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चंद्रशेखर आजाद की अनसुनी कहानी



 “ अरे बुढिया तू यहाँ न आया कर , तेरा बेटा तो चोर-डाकू था . इसलिए गोरों ने उसे मार दिया“ 

जंगल में लकड़ी बिन रही एक मैली सी धोती में लिपटी बुजुर्ग महिला से वहां खड़ें भील ने हंसते हुए कहा ...


“ नही चंदू ने आजादी के लिए कुर्बानी दी हैं “ 

बुजुर्ग औरत ने गर्व से कहा .उस बुजुर्ग औरत का नाम जगरानी देवी था और इन्होने पांच बेटों को जन्म दिया था , जिसमे आखरी बेटा कुछ दिन पहले ही शहीद हुआ था ...


उस बेटे को ये माँ प्यार से चंदू कहती थी और दुनियां उसे "आजाद " चंद्रशेखर आजाद के नाम से जानती है ...!


हिंदुस्तान आजाद हो चुका था , आजाद के मित्र सदाशिव राव एक दिन आजाद के माँ-पिता जी की खोज करतें हुए उनके गाँव पहुंचे ...


आजादी तो मिल गयी थी लेकिन बहुत कुछ खत्म हो चुका था ...


चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत के कुछ वर्षों बाद उनके पिता जी की भी मृत्यु हो गयी थी ...


आज़ाद के भाई की मृत्यु भी इससे पहले ही हो चुकी थी . अत्यंत निर्धनावस्था में हुई उनके पिता की मृत्यु के पश्चात आज़ाद की निर्धन निराश्रित वृद्ध माताश्री उस वृद्धावस्था में भी किसी के आगे हाथ फ़ैलाने के बजाय जंगलों में जाकर लकड़ी और गोबर बीनकर लाती थी तथा कंडे और लकड़ी बेचकर अपना पेट पालती रहीं ...


लेकिन वृद्ध होने के कारण इतना काम नहीं कर पाती थीं कि भरपेट भोजन का प्रबंध कर सकें . 

कभी ज्वार कभी बाज़रा खरीद कर उसका घोल बनाकर पीती थीं क्योंकि दाल चावल गेंहू और उसे पकाने का ईंधन खरीदने लायक धन कमाने की शारीरिक सामर्थ्य उनमे शेष ही नहीं थी ...


शर्मनाक बात तो यह कि उनकी यह स्थिति देश को आज़ादी मिलने के 2 वर्ष बाद (1949 ) तक जारी रही ...


चंद्रशेखर आज़ाद जी को दिए गए अपने एक वचन का वास्ता देकर सदाशिव जी उन्हें अपने साथ अपने घर झाँसी लेकर आये थे, क्योंकि उनकी स्वयं की स्थिति अत्यंत जर्जर होने के कारण उनका घर बहुत छोटा था अतः उन्होंने आज़ाद के ही एक अन्य मित्र भगवान दास माहौर के घर पर आज़ाद की माताश्री के रहने का प्रबंध किया था और उनके अंतिम क्षणों तक उनकी सेवा की ...


मार्च 1951 में जब आजाद की माँ जगरानी देवी का झांसी में निधन हुआ तब सदाशिव जी ने उनका सम्मान अपनी माँ के समान करते हुए उनका अंतिम संस्कार स्वयं अपने हाथों से ही किया था ...


आज़ाद की माताश्री के देहांत के पश्चात झाँसी की जनता ने उनकी स्मृति में उनके नाम से एक सार्वजनिक स्थान पर पीठ का निर्माण किया . प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने इस निर्माण को झाँसी की जनता द्वारा किया हुआ अवैध और गैरकानूनी कार्य घोषित कर दिया ...


किन्तु झाँसी के नागरिकों ने तत्कालीन सरकार के उस शासनादेश को महत्व न देते हुए चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापित करने का फैसला कर लिया ...


मूर्ति बनाने का कार्य चंद्रशेखर आजाद के ख़ास सहयोगी कुशल शिल्पकार रूद्र नारायण सिंह जी को सौपा गया ...


उन्होंने फोटो को देखकर आज़ाद की माताश्री के चेहरे की प्रतिमा तैयार कर दी ...


जब केंद्र की सरकार और उत्तर प्रदेश की सरकारों को यह पता चला कि आजाद की माँ की मूर्ति तैयार की जा चुकी है और सदाशिव राव, रूपनारायण, भगवान् दास माहौर समेत कई क्रांतिकारी झांसी की जनता के सहयोग से मूर्ति को स्थापित करने जा रहे हैं तो इन दोनों सरकारों ने अमर बलिदानी शहीद पंडित चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापना को देश, समाज और झाँसी की कानून व्यवस्था के लिए खतरा घोषित कर उनकी मूर्ति स्थापना के कार्यक्रम को प्रतिबंधित कर पूरे झाँसी शहर में कर्फ्यू लगा दिया ...


चप्पे चप्पे पर पुलिस तैनात कर दी गई ताकि अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति की स्थापना न की जा सके ...!


जनता और क्रन्तिकारी आजाद की माता की प्रतिमा लगाने के लिए निकल पड़े ...

 

अपने आदेश की झाँसी की सडकों पर बुरी तरह उड़ती धज्जियों से तिलमिलाई तत्कालीन सरकारों ने पुलिस को गोली मार देने का आदेश दे डाला ...


आज़ाद की माताश्री की प्रतिमा को अपने सिर पर रखकर पीठ की तरफ बढ़ रहे सदाशिव को जनता ने चारों तरफ से अपने घेरे में ले लिया ... 


जुलूस पर पुलिस ने लाठी चार्ज कर दिया ...


सैकड़ों लोग घायल हुए, दर्जनों लोग जीवन भर के लिए अपंग हुए और कुछ लोग की मौत भी हुईं . (मौत की आधिकारिक पुष्टि कभी नही की गयी)... 


