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*💐।।ॐ निं निखिलेश्वराय नम:।।💐*
*अमृत वचन - स्वयं की शक्ति*
एक सुंदर कथा है- एक बार एक बूढ़ा हाथी कीचड़ में फंस गया। जितना हाथी उस कीचड़ से निकलने का प्रयास करता उतना ही ज्यादा फंसता जाता। चारों ओर लोग इक्ठ्ठा हो गये और उन्होंने सोचा कि- मिलकर इसे धक्का देते हैं।हाथी को अंकुश चुभाया, उसे धक्का देने का प्रयास किया गया, पर इतना बड़ा हाथी पचास, सौ लोगों के प्रयास से कैसे हिलता, कीचड़ से बाहर निकलने की बात तो बहुत दूर की थी।उनके प्रयास करने पर भी हाथी टस से मस नहीं हुआ। इतने में एक संन्यासी उधर से निकला, थोड़ी देर देखता रहा ,फिर उसने पूछा कि आप सब लोग इस हाथी को निकालने का प्रयास क्यों कर रहे हो? सबने कहा कि हाथी हम सबका प्रिय है और हम इसको मुसीबत से निकालना चाहते हैं। लेकिन हमारे प्रयास करने पर भी यह निकल नहीं पा रहा है।
संन्यासी ने कहा तुम सब दूर हो जाओ, मैं अकेला इसे निकाल दूंगा। तुम बस ढोल, नगाड़ों की व्यवस्था कर दो।संन्यासी का कहा मान कर लोग ढोल- नगाड़े लेकर आ गये। संन्यासी ने कहा कि-इन्हें जोर- जोर से बजाओ।एक युद्ध ध्वनि की तरह वातावरण को, गुंजरित कर दो और जोर-जोर से ढोल, नगाड़े बजने लगे।उन ढोल-नगाड़ों की वो रणभेदी ध्वनि निराश , हताश हाथी ने भी सुनी और उसमें जोश भर गया।जैसे- जैसे ढोल-नगाड़ों की ध्वनि तीव्र होती गई ।हाथी का प्रयास एक हुंकार के साथ तीव्रतम हुआ, अपनी पूरी शक्ति और जोश से उसने जोर लगाया और एक झटके से वह उस कीचड़ से, दलदल से निकल गया।वह शक्ति उसके भीतर से ही आई थी लोगों के हिलाने डुलाने से नहीं आई।एक हुंकार भरी और जोश के साथ उठ खड़ा हुआ, पार हो गया स्वयं के प्रयास से।
एक गुरु की यही तो हुंकार रहती है, जिनके आह्वान से शिष्य उठ खड़े हो जाएं। शक्ति प्रत्येक शिष्य के भीतर समाहित है और जब उस शक्ति का गुरु के द्वारा आह्वान किया जाता है तो वह शक्ति अपनी पूर्णता के साथ विस्फोटित होती है। यह जो विस्फोट की आवश्यकता है, जिन्दगी में एक धमाका होना चाहिए, पूरे जोश के साथ, पूरी ताकत के साथ।यह पूरा जोश, ताकत लगाना ही संन्यास भाव है।जब आप अपने आपको मुक्त करने की क्रिया प्रारम्भ कर देते हो तब यह संभव हो पाता है।
कितनी विचित्र बात है कि ईश्वर ने हमें मुख और नेत्र आगे की ओर दिये हैं और हम सामने देखकर तो चलते ही नहीं है।हरबार दायें बायें ही देखते हैं। हर समय डर के मारे अपने कंधे झुकाकर चलते हैं। यह सोच कर चलते हैं मेरे साथ वाले क्या कहेंगे, मेरे पड़ोसी क्या कहेंगे , मेरे रिश्तेदार क्या कहेंगे।अपने आपको हर समय शांत करने का प्रयास करते रहते हो।सत्य तो यह है कि आप हर समय अपने आपको दब्बू बनाने की कोशिश करते रहते हो।
गुरु के पास जाते हो तो मन के कोने से सवाल अवश्य आता है कि- मैं जा रहा हूं लेकिन लोग क्या कहेंगे? लोग यही कहेंगे इसका दिमाग खराब हो गया है। ये क्या गुरु वगैरह के चक्कर में फंस रहा है।इसे रोको यह गुरु के पास ज्यादा न जा पाए।पहले तो यही प्रयास रहता है कि आप गुरु के पास जाएं ही नहीं।उन्हें डर है कि- यह संन्यासी बन जायेगा, उन्हें अच्छी तरह से मालूम है कि-संन्यासी बनने का मतलब मुक्त होना है।कोई आपको मुक्त होने देना नहीं चाहते ,सब आपको अपने ही रंग में रंगना चाहते हैं।इसी में आपने अपनी जिन्दगी व्यतीत कर दी है।अब बाकी बची हुई जिन्दगी तो ठीक कर लो। एक दिन तो ऐसा आना चाहिए, जब आप यह विचार करें कि- लोग क्या कहेंगे, उसकी वजह यह विचार आए कि आप खुद क्या कहते हैं ? जिस दिन आपने मुक्ति का नादब्रह्म सुनना प्रारंभ कर दिया उस दिन बाकी सब गौण हो जाएंगे, आपके ऊपर आपका ही प्रभाव हो जायेगा।
