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धारणा

चित्त को किसी एक विचार में बांध लेने की क्रिया को धारणा कहा जाता है। यह शब्द 'धृ' धातु से बना है। पतंजलि के अष्टांग योग का यह छठा अंग या चरण है। वूलफ मेसिंग नामक व्यक्ति ने धारणा के सम्बन्ध में प्रयोग किये थे।
धारणा अष्टांग योग का छठा चरण है। इससे पहले पांच चरण यमनियमआसनप्राणायामऔर प्रत्याहार हैं जो योग में बाहरी साधन माने गए हैं। इसके बाद सातवें चरण में ध्यान और आठवें में समाधि की अवस्था प्राप्त होती है। धारणा शब्द ‘धृ’ धातु से बना है। इसका अर्थ होता है संभालना, थामना या सहारा देना। योग दर्शन के अनुसार- देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।(योगसूत्र 3/1) अर्थात्- किसी स्थान (मन के भीतर या बाहर) विशेष पर चित्त को स्थिर करने का नाम धारणा है। आशय यह है कि यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार द्वारा इंद्रियों को उनके विषयों से हटाकर चित्त में स्थिर किया जाता है। स्थिर हुए चित्त को एक ‘स्थान’ पर रोक लेना ही धारणा है।
चित्त का देश विशेष में बँध जाना धारणा है।
यम, नियम, आसन, प्राणायम और प्रत्याहार को क्रमश: धारणा के समुद्र में छलाँग लगाने की तैयारी मात्र माना गया है। धारणा से ही कठिन परीक्षा और सावधानी की शुरुआत होती है। जिसे धारणा सिद्ध हो जाती है, कहते हैं कि ऐसा योगी अपनी सोच या संकल्प मात्र से सब कुछ बदल सकता है। ऐसे ही योगी के आशीर्वाद या शाप फलित होते हैं।

निगाहें स्थिर :इस अवस्था में मन पूरी तरह स्थिर तथा शांत रहता है। जैसे क‍ि बाण के कमान से छूटने के पूर्व लक्ष्य पर कुछ देर के लिए निगाहें स्थिर हो जाती हैं, जैसे क‍ि तूफान के आने से पूर्व कुछ देर हवाएँ स्थिर हो जाती हैं, जैसे कि दो भीमकाय बादलों के टकराने के पूर्व दोनों चुपचाप नजदीक आते रहते हैं। ठीक उसी तरह योगी के मन की अवस्था हो चलती है, जबकि उसके एक तरफ संसार होता है तो दूसरी तरफ रहस्य का सागर। यह मन से मुक्ति की शुरुआत भी है। धारणा सिद्व्यक्तिपहचािउसकनिगाहें स्थिर रहतहै।
दृड़ निश्चियी :धारणा के संबंध में भगवान महावीर ने बहुत कुछ कहा है। श्वास-प्रश्वास के मंद व शांत होने पर, इंद्रियों के विषयों से हटने पर, मन अपने आप स्थिर होकर शरीर के अंतर्गत किसी स्थान विशेष में स्थिर हो जाता है तो ऊर्जा का बहाव भी एक ही दिशा में होता है। ऐसे चित्त की शक्ति बढ़ जाती है, फिर वह जो भी सोचता है वह घटित होने लगता है। जो लोग दृड़ निश्चिय होते हैं, अनजाने में ही उनकी भी धारणा पुष्ट होने लगती है।

योगभ्रष्ट :हिंदू, जैन और बौद्ध धर्म अनुसार धारणा सिद्ध व्यक्ति को योगी, अवधूत, सिद्ध, संबुद्ध कहते हैं। यहीं से धर्म मार्ग का कठिन रास्ता शुरू होता है, जबकि साधक को हिम्मत करके और आगे रहस्य के संसार में कदम रखना होता है। कहते हैं कि यहाँ तक पहुँचने के बाद पुन: संसार में पड़ जाने से दुर्गति हो जाती है। ऐसे व्यक्ति को योगभ्रष्ट कहा जाता है, इसलिए ऐसे साधक या योगी को समाज जंगल का रास्ता दिखा देता है।
वन-वे ट्रैफिक :इसे ऐसा समझ लीजिए क‍ि अब आप वन-वे ट्रैफिक में फँस गए हैं, अब पीछे लौटना याने जान को जोखिम में डालना ही होगा। कहते हैं कि छोटी-मोटी जगह से गिरने पर छोटी चोट ही लगती है, लेकिन पहाड़ पर से गिरोगे तो भाग्य या भगवान भरोसे ही समझो

