आत्मज्ञानही परमात्मा का ज्ञान है प्रत्येक व्यक्ति शरीर नही आत्मा है इसलिए परमात्मा भी वही है इसी कार ण आत्मज्ञान होने पर वह,, अहं ब्रह्मसिम,, कह सकता हैa किन्तु उसका अहंकार शेष है तो वह ऐसा नही कह सकता।
अहंकारके कारण ही वह जीवात्मा और ईश्वर मे भेद देखता है।
उसेद्वैत ही दिखाई देता है।
तब वह''ईश्वर पुत्र'' कहता है । यह भिन्नता जीवात्मा के तल तक की है। शुद्ध आत्मा और ईश्वर मे भिन्नता नही है।
आत्मज्ञानके बाद उके सभी कार्य नाटक की भाति होते रहते है जिनसे अलग रहकर दृष्टा मात्र हो i होता है। नैतिकता का सम्बन्ध मन तक ही सिमित है कि उसे बुराई से बचा ले।h धर्म इस मन के पार की अवस्था है आत्मज्ञान से ही मुक्ति होती है। नियम संयम भी मन तक ही है आत्मज्ञान पर मनुष्य- कृत नही, ईश्वरीय नियम ही महत्त्वपूर्ण हो जाते है। शास्त्र पढ़ने,कर्म एवं आचरण से ज्ञान नही होता है स्वमं देखने से मिल ता है ऐसे ज्ञान कीअभिव्यक्ति भी नही होती ।आत्मा के उपरजमी धूलि को झाडे़ बिना आत्मानुभव सम्भव नही। आत्मज्ञान में मृत्यु का अनुरूप होता है तभी अमृत की उपलब्धि होती हैo मृत्यु से ही नया जीवन मिल ता है पुराने कोढोनो से क्या नया मिल सकता है नये के लिये पुराने का त्याग करना आवश्यक है
आत्मानुभुति के समय वह स्वम को शरीर से भिन्न देख लेता है तभी उसको प्रतीति होती है कि मैशरीर नही आत्मा हूँ।तभी उसे अमृतत्त्व का अनुभव होता है
धर्मचेतना से जुडा़ हुआ शास्त्र है दर्शन की यहाँ गति नही है ,दर्शन जानने वाला धर्म को उपलब्ध नही हो सकता।
यही शाश्वत सत्य है
नमः शिवाय l
कृपा जब मिलती है जब जीवन मे कोई संत आता है ..वो आपसे कुछ लेने नही आता ..सिर्फ देने आता है ,ये तो मूर्खता की बात लोंग सोचते है कि मैं इसको क्या दे दू ...वो तो तुम सोभाग्यशाली हो यदि पर्मात्मा तुम्हारे मन मे कोई प्रेरणा लगाये की तुम भी ऐसमे भगीदार बनो इस पुण्य कार्य मे .तो तुम बड़े सो भाग्यशाली हो .तो वो उसकी जब कृपा होती है . उससे वो शक्ति जाग्रत होती है .. वो शक्ति ऊपर उठती है तो संचित कर्म सुषुम्मना नाडी मेँ , त्मो गुणी कर्म निचले भाग मे ,रजो गुनी कर्म मध्य भाग मे ,ओर सतोगुनी कर्म ऊपर के भाग मे ,होते है . ओर वो शक्ति जब साधना जब वो प्रारम्भ करता है .शक्ति ऊपर उठती है.ओर उन सचित कर्मो का भक्षण करती हुई , संहार करती हुई ऊपर उठी है जैसे जैसे शक्ति ऊपर उठती है . वो संचित कर्म समाप्त होते जाते है ओर वो जो है आकर के कुण्डलनी शक्ति मे परीवर्तित होकर के भगवान परात्पर शिव के साथ जब मिलां होता है ..तब उस अद्वत श्री विध्या के साधक को ब्रहम ग्यान की प्राप्ती होती है ..
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