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लघुकथा

⚛️ कर्मयोगी बनो ⚛️
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एक छोटी सी कहानी
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एक साधु नदी तट पर बैठा हुआ माला जप रहा था। पास बैठे एक ब्राह्मण ने जप का कारण पूछा तो उसने बताया "स्वर्ग प्राप्ति के लिए जप कर रहा हूँ।"

वह ब्राह्मण भी साधु के पास ही बैठ गया और एक - एक मुट्ठी बालू नदी में डालने लगा। उसे ऐसा करते देखकर साधू ने उससे पूछा - " ब्राह्मण देवता ! आप ये बालू नदी में क्यों डाल रहे हो ?" #अध्यात्म_सागर

ब्राह्मण बोला - "मैं नदी पर पुल बनाऊँगा उस पर होकर पार जाऊँगा।

साधु जोर से हँसा और बोला - "मित्र पुल इस प्रकार नहीं बनता, उसके लिए इंजीनियर, श्रमिक, सामान एवं आवश्यक धन जुटाना पड़ेगा। बालू डालने भर से पुल नहीं बँध सकता।" #AdhyatmaSagar #awgp

उलटकर ब्राह्मण बोला -" मंत्र माला जपने से स्वर्ग कैसे मिल जायगा। उसके लिए संयम, ज्ञान एवं परमार्थ जैसे पुण्य भी तो करने पड़ेंगे।"

साधु ने अपनी भूल समझी और कर्मयोगी बन गया।

🌹जय श्री हरि🌹

माँ

मां पर इतने सुंदर सुंदर बोल...एकसाथ... 

🙏🏿 *गिनती नही आती मेरी माँ को यारों,*
*मैं एक रोटी मांगता हूँ वो हमेशा दो ही लेकर आती है.☺*
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*🙏🏿जन्नत का हर लम्हा….दीदार किया था*
*गोद मे उठाकर जब मॉ ने प्यार किया था*
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🙏🏿 *सब कह रहें हैं*
              *आज माँ का दिन है*
*वो कौन सा दिन है..*
              *जो मां के बिन है*
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🙏🏿 *सन्नाटा छा* गया *बटवारे* के *किस्से* में..

जब *माँ* ने पूछा *मैं* हूँ किसके *हिस्से* में.....!!!
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🙏🏿.... *घर की इस बार*

*मुकम्मल तलाशी लूंगा!*

*पता नहीं ग़म छुपाकर*

*हमारे मां बाप कहां रखते थे...?*😔
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🙏🏿 *एक अच्छी माँ हर किसी*
*के पास होती है लेकिन...*

*एक अच्छी औलाद हर*
*माँ के पास नहीं होती...*
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🙏🏿 *माँ से छोटा कोई शब्द हो तो बताओ*

*उससे बडा भी कोई हो तो भी बताना.....*
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🙏🏿 *मंजिल दूर और सफ़र बहुत है .*
*छोटी सी जिन्दगी की फिकर बहुत है .*
*मार डालती ये दुनिया कब की हमे .*
*लेकिन "माँ" की दुआओं में असर बहुत है .🙂*
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*🙏🏿माँ को देख,*
*मुस्कुरा😊 लिया करो..*

*क्या पता किस्मत में*
*हज़(तीरथ) लिखा ही ना हो*
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🙏🏿 *​मौत के लिए बहुत रास्ते हैं ​पर*....
  *जन्म लेने के लिए ​केवल*
           *माँ​​* ✍.
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🙏🏿 *माँ के लिए क्या लिखूँ ? माँ ने खुद मुझे लिखा है* ✍🙏 😘
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🙏🏿 *दवा असर ना करें तो*
 *नजर उतारती है*