वैसे तो शरीर में मन को टिकाने के मुख्य स्थान मस्तक, भ्रूमध्य, नाक का अग्रभाग, जिह्वा का अग्रभाग, कण्ठ, हृदय, नाभि आदि हैं परन्तु इनमें से सर्वोत्तम स्थान हृदय प्रदेश को माना गया है। हृदय प्रदेश का अभिप्राय शरीर के हृदय नामक अंग के स्थान से न हो कर छाती के बीचों बीच जो गड्डा होता है उससे है।
बहुत से साधक धारणा का अभ्यास लम्बे काल तक करते हुए धारणा को ही ध्यान मान लेते हैं, ऐसा न करें। क्योंकि धारणा बनाकर आगे (अगले अङ्ग में) ध्यान का विधान किया है। अतः धारणा का अर्थ केवल मन को टिकाए रखना ही लेना है। धारणा से मन को टिका कर अगली प्रक्रिया में ध्यान प्रारम्भ किया जाता है।
          प्रारम्भ काल में शरीर से बाहर ओ३म् गायत्री मन्त्र आदि में धारणा कुछ ही अवधि तक करनी चाहिए। लम्बे काल तक शरीर से बाहर धारणा नहीं करनी चाहिए।
          जहां धारणा की जाती है वहीं ध्यान करने का विधान है। ध्यान के बाद समाधि के माध्यम से आत्मा प्रभु का दर्शन करता है और दर्शन वहीं हो सकता है जहां आत्मा और प्रभु दोनों उपस्थित हों। प्रभु तो शरीर के अन्दर भी है और बाहर भी परन्तु आत्मा केवल शरीर के अन्दर ही विद्यमान है। इसलिए शरीर से बाहर धारणा नहीं करनी चाहिए।
अभ्यास के लिए प्रारम्भ में आँखें खोल कर मात्र कुछ समय के लिए ही बाहर धारणा का अभ्यास करें।
धारणा के लाभ
1.       मन एकाग्र होता है।
2.       मन प्रसन्न, शान्त, तृप्त रहता है।
3.       मन की मलिनता का बोध (परिज्ञान) होता है।
4.       मन के विकारों को दूर करने में सफलता मिलती है।
5.       ध्यान की पूर्व तैयारी होती है।
6.       ध्यान अच्छा लगता है।
निम्नलिखित कारणों से प्राय: हम मन को लम्बे समय तक एक स्थान पर नहीं टिका पाते -
1. मन जड़ है को भूले रहना
2. भोजन में सात्विकता की कमी
3. संसारिक पदार्थों व संसारिक-संबंन्धों में मोह रहना
4. ‘र्इश्वर कण – कण में व्याप्त है’ को भूले रहना
5. बार-बार मन को टिकाकर रखने का संकल्प नहीं करना
6. मन के शान्त भाव को भुलाकर उसे चंचल मानना
इस प्रकार अनेकों कारण हैं, जिन से मन धारणा स्थल पर टिका हुआ नहीं रह पाता। इन कारणों को प्रथम अच्छी तरह जान लेना चाहिए, फिर उनको दूर करने के लिए निरन्तर अभ्यास करते रहने से मन एक स्थान पर लम्बी अवधि तक टिक सकता है।
बहुत से योग साधक बिना धारणा बनाए ध्यान करते रहते हैं। जिससे मन की स्थिरता नहीं बन पाने से भी भटकाव अधिक होने लगता है।
फिर अनेक बार उस भटकाव को रोकने में ही सारा समय व्यतीत होता है। अतः अच्छा तो यही है कि ध्यान करने वाले योग-साधक योग-विधि के अनुसार धारणा बना कर ही ध्यान करें।
          प्रारम्भिक योग साधक को चाहिए कि वह ध्यान के काल में बीच-बीच में धारणा स्थल का बोध बनाए रखे। जिससे भटकना न हो पाये। योग-साधक को यह भी चाहिए कि जितने धारणा स्थल हैं उनमें धारणा करने का अभ्यास बना लेवे, जिससे यदि कभी एक धारणा स्थल पर सफलता न मिले तो अन्य धारणा स्थल पर सफलता पूर्वक धारणा लगा सके।
          योग-साधक को अपनी बुद्धि में यह बात भी अवश्य बिठा लेनी चाहिए कि बिना धारणा बनाये ध्यान समुचित रूप में नहीं हो सकता।
जितनी मात्रा में हमने योग के पहले पांच अंगो को सिद्ध किया होता है। उसी अनुपात में हमें धारणा में सफलता मिलती है। धारणा के महत्त्व व आवश्यकता को निम्नलिखित उदाहरण से समझाया जा सकता है। जिस तरह किसी लक्ष्य पर बन्दूक से निशाना साधने के लिए बन्दूक की स्थिरता परमावश्यक है। ठीक उसी तरह र्इश्वर पर निशाना लगाने (र्इश्वर को पाने) के लिए हमारे मन को एक स्थान पर टिका देना अति आवश्यक है|     
               

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