीले यम-कोटि-क्रूरे वायु-कोटि-वहन-सुशीतले !

ॐ-कार-नाद-बिन्दु-रुपिणि निगमागम-मार्ग-दायिनि महिषासुर-निर्दलनि धूम्र-लोचन-वध-परायणे चण्ड-मुण्डादि-सिरच्छेदिनि रक्त-बीजादि-रुधिर-शोषणि रक्त-पान-प्रिये महा-योगिनि भूत-वैताल-भैरवादि-तुष्टि-विधायनि शुम्भ-निशुम्भ-शिरच्छेदिनि ! निखिला-सुर-बल-खादिनि त्रिदश-राज्य-दायिनि सर्व-स्त्री-रत्न-रुपिणि दिव्य-देह-निर्गुणे सगुणे सदसत्-रुप-धारिणि सुर-वरदे भक्त-त्राण-तत्परे।

वर-वरदे सहस्त्राक्षरे अयुताक्षरे सप्त-कोटि-चामुण्डा-रुपिणि नव-कोटि-कात्यायनी-रुपे अनेक-लक्षालक्ष-स्वरुपे इन्द्राग्नि ब्रह्माणि रुद्राणि ईशानि भ्रामरि भीमे नारसिंहे ! त्रय-त्रिंशत्-कोटि-दैवते अनन्त-कोटि-ब्रह्माण्ड-नायिके चतुरशीति-मुनि-जन-संस्तुते ! सप्त-कोटि-मन्त्र-स्वरुपे महा-काले रात्रि-प्रकाशे कला-काष्ठादि-रुपिणि चतुर्दश-भुवन-भावाविकारिणि गरुड-गामिनि ! कों-कार हों-कार ह्रीं-कार श्रीं-कार दलेंकार जूँ-कार सौं-कार ऐं-कार क्लें-कार ह्रीं-कार ह्रौं-कार हौं-कार-नाना-बीज-कूट-निर्मित-शरीरे नाना-बीज-मन्त्र-राग-विराजते ! सकल-सुन्दरी-गण-सेवते करुणा-रस-कल्लोलिनि कल्प-वृक्षाधिष्ठिते चिन्ता-मणि-द्वीपेऽवस्थिते मणि-मन्दिर-निवासे ! चापिनि खडिगनि चक्रिणि गदिनि शंखिनि पद्मिनि निखिल-भैरवाधिपति-समस्त-योगिनी-परिवृते !

कालि कङ्कालि तोर-तोतले सु-तारे ज्वाला-मुखि छिन्न-मस्तके भुवनेश्वरि ! त्रिपुरे लोक-जननि विष्णु-वक्ष-स्थलालङ्कारिणि ! अजिते अमिते अमराधिपे अनूप-सरिते गर्भ-वासादि दुःखापहारिणि मुक्ति-क्षेमाधिषयनि शिवे शान्ति-कुमारि देवि ! सूक्त-दश-शताक्षरे चण्डि चामुण्डे महा-कालि महा-लक्ष्मि महा-सरस्वति त्रयी-विग्रहे ! प्रसीद-प्रसीद सर्व-मनोरथान् पूरय सर्वारिष्ट-विघ्नं छेदय-छेदय, सर्व-ग्रह-पीडा-ज्वरोग्र-भयं विध्वंसय-विध्वंसय, सर्व-त्रिभुवन-जातं वशय-वशय, मोक्ष-मार्गं दर्शय-दर्शय, ज्ञान-मार्गं प्रकाशय-प्रकाशय, अज्ञान-तमो नाशय-नाशय, धन-धान्यादि कुरु-कुरु, सर्व-कल्याणानि कल्पय-कल्पय, मां रक्ष-रक्ष, सर्वापद्भ्यो निस्तारय-निस्तारय। मम वज्र-शरीरं साधय-साधय, ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमोऽस्तु ते स्वाहा।।

१॰ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमो दैव्यै महा-देव्यै, शिवायै सततं नमः।

नमः प्रकृत्यै भद्रायै, नियताः प्रणताः स्म ताम्।।

२॰ ॐ ऐं ह्रीं श्रीं सर्व-मंगल-माङ्गल्ये, शिवे सर्वार्थ-साधिके !

शरण्ये त्र्यम्बके गौरि ! नारायणि नमोऽस्तु ते ।।

३॰ सर्व-स्वरुपे सर्वेशे, सर्व-शक्ति-समन्विते !