 *माँ है जनाब...*
 *वो कहाँ हार मानती है*।

🙏🙏🙏🙏🙏🌹🌹🌹

माँ

*माँ*
माँ संवेदना है, भावना है, अहसास है माँ
माँ जीवन के फूलों में खाुशबू का वास है माँ
माँ रोते हुए बच्चे का खुशनुमा पलना है माँ
माँ मरुथल में नदी या मीठा सा झरना है माँ
माँ लोरी है, गीत है, प्यारी सी थाप है माँ
माँ पूजा की थाली है, मंत्रों का जाप है माँ
माँ आखों का सिसकता हुआ किनारा है माँ
माँ गालों पर पप्पी है, ममता की धारा है माँ
माँ झुलसते दिनों में कोयल की बोली है माँ
माँ मेहंदी है, कुमकुम है, सिंदूर की रोली है माँ
माँ कलम है, दवात है, स्याही है माँ
माँ परमात्मा की स्वयं एक गवाही है माँ
माँ त्याग है, तपस्या है, सेवा है माँ
माँ फूंक से ठंडा किया हुआ कलेवा है माँ
माँ अनुष्ठान है, साधना है, जीवन का हवन है माँ
माँ जिंदगी है, मुहल्ले में आत्मा का भवन है माँ
माँ चूड़ी वाले हााथों पे मजबूत कंधों का नाम है माँ
माँ काशी है, काबा है, चारो धाम है माँ
माँ चिंता है, याद है, हिचकी है
माँ बच्चे की चोट पर सिसकी है
माँ चूल्हा, धुआँ, रोटी और हाथों का छाला है माँ
माँ जिंदगी की कड़वाहट में अमृत का प्याला है माँ
माँ पृथ्वी है, जगत है, धूरी है
मां बिना इस सृष्टि की कल्पना अधूरी है
तो माँ की यह कथा अनादि है, अध्याय नहीं है
और माँ का जीवन में कोई पर्याय नहीं है
तो माँ का महत्व दुनियाँ में कम हो नहीं सकता
औ माँ जैसा दुनियाँ में कुछ हो नहीं सकता
तो मैं कला की पंक्तियाँ माँ के नाम करता हूँ
मैं दुनियाँ की सब माताओं को प्रणाम करता हूँ।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻
💐💐😘😘💐💐

एक सुंदर कथा

.                    ।।🕉।।
*💐।।ॐ निं निखिलेश्वराय नम:।।💐*
    *अमृत वचन - स्वयं की शक्ति*

एक सुंदर कथा है- एक बार एक बूढ़ा हाथी कीचड़ में फंस गया। जितना हाथी उस कीचड़ से निकलने का प्रयास करता उतना ही ज्यादा फंसता जाता। चारों ओर लोग इक्ठ्ठा हो गये और उन्होंने सोचा कि- मिलकर इसे धक्का देते हैं।हाथी को अंकुश चुभाया, उसे धक्का देने का प्रयास किया गया, पर इतना बड़ा हाथी पचास, सौ लोगों के प्रयास से कैसे हिलता, कीचड़ से बाहर निकलने की बात तो बहुत दूर की थी।उनके प्रयास करने पर भी हाथी टस से मस नहीं हुआ। इतने में एक संन्यासी उधर से निकला, थोड़ी देर देखता रहा ,फिर उसने पूछा कि आप सब लोग इस हाथी को निकालने का प्रयास क्यों कर रहे हो? सबने कहा कि हाथी हम सबका प्रिय है और हम इसको मुसीबत से निकालना चाहते हैं। लेकिन हमारे प्रयास करने पर भी यह निकल नहीं पा रहा है।

संन्यासी ने कहा तुम सब दूर हो जाओ, मैं अकेला इसे निकाल दूंगा। तुम बस ढोल, नगाड़ों की व्यवस्था कर दो।संन्यासी का कहा मान कर लोग ढोल- नगाड़े लेकर आ गये। संन्यासी ने कहा कि-इन्हें जोर- जोर से बजाओ।एक युद्ध ध्वनि की तरह वातावरण को, गुंजरित कर दो और जोर-जोर से ढोल, नगाड़े बजने लगे।उन ढोल-नगाड़ों की वो रणभेदी ध्वनि निराश , हताश हाथी ने भी सुनी और उसमें जोश भर गया।जैसे- जैसे ढोल-नगाड़ों की ध्वनि तीव्र होती गई ।हाथी का प्रयास एक हुंकार के साथ तीव्रतम हुआ, अपनी पूरी शक्ति और जोश से उसने जोर लगाया और एक झटके से वह उस कीचड़ से, दलदल से निकल गया।वह शक्ति उसके भीतर से ही आई थी लोगों के हिलाने डुलाने से नहीं आई।एक हुंकार भरी और जोश के साथ उठ खड़ा हुआ, पार हो गया स्वयं के प्रयास से।

