(1) यम,(2) नियम,(3) आसन,(4) प्राणायाम,(5) प्रत्याहार,(6) धारणा,(7)ध्यान,(8) समाधि । इन आठ में प्रारम्भिक दो अंगों का महत्त्व सबसे अधिक है । इसीलिए उन्हें सबसे प्रथम स्थान दिया गया है । यम और नियम का पालन करने का अर्थ मनुष्यत्व का सवर्तोन्मुखी विकास है । योग का आरम्भ मनुष्यत्व की पूर्णता के साथ आरम्भ होता है । बिना इसके साधना का कुछ प्रयोजन नहीं ।
योग में प्रवेश करने वाले साधक के लिए यह आवश्यक है कि आत्म-कल्याण की साधना पर कदम उठाने के साथ-साथ यम-नियमों की जानकारी प्राप्त करें । उनको समझें, विचारें, मनन करें और उनको अमल में, आचरण में लाने का प्रयत्न करें ।
यम-नियम दोनों की सिद्धियाँ असाधारण हैं । महर्षि पातंजलि ने अपने योग दर्शन में बताया है कि इन दसों की साधना से महत्त्वपूर्ण ऋद्धि-सिद्धियाँ प्राप्त होती है । हमारा निज का अनुभव है कि यम-नियमों की साधना से आत्मा का सच्चा विकास होता है और उसके कारण जीवन सब प्रकार की सुख-शन्ति से परिपूर्ण हो जाता है । यम-नियम का परिपालन एक ऐसे राजमार्ग पर चल पड़ने के समान है जो सीधे गन्तव्य स्थल पर ही पहुँचाकर छोड़ता है ।
'राजमार्ग' का अर्थ है आम-सड़क-वह रास्ता जिस पर होकर हर कोई चल सके, जिस पर चलने में सब प्रकार की सरलता, सुविधा हो, कोई विशेष कठिनाई सामने न आवे । राजयोग का भी ऐसा ही तात्पर्य है । जिस योग की साधना हर कोई कर सके, सरलतापूवर्क उसमें प्रगति कर सके और सफल हो सके, यह राजयोग है । हठयोग, कुण्डलिनी योग, लययोग, तंत्रयोग, शक्तियोग आदि उतने सरल नहीं है और न उनका अधिकार ही हर मनुष्य को है । उनके लिए विशेष तैयारी करनी पड़ती है, और विशेष प्रकार का रहन-सहन बनाना होता है, पर राजयोग में ऐसी शर्तें नहीं हैं, क्योंकि वह मनुष्य मात्र के लिए,स्त्री-पुरुष गृही-विरक्त, बाल-वृद्ध, शिक्षित-अशिक्षित सबके लिए समान रूप से उपयोगी और सरल है ।
योग का अर्थ है-मिलना । जिस साधना द्वारा आत्मा का परमात्मा से मिलना हो सकता है,उसे योग कहा जाता है । जीव की सबसे बड़ी सफलता यह है कि वह ईश्वर को प्राप्त कर ले, छोटे से बड़ा बनने के लिए, अपूर्ण से पूर्ण होने के लिए, बन्ध से मुक्त होने के लिए, वह अतीतकाल से प्रयत्न करता आ रहा है, चौरासी लक्ष योनियों को पार करता हुआ इतना आगे बढ़ा आया है, वह यात्रा ईश्वर से मिलने के लिए है, बिछड़ा हुआ अपनी स्नेहमयी माता को ढूँढ़ रहा है, उसकी गोदी में बैठने के लिए छटपटा रहा है । उस स्वर्गीय मिलन की साधना योग है और उधर बढ़ने का सबसे साफ, सीधा, सरल जो रास्त है, उसी का नाम राजयोग है ।
महर्षि पातंजलि ने इस योग को आठ भागों में विभाजन किया है । योगदर्शन के पाद 2 का 29 वाँ सूत्र है-
यम नियमासन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान समाधयोङष्टावंगानि॥
अर्थात-यम, नियम, आसन, प्राणायाम,प्रत्याहार धारणा और समाधि योग के यह आठ अंग हैं ।
योग-दर्शन के पाद 2 सूत्र 30 में यम के सम्बन्ध में बताया गया है-अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचय्यार्परिग्रहा यमाः । अर्थात अहिंसा,सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पाँच यम है । पाठकों को यम शब्द से भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए,मृत्यु के देवता को भी यम कहते हैं, यहाँ उस यम से कोई तात्पर्य नहीं है यहाँ तो उपरोक्त पाँच व्रतों की एक संज्ञा नियत करके उसका नाम यम रखा गया है । यम शब्द से यहाँ उपरोक्त पाँच व्रतों का ही भाव है । आगे क्रमशः प्रत्येक के बारे में कुछ विवेचना की जाती है ।
अहिंसा
साधारण रीति से दुःख न देने को अहिंसा कहते हैं । अहिंसा का अर्थ है मारना,दुःख देना । आ अर्थ है रहित । इस प्रकार अहिंसा का अर्थ हुआ, न मारना,न सताना, दुःख न देना । ऐसे कार्य जिनके द्वारा किसी को शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचता हो हिंसा कहलाते हैं, इसलिए उनका करना अहिंसा व्रत पालन करने वाले के लिए त्याज्य है । महात्मा गाँधी के मतानुसार-कुविचार मात्र हिंसा है, उतावलापन हिंसा है, मिथ्याभाषण हिंसा है,द्वेष हिंसा है, किसी का बुरा चाहना हिंसा है, जिसकी दुनिया को जरूरत है उस पर कब्जा रखना भी हिंसा है, इसके अतिरिक्त किसी को मारना,कटुवचन बोलना, दिल दुःखाना, कष्ट देना तो हिंसा है ही इन सबसे बचना अहिंसा पालन कहा जायेगा ।
सामान्य प्रकार से उपरोक्त पंक्तियों में अहिंसा का विवेचन हो गया पर यह अधूरा और असमाधान कारक है । कोई व्यक्ति लोगों के सम्पर्क से बिल्कुल दूर रहे और बैठे-बैठे भोजन वस्त्र की पूरी सुविधाएँ प्राप्त करता रहे तो शायद किसी हद तक ऐसी अहिंसा का पालन कर सके, पूर्ण रीति से तो तब भी नहीं कर सकता क्योंकि साँस लेने में अनेक जीव मरेंगे, पानी पीने में सूक्ष्म जल-जन्तुओं की हत्या होगी,पैर रखने में, लेटने में कुछ न कुछ जीव कुचलेंगे, शरीर और वस्त्र शुद्ध रखने में जुयें आदि मरेंगे, पेट में कभी-कभी कृमि पड़ जाते हैं, मल त्यागने पर उनकी मृत्यु हो जायेगी । स्थूल हिंसा से कुछ हद तक बच जाने पर भी उस एकान्त सेवी से पूरी अहिंसा का पालन नहीं हो सकता । तक क्या किया जाय? क्या आत्म हत्या कर लें? या योग मार्ग की पहली ही सीढ़ी पर चढ़ना असम्भव समझ कर निराश हो बैठें?