भयेभ्यस्त्राहि नो देवि ! दुर्गे देवि ! नमोऽस्तु ते।।

सिद्धि-चण्डी-महा-मन्त्रं, यः पठेत् प्रयतो नरः। सर्व-सिद्धिमवाप्नोति, सर्वत्र विजयी भवेत्।।

संग्रामेषु जयेत् शत्रून्, मातंगं इव केसरी। वशयेत् सदा निखिलान्, विशेषेण महीपतीन्।।

त्रिकालं यः पठेन्नित्यं, सर्वेश्वर्य-पुरःसरम्। तस्य नश्यन्ति विघ्नानि, ग्रह-पीडाश्च वारणम्।।

पराभिचार-शमनं, तीव्र-दारिद्रय-नाशनं। सर्व-कल्याण-निलयं, देव्याः सन्तोष-कारकम्।।

सहस्त्रावृत्तितस्तु, देवि ! मनोरथ-समृद्धिदम्। द्वि-सहस्त्रावृत्तितस्तु, सर्व-संकट-नाशनम्।।

त्रि-सहस्त्रावृत्तितस्तु, वशयेद् राज-योषितम्।

अयुतं प्रपठेद् यस्तु, सर्वत्र चैवातन्द्रितः। स पश्येच्चण्डिकां साक्षात्, वरदान-कृतोद्यमाम्।।

इदं रहस्यं परमं, गोपनीयं प्रयत्नतः। वाच्यं न कस्यचित् देवि ! विधानमस्थ सुन्दरि।।

।।श्रीसिद्धि-डामरे शिव-देवी-संवादे सहस्त्राक्षरं सिद्धि-चण्डी-महा-विद्योत्तमाम् सम्पूर्णम्।।……..


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दाह संस्कार

 

मृत्यु के बाद शव को जलाने

का नियम क्यों ?

हिन्दू धर्म में गर्भधारण से लेकर

मृत्यु के बाद तक कुल सोलह

संस्कार बताए गए हैं। सोलहवें

संस्कार को अंतिम संस्कार और

दाह संस्कार के नाम से

जाना जाता है। इसमें मृत

व्यक्ति के शरीर को स्नान

कराकर शुद्ध किया जाता है।

इसके बाद वैदिक मंत्रों से साथ

शव की पूजा की जाती है फिर

बाद में मृतक व्यक्ति का ज्येष्ठ

पुत्र अथवा कोई निकट

संबंधी मुखाग्नि देता है।

शास्त्रों के अनुसार परिवार के

सदस्यों के हाथों से

मुखाग्नि मिलने से मृत

व्यक्ति की आत्मा का मोह अपने

परिवार के सदस्यों से खत्म

होता है। और वह कर्म के अनुसार

बंधन से मुक्त होकर अगले शरीर

को पाने के लिए बढ़ जाता है।

दाह संस्कार इसलिए

जरूरी होता है

शास्त्रों में बताया गया है शरीर

की रचना पंच तत्व से होती है ये

पंच तत्व हैं पृथ्वी, जल, अग्नि,

वायु और आकाश। शव का दाह करने

से शरीर जल कर पुन: पंचतत्व में

विलीन हो जाता है। जबकि अन्य

संस्कारों में

ऎसा नहीं हो पाता है।

क्योंकि शव को जलाने से सबसे

पहले पृथ्वी को राख के रुप में

अपना अंश मिला जाता है। धुआं

आसमान में जाता है जिससे आकाश

का तत्व आकाश में मिल जाता है

और वायु तत्व वायु में घुल

जाता है।

अग्नि शरीर को जलाकर

आत्मा को शुद्धि प्रदान करती है

और अपना अंश प्राप्त कर लेती है।

दाह संस्कार के बाद

अस्थियों को चुनकर पवित्र जल में

विसर्जित कर दिया जाता है

जिस जल तत्व को अपना अंश मिल

जाता है।

दाह संस्कार का व्यवहारिक

कारण

शव का दाह संस्कार करने के पीछे

धार्मिक मान्यता पंच तत्व से

जुड़ा हुआ है जबकि व्यवहारिक

दृष्टि से भी शव दाह संस्कार

का महत्व है। शव का दफनाने से

शरीर में कीड़े लग जाते हैं। कई

बार कुत्ते या दूसरे जानवर शव

को भूमि से निकलकर उन्हें क्षत-

विक्षत कर देते हैं। इसलिए शव

दाह के नियम बनाए गए होंगे।

एक दूसरा व्यवहारिक पहलू यह

भी है कि शव को दफनाने के बाद

जमीन बेकार हो जाती है,

यानी उस जमीन को पुन: दूसरे

कार्य में उपयोग में

नहीं लाया जा सकता ।

जबकि दाह संस्कार से जमीन

की उपयोगिता बनी रहती है।

शव दाह संस्कार का एक नियम

यह भी है कि अस्थि को गंगा में

विसर्जित करना चाहिए।

गंगा पृथ्वी पर मुक्ति देने के लिए

आई थी और माना जाता है

कि गंगा में अस्थि विसर्जन से

मुक्ति मिलती है। इसलिए

भी अग्नि संस्कार का प्रावधान

शास्त्रों में बताया गया है।

भगवान शिव के रहस्य

 