इस घटना के कारण चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापित नहीं हो सकी ll

हनुमान की भक्ति कथा।



महायुद्ध समाप्त हो चुका था। 

जगत को त्रास देने वाला रावण अपने कुटुंब सहित नष्ट हो चुका था। कौशलाधीश राम के नेतृत्व में चहुँओर शांति थी। 

राम का राज्याभिषेक हुआ। 

राजा राम ने सभी वानर और राक्षस मित्रों को ससम्मान विदा किया। अंगद को विदा करते समय राम रो पड़े थे। 

हनुमान को विदा करने की शक्ति तो श्रीराम में भी नहीं थी। 

माता सीता भी उन्हें पुत्रवत मानती थी। 

हनुमान अयोध्या में ही रह गए। 

राम दिन भर दरबार में, शासन व्यवस्था में व्यस्त रहे। 

संध्या जब शासकीय कार्यों से छूट मिली तो गुरु और माताओं का कुशलक्षेम पूछ अपने कक्ष में आए। हनुमान उनके पीछे-पीछे ही थे। 

राम के निजी कक्ष में उनके सारे अनुज अपनी-अपनी पत्नियों के साथ उपस्थित थे। 

वनवास, युद्ध और फिर अंनत औपचारिकताओं के पश्चात यह प्रथम अवसर था जब पूरा परिवार एक साथ उपस्थित था। 

राम, सीता और लक्ष्मण को तो नहीं, कदाचित अन्य वधुओं को एक बाहरी, अर्थात हनुमान का वहाँ होना अनुचित प्रतीत हो रहा था। 

चूँकि शत्रुघ्न सबसे छोटे थे, अतः वे ही अपनी भाभियों और अपनी पत्नी की इच्छापूर्ति हेतु संकेतों में ही हनुमान को कक्ष से जाने के लिए कह रहे थे। 

पर आश्चर्य की बात कि हनुमान जैसा ज्ञाता भी यह मामूली संकेत समझने में असमर्थ हो रहा था। 

अस्तु, उनकी उपस्थिति में ही बहुत देर तक सारे परिवार ने जी भर कर बातें की। 

फिर भरत को ध्यान आया कि भैया-भाभी को भी एकांत मिलना चाहिए। 

उर्मिला को देख उनके मन में हूक उठती थी। 

इस पतिव्रता को भी अपने पति का सानिध्य चाहिए। 

अतः उन्होंने राम से आज्ञा ली, और सबको जाकर विश्राम करने की सलाह दी। 

सब उठे और राम-जानकी का चरणस्पर्श कर जाने को हुए। 

परन्तु हनुमान वहीं बैठे रहे। 

उन्हें देख अन्य सभी उनके उठने की प्रतीक्षा करने लगे कि सब साथ ही निकले बाहर। 

राम ने मुस्कुराते हुए हनुमान से कहा, "क्यों वीर, तुम भी जाओ। तनिक विश्राम कर लो।"

हनुमान बोले, "प्रभु, आप सम्मुख हैं, इससे अधिक विश्रामदायक भला कुछ हो सकता है? 

मैं तो आपको छोड़कर नहीं जाने वाला।"

शत्रुघ्न तनिक क्रोध से बोले, "परन्तु भैया को विश्राम की आवश्यकता है कपीश्वर! 

उन्हें एकांत चाहिए।"

"हाँ तो मैं कौन सा प्रभु के विश्राम में बाधा डालता हूँ। 

मैं तो यहाँ पैताने बैठा हूँ।"

"आपने कदाचित सुना नहीं। 

भैया को एकांत की आवश्यकता है।"

"पर माता सीता तो यहीं हैं। 

वे भी तो नहीं जा रही। 

फिर मुझे ही क्यों निकालना चाहते हैं आप?"

"भाभी को भैया के एकांत में भी साथ रहने का अधिकार प्राप्त है। क्या उनके माथे पर आपको सिंदूर नहीं दिखता?

हनुमान आश्चर्यचकित रह गए। 

प्रभु श्रीराम से बोले, "प्रभु, क्या यह सिंदूर लगाने से किसी को आपके निकट रहने का अधिकार प्राप्त हो जाता है?"

राम मुस्कुराते हुए बोले, "अवश्य। यह तो सनातन प्रथा है हनुमान।"

यह सुन हनुमान तनिक मायूस होते हुए उठे और राम-जानकी को प्रणाम कर बाहर चले गए। 

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प्रातः राजा राम का दरबार लगा था। साधारण औपचारिक कार्य हो रहे थे कि नगर के प्रतिष्ठित व्यापारी न्याय माँगते दरबार में उपस्थित हुए। 

ज्ञात हुआ कि पूरी अयोध्या में रात भर व्यापारियों के भंडारों को तोड़-तोड़ कर हनुमान उत्पात मचाते रहे थे। 

राम ने यह सब सुना और सैनिकों को आदेश दिया कि हनुमान को राजसभा में उपस्थित किया जाए। रामाज्ञा का पालन करने सैनिक अभी निकले भी नहीं थे कि केसरिया रंग में रंगे-पुते हनुमान अपनी चौड़ी मुस्कान और हाथी जैसी मस्त चाल से चलते हुए सभा में उपस्थित हुए। 

उनका पूरा शरीर सिंदूर से पटा हुआ था। 

एक-एक पग धरने पर उनके शरीर से एक-एक सेर सिंदूर भूमि पर गिर जाता। 

उनकी चाल के साथ पीछे की ओर वायु के साथ सिंदूर उड़ता रहता। 

राम के निकट आकर उन्होंने प्रणाम किया। 

अभी तक सन्न होकर देखती सभा, एकाएक जोर से हँसने लगी। 

अपनी हँसी रोकते हुए सौमित्र लक्ष्मण बोले, "यह क्या किया कपिश्रेष्ठ? 