केवल शब्दार्थ से ही अहिंसा का भाव नहीं ढूँढ़ा जा सकता, इसके लिए योगिराज कृष्ण द्वारा अर्जुन को दी हुई व्यवहारिक शिक्षा का आश्रय लेना पड़ेगा । अर्जुन देखता है कि युद्ध में इतनी अपार सेना की हत्या होगी, इतने मनुष्य मारे जायेंगे, यह हिंसा है इससे मुझे भारी पातक लगेगा, वह धनुष बाण रख कर रथ के पिछले भाग में जा बैठता है और कहता है कि, हे अच्युत! मैं थोड़े से राज्य लोभ के लिए इतना बड़ा पाप न करूँगा, इस युद्ध में मैं प्रवृति न होऊँगा । भगवान कृष्ण ने अर्जुन की इस शंका का समाधान करते हुए गीता के अठारह अध्यायों में योग का उपदेश दिया, उन्होंने अनेक तर्क,प्रमाण, सिद्धान्त और दृष्टिकोणों से उसे यह भली प्रकार समझा दिया कि कष्ट न देने मात्र को अहिंसा नहीं कहते, दुष्टों, दुराचारियों, अन्यायी, अत्याचारियों को, पापी और पाजियों को मार डालना भी अहिंसा है । जिस हिंसा से अहिंसा का जन्म होता, जिस लड़ाई से शान्ति की स्थापना होती है, जिस पाप से पुण्य का उद्भव होता है, उसमें कुछ भी अनुचित या अधर्म नहीं है ।
कृष्ण ने अर्जुन से कहा इस मोटी बुद्धि को छोड़ और सूक्ष्म दृष्टि से विचार कर, अहिंसा की प्रतिष्ठा इसलिए नहीं है कि उससे किसी जीव का कष्ट कम होता है, कष्ट होना न होना कोई विशेष महत्त्व की बात नहीं है, क्योंकि शरीरों का तो नित्य ही नाश होता है और आत्मा अमर है, इसलिए मारने न मारने में हिंसा-अहिंसा नहीं है । अहिंसा का तात्पर्य है द्वेष रहित होना । निजी राग द्वेष से प्रेरित होकर संसार के हित-अनहित का विचार किए बिना जो कार्य किए जाते हैं वे पूर्ण हैं । यदि लोक कल्याण के लिए, धर्म की वृद्धि के लिए किसी को मारना पड़े या हिंसा करनी पड़े तो उसमें दोष नहीं हैं । अर्जुन ने भगवान के वचनों का भली प्रकार मनन किया और जब उसकी समझ में अहिंसा का वास्तविक तात्पर्य आ गया तो महाभारत में जुट पड़ा । अठारह अक्षौहिणी सेना का संहार हुआ तो भी अर्जुन को कुछ पाप न लगा ।
एक आप्त वचन है कि-वैदिक हिंसा, हिंसा न भवति अर्थात विवेकपूर्वक की हुई हिंसा नहीं है । जिह्वा की चाटुकारिता के लोभ में निरपराध और उपयोगी पशु-पक्षियों का माँस खाने के लिए उनकी गरदन पर छुरी चलाना पातक है । अपने अनुचित स्वार्थ की साधना के लिए निर्दोष व्यक्तियों को दुःख देना हिंसा है । किन्तु निःस्वार्थ भाव से लोक-कल्याण के लिए तथा उसी प्राणी के उपकार के लिए यदि उसे कष्ट दिया जाय तो वह हिंसा नहीं वरन् अहिंसा ही होगी ।
डॉक्टर निःस्वार्थ भाव से रोगी की वास्तविक सेवा के लिए फोड़े की चीरता है, एक न्यायमूर्त जज समाज की व्यवस्था कायम रखने के लिए डाकू का फाँसी की सजा का हुक्म देता है एक धर्म प्रचारक अपने जिज्ञासु साधक को आत्म-कल्याण के लिए तपस्या के कष्टकर मार्ग में प्रवृत्त करता है । मोटी दृष्टि से देखा जाय तो वह सब हिंसा जैसा प्रतीत होता है पर असल में यह सच्ची अहिंसा है । गुण्डे बदमाशों को क्षमा कर देने वाला, हरामखोरों को दान देने वाला, दुष्टता को सहन करने वाला, देखने में अहिंसक सा प्रतीत होता है पर असल में वह घोर पातक, हिंसक, हत्यारा है । वह एक प्रकार से अनजाने में दुष्टता की जहरीली बेल को सींचकर दुनिया के लिए प्राण घातक फल उत्पन्न करने में सहायक बनता है, ऐसी अहिंसा को जड़ बुद्धि अज्ञानी की अहिंसा कह सकते हैं ।
पातंजलि योग दर्शन के पाद 2 सूत्र 35 में कहा गया है कि-अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ बैर त्यागः अर्थात अहिंसा की साधना से उस योगी के निकट-मन में से बैर भाव निकल जाता है । बैर-भाव, द्वेष, प्रतिशोध की दृष्टि से किसी के चित्त को दुःखाना या शरीर को कष्ट देना सर्वथा अनुचित है, इस हिंसा से सावधानी के साथ बचना चाहिए । अहिंसक का अर्थ है प्रेम का पुजारी, दुर्भावना से रहित । सद्भावना और विवेक बुद्धि से यदि किसी को कष्ट देना आवश्यक जान पड़े तो अहिंसा की मर्यादा के अन्तर्गत उसी गुंजायश है । अहिंसक को बैर-भाव छोड़ना होता है, क्रोध पर काबू करना होता है, निजी हानि-लाभ की अपेक्षा कुछ ऊँचा उठना पड़ता है, उदार, निष्पक्ष और न्यायमूर्त बनना पड़ता है, तब उस दृष्टिकोण से जरा भी निर्णय किया जाय वह अहिंसा ही होगी । परमार्थ के लिए की हुई हिंसा को किसी भी प्रकार अहिंसा से कम नहीं ठहराया जा सकता है ।