भगवान शिव अर्थात पार्वती के पति शंकर जिन्हें महादेव, भोलेनाथ, आदिनाथ आदि कहा जाता है, उनके बारे में यहां प्रस्तुत हैं 35 रहस्य।


1. आदिनाथ शिव


सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें 'आदिदेव' भी कहा जाता है। 'आदि' का अर्थ प्रारंभ। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम 'आदिश' भी है।


2. शिव के अस्त्र-शस्त्र


शिव का धनुष पिनाक, चक्र भवरेंदु और सुदर्शन, अस्त्र पाशुपतास्त्र और शस्त्र त्रिशूल है। उक्त सभी का उन्होंने ही निर्माण किया था।

 

3. शिव का नाग


शिव के गले में जो नाग लिपटा रहता है उसका नाम वासुकि है। वासुकि के बड़े भाई का नाम शेषनाग है।


4. शिव की अर्द्धांगिनी


शिव की पहली पत्नी सती ने ही अगले जन्म में पार्वती के रूप में जन्म लिया और वही उमा, उर्मि, काली कही गई हैं।


5. शिव के पुत्र


शिव के प्रमुख 6 पुत्र हैं- गणेश, कार्तिकेय, सुकेश, जलंधर, अयप्पा और भूमा। सभी के जन्म की कथा रोचक है।

 

6. शिव के शिष्य


शिव के 7 शिष्य हैं जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है। इन ऋषियों ने ही शिव के ज्ञान को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया जिसके चलते भिन्न-भिन्न धर्म और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी। शिव के शिष्य हैं- बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे।

 

7. शिव के गण


शिव के गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय प्रमुख हैं। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। शिवगण नंदी ने ही 'कामशास्त्र' की रचना की थी। 'कामशास्त्र' के आधार पर ही 'कामसूत्र' लिखा गया।


8. शिव पंचायत


भगवान सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।

 

9. शिव के द्वारपाल


नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल।


10. शिव पार्षद


जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं।


11. सभी धर्मों का केंद्र शिव


शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक ढूंढ सकते हैं। मुशरिक, यजीदी, साबिईन, सुबी, इब्राहीमी धर्मों में शिव के होने की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। शिव के शिष्यों से एक ऐसी परंपरा की शुरुआत हुई, जो आगे चलकर शैव, सिद्ध, नाथ, दिगंबर और सूफी संप्रदाय में वि‍भक्त हो गई।

 

12. बौद्ध साहित्यके मर्मज्ञ अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान प्रोफेसर उपासक का मानना है कि शंकर ने ही बुद्ध के रूप में जन्म लिया था। उन्होंने पालि ग्रंथों में वर्णित 27 बुद्धों का उल्लेख करते हुए बताया कि इनमें बुद्ध के 3 नाम अतिप्राचीन हैं- तणंकर, शणंकर और मेघंकर।


13. देवता और असुर दोनों के प्रिय शिव


भगवान शिव को देवों के साथ असुर, दानव, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, यक्ष आदि सभी पूजते हैं। वे रावण को भी वरदान देते हैं और राम को भी। उन्होंने भस्मासुर, शुक्राचार्य आदि कई असुरों को वरदान दिया था। शिव, सभी आदिवासी, वनवासी जाति, वर्ण, धर्म और समाज के सर्वोच्च देवता हैं।

 

14. शिव चिह्न


वनवासी से लेकर सभी साधारण व्‍यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्‍थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्द्ध चन्द्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं, हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं।


15. शिव की गुफा


शिव ने भस्मासुर से बचने के लिए एक पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। दूसरी ओर भगवान शिव ने जहां पार्वती को अमृत ज्ञान दिया था वह गुफा 'अमरनाथ गुफा' के नाम से प्रसिद्ध है।


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16. शिव के पैरों के निशान


श्रीपद- श्रीलंका में रतन द्वीप पहाड़ की चोटी पर स्थित श्रीपद नामक मंदिर में शिव के पैरों के निशान हैं। ये पदचिह्न 5 फुट 7 इंच लंबे और 2 फुट 6 इंच चौड़े हैं। इस स्थान को सिवानोलीपदम कहते हैं। कुछ लोग इसे आदम पीक कहते हैं।