एक गुरु की यही तो हुंकार रहती है, जिनके आह्वान से शिष्य उठ खड़े हो जाएं। शक्ति प्रत्येक शिष्य के भीतर समाहित है और जब उस शक्ति का गुरु के द्वारा आह्वान किया जाता है तो वह शक्ति अपनी पूर्णता के साथ विस्फोटित होती है। यह जो विस्फोट की आवश्यकता है, जिन्दगी में एक धमाका होना चाहिए, पूरे जोश के साथ, पूरी ताकत के साथ।यह पूरा जोश, ताकत लगाना ही संन्यास भाव है।जब आप अपने आपको मुक्त करने की क्रिया प्रारम्भ कर देते हो तब यह संभव हो पाता है।

कितनी विचित्र बात है कि ईश्वर ने हमें मुख और नेत्र आगे की ओर दिये हैं और हम सामने देखकर तो चलते ही नहीं है।हरबार दायें बायें ही देखते हैं। हर समय डर के मारे अपने कंधे झुकाकर चलते हैं। यह सोच कर चलते हैं मेरे साथ वाले क्या कहेंगे, मेरे पड़ोसी क्या कहेंगे , मेरे रिश्तेदार क्या कहेंगे।अपने आपको हर समय शांत करने का प्रयास करते रहते हो।सत्य तो यह है कि आप हर समय अपने आपको दब्बू बनाने की कोशिश करते रहते हो।

गुरु के पास जाते हो तो मन के कोने से सवाल अवश्य आता है कि- मैं जा रहा हूं लेकिन लोग क्या कहेंगे? लोग यही कहेंगे इसका दिमाग खराब हो गया है। ये क्या गुरु वगैरह के चक्कर में फंस रहा है।इसे रोको यह गुरु के पास ज्यादा न जा पाए।पहले तो यही प्रयास रहता है कि आप गुरु के पास जाएं ही नहीं।उन्हें डर है कि- यह संन्यासी बन जायेगा, उन्हें अच्छी तरह से मालूम है कि-संन्यासी बनने का मतलब मुक्त होना है।कोई आपको मुक्त होने देना नहीं चाहते ,सब आपको अपने ही रंग में रंगना चाहते हैं।इसी में आपने अपनी जिन्दगी व्यतीत कर दी है।अब बाकी बची हुई जिन्दगी तो ठीक कर लो। एक दिन तो ऐसा आना चाहिए, जब आप यह विचार करें कि- लोग क्या कहेंगे, उसकी वजह यह विचार आए कि आप खुद क्या कहते हैं ? जिस दिन आपने मुक्ति का नादब्रह्म सुनना प्रारंभ कर दिया उस दिन बाकी सब गौण हो जाएंगे, आपके ऊपर आपका ही प्रभाव हो जायेगा।

अब निर्णय आपको करना है कि आप अपने ऊपर किसका प्रभाव चाहते है। दूसरों का या स्वयं का।यह स्वतंत्रता का भाव ही संन्यास का भाव है, जिसमें आप वह सब काम करेंगे जो आपको इस जीवन में करने है्, जो आप करना चाहते हैं लेकिन तब आप काम पूरे मन से करेंगे, रोते रोते नहीं करेंगे, स्वतंत्र भाव से करेंगे।

एक बात तुम जान लो, तुम जिसको भजोगे ,वह तुम्हारा अवश्य होगा, तुम्हारी अनुभूति में, तुम्हारे विचार में अवश्य आएगा। तुम्हारे कर्म उसी अनुसार नियत हो जाएंगे यहां तक कि तुम्हारा समर्पण भी उसी अनुसार बन जाएगा।जो राम को भजता है, वह राम को पाता है।जो कृष्ण को भजता है वह कृष्ण को पाता है। प्रेम से भजो या प्रार्थना से भजो, मीरा ने कृष्ण को पाया, यही प्रार्थना और भजन की विशेषता है।अपनी स्वयं की शक्ति को पहचानो, स्वयं की शक्ति से परिचय कराने ही गुरु जीवन में आते हैं।जीवन में शिष्य बनना सहज नहीं है।शिष्यता की एक जांची और परखी हुई परिभाषा है।बिना शीश गवाएं अर्थात बिना अहम् का त्याग किए गुरु के प्रति समर्पण नहीं हो पाएगा।

जब यह भाव कि *मैं कुछ हूं* गुरु चरणों में जब आप उत्सर्ग कर देते हैं, उस क्षण आप गुरु के चरणों में समर्पित हो जाते हैं।

*जब मैं था,तब गुरु नाहीं*
                          *अब गुरु हैं मैं नाहिं।*

*✍परम पूज्य गुरुदेव नन्दकिशोर श्रीमाली जी*

।। 🐚🐚 ।।।🐚 🐚 ।।।🐚 🐚 ।।

Happy Mother Day

बेटी जब शादी के मंडप से...
ससुराल जाती है तब .....
पराई नहीं लगती.
मगर ......
जब वह मायके आकर हाथ मुंह धोने के बाद सामने टंगे टाविल के बजाय अपने बैग से छोटे से रुमाल से मुंह पौंछती है , तब वह पराई लगती है.

