अखण्ड_भारत: स्वप्न या सत्य.... आजादी का 75वां वर्ष है। देश अमृत महोत्सव मना रहा है। आजादी अपने साथ जनाधिकार, भागीदारी, समानता व समग्र विकास का लक्ष्य लेकर आयी। लेकिन जो डूरंड व रेडक्लिफ रेखाओं से विभाजन का अभिशाप था उससे मुक्ति हमारे नये नेताओं का लक्ष्य नहीं बना। क्या गांधार काबुल से लेकर रंगून तक विस्तारित अपनी अखण्ड सांस्कृतिक भूमि तक पहुंचने का हमारा स्वप्न, स्वप्न ही रहेगा?
हमारा सबसे बड़ा विष्णु मंदिर अंकोरवाट कम्बोडिया में है। हमारी संस्कृति धर्म व इतिहास गांधार अफगानिस्तान से म्यानमार इंडोनेशिया तक इस अखण्ड सांस्कृतिक क्षेत्र के कण कण में मुखर है। लेकिन यह भी सत्य है कि राष्ट्रवादी हिंदू संगठनों विशेषकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अतिरिक्त कोई प्रभावी विमर्श सामने नहीं आया है। आज हमारा कोई ऐसा अध्ययन संस्थान भी नहीं है जो इस सांस्कृतिक-राजनैतिक एकता के विचार को समर्पित हो। लेकिन हम वसीम रिजवी, अली अकबर कालीदासी आदि बहुत से लोगों से बदलते समय की आहटें सुन रहे हैं। अखंडता बेचैन होकर अपना मार्ग तलाश रही है।
हमारा बिखराव आठवीं शताब्दी से हो रहे इस्लामिक आक्रमणों से प्रारंभ होता है। आजादी के आंदोलन के दौरान अस्तित्व में आयी सत्ता आकांक्षी राजनीति ने अपना भविष्य धर्म से विभाजित हुए भारत में देखा। देश को बांटने वाले ही जब सत्ता में आ गये तो अखण्ड भारत उनका लक्ष्य हो, यह संभव ही नहीं था। उन्होंने देश को बांटा फिर कश्मीर को बांटा। जो चला गया वह उन्हें वापस नहीं चाहिए था।
इस खण्डित भारत के विद्यालयों में हमें कभी अफगानिस्तान, पंजाब, सिंध, श्रीलंका, म्यांमार व सुदूर श्रीविजय साम्राज्य का इतिहास नहीं पढ़ाया गया। आजाद भारत के नये शासकों को चिंता तो यह थी कि यदि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जागरण हो गया तो उनके सत्ता के मुख्य उपकरण छद्म धर्मनिरपेक्षता का क्या होगा? यह विभाजन के गुनाहगारों की मूल समस्या थी।
वे जो इस्लामिक सेनाओं से गांधार, गजनी, काबुल, पुरुषपुर और जाबुल की पश्चिमी सरहद पर सैकड़ों वर्ष तक जूझते रहे, आज हमें उनके नाम भी नहीं मालूम हैं। आज का अफगानिस्तान, सम्पूर्ण पंजाब, सिंधु प्रदेश इतिहास के प्रारंभ से आर्य सभ्यता का आदि क्षेत्र रहा है। यही पंजाब है जहां की सात नदियों के तटों पर वेदों की रचना हुई, जहां का महान् हिंदूशाही राज्य 250 वर्षों तक विधर्मियों से लड़ता रहा।
जिन लोगों ने अपना बलिदान देकर 450 वर्षों तक इस्लामिक आक्रांताओं को सीमाओं पर रोके रखा, वे तो वही पुरु की सेना के वारिस वीर सैनिक थे, जिन्होंने कभी विश्व विजयी सिकंदर को वापस जाने को मजबूर कर दिया था। अरब आक्रांता, पंजाब सिंध से वापस खदेड़ दिये गये थे। बकौल अरब इतिहासकार अरब सेनाओं को भागने के लिए जमीन कम पड़ गयी थी। ऐसे बहादुर जुझारू योद्धा, बहादुर सैनिक आखिर धर्मपरिवर्तन को क्यों मजबूर हुए? जब वे जूझ रहे थे तब शेष भारत उनके पीछे दीवार बन कर क्यों खड़ा नहीं हुआ?