रुद्र पद- तमिलनाडु के नागपट्टीनम जिले के थिरुवेंगडू क्षेत्र में श्रीस्वेदारण्येश्‍वर का मंदिर में शिव के पदचिह्न हैं जिसे 'रुद्र पदम' कहा जाता है। इसके अलावा थिरुवन्नामलाई में भी एक स्थान पर शिव के पदचिह्न हैं।


तेजपुर- असम के तेजपुर में ब्रह्मपुत्र नदी के पास स्थित रुद्रपद मंदिर में शिव के दाएं पैर का निशान है।


जागेश्वर- उत्तराखंड के अल्मोड़ा से 36 किलोमीटर दूर जागेश्वर मंदिर की पहाड़ी से लगभग साढ़े 4 किलोमीटर दूर जंगल में भीम के मंदिर के पास शिव के पदचिह्न हैं। पांडवों को दर्शन देने से बचने के लिए उन्होंने अपना एक पैर यहां और दूसरा कैलाश में रखा था।


रांची- झारखंड के रांची रेलवे स्टेशन से 7 किलोमीटर की दूरी पर 'रांची हिल' पर शिवजी के पैरों के निशान हैं। इस स्थान को 'पहाड़ी बाबा मंदिर' कहा जाता है।

 

17. शिव के अवतार


वीरभद्र, पिप्पलाद, नंदी, भैरव, महेश, अश्वत्थामा, शरभावतार, गृहपति, दुर्वासा, हनुमान, वृषभ, यतिनाथ, कृष्णदर्शन, अवधूत, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, किरात, सुनटनर्तक, ब्रह्मचारी, यक्ष, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, द्विज, नतेश्वर आदि हुए हैं। वेदों में रुद्रों का जिक्र है। रुद्र 11 बताए जाते हैं- कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शंभू, चण्ड तथा भव।

 

18. शिव का विरोधाभासिक परिवार


शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, जबकि शिव के गले में वासुकि नाग है। स्वभाव से मयूर और नाग आपस में दुश्मन हैं। इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि सांप मूषकभक्षी जीव है। पार्वती का वाहन शेर है, लेकिन शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। इस विरोधाभास या वैचारिक भिन्नता के बावजूद परिवार में एकता है।


19. ति‍ब्बतस्थित कैलाश पर्वत पर उनका निवास है। जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है जो भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है। 


20.शिव भक्त :ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवी-देवताओं सहित भगवान राम और कृष्ण भी शिव भक्त है। हरिवंश पुराण के अनुसार, कैलास पर्वत पर कृष्ण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। भगवान राम ने रामेश्वरम में शिवलिंग स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की थी।


21.शिव ध्यान :शिव की भक्ति हेतु शिव का ध्यान-पूजन किया जाता है। शिवलिंग को बिल्वपत्र चढ़ाकर शिवलिंग के समीप मंत्र जाप या ध्यान करने से मोक्ष का मार्ग पुष्ट होता है।

 

22.शिव मंत्र :दो ही शिव के मंत्र हैं पहला- ॐ नम: शिवाय। दूसरा महामृत्युंजय मंत्र- ॐ ह्रौं जू सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जू ह्रौं ॐ ॥ है।


23.शिव व्रत और त्योहार :सोमवार, प्रदोष और श्रावण मास में शिव व्रत रखे जाते हैं। शिवरात्रि और महाशिवरात्रि शिव का प्रमुख पर्व त्योहार है।

 

24.शिव प्रचारक :भगवान शंकर की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया। इसके अलावा वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, बाण, रावण, जय और विजय ने भी शैवपंथ का प्रचार किया। इस परंपरा में सबसे बड़ा नाम आदिगुरु भगवान दत्तात्रेय का आता है। दत्तात्रेय के बाद आदि शंकराचार्य, मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गुरुगोरखनाथ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।

 

25.शिव महिमा :शिव ने कालकूट नामक विष पिया था जो अमृत मंथन के दौरान निकला था। शिव ने भस्मासुर जैसे कई असुरों को वरदान दिया था। शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। शिव ने गणेश और राजा दक्ष के सिर को जोड़ दिया था। ब्रह्मा द्वारा छल किए जाने पर शिव ने ब्रह्मा का पांचवां सिर काट दिया था।


26.शैव परम्परा :दसनामी, शाक्त, सिद्ध, दिगंबर, नाथ, लिंगायत, तमिल शैव, कालमुख शैव, कश्मीरी शैव, वीरशैव, नाग, लकुलीश, पाशुपत, कापालिक, कालदमन और महेश्वर सभी शैव परंपरा से हैं। चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी शिव की परंपरा से ही माने जाते हैं। भारत की असुर, रक्ष और आदिवासी जाति के आराध्य देव शिव ही हैं। शैव धर्म भारत के आदिवासियों का धर्म है।

