भर्तृहरि ने घर छोड़ा। देखा लिया सब। पत्नी का प्रेम, उसका छलावा, अपने ही हाथों आपने छोटे भाई विक्रमादित्य की हत्या का आदेश। मन उस राज-पाट से वैभव से थक गया। उस भोग में केवल पीड़ा और छलावा ही मिला। सब कुछ को खूब देख-परख कर छोड़ा। बहुत कम लोग इतने पक कर छोड़ते हैं, इस संसार को, जितना भर्तृहरि ने छोड़ा है। अनूठा आदमी रहा होगा भर्तृहरि, खूब भोगा। ठीक-ठीक उपनिषद के सूत्र को पूरा किया: ‘’तेन त्यक्तेन भुंजीथा:‘’_ खूब भोगा।*
*एक-एक बूँद निचोड़ ली संसार की। लेकिन तब पाया कि कुछ भी नहीं है। अपने ही सपने है, शून्य में भटकना है।*
भोगने के दिनों में श्रृंगार पर अनूठा शास्त्र लिखा, *"श्रृंगार-शतक"*, कोई मुकाबला नहीं। बहुत लोगों ने श्रृंगार की बातें लिखी हैं। पर भर्तृहरि जैसा स्वाद किसी ने श्रृंगार का कभी नहीं लिखा। भोग के अनुभव से श्रृंगार के शास्त्र का जन्म हुआ। यह कोई कोरे विचारक की बकवास न थी। एक अनुभोक्ता की अनुभव-सिद्ध वाणी थी। *श्रृंगार-शतक बहुमूल्य है।* संसार का सब सार उसमें है।
लेकिन फिर आखिर में पाया वह भी व्यर्थ हुआ। छोड़-कर जंगल चले गए। फिर _*"वैराग्य-शतक"*_ लिखा, फिर वैराग्य का शास्त्र लिखा। उसका भी कोई मुकाबला नहीं है। भोग को जाना तो भोग की पूरी बात की, फिर वैराग्य को जाना तो वैराग्य की पूरी बात की।
जंगल में एक दिन बैठे हैं। अचानक आवाज आई। दो घुड़सवार भागते हुए चले आ रहे है। दोनों दिशाओं से। चट्टान पर बैठे है, भर्तृहरि देखते है उस छोटी सी पगडंडी की ओर। घोड़ों की हिनहिनाहट से उसकी आँखें खुल गई। सामने सूरज डूबने की तैयारी कर रहा है। उसकी सुनहरी किरणें पेड़-पत्ते, पगडंडी जिस को भी छू रही है, वह स्वर्णिम लग रहा है। पर अचानक तीनों की निगाह उस चमकदार चीज पर एक साथ पड़ी। दोनों घुड़सवारों और भर्तृहरि की।
एक बहुमूल्य हीरा, धूल में पड़ा हुआ भी चमक रहा है। हीरे की चमक अदभुत थी! हजारों हीरे देखे थे भर्तृहरि ने, पर यह अनोखा ही था। वासना एक क्षण में उस हीरे पर गई। और जैसे ही भर्तृहरि ने अपनी वासना को देखा, वह तत्क्षण लौट आई। एक क्षण में मन भूल गया सारे अनुभव विषाद के। वह सारा अनुभव भोग का। वह तिक्तता, वह वासना उठ गई।
एक क्षण को ऐसा लगा कि अब उठे-उठे, और उसी क्षण ख्याल आ गया अरे पागल! क्या कर रहा है!! ये सब छोड़ कर तू आया है!!! देखा है जीवन में इसके महत्व को, भोगी है पीड़ा उस में रह कर। फिर उसी में जाना चाहता है।
पर ये बातें उसके मन को मथती, कि सामने से आते दो घुड़सवार आ कर उस हीरे के दोनों ओर खड़े हो गये। दोनों ने एक दूसरे को देखा और तलवारें निकाल ली। दोनों ने कहा मेरी नजर पहले पड़ी थी इस लिए यह हीरा मेरा है। दूसरा भी यही कह रहा था। अब बातों से निर्णय होना असम्भव था। तलवारें खिंच गयीं। क्षण भर में दो लाशें पड़ी थी, तड़पती, लहू-लुहान। और हीरा अपनी जगह पड़ा था।
उधर भर्तृहरि अपनी जगह केवल देखते रह गये। एक निर्जीव और एक जीवित। सूरज की किरणें अब भी चमक रही थी, पर कुछ कोमल हो गई थी। हीरा बेचारा यह जान भी नहीं पाया कि क्षण भर में उसके आस-पास क्या घट गया!
सब कुछ हो गया वहाँ। एक आदमी का संसार उठा और वैराग्य हो गया। दो आदमी का संसार उठा और मौत हो गई। दो आदमी अभी-अभी जीवित थे, उनकी धमनियों में खून प्रवाहित हो रहा था। श्वांस चल रही थी, दिल धड़क रहा था, मन सपने बुन रहा था। पर क्षण में प्राण गँवा दिये एक पत्थर के पीछे। और बेचारा निर्दोष पत्थर जानता भी नहीं कि ये सब उसके कारण हो रहा है।
*एक आदमी वहाँ बैठा-बैठा जीवन के सारे अनुभव से गुजर गया। भोग के और वैराग्य के; और पार हो गया! साक्षी भाव जाग गया उस का!!*
भर्तृहरि ने आँखें बन्द कर ली। और वे फिर ध्यान में डूब गए। जीवन का सबसे गहरा सत्य क्या है? तुम्हारा चैतन्य। सारा खेल वहाँ है। सारे खेल की जड़ें वहाँ है। सारे! संसार के सूत्र वहाँ है।
ओशो - "एस धम्मो सनंतनो"
यह भी पढ़े:- सब कुछ link's
No comments:
Post a Comment