महात्मा गाँधी का कथन है कि-अहिंसा से हम जगत को मित्र बनाना सीखाते हैं, ईश्वर की-सत्य की महिमा अधिकाधिक जान पड़ती है, संकट सहते हुए भी शांति और सुख में वृद्धि होती है, हमारा साहस-हिम्मत बढ़ती है । हम कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार सीखते हैं । अभिमान दूर होता है, नम्रता बढ़ती है । परिग्रह सहज ही कम होता है और देह के अन्दर भरा हुआ मैल रोज कम होता जाता है । अहिंसा कायरों का नहीं वीरों का धर्म है । बैर त्याग कर, प्रेम भावना को ,आत्मीयता को, प्रमुख स्थान देते हुए, बुराई का मुकाबला करना अहिंसा है । बहादुरी, निर्भीकता, स्पष्टता, सत्यनिष्ठा,इस हद तक बढ़ा लेना कि तीर तलवार उसके आगे तुच्छ जान पड़ें, अहिंसा की साधना है । शरीर की नश्वरता को समझते हुए, उसके न रहने का अवसर आने पर विचलित न होना अहिंसा है । अहिंसक की दृष्टि दूसरों को सुख देने की होती है, अधर्म और अज्ञान को हटाने से ही दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति हो सकती है । अहिंसा का पुजारी अपने और दूसरे के अधर्म और अज्ञान को हटाने का अविचल भाव से प्रबलतम प्रयत्न करता है जिससे सच्चा और स्थायी सुख प्राप्त हो, इस महान कार्य के लिए यदि अपने को या दूसरों को कुछ कष्ट सहना भी पड़े तो उसे उचित समझकर अहिंसक उसके लिए सदा तैयार ही रहता है ।
सत्य
मोटे तौर से जो बात जैसी सुनी है उसे वैसी ही कहना सत्य कहा जाता है । किन्तु सत्य की यह परिभाषा बहुत ही अपूर्ण और असमाधानकारक है । सत्य एक अत्यन्त विस्तीर्ण और व्यापक तत्व है । वह सृष्टि निर्माण के आधार स्तम्भों में सब से प्रधान है । सत्य भाषण उस महान सत्य का एक अत्यन्त छोटा अणु है, इतना छोटा जितना समुद्र के मुकाबले में पानी की एक बूँद ।
सत्य बोलना चाहिए, पर सत्य बोलने से पहले सत्य की व्यापकता और उसके तत्व ज्ञान को जान लेना चाहिए, क्योंकि देश, काल और पात्र के भेद से बात को तोड़-मरोड़ कर या अलंकारिक भाषा में कहना पड़ता है । धर्म ग्रन्थों में मामूली से कर्मकाण्ड़ के फल बहुत ही बढ़ा-चढ़ा कर लिखे गए हैं । जैसे गंगा स्नान से सात जन्मों के पाप नष्ट होना, व्रत, उपवास रखने से स्वर्ग मिलना, गौ दान से वैतरणी तर जाना, मूर्ति पूजा से मुक्ति प्राप्त होना, यह सब बातें तत्व ज्ञान दृष्टि से असत्य हैं, क्योंकि इन कमर्काण्ड़ों से मन में पवित्रता का संचार होना और बुद्धि को कर्म की ओर झुकना तो समझ में आता है, पर यह समझ में नहीं आता कि इतनी सी मामूली क्रियाओं का इतना बड़ा फल जैसे महान साधनों की क्या आवश्यकता रहती? टेक सेर मुक्ति का बाजार गर्म रहता ।
अब प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या वह धर्म ग्रन्थ झूठे हैं? क्या उन ग्रन्थों के रचयिता महानुभवों ने असत्य भाषण किया है? नहीं उनके कथन में भी रत्ती भर झूठ नहीं है और न उन्होंने किसी स्वार्थ बुद्धि से असत्य भाषण किया है । उन्होंने एक विशेष श्रेणी के, सत्य बुद्धि के, अविश्श्वासी, आलसी और लालची व्यक्तियों को उनकी मनोभूमि परखते हुए एक खास तरीके से अलंकारिक भाषा में समझाया है । ऐसा करना अमुक श्रेणी के व्यक्तियों के लिए आवश्यक था, इसलिए धर्म ग्रन्थों का वह आदेश एक सीमा में सत्य ही है ।
बच्चे के फोड़े पर मरहम पट्टी करते हुए डॉक्टर उसे दिलासा देता है । बच्चे! डरो मत, जरा भी तकलीफ न होगी । बच्चा उसकी बात पर विश्वास कर लेता है, किन्तु डॉक्टर की बात झूठी निकलती है । मरहम पट्टी के वक्त बच्चों को काफी तकलीफ होती है, वह सोचता है कि डॉक्टर झूठा है, उसने मेरे साथ असत्य भाषण किया परन्तु असल में वह झूठ बोलता नहीं है ।
अध्यापक बच्चों को पाठ पढ़ाते हैं, गणित सिखते हैं, समझाने के लिए उन्हें ऐसे उदाहरण देने पड़ते हैं, जो अवास्तविक और असत्य होते हैं, फिर भी अध्यापक को झूठा नहीं कहा जाता ।
जिन्हें मानसिक रोग हो जाते हैं या भूत-प्रेत लगने का बहम हो जाता है, उनका तान्त्रिक या मनोवैज्ञानिक उपचार इस प्रकार करना पड़ता है जिससे पीड़ित का बहम निकल जाय । भूत लगने पर भूतहे ढ़ंग से उसे अच्छा किया जाता है, यदि बहम बता दिया जाय तो रोगी का मन न भरेगा और उसका कष्ट न मिटेगा । तान्त्रिक और मनोविज्ञान के उपचार में प्रायः नब्बे फीसदी झूठ बोलकर रोगी को अच्छा करना पड़ता है, परन्तु वह सब झूठ की श्रेणी में नहीं ठहराया जाता ।
राजनीति में अनेक बार झूठ को सच सिद्ध किया जाता है । दुष्टों से अपना बचाव करने के लिए झूठ बोला जा सकता है । दम्पति अपने गुप्त सहवास को प्रकट नहीं करते । आर्थिक व्यापारिक या अन्य ऐसे ही भेदों को प्रायः सच-सच नहीं बताया जाता ।
कई बार सत्य बोलना भी निषिद्ध होता है । काने को काना और लँगड़ा को लँगड़ा कहकर सम्बोधन करना कोई सत्य भाषण थोड़े ही है । फौजी गुप्त भेदों को प्रकट कर देने वाला अथवा दुश्मन को अपने देश की सच्ची सूचना देने वाला अपराधी समझा जाता है और कानून से उसे कठोर सजा मिलती है । भागी हुई गाय का पता कसाई को बता देना क्या सत्य भाषण हुआ?