यह सिंदूर से स्नान क्यों? 

क्या यह आप वानरों की कोई प्रथा है?"

हनुमान प्रफुल्लित स्वर में बोले, "अरे नहीं भैया। यह तो आर्यों की प्रथा है। मुझे कल ही पता चला कि अगर एक चुटकी सिंदूर लगा लो तो प्रभु राम के निकट रहने का अधिकार मिल जाता है। 

तो मैंने सारी अयोध्या का सिंदूर लगा लिया। 

क्यों प्रभु, अब तो कोई मुझे आपसे दूर नहीं कर पाएगा न?"

सारी सभा हँस रही थी। 

और भरत हाथ जोड़े अश्रु बहा रहे थे। 

यह देख शत्रुघ्न बोले, "भैया, सब हँस रहे हैं और आप रो रहे हैं? क्या हुआ?" 

भरत स्वयं को सम्भालते हुए बोले, "अनुज, तुम देख नहीं रहे! 

वानरों का एक श्रेष्ठ नेता, वानरराज का सबसे विद्वान मंत्री, कदाचित सम्पूर्ण मानवजाति का सर्वश्रेष्ठ वीर, सभी सिद्धियों, सभी निधियों का स्वामी, वेद पारंगत, शास्त्र मर्मज्ञ यह कपिश्रेष्ठ अपना सारा गर्व, सारा ज्ञान भूल कैसे रामभक्ति में लीन है। राम की निकटता प्राप्त करने की कैसी उत्कंठ इच्छा, जो यह स्वयं को भूल चुका है। 

ऐसी भक्ति का वरदान कदाचित ब्रह्मा भी किसी को न दे पाएं। 

मुझ भरत को राम का अनुज मान भले कोई याद कर ले, पर इस भक्त शिरोमणि हनुमान को संसार कभी भूल नहीं पाएगा। 

हनुमान को बारम्बार प्रणाम।" 


15 मंत्र जो हर सनातनी को सीखने चाहिए ।



1. श्री गणेश जी


वक्रतुंड महाकाय, सूर्य कोटि समप्रभ 

निर्विघ्नम कुरू मे देव, सर्वकार्येषु सर्वदा!!


2. श्री महादेव जी


ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् 

उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्!!


3. श्री हरि विष्णु जी


मङ्गलम् भगवान विष्णुः, मङ्गलम् गरुणध्वजः।

मङ्गलम् पुण्डरी काक्षः, मङ्गलाय तनो हरिः॥


4. श्री ब्रह्मा जी


ॐ नमस्ते परमं ब्रह्मा नमस्ते परमात्ने।

निर्गुणाय नमस्तुभ्यं सदुयाय नमो नम:।।


5. श्री कृष्ण जी


वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्। देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम।।


6. श्री राम जी


श्री रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे रघुनाथाय नाथाय सीताया पतये नमः !


7. मां दुर्गा जी


ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी

दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते


8. मां महालक्ष्मी जी


ॐ सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो, धन धान्यः सुतान्वितः मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ॐ ।।


9. मां सरस्वती जी


ॐ सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणि।

विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा।।


10. मां महाकाली जी


ॐ क्रीं क्रीं क्रीं हलीं ह्रीं खं स्फोटय क्रीं 

क्रीं क्रीं फट !!


11. श्री हनुमान जी


मनोजवं मारुततुल्यवेगं, जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठ।

वातात्मजं वानरयूथमुख्यं, श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥


12. श्री शनिदेव जी


ॐ नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम।

छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम् ||


13. श्री कार्तिकेय जी


ॐ शारवाना-भावाया नम: ज्ञानशक्तिधरा स्कंदा वल्लीईकल्याणा सुंदरा, देवसेना मन: कांता कार्तिकेया नामोस्तुते


14. श्री काल भैरव


ॐ ह्रीं वां बटुकाये क्षौं क्षौं आपदुद्धाराणाये कुरु कुरु बटुकाये ह्रीं बटुकाये स्वाहा


15. श्री गायत्री महामंत्र


ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥

गोवर्धन पर्वत की रहस्य।

 


गोवर्धन पर्वत धीरे धीरे छोटा होता जा रहा है।


गोवर्धन पर्वत को लेकर धार्मिक मान्यता है कि यह पर्वत प्रतिदिन तिल भर घटता जाता है। 


यह केवल मान्यता नहीं है बल्कि *विशेषज्ञों ने भी बताया है कि 5 हजार साल पहले गोवर्धन पर्वत कई हज़ार मीटर ऊंचा हुआ करता था और अब यह पर्वत केवल 30 मीटर ही रह गया है।*


एक रोचक कहानी के अनुसार गोवर्धन पर्वत के प्रतिदिन घटने का कारण ऋषि पुलस्त्य का शाप है। कथा के अनुसार -


एक बार ऋषि पुलस्त्य गिरिराज पर्वत के पास से गुजर रहे थे तभी उनको इसकी सुंदरता इतनी पसंद आई कि वे मंत्रमुग्ध हो गए। 


ऋषि पुलस्त्य ने द्रोणांचल पर्वत से निवेदन किया - मैं काशी में रहता हूँ। आप अपने पुत्र गोवर्धन को मुझे दे दीजिए। मैं उसको काशी में स्थापित करूंगा और वहीं रहकर पूजा करूँगा।


पिता द्रोणांचल पुत्र गोवर्धन के विछोह से दुःखी हुए।


गोवर्धन ने कहा कि, हे महात्मा! मैं आपके साथ चलूँगा लेकिन मेरी एक शर्त है। शर्त यह है कि आप मुझे सबसे पहले जहाँ भी रख देंगे, मैं वहीं स्थापित हो जाऊँगा।


पुलस्त्य ने गोवर्धन की शर्त मान ली।  


गोवर्धन ने ऋषि से कहा कि, मैं दो योजन ऊँचा और पाँच योजन चौड़ा हूँ, आप मुझे काशी कैसे लेकर जाएँगे? 