 

27.शिव के प्रमुख नाम :शिव के वैसे तो अनेक नाम हैं जिनमें 108 नामों का उल्लेख पुराणों में मिलता है लेकिन यहां प्रचलित नाम जानें- महेश, नीलकंठ, महादेव, महाकाल, शंकर, पशुपतिनाथ, गंगाधर, नटराज, त्रिनेत्र, भोलेनाथ, आदिदेव, आदिनाथ, त्रियंबक, त्रिलोकेश, जटाशंकर, जगदीश, प्रलयंकर, विश्वनाथ, विश्वेश्वर, हर, शिवशंभु, भूतनाथ और रुद्र।


28.अमरनाथ के अमृत वचन :शिव ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। 'विज्ञान भैरव तंत्र' एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।

 

29.शिव ग्रंथ :वेद और उपनिषद सहित विज्ञान भैरव तंत्र, शिव पुराण और शिव संहिता में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है।


30.शिवलिंग :वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है, उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि। यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना है।

 

31.बारह ज्योतिर्लिंग :सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ॐकारेश्वर, वैद्यनाथ, भीमशंकर, रामेश्वर, नागेश्वर, विश्वनाथजी, त्र्यम्बकेश्वर, केदारनाथ, घृष्णेश्वर। ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में अनेकों मान्यताएं प्रचलित है। ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। जो शिवलिंग के बारह खंड हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है। दूसरी मान्यता अनुसार शिव पुराण के अनुसार प्राचीनकाल में आकाश से ज्‍योति पिंड पृथ्‍वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेकों उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। भारत में गिरे अनेकों पिंडों में से प्रमुख बारह पिंड को ही ज्‍योतिर्लिंग में शामिल किया गया।

 

32.शिव का दर्शन :शिव के जीवन और दर्शन को जो लोग यथार्थ दृष्टि से देखते हैं वे सही बुद्धि वाले और यथार्थ को पकड़ने वाले शिवभक्त हैं, क्योंकि शिव का दर्शन कहता है कि यथार्थ में जियो, वर्तमान में जियो, अपनी चित्तवृत्तियों से लड़ो मत, उन्हें अजनबी बनकर देखो और कल्पना का भी यथार्थ के लिए उपयोग करो। आइंस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कि कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।


33.शिव और शंकर :शिव का नाम शंकर के साथ जोड़ा जाता है। लोग कहते हैं– शिव, शंकर, भोलेनाथ। इस तरह अनजाने ही कई लोग शिव और शंकर को एक ही सत्ता के दो नाम बताते हैं। असल में, दोनों की प्रतिमाएं अलग-अलग आकृति की हैं। शंकर को हमेशा तपस्वी रूप में दिखाया जाता है। कई जगह तो शंकर को शिवलिंग का ध्यान करते हुए दिखाया गया है। अत: शिव और शंकर दो अलग अलग सत्ताएं है। हालांकि शंकर को भी शिवरूप माना गया है। माना जाता है कि महेष (नंदी) और महाकाल भगवान शंकर के द्वारपाल हैं। रुद्र देवता शंकर की पंचायत के सदस्य हैं।

 

34.देवों के देव महादेव :देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं। वे राम को भी वरदान देते हैं और रावण को भी।


35.शिव हर काल में :भगवान शिव ने हर काल में लोगों को दर्शन दिए हैं। राम के समय भी शिव थे। महाभारत काल में भी शिव थे और विक्रमादित्य के काल में भी शिव के दर्शन होने का उल्लेख मिलता है। भविष्य पुराण अनुसार राजा हर्षवर्धन को भी भगवान शिव ने दर्शन दिए थे।


ॐ नमः शिवाय।    हर हर महादेव जी।


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प्रदोषस्तोत्राष्टकम्‌

 



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श्रीस्कन्दपुराण में वर्णित प्रदोषस्तोत्राष्टकम्‌ 

 

सत्यं ब्रवीमि परलोकहितं ब्रव्रीम सारं ब्रवीम्युपनिषद्धृदयं ब्रमीमि।

संसारमुल्बणमसारमवाप्य जन्तोः सारोऽयमीश्वरपदाम्बुरुहस्य सेवा ॥

 

ये नार्चयन्ति गिरिशं समये प्रदोषे, ये नाचितं शिवमपि प्रणमन्ति चान्ये।


एतत्कथां श्रुतिपुटैर्न पिबन्ति मूढास्ते, जन्मजन्मसु भवन्ति नरा दरिद्राः॥

 