जब वह रसोई के दरवाजे पर अपरिचित सी खड़ी हो जाती है , तब वह पराई लगती है.

जब वह पानी के गिलास के लिए इधर उधर आँखें घुमाती है , तब वह पराई लगती है.

जब वह पूछती है वाशिंग मशीन चलाऊँ क्या तब वह पराई लगती है.

जब टेबल पर खाना लगने के बाद भी बर्तन खोल कर नहीं देखती तब वह पराई लगती है.

जब पैसे गिनते समय अपनी नजरें चुराती है तब वह पराई लगती है.

जब बात बात पर अनावश्यक ठहाके लगाकर खुश होने का नाटक करती है तब वह पराई लगती है.....

और लौटते समय 'अब कब आएगी' के जवाब में 'देखो कब आना होता है' यह जवाब देती है, तब हमेशा के लिए पराई हो गई ऐसे लगती है.

लेकिन गाड़ी में बैठने के बाद
जब वह चुपके से
अपनी आखें छुपा के सुखाने की कोशिश करती । तो वह परायापन एक झटके में बह जाता तब वो पराई सी लगती
😪😪😪😪😪😪😪😪

Dedicate to all Girls..

नहीं चाहिए हिस्सा भइया
मेरा मायका सजाए रखना

कुछ ना देना मुझको
बस प्यार बनाए रखना
पापा के इस घर में
मेरी याद बसाए रखना

बच्चों के मन में मेरा
मान बनाए रखना
बेटी हूँ सदा इस घर की
ये सम्मान सजाये रखना।

Dedicated to all married girls .....

बेटी से माँ का सफ़र (बहुत खूबसूरत पंक्तिया , सभी महिलाओ को समर्पित)

बेटी से माँ का सफ़र
बेफिक्री से फिकर का सफ़र
रोने से चुप कराने का सफ़र
उत्सुकत्ता से संयम का सफ़र

पहले जो आँचल में छुप जाया करती थी ।
आज किसी को आँचल में छुपा लेती हैं ।

पहले जो ऊँगली पे गरम लगने से घर को सर पे उठाया करती थी ।
आज हाथ जल जाने पर भी खाना बनाया करती हैं ।

पहले जो छोटी छोटी बातों पे रो जाया करती थी
आज बो बड़ी बड़ी बातों को मन में छुपाया करती हैं ।

पहले भाई,,दोस्तों से लड़ लिया करती थी ।
आज उनसे बात करने को भी तरस जाती हैं ।

माँ,माँ कह कर पूरे घर में उछला करती थी ।
आज माँ सुन के धीरे से मुस्कुराया करती हैं ।

10 बजे उठने पर भी जल्दी उठ जाना होता था ।
आज 7 बजे उठने पर भी
लेट हो जाया करती हैं ।

खुद के शौक पूरे करते करते ही साल गुजर जाता था ।
आज खुद के लिए एक कपडा लेने को तरस जाया करती है ।

पूरे दिन फ्री होके भी बिजी बताया करती थी ।
अब पूरे दिन काम करके भी काम चोर
कहलाया करती हैं ।

एक एग्जाम के लिए पूरे साल पढ़ा करती थी।
अब हर दिन बिना तैयारी के एग्जाम दिया करती हैं ।

ना जाने कब किसी की बेटी
किसी की माँ बन गई ।
कब बेटी से माँ के सफ़र में तब्दील हो गई .....
😭😭😭😭😭

Dedicated to all beautiful ladies😢😢😥

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🚩बेटी है तो कल हे।🚩

🚩बहुत प्यारी होती है बेटीया न जाने लोग बोझ समझते है बेटीया 👩👩👩👩👩👩👩 अच्छा लगे तो आगे जरूर शेयर करे । 🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

