बुद्ध कहते हैं: पहले तो स्वीकार करो कि दुख है।
क्योंकि अगर तुम दुख को स्वीकार ही न करोगे, तो फिर आगे तो यात्रा चलेगी ही नहीं।
फिर दूसरी बात बुद्ध कहते हैं: समझने की कोशिश करो कि दुख के कारण हैं। अकारण तो कोई नहीं होता।
मत टालो भाग्य पर! भाग्य तो बहाना है। कारण से बचने का बहाना है। मत कहो विधाता ने लिख दिया है!
मत कहो कि किसी और की जिम्मेवारी है।
कारण तो तुम हो। कारण हैं तो तुम्हारे भीतर हैं, तुम्हारी मूर्च्छा में हैं।
अब क्रोध करोगे तो दुख न होगा तो क्या होगा ।
और लोभ करोगे तो दुख न होगा तो और क्या होगा ।
दूसरों को दुख दोगे, सताओगे, तो क्या तुम सोचते हो तुम्हारे जीवन में सुख की वीणा बजेगी ।
तुम जो दूसरों को दोगे, वही तुम पर लौट आएगा। यह जगत तो प्रतिफल करता है। यह जगत तो यूं हैं कि तुम जो इसे देते हो, उसी को हजार गुना करके लौटा देता है। सब तुम पर ही आ जाता है वापिस। जो गङ्ढे तुम औरों के लिए खोदते हो, एक दिन सिद्ध होता है कि तुम्हारे लिए ही, तुम्हारी ही कब्र बन जाती हैं।तो कारण हैं। लेकिन हम कारणों को भी बचाते हैं।
पहले तो हम दुख है, यह मानने को राजी नहीं होते। अपने से भी छिपाते हैं, औरों से भी छिपाते हैं।
यूं भ्रांति बनाए रखते हैं, ऐसा भरम बनाए रखते हैं कि सब ठीक है। भीतर आग लगती रहती है, ज्वालामुखी उबलता है और बाहर एक मुखौटा ओढ़े रखते हैं। फिर दूसरे अगर यह स्वीकार भी कर लें कि दुख है, तो हम सदा कारण दूसरों पर थोपते हैं।
पति अगर दुखी है तो पत्नी के कारण। पत्नी अगर दुखी है तो पति के कारण। बाप अगर दुखी है तो बेटे के कारण।
बेटा अगर दुखी है तो बाप के कारण।
जो व्यक्ति कारण दूसरों पर छोड़ देता है, उसने फिर बचाव का उपाय खोज लिया। वह कहने लगा कि मैं करूं तो करूं क्या!
समाज बुरा, समाज की व्यवस्था बुरी, यह परिवार का ढांचा बुरा, यह अर्थनीति बुरी, यह राजनीति बुरी। मैं अकेला आदमी इस भवसागर में फंसा हूं! कैसे हो छुटकारा ।कुछ दिखाई पड़ता नहीं, किनारे का कुछ पता नहीं। और हरेक जान लेने को तत्पर है।यूं तुम बच जाते हो, मगर यह कुछ बचना न हुआ। यह अपने हाथ से फांसी लगा लेना हुआ।
कारण तुम्हारे भीतर हैं।
इसलिए बुद्ध ने दूसरा कहा--पहला: दुख है,
और दूसरा कि दुख के कारण हैं, कारण तुम्हारे भीतर हैं।
और तीसरा कारणों को काटने के उपाय हैं।
हताश मत हो जाना! विधियां हैं, जिनसे कारण उखाड़े जा सकते हैं। एक बार पता चल जाए कि जड़ कहां है, तो गङ्ढे खोदे जा सकते हैं, घास-पात उखाड़ी जा सकती है, काटी जा सकती है।
उसी विधि का नाम धर्म है,
ध्यान है,
योग है,
तंत्र हैं।
सब अलग अलग नाम है
ओशो
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