इस प्रकार बोलने में ही सत्य को सर्वादित कर देना एक बहुत बड़ा भ्रम है, जिसमें अविवेकी व्यक्ति ही उलझे रह सकते हैं । सच तो यह है कि लोक-कल्याण के लिए देश, काल और पात्र का ध्यान रखते हुए नग्न सत्य की अपेक्षा अलंकारिक सत्य भाषण से ही काम, लेना पड़ता है । जिस वचन से दूसरों की भलाई होती हो, सन्मार्ग के लिए प्रोत्साहन मिलता हो, वह सत्य है । कई बार हीन चरित्र वालों की झूठी प्रशंसा करने पर वे एक प्रकार की लोक लाज में बँध जाते हैं और सम्मोहन विद्या के अनुसार अपने को सचमुच प्रशंसनीय अनुभव करते हुए निश्चयपूवर्क प्रशंसा योग्य बन जाते हैं । ऐसा असत्य भाषण सत्य कहा जायेगा । किसी व्यक्ति के दोषों को खोल-खोल कर उससे कहा जाय तो वह अपने को निराश, पराजित और पतित अनुभव करता हुआ वैसा ही बन जाता है । ऐसा सत्य, असत्य से भी बढ़कर निन्दनीय है ।
भाषण सम्बन्धी सत्य की परिभाषा होनी चाहिए कि जिससे लोक-हित हो वह सत्य और जिससे अहित हो वह असत्य है । मित्र धर्म का विवेचन करती हुई रामायण उपदेश देती है कि-गुण प्रकटै अवगुणहिं दुरावा वहाँ दुराव को असत्य को, धर्म माना गया है । आपका भाषण कितना सत्य है, कितना असत्य, इसकी परीक्षा इस कसौटी पर कीजिए कि इससे संसार का कितना हित और कितना अहित होता है? सद्भावनाओं की उन्नति होती है या अवनति, सद्विचारों का विकास होता है या विनाश । पवित्र उद्देश्य के साथ निःस्वार्थ भाव से परोपकार के लिए बोला हुआ असत्य भी सत्य है और बुरी नीयत से, स्वार्थ के वशीभूत होकर पर पीड़ा के लिए बोला गया सत्य भी असत्य है । इस मर्म को भलीभाँति समझकर गिरह में बाँध लेना चाहिए ।
वास्तविक और व्यापक सत्य ऊँची वस्तु है । वह भाषण का नहीं, वरन् पहचानने का विषय है । समस्त तत्वज्ञानी उसी महान तत्व की अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार व्याख्या कर रहे हैं । विश्व की रंगस्थली, उसमें नाचने वाली कठपूतलियाँ, नचाने वाला तन्त्री तत्वतः क्या है, इसका उद्देश्य और कार्य-कारण क्या है, इस भूल-भुलैयों के खेल का दरवाजा कहाँ है, यह बाजीगरी विद्या कहाँ से और क्योंकर संचालित होती है? इसका मर्म सत्य का शोध है । ईश्वर, जीव, प्रकृति के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करके अपने को भ्रम-बन्धनों से बचाते हुए परम पद प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ना मनुष्य जीवन का ध्रुव सत्य है । उसी सत्य के प्राप्त करने के लिए हमारा निरन्तर उद्योग होना चाहिए ।
भगवान वेद व्यास ने योगदर्शन 2/38 का भाष्य करते हुए सत्य की विवेचना इस प्रकार की है-
परत्र स्वबोध संक्रान्तये बागुप्ता सा यदि वञ्चिता भरान्ता व प्रतिपत्ति बन्ध्या वा भवेदिति । एथ सवर्भूतोपकराथर् प्रवृत्ता, त भूतोपघाताय । यदि चैवमय्यभिधीयमाना भूतोपघात परैवस्यान्न सत्यं भवेत् पापमेव भवेत् ।
अर्थात-सत्य वह है चाहे वह ठगी, भ्रम, प्रतिपत्ति बन्ध्या युक्त हो अथवा रहित । तो प्राणिमात्र के उपकारार्थ प्रयुक्त किया जाय न कि किसी प्राणी के अनिष्ट के लिए । यदि सत्यतापूर्वक कही गई यथार्थ बात से प्राणियों का अहित होता है-तो वह सत्य नहीं । प्रत्युत सत्याभाष ही है और ऐसा सत्य भाषण असत्य में परिणत होकर पाप कारक बन जाता है । जैसे कसाई के पूछने पर कि-गाय इधर गई है? यदि हाँ में उत्तर दिया जाय तो यह सत्य प्रतीत होने पर भी सत्य नहीं, प्रत्युत प्राणी घातक है । अन्य उपाय न रहने पर विवेकपूर्वक सत्कार्य के लिए असत्य भाषण करना भी सत्य ही है ।
महाभारत ने सत्य की मीमाँसा इस प्रकार की है- न तत्व वचन सत्यं, न तत्व वचनं मृषा । यद्भूत हितमत्यन्तम् तत्सयमिति कथ्यते॥
अथार्त्-बात को ज्यों को त्यों कह देना सत्य नहीं है और न बात को ज्यों की त्यों कह देना असत्य है । जिसमें प्रणियों का अधिक हित होता है, वही सत्य है ।
सत्य को वाणी का एक विशेषण बना देना उस महातत्व को अपमानित करना हैं । सत्य बोलना मामूली बात है जिसमें आवश्यकतानुसार हेर-फेर भी किया जा सकता है । सत्य को ढूँढ़ना, वास्तविकता का पता लगाना और जो-जो बात सच्ची प्रतीत हो उस पर प्राण देकर भी दृढ़ रहना, यह सत्य परायण है । यम की दूसरी सीढ़ी सत्य बोलना नहीं, सत्य परायण होना है । योग मार्ग के अभ्यासी के सत्यवादी होने की अपेक्षा सत्य परायण होने को साहस, निर्भीकता और ईमानदारी के साथ करना चाहिए ।
अस्तेय
चोरी न करना अस्तेय को यही संक्षिप्त अर्थ है, पराई चीज को बिना उसकी आज्ञा के गुप्त रूप से ले लेने को चोरी कहते हैं । दूसरे की कमाई का अनुचित रूप से अपहरण करना चोरी है,जिस वस्तु पर न्यायतःअपना स्वत्व नहीं है उसे उसके स्वामी की बिना जानकारी में या बलात्कारपूर्वक ले लेना स्तेय है, इससे बचना अस्तेय कहा जायेगा ।