अपना सिर कटा देना उन योद्धाओं के लिए क्या मुश्किल था? लेकिन अपने पीछे बेटियों और पत्नियों को कैसे भेड़ियों के हवाले चले जाने दें? ये जो आठवीं शताब्दी से लेकर आज तक धर्म रक्षा के युद्धों में दस करोड़ हिंदुओं की आहुति हुई है, इसमें गांधार पंजाब के हिंदुओं का एक बड़ा हिस्सा रहा है।
अपनी पुत्रियों, महिलाओं को अपहरण व बलात्कार से बचाने के लिए पीढ़ियों से युद्धरत हिंदू समाज कन्वर्जन को बाध्य हुआ। भारत की मुख्यभूमि में उस संक्रमण कालखण्ड में संभवतः रणनैतिक दायित्वबोध, धर्मरक्षाभाव विहीनता के कारण तराइन पानीपत जैसे युद्ध हिंदुकुश, गांधार में न होकर भारत भूमि पर दिल्ली के निकट आकर हुए। छोटे राज्यों के ये बड़ी उपाधियों वाले राजा देश के महान सम्राटों चंद्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त, विक्रमादित्य, कनिष्क का इतिहास भूल चुके थे।
जब जेहादी सुलतानों ने मुख्यभूमि में आकर कटे हुए सरों की मीनारें सजानी शुरू कीं, मजहब के अनुसार मंदिरों देव मूर्तियों को तोड़ना, जजिया लगाना, बहनों बेटियों को गुलाम व रखैलें बनाना और बाजारों में बेचना प्रारंभ किया, तब धनाढ्य मोटे राजाओं, सेठों, मठाधीशों को समझ में आया कि गांधार व पंजाब पर पिछले चार सौ वर्षों से क्या बीत रहा था।
कतिपय सुविधा आकांक्षी नगरजीवी दरबारियों में लालच, सत्ता की आकांक्षा, लूट में हिस्सेदारी का भाव हो सकता है। लेकिन कन्वर्जन मूलतः तलवार से बलात् हुआ। लेकिन जब कभी समय आया तो भी अपने इस धर्म दूषित समाज को धर्म में वापस लाने का कोई अभियान नहीं चलाया गया। यहीं से अखण्ड भारत का संकट प्रारंभ हुआ। बहुत से लोग तो आज भी उस दिवस की प्रतीक्षा में हैं, जब धर्म के द्वार उनके लिए खुलेंगे।
आज तो हमारे सामने इंडोनेशिया की राजकुमारी सुकमावती सुकर्णोपुत्री व उनके साथ हिंदू धर्म में वापस आए हजारों इंडोनेशियाइयों का गर्व करने वाला आह्लादकारी उदाहरण भी है। अब धर्माधिकारियों के सम्मुख धर्म में वापसी का अभियान न चलाने का कोई बहाना भी नहीं है।
हमारी पीढ़ियों को अपने देश-धर्म के बलिदानों का असल इतिहास जानना कितना जरूरी हो गया है। हम अपने धर्मांतरित समाज को, उनकी परंपरा व इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में बताएं और जब भी कभी अवसर बने, उन्हें विधर्मियों के इंद्रजाल से निकाल कर वापस ले आने का आह्वान भी करें।
यही भविष्य की अखण्डता की दिशा होगी। जो मोर्चा कल गांधार मुलतान में था, वह आज मुख्य भूमि में बंगाल, केरल तक लगा है। यह युद्धरत भारत है। हम मध्यांतर को युद्ध का समापन न समझें। इसमें सभी की भूमिका है।
धारा 370 गयी तो हमें पीओके स्पष्ट दिखने लगा। इसी तरह जब डूरंड और रेडक्लिफ लाइनों के मध्य अंग्रेजों द्वारा बनाया गया नकली देश पाकिस्तान जाएगा, तब हमें गांधार का मार्ग भी साफ दिखेगा। हमें उन सरहदों तक पहुंचना है जो हमारे पूर्वजों ने, हमारे इतिहास ने हमें दी हैं। हम वो नहीं हैं जो धर्मशत्रुओं के साथ सह-अस्तित्व को लक्ष्य बनाएं।
पाकिस्तान का अस्तित्व अखण्ड भारत के लक्ष्य में सबसे बड़ी बाधा है। उनसे बड़ी बाधा है यहां विकसित हो गया पाक-समर्थक राष्ट्र विरोधी राजनैतिक तंत्र। अतः भारत का सशक्त होते जाना पाकिस्तान विचारधारा की स्वाभाविक पराजय है।
भारत और स्पेन लगभग समान काल तक विधर्मियों के गुलाम रहे थे। स्पेन में धर्मयुद्धों के बाद आज उस गुलामी के निशान भी नहीं हैं। सबकी घर वापसी हो गयी। यहां उसी समयकाल में खानवा में राणा सांगा की हार हुई और मुगल साम्राज्य स्थापित हो गया। अखण्ड भारत समझौतापरस्तों का स्वप्न नहीं है। आपका लक्ष्य यदि सबल समृद्ध भारत है तो आप स्वतः अखण्ड भारत के योद्धा हैं। सामाजिक एकता, अखण्ड भारत की सबसे बड़ी शक्ति होगी। अखण्डता मात्र राजनैतिक विचार नहीं बल्कि एकात्म सांस्कृतिक रणनीति भी है। एक महान् लक्ष्य जिसकी कार्ययोजना को आकार दिया जाना अभी शेष है।
साभार- पाथेय कण
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