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ओशो - जीन सुत्र २ प्रवचन

  


कहीं भी जाओ, मुझसे दूर न जा सकोगे। घर लौटो, तो भी मुझमें ही लौटोगे। यहां आओ, तो मेरे पास आओगे। न आओ, तो मेरे पास आओगे। फिर एक संबंध बनेगा, जो समय और स्थान के बाहर है। फिर एक सेतु जुड़ जाएगा, जो देहातीत है। लेकिन जब तक नहीं सुना है, तब तक बार-बार आना होगा। आने की तकलीफ उठानी होगी। अगर न उठानी हो तकलीफ तो जल्दी करो, चट्टान को टूटने दो। सुनो! सुनो ही मत, गुनो! हाथ ही मत देखो मेरा, उस तरफ देखो जिस तरफ हाथ इशारा कर रहा है। उस अदृश्य को पकड़ने की कोशिश करो। फिर तुम जहां भी होओगे, जैसे भी होओगे, कोई भेद मेरे और तुम्हारे बीच संबंध का न पड़ेगा। फिर मैं शरीर में रहूं, तुम शरीर में रहो, या न रहो, यह जोड़ कुछ ऐसा है कि टूटता नहीं। अभी तो लौटने में तकलीफ होगी। क्योंकि लौटकर जब तुम जाते हो, अकेले जाते हो, मुझे अपने साथ नहीं ले जाते। मैं चलने को राजी हूं। तुम अपने घर में मेरे लिए जगह ही नहीं बनाते। सुन लोगे मुझे, समझ लोगे मुझे, तो मैं साथ ही आ रहा हूं। मुझसे दूरी गयी, दुई गयी। फिर तुम मुझसे भरे हुए लौटोगे। जब तक ऐसा नहीं, तब तक तो बड़ी तकलीफ होगी। अभी बज्मेत्तरब से क्या उठूं मैं अभी तो आंख भी पुरनम नहीं है अभी इस खुशी की महफिल से तो मत उठाओ मुझे, अभी तो आंख भी गीली नहीं हुई। अभी बज्मेत्तरब से क्या उठूं मैं अभी तो आंख भी पुरनम नहीं है तो तुम्हें लगेगा जैसे बे-समय, असमय तुम्हें उठा दिया गया है। ऐसा लगेगा जैसे अभी जाना न था और जाना पड़ा। और अगर ऐसे तुम गये, तो घर और भी उदास हो जाएगा। जितना पहले था, उससे भी ज्यादा। मैं तुम्हारे घर को उदास नहीं करना चाहता। मैं तुम्हारे घर को मंदिर बनाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि तुम जब घर जाओ, तो तुम्हारे घर का अभिनवरूप प्रगट हो। मैं तुम्हें घर से, संसार से, गृहस्थी से तोड़ नहीं लेना चाहता। वही मेरे संन्यास का अभिनवपन है कि मैं तुम्हें संसार से तोड़ नहीं लेना चाहता। मैं तुम्हें संसार से इस भांति जोड़ देना चाहता हूं कि संसार का जोड़ ही परमात्मा से जोड़ बन जाए। संसार तुम्हारे और परमात्मा के बीच बाधा न रहे, साधक हो जाए। अगर तुम मुझे ले जा सको–थोड़ा-सा ही सही, थोड़ा-सा वातावरण मेरा, थोड़ी-सी रोशनी मेरी, थोड़ी-सी श्वासें मेरी–तो घर तुम जाओगे, वही घर नहीं जिसे तुम छोड़कर आये थे। पत्नी-बच्चे तब तुम्हें पत्नी-बच्चे ही न रह जाएंगे, उनमें भी तुम परमात्मा की झलक देख पाओगे। देख ली जिसने परमात्मा की जरा-सी झलक, फिर वह सभी जगह उसे देख पाता है। पत्थर में देख पाता है, तो पत्नी में न देख पायेगा! पत्थर में देख पाता है, तो पति में न देख पायेगा! अब कैसे मजे की घटना है कि लोग जीवंत व्यक्तियों को छोड़कर भागते हैं और पत्थरों में भगवान को देखते हैं। तुम्हें यहां न दिखा, तुम्हें पत्थर में कैसे दिखायी पड़ेगा! और जिसको पत्थर में दिख सकता है, वह भागेगा क्यों? क्योंकि उसे सब जगह दिखायी पड़ेगा। दृष्टि अगर वस्तुतः जन्मी हो, तो तुम मुझे छोड़कर जाओगे ही नहीं। मैं तुम्हारा आकाश हो जाऊंगा। मैं तुम्हें घेरे हुए चलूंगा। और तभी तुम मुझसे जुड़े। तभी तुम मेरे संन्यासी हुए। अन्यथा संबंध बुद्धि का रहेगा। और तब बार-बार अड़चन होगी। जब-जब तुम्हें जाना पड़ेगा–और जाना तो पड़ेगा ही। जिम्मेवारियां हैं। जाना तो पड़ेगा ही, दायित्व हैं। जाना तो पड़ेगा ही, तुमने बहुत से भरोसे दिये हैं, आश्वासन दिये हैं। जाना तो पड़ेगा ही, क्योंकि परमात्मा ने तुम्हें कुछ करने के लिए काम दिया है। वह काम तो पूरा करना होगा। भगोड़ापन मैं नहीं सिखाता हूं। भगोड़े मेरे लिए संन्यासी नहीं हैं। भगोड़े में कुछ कमी है। भगोड़ा संसार में परमात्मा को न देख पाया, अंधा है। भगोड़ा वहां से भाग गया, जहां जीवन-रूपांतरण होता, जहां क्रांति घट सकती थी, जहां चुनौती थी। नहीं, मैं तो तुम्हें वापिस भेजूंगा। तुम्हारी आंख गीली हुई हो या न हुई हो, तुम्हें जाना तो होगा। जब जाना ही है, तो मुझे पीकर जाओ। आंख गीली क्या, हृदय को गीला करके जाओ। और तुम्हारे हाथ में है। अगर तुम प्यासे लौटते हो, तो कोई और जिम्मेवार नहीं है। तुम मुझे दोष न दे सकोगे। नदी बह ही रही थी, तुम झुके नहीं। तुमने अंजुलि न बनायी। तुमने नदी से पानी न भरा। तुम शायद प्रतीक्षा करते थे कि नदी अब तुम्हारे कंठ तक भी आये। नदी तुम्हारे पास से बह रही थी, लेकिन झुकने की तुमने हिम्मत न दिखायी। केवल हिम्मतवर झुक सकते हैं। समर्पण केवल वे ही कर सकते हैं, जिनके पास महासंकल्प है। जो बड़े बलशाली हैं, वे ही केवल झुकने की हिम्मत दिखा पाते हैं। कमजोर तो डरा रहता है कि झुकने से कहीं कमजोरी का पता न चल जाए। अड़ा रहता है, अकड़ा रहता है। 


ओशो - जीन सुत्र २ प्रवचन 35


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