पराई चीज को बिना उसकी स्वीकृति के ले लेना यह चोरी का मोटा अर्थ है । पशुओं का दूध, भेड़ के बाल, मक्खियों का शहद, यह पराई चीज भी हैं और उनकी स्वीकृति के बिना भी ली जाती हैं । पिता की कमाई हुई जायदाद पराई है यदि पिता न चाहते हों तो भी उनके बाद उस सम्पत्ति का अधिकार पुत्र को ही प्राप्त होगा । अपराधी से अदालत जुर्माना वसूल करती है, राज्याधिकारी आयकर,चुँगी आदि वसूल करते हैं, वह रकमें पराई हैं और मालिक इच्छापूर्वक भी नहीं देते तो भी वह चोरी नहीं है । (1) पराई चीज और(2) बिना आज्ञा इन दो ही तत्वों के आधार पर स्तेय का ठीक-ठीक निर्णय नहीं हो सकता । मान लीजिए कि व्यक्ति दबाव के कारण किसी वस्तु को देने के लिए तैयार किया जाता है और वह लाचारी में आज्ञा दे देता है तो क्या वह अस्तेय हो गया? कोई व्यक्ति अपने पास दूसरे की अमानत जमा किए हुए है किन्तु अब नीयत बिगड़ जाने से उस पर अपनी मालिकी बताता है ओर असली मालिक को उसे लौटाने से इन्कार करता है, क्या उससे वह अमानत बलपूर्वक न लौटानी चाहिए । क्या वर्तमान समय में पराई चीज दिखाई पड़ने के कारण और बेइमानी से आज्ञा न मिलने के कारण उस अमानत को छोड़ बैठना चाहिए?
मोटे मौर पर स्तेय और अस्तेय की विवेचना करने पर बहुत भ्रम हो सकता है । बहुत बार ऐसा होता है कि वह वस्तु पराई भी नहीं है और आज्ञा का भी प्रश्न नहीं उठता तो भी वह चोरी हो जाती है । जैसे एक दुकानदार अपने बाँट कम रखता है, पलड़ों में पासंग रखता है या कम तोलता है, दुकान में रखी हुई चीजें पराई नहीं है और उनमें से इतनी निकाल लेने या कम देने के लिए किसी से आज्ञा लेने की भी जरूरत नहीं है । सेर भर (1 सेर=933 ग्राम) के स्थान पर उसने पन्द्रह छटांक (1 छटांक=58 ग्राम) चीज दी, वह एक छटांक जो बचाया गया है, शाब्दिक परिभाषा के अनुसार वह चोरी में शुमार नहीं होता तो भी वास्तव में वह चोरी ही है । दर्जी लोग सिलाई में कपड़ा बचाते हैं, धोबी कपड़ों को कई दिन घसीटकर पहनते हैं, चक्की वाले आटा बचाते हैं, नौकर आठ पैसे की चीज मँगाने पर सात पैसे की लाकर देते हैं, असली मालिक को इन चोरियों का पता नहीं लग पाता, इस ओर अधिक ध्यान भी नहीं जाता तो भी इनकी गणना चोरी में ही होगी, मालिक को अपनी हानि का पता न चले और गुप्त या अप्रत्यक्ष रूप से कोई चुपके-चुपके कुछ करता रहे तो भले ही वह प्रकट न होने पाये पर होगी वह चोरी ही ।
वास्तविक और व्यापक सत्य ऊँची वस्तु है । वह भाषण का नहीं, वरन् पहचानने का विषय है । समस्त तत्वज्ञानी उसी महान तत्व की अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार व्याख्या कर रहे हैं । विश्व की रंगस्थली, उसमें नाचने वाली कठपूतलियाँ, नचाने वाला तन्त्री तत्वतः क्या है, इसका उद्देश्य और कार्य-कारण क्या है, इस भूल-भुलैयों के खेल का दरवाजा कहाँ है, यह बाजीगरी विद्या कहाँ से और क्योंकर संचालित होती है? इसका मर्म सत्य का शोध है । ईश्वर, जीव, प्रकृति के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करके अपने को भ्रम-बन्धनों से बचाते हुए परम पद प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ना मनुष्य जीवन का ध्रुव सत्य है । उसी सत्य के प्राप्त करने के लिए हमारा निरन्तर उद्योग होना चाहिए ।
भगवान वेद व्यास ने योगदर्शन 2/38 का भाष्य करते हुए सत्य की विवेचना इस प्रकार की है-
परत्र स्वबोध संक्रान्तये बागुप्ता सा यदि वञ्चिता भरान्ता व प्रतिपत्ति बन्ध्या वा भवेदिति । एथ सवर्भूतोपकराथर् प्रवृत्ता, त भूतोपघाताय । यदि चैवमय्यभिधीयमाना भूतोपघात परैवस्यान्न सत्यं भवेत् पापमेव भवेत् ।
अर्थात-सत्य वह है चाहे वह ठगी, भ्रम, प्रतिपत्ति बन्ध्या युक्त हो अथवा रहित । तो प्राणिमात्र के उपकारार्थ प्रयुक्त किया जाय न कि किसी प्राणी के अनिष्ट के लिए । यदि सत्यतापूर्वक कही गई यथार्थ बात से प्राणियों का अहित होता है-तो वह सत्य नहीं । प्रत्युत सत्याभाष ही है और ऐसा सत्य भाषण असत्य में परिणत होकर पाप कारक बन जाता है । जैसे कसाई के पूछने पर कि-गाय इधर गई है? यदि हाँ में उत्तर दिया जाय तो यह सत्य प्रतीत होने पर भी सत्य नहीं, प्रत्युत प्राणी घातक है । अन्य उपाय न रहने पर विवेकपूर्वक सत्कार्य के लिए असत्य भाषण करना भी सत्य ही है ।
महाभारत ने सत्य की मीमाँसा इस प्रकार की है-
न तत्व वचन सत्यं, न तत्व वचनं मृषा । यद्भूत हितमत्यन्तम् तत्सयमिति कथ्यते॥