बुद्ध पूर्णिमा विशेष



गौतम बुद्ध ऐसे हैं जैसे हिमाच्छादित हिमालय। पर्वत तो और भी हैं, हिमाच्छादित पर्वत और भी हैं, पर हिमालय अतुलनीय है। उसकी कोई उपमा नहीं है। हिमालय बस हिमालय जैसा है। गौतम बुद्ध बस गौतम बुद्ध जैसे। पूरी मनुष्य-जाति के इतिहास में वैसा महिमापूर्ण नाम दूसरा नहीं। गौतम बुद्ध ने जितने हृदयों की वीणा को बजाया है, उतना किसी और ने नहीं। गौतम बुद्ध के माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोगों ने परम-भगवत्ता उपलब्ध की है, उतनी किसी और के माध्यम से नहीं। क्योंकि, बुद्ध ने विश्लेषण दिया, एनालिसिस दी। और जैसा सूक्ष्म विश्लेषण उन्होंने किया, कभी किसी ने न किया था, और फिर दुबारा कोई न कर पाया।

उन्होंने जीवन की समस्या के उत्तर शास्त्र से नहीं दिए, विश्लेषण की प्रक्रिया से दिए। बुद्ध धर्म के पहले वैज्ञानिक हैं। उनके साथ श्रद्धा और आस्था की जरूरत नहीं है। उनके साथ तो समझ पर्याप्त है। अगर तुम समझने को राजी हो, तो तुम बुद्ध की नौका में सवार हो जाओगे। अगर श्रद्धा भी आएगी, तो समझ की छाया होगी। लेकिन समझ के पहले श्रद्धा की मांग बुद्ध की नहीं है। बुद्ध यह नहीं कहते कि जो मैं कहता हूं, भरोसा कर लो।

बुद्ध कहते हैं, सोचो, विचारो, विश्लेषण करो; खोजो, पाओ अपने अनुभव से, तो भरोसा कर लेना। दुनिया के सारे धर्मों ने भरोसे को पहले रखा है, सिर्फ बुद्ध को छोड़कर। दुनिया के सारे धर्मों में श्रद्धा प्राथमिक है, फिर ही कदम उठेगा। बुद्ध ने कहा, अनुभव प्राथमिक है, श्रद्धा आनुसांगिक है। अनुभव होगा, तो श्रद्धा होगी। अनुभव होगा, तो आस्था होगी। इसलिए बुद्ध कहते हैं, आस्था की कोई जरूरत नहीं है; अनुभव के साथ अपने से आ जाएगी, तुम्हें लानी नहीं है। और तुम्हारी लायी हुई आस्था का मूल्य भी क्या हो सकता है? तुम्हारी लायी आस्था के पीछे भी छिपे होंगे तुम्हारे संदेह।

तुम आरोपित भी कर लोगे विश्वास को, तो भी विश्वास के पीछे अविश्वास खड़ा होगा। तुम कितनी ही दृढ़ता से भरोसा करना चाहो, लेकिन तुम्हारी दृढ़ता कंपती रहेगी और तुम जानते रहोगे कि जो तुम्हारे अनुभव में नहीं उतरा है, उसे तुम चाहो भी तो भी कैसे मान सकते हो? मान भी लो, तो भी कैसे मान सकते हो? तुम्हारा ईश्वर कोरा शब्दजाल होगा, जब तक अनुभव की किरण न उतरी हो। तुम्हारे मोक्ष की धारणा मात्र शाब्दिक होगी, जब तक मुक्ति का थोड़ा स्वाद तुम्हें न लगा हो।

बुद्ध ने कहा: मुझ पर भरोसा मत करना। मैं जो कहता हूं, उस पर इसलिए भरोसा मत करना कि मैं कहता हूं। सोचना, विचारना, जीना। तुम्हारे अनुभव की कसौटी पर सही हो जाए, तो ही सही है। मेरे कहने से क्या सही होगा! बुद्ध के अंतिम वचन हैं: अप्प दीपो भव। अपने दीए खुद बनना। क्योंकि तुम मेरी रोशनी में थोड़ी देर रोशन हो लोगे; फिर हमारे रास्ते अलग हो जाएंगे। मेरी रोशनी मेरे साथ होगी, तुम्हारा अंधेरा तुम्हारे साथ होगा। अपनी रोशनी पैदा करो। अप्प दीपो भव! यह बुद्ध का धम्मपद, कैसे वह रोशनी पैदा हो सकती है अनुभव की, उसका विश्लेषण है। श्रद्धा की कोई मांग नहीं है। श्रद्धा की कोई आवश्यकता भी नहीं।

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