ऋषि ने कहा कि, मैं अपने तपोबल के माध्यम से तुम्हें अपनी हथेली पर उठाकर ले जाऊँगा।


ऋषि पर्वत उठाए चलने लगे। रास्ते में ब्रज आया, तब गोवर्धन पर्वत को दिखा कि यहाँ पर भगवान कृष्ण अपने बाल्यकाल में लीला कर रहे हैं। बड़ा मनोहारी दृश्य और मनभावन स्थान है। उनकी वहाँ ठहरने की इच्छा हुई। गोवर्धन ऋषि के हाथों में अपना भार बढ़ाने लगे, जिससे ऋषि ने आराम और साधना के लिए पर्वत को नीचे रख दिया। ऋषि पुलस्त्य यह बात भूल गए थे कि उन्हें गोवर्धन पर्वत को कहीं पर भी रखना नहीं है।


साधना के बाद ऋषि ने पर्वत को उठाने का बहुत प्रयास किया लेकिन पर्वत हिला तक नहीं। इससे ऋषि पुलस्त्य बहुत क्रोधित हो गए और उन्होंने शाप दे दिया कि, तुमने मेरे मनोरथ को पूर्ण नहीं होने दिया इसलिए अब प्रतिदिन तिल भर तुम्हारा क्षरण होता रहेगा। 


माना जाता है कि उसी समय से गिरिराज पर्वत प्रतिदिन घट रहे हैं और कलयुग के अंत तक पूरी तरह विलीन हो जाएँगे।


हरे कृष्ण



                                                         

जय श्री गिरिराज जी

वीर सावरकर कौन थे..?

 



आइए जानते हैं एक ऐसे महान क्रांतिकारी के बारे में जिनका नाम इतिहास के पन्नों से मिटा दिया गया। जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के द्वारा इतनी यातनाएं झेलीं की उसके बारे में कल्पना करके ही इस देश के करोड़ों भारत माँ के कायर पुत्रों में सिहरन पैदा हो जायेगी।


जिनका नाम लेने मात्र से आज भी हमारे देश के राजनेता भयभीत होते हैं क्योंकि उन्होंने माँ भारती की निस्वार्थ सेवा की थी। वो थे हमारे परमवीर सावरकर।


1. वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी देशभक्त थे जिन्होंने 1901 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की मृत्यु पर नासिक में शोक सभा का विरोध किया और कहा कि वो हमारे शत्रु देश की रानी थी, हम शोक क्यूँ करें? क्या किसी भारतीय महापुरुष के निधन पर ब्रिटेन में शोक सभा हुई है?


2. वीर सावरकर पहले देशभक्त थे जिन्होंने एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह का उत्सव मनाने वालों को त्र्यम्बकेश्वर में बड़े बड़े पोस्टर लगाकर कहा था कि गुलामी का उत्सव मत मनाओ..!


3. विदेशी वस्त्रों की पहली होली पूना में 7 अक्तूबर 1905 को वीर सावरकर ने जलाई थी…!


4. वीर सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने विदेशी वस्त्रों का दहन किया, तब बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र केसरी में उनको शिवाजी के समान बताकर उनकी प्रशंसा की थी जबकि इस घटना की दक्षिण अफ्रीका के अपने पत्र ‘इन्डियन ओपीनियन’ में गाँधी ने निंदा की थी…!


5. सावरकर द्वारा विदेशी वस्त्र दहन की इस प्रथम घटना के 16 वर्ष बाद गाँधी उनके मार्ग पर चले और 11 जुलाई 1921 को मुंबई के परेल में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया…!


6. सावरकर पहले भारतीय थे जिनको 1905 में विदेशी वस्त्र दहन के कारण पुणे के फर्म्युसन कॉलेज से निकाल दिया गया और दस रूपये जुरमाना किया… इसके विरोध में हड़ताल हुई… स्वयं तिलक जी ने ‘केसरी’ पत्र में सावरकर के पक्ष में सम्पादकीय लिखा…!


7. वीर सावरकर ऐसे पहले बैरिस्टर थे जिन्होंने 1909 में ब्रिटेन में ग्रेज-इन परीक्षा पास करने के बाद ब्रिटेन के राजा के प्रति वफ़ादार होने की शपथ नहीं ली… इस कारण उन्हें बैरिस्टर होने की उपाधि का पत्र कभी नहीं दिया गया…!


8. वीर सावरकर पहले ऐसे लेखक थे जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा ग़दर कहे जाने वाले संघर्ष को ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक ग्रन्थ लिखकर सिद्ध कर दिया…!


9. सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी लेखक थे

इतिहास में छुपाया गया एक सच ....


45 साल के महात्मा गाँधी 1915 में भारत आते हैं, 2 दशक से भी ज्यादा दक्षिण अफ्रीका में बिता कर। इससे 4 साल पहले 28 वर्ष का एक युवक अंडमान में एक कालकोठरी में बन्द होता है। अंग्रेज उससे दिन भर कोल्हू में बैल की जगह हाँकते हुए तेल पेरवाते हैं, रस्सी बटवाते हैं और छिलके कूटवाते हैं। वो तमाम कैदियों को शिक्षित कर रहा होता है, उनमें राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ प्रगाढ़ कर रहा होता है और साथ ही दीवालों कर कील, काँटों और नाखून से साहित्य की रचना कर रहा होता है। 