अब निर्णय आपको करना है कि आप अपने ऊपर किसका प्रभाव चाहते है। दूसरों का या स्वयं का।यह स्वतंत्रता का भाव ही संन्यास का भाव है, जिसमें आप वह सब काम करेंगे जो आपको इस जीवन में करने है्, जो आप करना चाहते हैं लेकिन तब आप काम पूरे मन से करेंगे, रोते रोते नहीं करेंगे, स्वतंत्र भाव से करेंगे।
एक बात तुम जान लो, तुम जिसको भजोगे ,वह तुम्हारा अवश्य होगा, तुम्हारी अनुभूति में, तुम्हारे विचार में अवश्य आएगा। तुम्हारे कर्म उसी अनुसार नियत हो जाएंगे यहां तक कि तुम्हारा समर्पण भी उसी अनुसार बन जाएगा।जो राम को भजता है, वह राम को पाता है।जो कृष्ण को भजता है वह कृष्ण को पाता है। प्रेम से भजो या प्रार्थना से भजो, मीरा ने कृष्ण को पाया, यही प्रार्थना और भजन की विशेषता है।अपनी स्वयं की शक्ति को पहचानो, स्वयं की शक्ति से परिचय कराने ही गुरु जीवन में आते हैं।जीवन में शिष्य बनना सहज नहीं है।शिष्यता की एक जांची और परखी हुई परिभाषा है।बिना शीश गवाएं अर्थात बिना अहम् का त्याग किए गुरु के प्रति समर्पण नहीं हो पाएगा।
जब यह भाव कि *मैं कुछ हूं* गुरु चरणों में जब आप उत्सर्ग कर देते हैं, उस क्षण आप गुरु के चरणों में समर्पित हो जाते हैं।
*जब मैं था,तब गुरु नाहीं*
*अब गुरु हैं मैं नाहिं।*
*✍परम पूज्य गुरुदेव नन्दकिशोर श्रीमाली जी*
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*💐।।ॐ निं निखिलेश्वराय नम:।।💐*
*अमृत वचन - स्वयं की शक्ति*
एक सुंदर कथा है- एक बार एक बूढ़ा हाथी कीचड़ में फंस गया। जितना हाथी उस कीचड़ से निकलने का प्रयास करता उतना ही ज्यादा फंसता जाता। चारों ओर लोग इक्ठ्ठा हो गये और उन्होंने सोचा कि- मिलकर इसे धक्का देते हैं।हाथी को अंकुश चुभाया, उसे धक्का देने का प्रयास किया गया, पर इतना बड़ा हाथी पचास, सौ लोगों के प्रयास से कैसे हिलता, कीचड़ से बाहर निकलने की बात तो बहुत दूर की थी।उनके प्रयास करने पर भी हाथी टस से मस नहीं हुआ। इतने में एक संन्यासी उधर से निकला, थोड़ी देर देखता रहा ,फिर उसने पूछा कि आप सब लोग इस हाथी को निकालने का प्रयास क्यों कर रहे हो? सबने कहा कि हाथी हम सबका प्रिय है और हम इसको मुसीबत से निकालना चाहते हैं। लेकिन हमारे प्रयास करने पर भी यह निकल नहीं पा रहा है।
संन्यासी ने कहा तुम सब दूर हो जाओ, मैं अकेला इसे निकाल दूंगा। तुम बस ढोल, नगाड़ों की व्यवस्था कर दो।संन्यासी का कहा मान कर लोग ढोल- नगाड़े लेकर आ गये। संन्यासी ने कहा कि-इन्हें जोर- जोर से बजाओ।एक युद्ध ध्वनि की तरह वातावरण को, गुंजरित कर दो और जोर-जोर से ढोल, नगाड़े बजने लगे।उन ढोल-नगाड़ों की वो रणभेदी ध्वनि निराश , हताश हाथी ने भी सुनी और उसमें जोश भर गया।जैसे- जैसे ढोल-नगाड़ों की ध्वनि तीव्र होती गई ।हाथी का प्रयास एक हुंकार के साथ तीव्रतम हुआ, अपनी पूरी शक्ति और जोश से उसने जोर लगाया और एक झटके से वह उस कीचड़ से, दलदल से निकल गया।वह शक्ति उसके भीतर से ही आई थी लोगों के हिलाने डुलाने से नहीं आई।एक हुंकार भरी और जोश के साथ उठ खड़ा हुआ, पार हो गया स्वयं के प्रयास से।