अथार्त्-बात को ज्यों को त्यों कह देना सत्य नहीं है और न बात को ज्यों की त्यों कह देना असत्य है । जिसमें प्रणियों का अधिक हित होता है, वही सत्य है ।
सत्य को वाणी का एक विशेषण बना देना उस महातत्व को अपमानित करना हैं । सत्य बोलना मामूली बात है जिसमें आवश्यकतानुसार हेर-फेर भी किया जा सकता है । सत्य को ढूँढ़ना, वास्तविकता का पता लगाना और जो-जो बात सच्ची प्रतीत हो उस पर प्राण देकर भी दृढ़ रहना, यह सत्य परायण है । यम की दूसरी सीढ़ी सत्य बोलना नहीं, सत्य परायण होना है । योग मार्ग के अभ्यासी के सत्यवादी होने की अपेक्षा सत्य परायण होने को साहस, निर्भीकता और ईमानदारी के साथ करना चाहिए ।
अस्तेय
चोरी न करना अस्तेय को यही संक्षिप्त अर्थ है, पराई चीज को बिना उसकी आज्ञा के गुप्त रूप से ले लेने को चोरी कहते हैं । दूसरे की कमाई का अनुचित रूप से अपहरण करना चोरी है,जिस वस्तु पर न्यायतःअपना स्वत्व नहीं है उसे उसके स्वामी की बिना जानकारी में या बलात्कारपूर्वक ले लेना स्तेय है, इससे बचना अस्तेय कहा जायेगा ।
पराई चीज को बिना उसकी स्वीकृति के ले लेना यह चोरी का मोटा अर्थ है । पशुओं का दूध, भेड़ के बाल, मक्खियों का शहद, यह पराई चीज भी हैं और उनकी स्वीकृति के बिना भी ली जाती हैं । पिता की कमाई हुई जायदाद पराई है यदि पिता न चाहते हों तो भी उनके बाद उस सम्पत्ति का अधिकार पुत्र को ही प्राप्त होगा । अपराधी से अदालत जुर्माना वसूल करती है, राज्याधिकारी आयकर,चुँगी आदि वसूल करते हैं, वह रकमें पराई हैं और मालिक इच्छापूर्वक भी नहीं देते तो भी वह चोरी नहीं है । (1) पराई चीज और(2) बिना आज्ञा इन दो ही तत्वों के आधार पर स्तेय का ठीक-ठीक निर्णय नहीं हो सकता । मान लीजिए कि व्यक्ति दबाव के कारण किसी वस्तु को देने के लिए तैयार किया जाता है और वह लाचारी में आज्ञा दे देता है तो क्या वह अस्तेय हो गया? कोई व्यक्ति अपने पास दूसरे की अमानत जमा किए हुए है किन्तु अब नीयत बिगड़ जाने से उस पर अपनी मालिकी बताता है ओर असली मालिक को उसे लौटाने से इन्कार करता है, क्या उससे वह अमानत बलपूर्वक न लौटानी चाहिए । क्या वर्तमान समय में पराई चीज दिखाई पड़ने के कारण और बेइमानी से आज्ञा न मिलने के कारण उस अमानत को छोड़ बैठना चाहिए?
मोटे मौर पर स्तेय और अस्तेय की विवेचना करने पर बहुत भ्रम हो सकता है । बहुत बार ऐसा होता है कि वह वस्तु पराई भी नहीं है और आज्ञा का भी प्रश्न नहीं उठता तो भी वह चोरी हो जाती है । जैसे एक दुकानदार अपने बाँट कम रखता है, पलड़ों में पासंग रखता है या कम तोलता है, दुकान में रखी हुई चीजें पराई नहीं है और उनमें से इतनी निकाल लेने या कम देने के लिए किसी से आज्ञा लेने की भी जरूरत नहीं है । सेर भर (1 सेर=933 ग्राम) के स्थान पर उसने पन्द्रह छटांक (1 छटांक=58 ग्राम) चीज दी, वह एक छटांक जो बचाया गया है, शाब्दिक परिभाषा के अनुसार वह चोरी में शुमार नहीं होता तो भी वास्तव में वह चोरी ही है । दर्जी लोग सिलाई में कपड़ा बचाते हैं, धोबी कपड़ों को कई दिन घसीटकर पहनते हैं, चक्की वाले आटा बचाते हैं, नौकर आठ पैसे की चीज मँगाने पर सात पैसे की लाकर देते हैं, असली मालिक को इन चोरियों का पता नहीं लग पाता, इस ओर अधिक ध्यान भी नहीं जाता तो भी इनकी गणना चोरी में ही होगी, मालिक को अपनी हानि का पता न चले और गुप्त या अप्रत्यक्ष रूप से कोई चुपके-चुपके कुछ करता रहे तो भले ही वह प्रकट न होने पाये पर होगी वह चोरी ही ।
कर्तव्य की चोरी अपने ढंग की बड़ी गहत चोरी है । मजदूरी तय करके जितना समय या जैसा काम करने का ठहराव किया गया है उसमें कभी करना, आलस्य करना, जो चुराना , बेगार भुगतना आजकल मामुली बात हो गई है पर यह ठीक वैसी ही चोरी है जैसे किसी का ताला तोड़कर माल असबाब ले जाना । विश्वसनीय गुप्त कार्य को करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर उसका भेद प्रकट कर देना, किसी की कृति को बनाना, अनाधिकार चेष्टा करना चोरी है । अपने फर्जों को अदा न करना, आश्रितों की उपेक्षा करके स्वयं विशेष सुविधाएँ भोगना, यह भी उसी सीमा में आता है जैसे-बच्चों से छिपाकर कोई चीज खाते हैं । पड़ी हुई चीज मिले तो उसके मालिक की तलाश कर उस तक पहुँचानी चाहिए,सब पर प्रकट कर देना चाहिए या मालिक का पता न चले तो अधिकारी संस्था को सौंप देना चाहिए । यदि ऐसा न किया जाय और वह वस्तु अपने पास चुपचाप रखली जाय तो वह भी चोरी है, न करने योग्य कार्य के लिए, अग्राह्य वस्तु के लिए, मन ललचाना, इसी श्रेणी का कार्य है ।