ये वै प्रदोषसमये परमेश्वरस्य, कुर्वन्त्यनन्यमनसांऽघ्रिसरोजपूजाम्‌ ।

नित्यं प्रवृद्धधनधान्यकलत्रपुत्र सौभाग्यसम्पदधिकास्त इहैव लोके ॥

 

कैलासशैवभुवने त्रिजगज्जनिनित्रीं गौरीं निवेश्य कनकाचितरत्नपीठे ।

नृत्यं विधातुमभिवांछति शूलपाणौ देवाः प्रदोषसमये नु भजन्ति सर्वे॥

 

वाग्देवी धृतवल्लकी शतमखो वेणुं दधत्पद्मजस्तालोन्निद्रकरो रमा भगवती गेयप्रयोगान्विता ।

विष्णुः सान्द्रमृदंङवादनपयुर्देवाः समन्तात्स्थिताः, सेवन्ते तमनु प्रदोषसमये देवं मृडानीपातम्‌ ॥

 

गन्धर्वयक्षपतगोरग-सिद्ध-साध्व-विद्याधराम रवराप्सरसां गणश्च ।

येऽन्ये त्रिलोकनिकलयाः सहभूतवर्गाः प्राप्ते प्रदोष समये हरपार्श्र्वसंस्थाः ॥


 

अतः प्रदोषे शिव एक एव पूज्योऽथ नान्ये हरिपद्मजाद्याः ।

तस्मिन्महेशे विधिनेज्यमाने सर्वे प्रसीदन्ति सुराधिनाथाः ॥

 

एष ते तनयः पूर्वजन्मनि ब्राह्मणोत्तमः ।

प्रतिग्रहैर्वयो निन्ये न दानाद्यैः सुकर्मभिः ॥

 

अतो दारिद्र्‌यमापन्नः पुत्रस्ते द्विजभामिनि ।

तद्दोषपरिहारार्थं शरणां यातु शंकरम्‌ ॥

 

॥ इति श्रीस्कन्दपुराणान्तर्गत प्रदोषस्तोत्राष्टक संपूर्णम्‌ ॥


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समाधि

    


जब साधक सद्गुरु की कृपा से साधना, ध्यान अभ्यास पूर्ण कर समाधि योग्य हो जाता है, बाहरी विचारों से मुक्त होकर अंतर्मुखी हो जाता है तथा वह अपनी आत्मा में ही लीन रहता है तो समाधि घटित होती है । 


जब साधक ध्यान में बैठता है तो कुछ समय पश्चात उसे एक मौन जैसी अवस्था प्राप्त होती है । यहाँ उसे बेचैनी और उदासी सी अनुभव होती है । यहाँ पर साधक को अपने विचारों पर अधिक ध्यान नही देना चाहिए । विचार आ रहे है तो आने दो, जा रहे हैं तो जाने दो, बस दृष्टा बने रहो, एक पैनी नज़र के साथ । यहाँ साधक को धैर्य बनाए रखना चाहिए । इस मौन और उदासी के बाद ही हृदय प्रकाश से भरने लगता है । ध्यान में शरीरी भाव खोने लगेगा लेकिन साधक को इससे डरना नहीं चाहिए बल्कि खुश होना चाहिए कि वह परमात्मा प्राप्ति के मार्ग की और अग्रसर हो रहा है । अब साधक को ब्रह्म भाव की अनुभूति होने लगेगी । शरीर में विद्युत ऊर्जा का संचार होने लगेगा । इससे कभी कभी साधक के सिर में दर्द हो सकता है और यह बहुत ज्यादा भी हो सकता है । पीड़ा या दर्द यदि अधिक बढ़े तो चिंता नहीं करना चाहिए क्योंकि जब चक्र टूटते है तो पीड़ा होती ही है क्योंकि चक्र आदि काल से सोये पड़े हैं । अत: इस पीड़ा को शुभ मानना चाहिए । 


साधक के शरीर में या मस्तिष्क में झटते लग सकते है । कभी कभी शरीर कांपने लगता है लेकिन साधक को इस स्थिति से डरना नहीं चाहिए । कभी कभी शरीर में दर्द होगा और चला जाएगा । इसको भी दृष्टा भाव से देखते रहना क्योंकि यह भी अपना काम करके चला जाएगा । ध्यान में डटे रहना । यह कुंडलनी जागरण के चिह्न हैं, शरीर में विद्युत तेजी से चलती है । फिर धीरे धीरे अलौकिक अनुभव होने लगते है । शरीर तथा आत्मा आनंद से भरपूर हो जाती हैं । यहाँ साधक को चाहिए कि अपना कर्ता भाव पूर्ण रूप से छोडकर बस देखता रहे जैसे कोई नाटक देखता है । 


