उत्तम मंगल है--"तप"
तप का वास्तविक अर्थ है संयम से तपना।
शरीर, वाणी और चित्त को तपाने के लिये किये गए परिश्रम, पुरुषार्थ और पराक्रम द्वारा इन्द्रियों पर लगाम लगाना, वाणी पर लगाम लगाना, कायिक कर्मो पर लगाम लगाना।
विकार जगाने वाले दृश्यों को देखने से आँख पर रोक लगाना, विकार जगाने वाले शब्दों को सुनने से कान पर, विकार जगाने वाले रस के चखने से जीभ पर, विकार जगाने वाली गंध से नाक पर, विकार जगाने वाले स्पर्श से तन पर लगाम लगाना।
यही वास्तविक तप है।
इस तप द्वारा अपनी इन्द्रियों की रक्षा करता है।उन्हें विषयो में लिप्त होने से बचाता है।
वाणी द्वारा झूठ बोलने से, कटु वचन बोलने से, चुगली के वचन बोलने से, निरर्थक वचन बोलने पर रोक लगाता है।रोक लगाकर वाणी के दुष्कर्मो से बचता है।
हिंसा, चोरी, व्यभिचार जैसे शारीरिक दुष्कर्मो से बचता है।
और इन सबसे बढ़कर मन को मैला न होने देने के लिये प्रत्यनशील होता है।उसे विकारो से विकृत नही होने देता। इस सच्चाई के प्रति हमेशा सजग रहता है कि मन में विकार जागते ही, मन को मैला करते ही शरीर, वाणी और इन्द्रियों के संयम का तप क्षीण हो जायेगा।निष्फल हो जाएगा।
मन को संयमित करते ही शरीर और वाणी के कर्म अपने आप संयमित हो जाएंगे।
तभी कहा गया--
मन के कर्म सुधार लें,
मन ही प्रमुख प्रधान।
कायिक वाचिक कर्म तो,
मन की ही संतान।।
विकारो से व्याकुल हुए मानस के ऊपरी ऊपरी हिस्से किसी रोचक आलंबन की और मोड़कर उसे शांत कर लेना सरल है।
लेकिन अंतर्मन की गहराईओं में उलझी हुई विकारो की जड़ो को काटकर मन का स्वभाव बदल देना बहुत कठिन है।इसके लिये बहुत परिश्रम करना पड़ता है।
अन्तर्मन का विकृत स्वभाव बदलना ही सही माने में अंतर्तप है।
सबका मंगल हो।
No comments:
Post a Comment