अपना नियत कर्तव्य करने के बदले में पुरस्कार माँगना, न करने योग्य कार्य को करने के लिए भेंट लेना यह दोनों प्रकार की रिश्वतें चोरी ही तो हैं । रिश्वतों का किस कदर बाजार गर्म है यह किसी से छिपा नहीं है, जिसको जिस काम के लिए नियत किया गया है वह उसी काम को करने के लिए अपना हक माँगता है, रिश्वत हक कहलाने लगी है । यह किसी विशेष कृपा के लिए नहीं वरन् ठीक तरह भलमनसाहत से काम पूरा कर देने के लिए हक माँगा जाता है यदि न दिया जाय तो ऐसी अड़चनें डाली जाती हैं जिनको सहन करना मध्यमवृत्ति के मनुष्य के लिए बड़ा कठिन होता है । अधिक हक देने पर तो न करने योग्य कामों को हँसी खुशी से कर देते हैं । जिन लोगों से न्याय और सद्व्यवहार की आशा की जानी चाहिए वहाँ रिश्वत ने हक का रूप धारण कर लिया है, चोरी को सीनाजोरी की जुर्रत हो गई है । यह हरकतें अब बन्द होनी चाहिए ।
अस्तेय का वास्तविक तात्पर्य है-अपना वास्तविक हक खाना धर्म पूर्वक जो वस्तु जितनी मात्रा में अपने को मिलनी चाहिए उसे उतनी ही मात्रा में लाना, पूरा एवज चुकाकर किसी वस्तु को ग्रहण करने का ध्यान रखा जाय तो चोरी से सहज ही छुटकारा मिल सकता है । जो कुछ आपको मिल रहा है उसके बारे में विचार कीजिए कि क्या वास्तव में इस वस्तु पर मेरा धर्म पूर्वक हक है? किसी दूसरे का भाग तो नहीं खा रहा हूँ? जितनी मुझे मिलनी चाहिए उससे अधिक कर रहा हूँ? अपने कर्तव्य में कमी तो नहीं ला रहा हूँ? जिनको देना चाहिए उनको दिए बिना तो नहीं ले रहा हूँ? इन पाँच प्रश्नों की कसौटी पर यदि अपनी प्राप्त वस्तु को कस लिया जाय तो यह मालूम हो सकता है कि इसमें चोरी तो नहीं है या चोरी का कितना अंश है । किसी का ताला तोड़कर या जेब काटकर कुछ तो चोरी है ही, साथ ही कर्तव्य में त्रुटि रखना और हक से अधिक लेना भी चोरी है । इन चोरियों से बचते हुए अपनी पसीने की कमाई पर निर्भर रहना चाहिए ।
स्वयं चोरी से बचना तो आवश्यक है ही, साथ ही दूसरों को भी बचाना चाहिए, कम से कम चोरी में सहयोग करना तो बन्द कर ही देना चाहिए । रिश्वत देकर यदि कोई काम बनता हो, और न देने से हानि हो तो उस हानि को ही सहन करना चाहिए, क्योंकि पशु हत्या में जैसे काटने वाले, बेचने वाले, खाने वाले, पकाने वाले सबको पाप लगता है वैसे ही चोरी के काम में किसी प्रकार मदद करने या चोरी की हिम्मत बढ़ने देने से अपने को भी पाप का भागी होना पड़ता है । यदि अपना या किसी दूसरे का हक कोई दुष्ट दुरात्मा बलात्कारपूर्वक अपहरण करता हो तो उसके विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए ताकि विश्व परिवार में से चोरी और अनीति की थोड़ी-बहुत मात्रा कम हो । स्वयं चोरी न करना और न दूसरों को करने देना यह एक ही अस्तेय धर्म के दो अंग हैं, योग मार्ग के साधक को दोनों ओर उसी प्रकार ध्यान रखना चाहिए जैसे साइकिल चलाने वाला दोनों पैरों को समान रूप से घुमाता है ।
ब्रह्मचर्य
आमतौर से ब्रह्मचर्य का अर्थ वीर्य पात न करना समझ जाता है । जो व्यक्ति स्त्री सम्पर्क से बचते हैं, उन्हें ब्रह्मचारी कहा जाता है । यह आधा अर्थ हुआ, आधा अभी शेष है । ब्रह्म का अर्थ है परमात्मा में आचरण करना जीवन लक्ष में तन्मय हो जाना, सत्य की शोध में सब ओर चित्त हटाकर जुट पड़ना, ब्रह्म का ही आचरण है । इसके साधनों में वीयर्पात न करना भी एक है ।
महात्मा गाँधी ने इस सम्बन्ध में बहुत ही उत्तम कहा है-ब्रह्मचर्य का मूल अर्थ सब याद रखें । ब्रह्मचर्य अर्थात ब्रह्म की-सत्य की शोध में चर्या अर्थात तत्सम्बन्धी आचार ।
इस मूल अर्थ से सर्वेईन्द्रिय संयम का विशेष अर्थ निकलता है सिर्फ जननेन्द्रिय संयम के अधूरे अर्थ को तो हम भुला ही दें । जननेन्द्रिय निरोध को ही ब्रह्मचर्य का पालन माना गया है । मेरी राय में यह अधूरी और खोटी व्याख्या है । विषय मात्र का निरोध ही ब्रह्मचर्य है । जो और इन्द्रियों को जहाँ तहाँ भटकने देकर केवल एक ही इन्द्री को रोकने का प्रयत्न करता है, वह निष्फल प्रयत्न करता है । कान से विकार की बातें सुनना, आँख से विकार उत्पन्न करने वाली वस्तु देखना, जीभ से विकारोत्तेजक वस्तु चखना, हाथ से विकारों को भड़काने वाली चीज को छूना और साथ ही जननेन्द्रिय को रोकने का प्रयत्न करना, यह तो आग में हाथ डालकर जलने से बचने का प्रयत्न करने के समान हुआ । इसीलिए जो जननेन्द्रिय को रोकने को निश्चय करे उसे पहल ही से प्रयत्न इन्द्री को उस इन्द्रियों के विकारों से रोकने का निश्चय कर ही लिया जाना चाहिए ।