अब ऊर्जा उर्द्धगामी हो जाती है । यदि आपका तीसरा नेत्र अर्थात शिवनेत्र नहीं खुला है तो चिंता नहीं करना क्योंकि परमात्मा प्राप्ति की यात्रा के लिए यह जरूरी भी नहीं है । उच्चस्थिति आने पर यह स्वत: ही खुल जाता है । समय से पूर्व शक्ति का खुल जाना भी हानिप्रद हो सकता है । अब यह समझिए कि बीज अंकुरित हो चुका है अत: साधना में धैर्य रखते चलना । यह धैर्य ही ध्यान समाधि के रास्ते में खाद का कार्य करता है । अध्यात्म के अनुभवों का बुद्धि के आधार पर विश्लेषण न करना । क्योंकि ध्यान में तरक्की कुछ इस ढंग से होती रहती है जैसे मिट्टी में दबा बीज अंकुरित होता रहता है लेकिन अंकुरण की तरक्की का पता जब चलता है जब वह धरती की सतह से ऊपर आ जाता है । इस प्रकार धीरे धीरे साधक ( ध्याता ) ध्यान द्वारा ध्येय में पूर्णरूपेण लय हो जाता है और उसमें द्वैतभाव नहीं रहता है ऐसी अवस्था में समाधि लगती है । समाधि प्राप्त साधक दिव्य ज्योति एवं अद्भुद ताकत से पूर्ण हो जाता है । समाधि प्राप्त साधक सभी जीवों में  SHIV का वास देखने लगता है।


किसी की आज्ञा कभी मत मानो जब तक कि वह स्वयं की ही आज्ञा न हो। 

(सहज समाधि भली) 

जीवन के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है।  सत्य स्वयं में है, इसलिए उसे और कहीं मत खोजना।  प्रेम प्रार्थना है। 

शून्य होना सत्य का द्वार है; शून्यता ही साधन है, साध्य जीवन है, अभी और यहीं। जीओ--जागे हुए।  तैरो मत, बहो। मरो प्रतिक्षण, ताकि प्रतिपल नए हो सको। खोजो मत, जो है--है, रुको और देखो। 


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वितर्कानुगम समाधि

वितर्क :- जहाँ मन में सत्य को जानने के लिए और संसार को देखने के लिए एक विशेष तर्क होता है।

तीन तरह के तर्क हो सकते है - तर्क, कुतर्क, वितर्क।

कुतर्क का अर्थ है गलत तर्क, जिस में आशय ही गलत होता है। ऐसी स्थिति में तर्क लगाने का एकमात्र उद्देश्य दूसरे में गलती  निकालना होता है, तुम्हें  अपने भीतर पता होता है कि यह बात सही नहीं है, फिर भी तर्क के द्वारा तुम उस बात को सही सिद्ध कर देते हो। उदाहरणतः आधे दरवाज़े के खुले रहने का अर्थ है आधे दरवाज़े का बंद रहना; इसलिए पूरे दरवाज़े के खुले रहने का अर्थ है पूरे दरवाज़े का बंद होना! भगवान प्रेम हैं, और प्रेम अंधा होता है; इसलिए, भगवान अंधे हैं!

वितर्क एक विशेष तरह का  तर्क होते हैं, अभी जैसे हम तार्किक रूप से वैराग्य को समझ रहे थे पर ऐसे सुनने समझने की चेतना में प्रभाव हो रहा था, ऐसे विशेष तर्क से चेतना उठी हुई है, तुम एक अलग अवस्था में हो, यही समाधि है।  

समाधि का अर्थ है समता,'धी' अर्थात बुद्धि, चेतना का वह हिस्सा जिससे तुम समझते हो। जैसे अभी हम सभी समाधि की अवस्था में  हैं, हम एक विशेष तर्क से चेतना को समझ रहे हैं।  

तर्क किसी भी तरह से पलट सकता है, तुम तर्क को इस तरफ या दूसरी तरफ, कहीं भी रख सकते हो, तर्क का कोई भरोसा नहीं होता। परन्तु वितर्क को पलटा नहीं जा सकता है।  

जैसे किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाए और तुम वहां खड़े हो, मान लो की तुम उनसे भावनात्मक रूप से नहीं जुड़े हो, अभी तुम्हें  पता है कि इस व्यक्ति का जीवन अब नहीं है और यह अंतिम सत्य है। ऐसे क्षण में तुम्हारी चेतना एक अलग अवस्था में होती है।  

