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प्राणायाम

 


हमारे फेफड़े में कोई छह हजार छिद्र होते हैं। साधारणतः जो हम श्वास लेते हैं, वह मुश्किल से हजार छिद्रों तक पहुंचती है, आम तौर से छह सौ छिद्रों तक पहुंचती है। अगर हम दौड़ते भी हैं और तेजी से भी श्वास लेते हैं, व्यायाम भी करते हैं तो भी श्वांस दो हजार छिद्रों से ज्यादा नहीं पहुंचती। इसका मतलब हुआ कि हमारे फेफड़ों के चार हजार छिद्र सदा ही कार्बन डाइआक्साइड की गंदगी से भरे रहते हैं। शायद आपको पता न हो कि हमारे फेफड़ों में जितनी ज्यादा कार्बन डाइआक्साइड होगी उतना ही तमस हमारे चित्त में होगा। इसलिए दिन को सोना मुश्किल होता है, रात को सोना आसान हो जाता है, क्योंकि रात सूरज के ढल जाने के बाद हवाओं में कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है, और आक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। सुबह सारी दुनिया जाग जाती है, वृक्ष जागते हैं, पशु जागते हैं, पौधे जागते हैं। कोई अलार्म घड़ियां उनके पास नहीं हैं। कैसे जाग जाते हैं, सूरज के आने की घड़ी भर पहले। सारा जगत कैसे उठने लगता है, बात क्या है? यह नींद टूटने का क्या कारण है? जैसे ही वातावरण में आक्सीजन की मात्रा बढ़नी शुरू होती है, नींद टूटनी शुरू हो जाती है। क्योंकि नींद के लिए कार्बन डाइआक्साइड का बहुत होना जरूरी है, वह जैसे ही कम हुआ कि नींद गई। नींद जितनी ज्यादा आपको चाहिए उतना कार्बन चाहिए।

अब ध्यान का जो प्रयोग है, वह नींद को तोड़ने का प्रयोग है। अंततः समक्ष मूच्र्छा टूट जाए इसलिए दस मिनट तक भस्त्रिका का प्रयोग करें। इतने जोर से श्वास फेंकनी है कि पूरे फेफड़े अपनी गंदगी को बाहर कर दें और नयी हवाओं से भर जाए। अगर पूरा फेफड़ा नयी हवाओं से भर जाए तो आपके भीतर शक्ति का नया जागरण शुरू हो जाएगा जो कि वर्षोें भी साधारण बैठ कर नहीं हो सकता है। मनुष्य के भीतर जैसे मनुष्य के जागने के नियम हैं, कि सुबह सूरज उगने पर हवाओं में आक्सीजन बढ़ने पर जागना शुरू होता है, ऐसी ही हमारी अंतर-चेतना भी, अगर फेफड़ों में आक्सीजन की मात्रा बढ़ा दी जाए तो जागना शुरू हो जाती है। अब जिस दिन विज्ञान और सफल हो सकेगा, और जिस दिन हम धर्म में विज्ञान का प्रयोग कर सकेंगे  I


चालीस मिनट मनुष्य के मन की फैलने की क्षमता की सीमा है, इसलिए चालीस मिनट। और चालीस मिनट में जो मैंने चार, दस-दस मिनट के विभाजन किए हैं, उन्हें भी थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। दस मिनट तक भस्त्रिका का प्रयोग, भस्त्रिका का अर्थ है फेफड़ों को इस भांति चलाना जैसे कि लोहार अपनी धौंकनी को चलाता है। वह इतनी तेजी से श्वास को बाहर और भीतर फेंकना है, कि भीतर की सारी गंदी वायु बाहर फेंकी.  


काम का अंत है, सीमा है; प्रेम का कोई अंत नहीं, कोई सीमा नहीं! प्रेम आदि-अनादि है। प्रेम जैसा पहले दिन होता है, वैसा ही अंतिम दिन भी होगा! जो चुक जाए, उसे तुम प्रेम ही मत समझना; वह वासना रही होगी। जिसका अंत आ जाए, वह शरीर से संबंधित है! आत्मा से जिस चीज का भी संबंध है, उसका कोई अंत नहीं है।


अगर मंजिल हो तो मृत्यु हो जाएगी! प्रेम का जो अधूरापन है, वह उसकी शाश्वतता है। इसे ध्यान में रखना कि जो भी चीज पूरी हो जाती है, वह मर जाती है। पूर्णता मृत्यु है! सिर्फ वही जी सकता है शाश्वत, जो शाश्वत रूप से अपूर्ण है, अधूरा है, आधा है; और तुम कितना ही भरो, वह अधूरा रहेगा, आधा होना उसका स्वभाव है।


तुम कितने ही तृप्त होते जाओ, फिर भी तुम पाओगे कि हर तृप्ति और अतृप्त कर जाती है। यह ऐसा जल नहीं है कि तुम पी लो और तृप्त हो जाओ, यह ऐसा जल है कि तुम्हारी प्यास को और बढ़ाएगा। इसलिए प्रेमी कभी तृप्त नहीं होता, और इसीलिए उसके आनंद का कोई अंत नहीं है। क्योंकि आनंद का वहीं अंत हो जाता है, जहां चीजें पूरी हो जाती हैं। शरीर भी मिटता है, मन भी मिटता है; पर आत्मा तो चलती चली जाती है, निरन्तर, लगातार! वह यात्रा अनंत की है, कोई मंजिल नहीं है l


"लोग खुशी चाहते हैं - लेकिन सिर्फ चाहने से, तुम इसे प्राप्त नहीं कर सकते। चाहना काफी नहीं है। तुम्हें अपने दुख की घटना को देखना होगा, तुम इसे कैसे बनाते हैं - सबसे पहले तुम कैसे दुखी हो गए हो, कैसे तुम हर दिन दुखी होते चले जाते हैं - तुम्हारी तकनीक क्या है? क्योंकि खुशी एक प्राकृतिक घटना है - अगर कोई खुश है तो उसमें कोई कुशलता नहीं है, अगर कोई खुश है तो उसे खुश होने के लिए किसी विशेषज्ञता की आवश्यकता नहीं है।


“जानवर खुश हैं, पेड़ खुश हैं, पक्षी खुश हैं। आदमी को छोड़कर पूरा अस्तित्व खुश है। केवल मनुष्य इतना चालाक है कि वह दुख पैदा करता है - कोई और इतना कुशल नहीं मालूम होता। इसलिए जब तुम खुश होते हो तो यह सरल घटना है।


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