उसका नाम था- विनायक दामोदर सावरकर। 

वीर सावरकर।


उन्हें आत्महत्या के ख्याल आते। उस खिड़की की ओर एकटक देखते रहते थे, जहाँ से अन्य कैदियों ने पहले आत्महत्या की थी। पीड़ा असह्य हो रही थी। यातनाओं की सीमा पार हो रही थी। अंधेरा उन कोठरियों में ही नहीं, दिलोदिमाग पर भी छाया हुआ था। दिन भर बैल की जगह खटो, रात को करवट बदलते रहो। 11 साल ऐसे ही बीते। कैदी उनकी इतनी इज्जत करते थे कि मना करने पर भी उनके बर्तन, कपड़े वगैरह धो देते थे, उनके काम में मदद करते थे। सावरकर से अँग्रेज बाकी कैदियों को दूर रखने की कोशिश करते थे। अंत में बुद्धि को विजय हुई तो उन्होंने अन्य कैदियों को भी आत्महत्या से विमुख किया।


लेकिन नहीं, महा गँवारों का कहना है कि सावरकर ने मर्सी पेटिशन लिखा, सॉरी कहा, माफ़ी माँगी..ब्ला-ब्ला-ब्ला। मूर्खों, काकोरी कांड में फँसे क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल ने भी माफ़ी माँगी थी, तो? उन्हें भी 'डरपोक' करार दोगे? बताओ। उन्होंने भी माफ़ी माँगी थी अंग्रेजों से। क्या अब इस कसौटी पर क्रांतिकारियों को तौला जाएगा? शेर जब बड़ी छलाँग लगाता है तो कुछ कदम पीछे लेता ही है। उस समय उनके मन में क्या था, आगे की क्या रणनीति थी- ये आज कुछ लोग बैठे-बैठे जान जाते हैं। कौन ऐसा स्वतंत्रता सेनानी है जिसे 11 साल कालापानी की सज़ा मिली हो। नेहरू? गाँधी? कौन?


नानासाहब पेशवा, महारानी लक्ष्मीबाई और वीर कुँवर सिंह जैसे कितने ही वीर इतिहास में दबे हुए थे। 1857 को सिपाही विद्रोह बताया गया था। तब इसके पर्दाफाश के लिए 20-22 साल का एक युवक लंदन की एक लाइब्रेरी का किसी तरह एक्सेस लेकर और दिन-रात लग कर अँग्रेजों के एक के बाद एक दस्तावेज पढ़ कर सच्चाई की तह तक जा रहा था, जो भारतवासियों से छिपाया गया था। उसने साबित कर दिया कि वो सैनिक विद्रोह नहीं, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। उसके सभी अमर बलिदानियों की गाथा उसने जन-जन तक पहुँचाई। भगत सिंह सरीखे क्रांतिकारियों ने मिल कर उसे पढ़ा, अनुवाद किया।


दुनिया में कौन सी ऐसी किताब है जिसे प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया गया था? अँग्रेज कितने डरे हुए थे उससे कि हर वो इंतजाम किया गया, जिससे वो पुस्तक भारत न पहुँचे। जब किसी तरह पहुँची तो क्रांति की ज्वाला में घी की आहुति पड़ गई। कलम और दिमाग, दोनों से अँग्रेजों से लड़ने वाले सावरकर थे। दलितों के उत्थान के लिए काम करने वाले सावरकर थे। 11 साल कालकोठरी में बंद रहने वाले सावरकर थे। हिंदुत्व को पुनर्जीवित कर के राष्ट्रवाद की अलख जगाने वाले सावरकर थे। साहित्य की विधा में पारंगत योद्धा सावरकर थे।


आज़ादी के बाद क्या मिला उन्हें? अपमान। नेहरू व मौलाना अबुल कलाम जैसों ने तो मलाई चाटी सत्ता की, सावरकर को गाँधी हत्या केस में फँसा दिया। गिरफ़्तार किया। पेंशन तक नहीं दिया। प्रताड़ित किया। 60 के दशक में उन्हें फिर गिरफ्तार किया, प्रतिबंध लगा दिया। उन्हें सार्वजनिक सभाओं में जाने से मना कर दिया गया। ये सब उसी भारत में हुआ, जिसकी स्वतंत्रता के लिए उन्होंने अपना जीवन खपा दिया। आज़ादी के मतवाले से उसकी आज़ादी उसी देश में छीन ली गई, जिसे उसने आज़ाद करवाने में योगदान दिया था। शास्त्री जी PM बने तो उन्होंने पेंशन का जुगाड़ किया। 


वो कालापानी में कैदियों को समझाते थे कि धीरज रखो, एक दिन आएगा जब ये जगह तीर्थस्थल बन जाएगी। आज भले ही हमारा पूरे विश्व में मजाक बन रहा हो, एक समय ऐसा होगा जब लोग कहेंगे कि देखो, इन्हीं कालकोठरियों में हिंदुस्तानी कैदी बन्द थे। सावरकर कहते थे कि तब उन्हीं कैदियों की यहाँ प्रतिमाएँ होंगी। आज आप अंडमान जाते हैं तो सीधा 'वीर सावरकर इंटरनेशनल एयरपोर्ट' पर उतरते हैं। सेल्युलर जेल में उनकी प्रतिमा लगी है। उस कमरे में प्रधानमंत्री भी जाकर ध्यान धरता है, जिसमें सावरकर को रखा गया था। सावरकर का अपमान करने का अर्थ है अपने ही थूक को ऊँट के मूत्र में मिला कर पीना।


हजारो झूले थे फंदे पर, लाखों ने गोली खाई थी

क्यों झूठ बोलते थे साहब, चरखे से आजादी आई थी..

महान सम्राट कौन?