एक गुरु की यही तो हुंकार रहती है, जिनके आह्वान से शिष्य उठ खड़े हो जाएं। शक्ति प्रत्येक शिष्य के भीतर समाहित है और जब उस शक्ति का गुरु के द्वारा आह्वान किया जाता है तो वह शक्ति अपनी पूर्णता के साथ विस्फोटित होती है। यह जो विस्फोट की आवश्यकता है, जिन्दगी में एक धमाका होना चाहिए, पूरे जोश के साथ, पूरी ताकत के साथ।यह पूरा जोश, ताकत लगाना ही संन्यास भाव है।जब आप अपने आपको मुक्त करने की क्रिया प्रारम्भ कर देते हो तब यह संभव हो पाता है।
कितनी विचित्र बात है कि ईश्वर ने हमें मुख और नेत्र आगे की ओर दिये हैं और हम सामने देखकर तो चलते ही नहीं है।हरबार दायें बायें ही देखते हैं। हर समय डर के मारे अपने कंधे झुकाकर चलते हैं। यह सोच कर चलते हैं मेरे साथ वाले क्या कहेंगे, मेरे पड़ोसी क्या कहेंगे , मेरे रिश्तेदार क्या कहेंगे।अपने आपको हर समय शांत करने का प्रयास करते रहते हो।सत्य तो यह है कि आप हर समय अपने आपको दब्बू बनाने की कोशिश करते रहते हो।
गुरु के पास जाते हो तो मन के कोने से सवाल अवश्य आता है कि- मैं जा रहा हूं लेकिन लोग क्या कहेंगे? लोग यही कहेंगे इसका दिमाग खराब हो गया है। ये क्या गुरु वगैरह के चक्कर में फंस रहा है।इसे रोको यह गुरु के पास ज्यादा न जा पाए।पहले तो यही प्रयास रहता है कि आप गुरु के पास जाएं ही नहीं।उन्हें डर है कि- यह संन्यासी बन जायेगा, उन्हें अच्छी तरह से मालूम है कि-संन्यासी बनने का मतलब मुक्त होना है।कोई आपको मुक्त होने देना नहीं चाहते ,सब आपको अपने ही रंग में रंगना चाहते हैं।इसी में आपने अपनी जिन्दगी व्यतीत कर दी है।अब बाकी बची हुई जिन्दगी तो ठीक कर लो। एक दिन तो ऐसा आना चाहिए, जब आप यह विचार करें कि- लोग क्या कहेंगे, उसकी वजह यह विचार आए कि आप खुद क्या कहते हैं ? जिस दिन आपने मुक्ति का नादब्रह्म सुनना प्रारंभ कर दिया उस दिन बाकी सब गौण हो जाएंगे, आपके ऊपर आपका ही प्रभाव हो जायेगा।
अब निर्णय आपको करना है कि आप अपने ऊपर किसका प्रभाव चाहते है। दूसरों का या स्वयं का।यह स्वतंत्रता का भाव ही संन्यास का भाव है, जिसमें आप वह सब काम करेंगे जो आपको इस जीवन में करने है्, जो आप करना चाहते हैं लेकिन तब आप काम पूरे मन से करेंगे, रोते रोते नहीं करेंगे, स्वतंत्र भाव से करेंगे।
एक बात तुम जान लो, तुम जिसको भजोगे ,वह तुम्हारा अवश्य होगा, तुम्हारी अनुभूति में, तुम्हारे विचार में अवश्य आएगा। तुम्हारे कर्म उसी अनुसार नियत हो जाएंगे यहां तक कि तुम्हारा समर्पण भी उसी अनुसार बन जाएगा।जो राम को भजता है, वह राम को पाता है।जो कृष्ण को भजता है वह कृष्ण को पाता है। प्रेम से भजो या प्रार्थना से भजो, मीरा ने कृष्ण को पाया, यही प्रार्थना और भजन की विशेषता है।अपनी स्वयं की शक्ति को पहचानो, स्वयं की शक्ति से परिचय कराने ही गुरु जीवन में आते हैं।जीवन में शिष्य बनना सहज नहीं है।शिष्यता की एक जांची और परखी हुई परिभाषा है।बिना शीश गवाएं अर्थात बिना अहम् का त्याग किए गुरु के प्रति समर्पण नहीं हो पाएगा।
जब यह भाव कि *मैं कुछ हूं* गुरु चरणों में जब आप उत्सर्ग कर देते हैं, उस क्षण आप गुरु के चरणों में समर्पित हो जाते हैं।
*जब मैं था,तब गुरु नाहीं*
*अब गुरु हैं मैं नाहिं।*
*✍परम पूज्य गुरुदेव नन्दकिशोर श्रीमाली जी*
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