मैंने सदा से यह अनुभव किया है कि ब्रह्मचर्य की संकुचित व्याख्या से नुकसान हुआ है । मेरा तो यह निश्चित मत है और अनुभव है कि यदि हम सब इन्द्रियों को एक साथ वश में कर लें तो जननेन्द्रियों को वश में करने को प्रयत्न शीघ्र ही सफल हो सकता है, तभी उसमें सफलता प्राप्त की जा सकती है । इसमें मुख्य स्वाद इन्द्री है । मेरा अपना अनुभव तो यह है कि यदि अस्वाद व्रत का भलीभाँति पालन किया जाय तो जननेन्द्री का संयम बिल्कुल आसान हो जाय । स्वाद की दृष्टि से किसी वस्तु को न खाकर आवश्यकता के विचार से लेना अस्वाद है ।
ब्रह्मचर्य का पालन मन, वचन और काया से होना चाहिए । हमने गीता में पढ़ा है कि जो शरीर को काबू में रखता हुआ जान पड़ता है पर मन से विकार को पोषण किया करता है वह मूढ़,मिथ्याचारी है । मन को विकारपूर्ण रहने देकर शरीर को दबाने की कोशिश करना हानि कारक है । जहाँ मन है वहाँ अन्त को शरीर भी घिसटे बिना नहीं रहता । यहाँ एक भेद समझ लेना जरूरी है । मन को विकार वश होने देना एक बात है और मन का अपने आप अनिच्छा से बलात् विकार को प्राप्त होना या होते रहना दूसरी बात है । इस विकार में यदि हम सहायक न बनें तो आखिर जीत हमारी ही है । हम प्रतिपल यह अनुभव करते हैं कि शरीर तो काबू में रहता है पर मन नहीं रहता । इसलिए शरीर को तुरन्त ही वश में करके मन को वश में करने की रोज कोशिश करने से हम अपने कर्तव्य का पालन करते हैं-कर चुकते हैं । वीर्य का उपयोग तो शारीरिक और मानसिक शक्ति को बढ़ाने में है । विषय भोग में उसका उपयोग करना, उसका अति दुरुपयोग है, इसके कारण वह कई रोगों को मूल बन जाता है ।
जीवनोद्देश्य की पूर्ति में, सत्कामो द्वारा ईश्वर को प्रसन्न करने के प्रयत्न में, ब्रह्म भावना की चर्या में तन्मयता प्राप्त करने के लिए इन्द्रियों को संयम अत्यन्त आवश्यक है । जिसकी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय में दौड़ी फिरती हैं, उसका चित्त एक स्थान पर ठहर नहीं सकता और न उच्च उद्देश्यों में दिलचस्पी ले सकता है । दीर्घ जीवन, निरोगता, शरीर की पुष्टता, सुड़ौलता, बलबुद्धि, तेज, बुद्धि की प्रखरता आदि शारीरिक लाभों की नीव इन्द्रिय संयम के ऊपर रखी होती है, शक्तियों का खर्च भोगों में न होगा तो उसके द्वारा शरीर और मस्तिष्क बलवान हो सकेगा अन्यथा जिस प्रकार फूटे हुए दीपक में से तेल चूता रहता है तो वह अधिक समय तक अधिक प्रकाश के साथ न जल सकेगा, जिस वृक्ष की जड़ों में कीड़े या दीमक लग रहे हों वह निर्बल और अल्पजीवी ही होगा यही बात मनुष्य की है । असंयम के कारण इन्द्रिय भोगों में जिसकी शक्ति अधिक मात्रा में खर्च होती रहती है, वह न तो शरीरिक दृष्टि से निरोग,बलवान एवं दीर्घजीवी हो सकता है और न मानसिक दृष्टि से ही मेधावी, मनस्वी एवं प्रभावशाली हो सकता है, फिर ब्रह्म के आचरण में रत होना तो दूर की बात है ।
इन्द्रिय संयम का तात्पर्य है, विवेक के साथ मर्यादा के अन्तर्गत इन्द्रियों का उपयोग होना । इन्द्रियों के आधीन अपने को इतना अधिक नहीं होना चाहिए कि भोगेच्छा को रोका न जा सके या रोकने में बहुत आदत डालनी चाहिए कि इन्द्रियों की इच्छा को जब चाहे तब आसानी से रोक सकें और भोग सामने हो तो भी उसे छोड़ सकें । कहने को पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं पर वास्तव में दो का ही संयम करना है । नाक, कान, आँख के भोग तो कभी-कभी और कम मात्रा में मिलते हैं, इसलिए उनकी अधिक चाट नहीं होती और न उनमें इतनी प्रबलता ही होती है । जिन पर काबू पाना है, वह हैं-स्वाद और कामवासना । जीभ के चटोरपन की प्रेरणा से किसी भी वस्तु को खाने से इन्कार कर देना चाहिए । चटपटे, मीठे,खारी, खट्टे, चिकने पदार्थों को देखकर चटोरे मनुष्यों के मुँह में पानी भर आता है, इस वृत्ति को रोकना चाहिए ।
जब इस प्रकार मन चल रहा हो तो हठात् उस वस्तु को न खाने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए और दृढ़तापूर्वक उसका पालन करना चाहिए । कुछ समय के लिए बीच-बीच में कुछ समय तक नमक और मीठा छोड़ने का प्रयोग करते रहना चाहिए जो वस्तु आवश्यक और लाभदायक हो उसे स्वाद रहित होते हुए भी सेवन करना चाहिए । इसी प्रकार गृहस्थ होते हुए भी कभी-कभी कुछ समय के लिए ब्रह्मचर्य से रहने के व्रत उन्हें पूरा करते रहना चाहिए । अन्य स्त्रियों को बहिन या पुत्री की दृष्टि से देखना चाहिए । कुदृष्टि के उत्पन्न होते ही अपना एक कान ऐंठ कर अपने आप जोर से चपत लगानी चाहिए । गन्दी पुस्तकों से, तस्वीरों से और संगीत से बचना चाहिए । इस प्रकार धीरे-धीरे स्वाद और कामवासना पर विजय प्राप्त की जा सकती है । किसी बात को पूरा करने के लिए मनुष्य दृढ़ प्रतिज्ञा हो जाय और प्रयत्न बराबर जारी रखें तो कोई कारण नहीं कि उसमें सफलता प्राप्त न हो ।