 


मकदूनिया में स्त्रियों को कतार बद्ध खड़ा कर दिया गया सौंदर्य - कमयिता के इस प्रदर्शन में जो सबसे खूबसूरत होगी उसे यूनान के शासक सिकंदर को दिया जायेगा बाकी सैनिकों को बाँट दिया जायेगा ।


पर्शिया कि इस हार ने एशिया के द्वार खोल दिया 

भागते पर्शियन शासकों का पीछा करते हुये सिकंदर हिंदुकुश तक पहुँच गया, चरवाहों , गुप्तचरों ने सूचना दी इसके पार एक महान सभ्यता है ।

 धन धान्य से भरपूर सन्यासियों, आचार्यों, गुरूकुलों, योद्धाओं, किसानों से विभूषित सभ्यता जो अभी तक अविजित है ।

सिकंदर ने जिसके पास अरबी, फ़रिशर्मिंन घोड़ों से सुसज्जित सेना थी ने भारत पर आक्रमण का आदेश दिया, झेलम के तट पर उसने पड़ाव डाल दिया आधीनता का आदेश दिया ।


महाराज पोरस कि सभा लगी थी 

गुप्तचरों ने सूचना दी आधे विश्व को परास्त कर देने वाला यूनान का सम्राट अलक्क्षेन्द्र भारत विजय हेतु सीमा पर पड़ाव डाल दिया ।


महामंत्री का प्रस्ताव था ; राजन तक्षशिला के आम्भीक ने आधीनता स्वीकार कर ली है, यह विश्व विजेता है, भारत के सभी महाजनपदों से वार्ता करके ही कोई उचित निर्णय ले ।


महाराज पोरस जो सात फिट लंबे थे जिनकी भुजाओं में इतना बल था कि सौ बलशाली योद्धा एक साथ युद्ध करने का साहस नहीं कर सकते थे !

उन्होंने महामंत्री को फटकार लगाई हम भारत के सीमांत क्षेत्र के शासक है यदि हम ही पराजय स्वीकार कर लिये तो भारत कैसे सुरक्षित रहेगा ! अपने पुत्र को सिकंदर कि शक्ति पता करने भेजते है ।


साहसी पुत्र ने सिकंदर पर हमला कर दिया. 23 वर्ष कि अवस्था में वीर बालक युद्ध भूमि में मारा गया, इस समाचार से महाराज पोरस विचलित नहीं हुये, उन्होंने सेनापति को झेलम तट पर पड़ाव का आदेश दिया यूनानी सैनिक इतनी छोटी सेना देखकर हैरान थे ।


21 दिन की प्रतीक्षा के बाद सिंकदर ने पोरस कि सेना पर हमला कर दिया अनुपात में कम क्षत्रिय हारने का नाम नहीं ले रहे थे ।


सेनापति महाराज पोरस को सूचना देता है, सिकंदर के तेज घोड़ों और बारूद के सामने क्षत्रिय योद्धा वीरगति को पा रहे है 

शिवभक्त पोरस महादेव कि आराधना कर रहे थे ! 


पोरस ने दोपहर तक सिकंदर को रोक रखने का आदेश दिया !


दोपहर तक पोरस कि आधी से अधिक सेना खत्म हो चूंकि थी यूनानी सैनिक जीत के जश्न में डूबने वाले ही थे, तभी पूर्व से भगवा पताका से आसमान लाल हो गया, हर हर महादेव के शंखनाद से पृथ्वी कांप उठी झेलम का पानी उफान मारने लगा जैसे अपने राजा का चरण छूने को व्याकुल हो ! 


10 हजार हाथियों से घिरे महाराज पोरस ऐसे लग रहे थे हाथी के उपर कोई सिंह युद्ध करने को आ रहा है बची सेना अपने राजा को देखकर पागल हो गई ।


सिकंदर अपने अभियान में बहुत से बड़े योद्धा को पराजित किया था लेकिन ऐसा दृश्य उसने कभी नहीं देखा था!


 क्या कोई व्यक्ति इतना भी विशाल और गर्वित हो सकता है ?

पोरस के एक संकेत पर हाथियों पर सुसज्जित योद्धा टूट पड़े यूनानी सैनिक मूली तरह काट दिये जा रहे थे हाथियों ने सैनिकों को फाड़ दिया ।


लेकिन महाराज पोरस कि निगाह कुछ और खोज रही थी उस दुष्ट को जिसने भारत से गद्दारी की थी आम्भीक को, जैसे ही वह सामने से निकला पोरस ने बरछी फेंक कर मारा लेकिन आम्भीक सिकंदर के सेनापति कि आड़ में छुप गया सेनापति का शरीर छलनी हो गया ।


पोरस ने अपने भाले से एक यूनानी के घोड़े पर वार किया उस घोड़े के चार खंड हो गये, सिकंदर समझ गया जब तक पोरस युद्ध भूमि है भारतीय सेना को हराया नहीं जा सकता ।


अभी भी यूनानी सैनिकों की संख्या पोरस के सैनिकों से अधिक थी लेकिन जिस तरह पोरस भीष्म कि तरह काट रहे है चारो तरफ भय का वातावरण है ।


सिकंदर ने सुनिश्चित किया अब पोरस को ही मारना होगा अपने विश्वसनीय घोड़े और 20 योद्धाओं के साथ सिकंदर पोरस कि तरफ बढ़ा, अपने राजा कि सुरक्षा में भारतीय सैनिकों ने मोर्चा संभाल लिया 20 में से 10 यूनानी योद्धा मार दिये गये लेकिन विश्व विजेता सिकंदर पोरस कि तरफ बढ़ता ही जा रहा था ।


अब सिकंदर और पोरस आमने सामने थे, उपर महादेव अपने भक्त कि वीरता देख रहे थे, हाथी के हौदे से एक बिजली चमकी जैसे लगा शिव का त्रिशूल हो ! महाराज पोरस अपने भाले को संधान कर चुकें थे, भाला सिकंदर कि तरफ बढ़ा चला आ रहा था 