जैसे कोई फिल्म जब समाप्त होती है तब कुछ समाप्त हो जाने का भाव रहता है, जब लोग किसी सिनेमाघर से बाहर निकलते  हैं, तुम देखोगे वहां सभी एक जैसी चेतना की अवस्था से बाहर आते हैं। ऐसे ही किसी संगीत समारोह से जब लोग बाहर आते हैं तो उन सभी में एक भाव रहता है कि कुछ समाप्त हो गया है। एक शिविर के समाप्त होने पर भी लोग एक चेतना की अवस्था, कि सब समाप्त हो गया है,ऐसे लौटते है।  

ऐसे क्षण में मन में एक विशेष तर्क होता है, एक अकाट्य तर्क, जो तुम्हारी चेतना में स्वतः ही आ जाता है। सब कुछ बदल रहा है, बदलने के लिए ही है। सब समाप्त हो जाना है, ऐसे वितर्क चेतना को उठा देती है। इसके लिए आँखें बंद करके बैठने की भी आवश्यकता नहीं, आँखें खुली हो तब भी 'मैं चेतना हूँ' ऐसा भाव और सब कुछ खाली है, तरल है। यह पूरा संसार एक क्वांटम मैकेनिकल फील्ड हैं, जो भी है- यह वितर्क है।  

सम्पूर्ण विज्ञान तर्क पर आधारित होता है, संसार का एक क्वांटम फील्ड होना अकाट्य वितर्क है,ऐसी अवस्था वितर्कानुगम समाधि है।

विचारानुगम समाधि

विचार में सभी अनुभव आ जाते हैं, सूंघना, देखना, दृश्य, सुनना - जो भी तुम ध्यान के दौरान देखने, सुनने आदि  का अनुभव करते हो, वह सभी विचारानुगम समाधि है, विचारों के सभी अनुभव और विचारों के आवागमन को देखना, सभी इसी में आते है।  

इस समाधि में विचारों की दो अवस्थाएं हो सकती है-

पहले तरह के विचार तुम्हें  परेशान करते हैं।  

दूसरी तरह के विचार तुम्हें  परेशान नहीं करते हैं परन्तु तुम्हारी चेतना में घूमते रहते हैं और तुम उनके लिए सजग भी होते हो। तुम समाधि में होते हो, समता में होते हो, पर उसी समय  विचार भी आते जाते रहते हैं, यह ध्यान का हिस्सा है। विचार और अनुभव बने रहते हैं, यह विचारानुगम समाधि है।

आनन्दानुगम समाधि

आनन्दानुगम समाधि अर्थात आनंद की अवस्था, जैसे कभी तुम सुदर्शन क्रिया करके उठते हो या सत्संग में भजन गाते हुए आनंदित हो उठते हो, तब मन एक अलग आनंद की अवस्था में होता है। ऐसे में चेतना उठी हुई होती है, पर आनंद होता है। ध्यान की ऐसी आनंदपूर्ण अवस्था आनन्दानुगम समाधि है।

आनंद में जो समाधि रहती है वह आनन्दानुगम समाधि है, यह भी एक ध्यानस्थ अवस्था है। ऐसे ही विचारानुगम समाधि में तुम कुछ आते जाते अनुभव, भावों और विचारों के साथ होते हो। जब तुम एक अकाट्य वितर्क के साथ समाधिस्थ होते हो तब वह वितर्कानुगम समाधि है।  

अस्मितानुगम समाधि

इनके उपरान्त चौथी समाधि है, अस्मितानुगम समाधि, यह ध्यान की बहुत गहरी अवस्था है। इसमें  तुम्हें  कुछ पता नहीं रहता है, केवल अपने होने का भान रहता है। तुम्हें  बस यह पता होता है कि तुम हो, पर यह नहीं पता होता की तुम क्या हो, कहाँ हो, कौन हो।  

केवल स्वयं के होने का भान रहता है, अस्मिता- मैं हूँ, इसके अलावा कुछ और नहीं पता होता है। यह समाधि की चौथी अवस्था है, अस्मितानुगम समाधि।  

इन चारों समाधि की अवस्थाओं को सम्प्रज्ञाता कहते हैं, अर्थात इन सभी में चेतना का प्रवाह होता है,जागरूकता का प्रवाह होता है।


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माँ पर शायरी

  "माँ के कदमों में बसी जन्नत की पहचान, उसकी दुआओं से ही रोशन है हर इंसान। जिंदगी की हर ठोकर से बचा लेती है, माँ की ममता, ये दुन...