घोड़े ने स्वामी भक्ति दिखाई वह भाले के सामने आ गया , चीरता भाला घोड़े के टुकड़े टुकड़े कर दिया ,घायल - मूर्छित सिकंदर जमीन पर गिर पड़ा, उसने पहली बार खुले में आसमान देखा था, घायल सिकंदर को लेकर उसके योद्धा शिविर की तरफ भागे ।


इधर झेलम का उफान धम सा गया, अपने राजा के चरणों को छूकर झेलम थम गई वापस सामान्य वेग से बहने लगी आखिर क्यों न उन्हें गर्व हो आज उनके सम्राट ने विश्व विजेता को पराजित किया है ।


जय हो सम्राट पौरस कटोच (यदुवंशी ) 


( स्रोत -प्लुकार्ड , पर्शियन इतिहासकार )

विश्व विजयी भारतीय संस्कृति

 


भारतीय संस्कृति

सिन्धु घाटी की लिपि : क्यों अंग्रेज़ और कम्युनिस्ट इतिहासकार नहीं चाहते थे कि इसे पढ़ाया जाए! 

▪️इतिहासकार अर्नाल्ड जे टायनबी ने कहा था - विश्व के इतिहास में अगर किसी देश के इतिहास के साथ सर्वाधिक छेड़ छाड़ की गयी है, तो वह भारत का इतिहास ही है।

भारतीय इतिहास का प्रारम्भ सिन्धु घाटी की सभ्यता से होता है, इसे हड़प्पा कालीन सभ्यता या सारस्वत सभ्यता भी कहा जाता है। बताया जाता है, कि वर्तमान सिन्धु नदी के तटों पर 3500 BC (ईसा पूर्व) में एक विशाल नगरीय सभ्यता विद्यमान थी। मोहनजोदारो, हड़प्पा, कालीबंगा, लोथल आदि इस सभ्यता के नगर थे।


पहले इस सभ्यता का विस्तार सिंध, पंजाब, राजस्थान और गुजरात आदि बताया जाता था, किन्तु अब इसका विस्तार समूचा भारत, तमिलनाडु से वैशाली बिहार तक, आज का पूरा पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान तथा (पारस) ईरान का हिस्सा तक पाया जाता है। अब इसका समय 7000 BC  से भी प्राचीन पाया गया है।


इस प्राचीन सभ्यता की सीलों, टेबलेट्स और बर्तनों पर जो लिखावट पाई जाती है उसे सिन्धु घाटी की लिपि कहा जाता है। इतिहासकारों का दावा है, कि यह लिपि अभी तक अज्ञात है, और पढ़ी नहीं जा सकी। जबकि सिन्धु घाटी की लिपि से समकक्ष और तथाकथित प्राचीन सभी लिपियां जैसे इजिप्ट, चीनी, फोनेशियाई, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई आदि सब पढ़ ली गयी हैं।


आजकल कम्प्यूटरों की सहायता से अक्षरों की आवृत्ति का विश्लेषण कर मार्कोव विधि से प्राचीन भाषा को पढना सरल हो गया है।


सिन्धु घाटी की लिपि को जानबूझ कर नहीं पढ़ा गया और न ही इसको पढने के सार्थक प्रयास किये गए।

भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद (Indian Council of Historical Research) जिस पर पहले अंग्रेजो और फिर कम्युनिस्टों का कब्ज़ा रहा, ने सिन्धु घाटी की लिपि को पढने की कोई भी विशेष योजना नहीं चलायी।


आखिर ऐसा क्या था सिन्धु घाटी की लिपि में? अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकार क्यों नहीं चाहते थे, कि सिन्धु घाटी की लिपि को पढ़ा जाए?


अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों की नज़रों में सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्नलिखित खतरे थे -


1. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने के बाद उसकी प्राचीनता और अधिक पुरानी सिद्ध हो जायेगी। इजिप्ट, चीनी, रोमन, ग्रीक, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई से भी पुरानी. जिससे पता चलेगा, कि यह विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है। भारत का महत्व बढेगा जो अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों को बर्दाश्त नहीं होगा।

2. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने से अगर वह वैदिक सभ्यता साबित हो गयी तो अंग्रेजो और कम्युनिस्टों द्वारा फैलाये गए आर्य- द्रविड़ युद्ध वाले प्रोपगंडा के ध्वस्त हो जाने का डर है।

3. अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों द्वारा दुष्प्रचारित ‘आर्य बाहर से आई हुई आक्रमणकारी जाति है और इसने यहाँ के मूल निवासियों अर्थात सिन्धु घाटी के लोगों को मार डाला व भगा दिया और उनकी महान सभ्यता नष्ट कर दी। वे लोग ही जंगलों में छुप गए, दक्षिण भारतीय (द्रविड़) बन गए, शूद्र व आदिवासी बन गए’, आदि आदि गलत साबित हो जायेगा।

कुछ फर्जी इतिहासकार सिन्धु घाटी की लिपि को सुमेरियन भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे तो कुछ इजिप्शियन भाषा से, कुछ चीनी भाषा से, कुछ इनको मुंडा आदिवासियों की भाषा, और तो और, कुछ इनको ईस्टर द्वीप के आदिवासियों की भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे। ये सारे प्रयास असफल साबित हुए।


सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्लिखित समस्याए बताई जाती है - 

सभी लिपियों में अक्षर कम होते है, जैसे अंग्रेजी में 26, देवनागरी में 52 आदि, मगर सिन्धु घाटी की लिपि में लगभग 400 अक्षर चिन्ह हैं। सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में यह कठिनाई आती है, कि इसका काल 7000 BC से 1500 BC तक का है, जिसमे लिपि में अनेक परिवर्तन हुए साथ ही लिपि में स्टाइलिश वेरिएशन बहुत पाया जाता है। लेखक ने लोथल और कालीबंगा में सिन्धु घाटी व हड़प्पा कालीन अनेक पुरातात्विक साक्षों का अवलोकन किया।

भारत की प्राचीनतम लिपियों में से एक लिपि है जिसे ब्राह्मी लिपि कहा जाता है। इस लिपि से ही भारत की अन्य भाषाओँ की लिपियां बनी। यह लिपि वैदिक काल से गुप्त काल तक उत्तर पश्चिमी भारत में उपयोग की जाती थी। संस्कृत, पाली, प्राकृत के अनेक ग्रन्थ ब्राह्मी लिपि में प्राप्त होते है।

सम्राट अशोक ने अपने धम्म का प्रचार प्रसार करने के लिए ब्राह्मी लिपि को अपनाया। सम्राट अशोक के स्तम्भ और शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए और सम्पूर्ण भारत में लगाये गए।

सिन्धु घाटी की लिपि और ब्राह्मी लिपि में अनेक आश्चर्यजनक समानताएं है। साथ ही ब्राह्मी और तमिल लिपि का भी पारस्परिक सम्बन्ध है। इस आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि को पढने का सार्थक प्रयास सुभाष काक और इरावाथम महादेवन ने किया।

सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 400 अक्षर के बारे में यह माना जाता है, कि इनमे कुछ वर्णमाला (स्वर व्यंजन मात्रा संख्या), कुछ यौगिक अक्षर और शेष चित्रलिपि हैं। अर्थात यह भाषा अक्षर और चित्रलिपि का संकलन समूह है। विश्व में कोई भी भाषा इतनी सशक्त और समृद्ध नहीं जितनी सिन्धु घाटी की भाषा।

बाएं लिखी जाती है, उसी प्रकार ब्राह्मी लिपि भी दाएं से बाएं लिखी जाती है। सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 3000 टेक्स्ट प्राप्त हैं।

इनमे वैसे तो 400 अक्षर चिन्ह हैं, लेकिन 39 अक्षरों का प्रयोग 80 प्रतिशत बार हुआ है। और ब्राह्मी लिपि में 45 अक्षर है। अब हम इन 39 अक्षरों को ब्राह्मी लिपि के 45 अक्षरों के साथ समानता के आधार पर मैपिंग कर सकते हैं और उनकी ध्वनि पता लगा सकते हैं।


ब्राह्मी लिपि के आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि पढने पर सभी संस्कृत के शब्द आते है जैसे - श्री, अगस्त्य, मृग, हस्ती, वरुण, क्षमा, कामदेव, महादेव, कामधेनु, मूषिका, पग, पंच मशक, पितृ, अग्नि, सिन्धु, पुरम, गृह, यज्ञ, इंद्र, मित्र आदि।

निष्कर्ष यह है कि -

1. सिन्धु घाटी की लिपि ब्राह्मी लिपि की पूर्वज लिपि है।

2. सिन्धु घाटी की लिपि को ब्राह्मी के आधार पर पढ़ा जा सकता है।

3. उस काल में संस्कृत भाषा थी जिसे सिन्धु घाटी की लिपि में लिखा गया था।

4. सिन्धु घाटी के लोग वैदिक धर्म और संस्कृति मानते थे।

5. वैदिक धर्म अत्यंत प्राचीन है।

हिन्दू सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन व मूल सभ्यता है, हिन्दुओं का मूल निवास सप्त सैन्धव प्रदेश (सिन्धु सरस्वती क्षेत्र) था जिसका विस्तार ईरान से सम्पूर्ण भारत देश था।वैदिक धर्म को मानने वाले कहीं बाहर से नहीं आये थे और न ही वे आक्रमणकारी थे। आर्य - द्रविड़ जैसी कोई भी दो पृथक जातियाँ नहीं थीं जिनमे परस्पर युद्ध हुआ हो।

जय सनातन विश्व गुरु भारत 

अहंकार का नाश ।

 



कालिदास बोले :- माते पानी पिला दीजिए बड़ा पुण्य होगा.

स्त्री बोली :- बेटा मैं तुम्हें जानती नहीं. अपना परिचय दो।

मैं अवश्य पानी पिला दूंगी।

कालिदास ने कहा :- मैं पथिक हूँ, कृपया पानी पिला दें।

स्त्री बोली :- तुम पथिक कैसे हो सकते हो, पथिक तो केवल दो ही हैं सूर्य व चन्द्रमा, जो कभी रुकते नहीं हमेशा चलते रहते। तुम इनमें से कौन हो सत्य बताओ।


कालिदास ने कहा :- मैं मेहमान हूँ, कृपया पानी पिला दें।

स्त्री बोली :- तुम मेहमान कैसे हो सकते हो ? संसार में दो ही मेहमान हैं।

पहला धन और दूसरा यौवन। इन्हें जाने में समय नहीं लगता। सत्य बताओ कौन हो तुम ?

.

(अब तक के सारे तर्क से पराजित हताश तो हो ही चुके थे)


कालिदास बोले :- मैं सहनशील हूं। अब आप पानी पिला दें।

स्त्री ने कहा :- नहीं, सहनशील तो दो ही हैं। पहली, धरती जो पापी-पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है। उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है, दूसरे पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी मीठे फल देते हैं। तुम सहनशील नहीं। सच बताओ तुम कौन हो ?

(कालिदास लगभग मूर्च्छा की स्थिति में आ गए और तर्क-वितर्क से झल्लाकर बोले)


कालिदास बोले :- मैं हठी हूँ ।

.

स्त्री बोली :- फिर असत्य. हठी तो दो ही हैं- पहला नख और दूसरे केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं। सत्य कहें ब्राह्मण कौन हैं आप ?

(पूरी तरह अपमानित और पराजित हो चुके थे)


कालिदास ने कहा :- फिर तो मैं मूर्ख ही हूँ ।

.

स्त्री ने कहा :- नहीं तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो।

मूर्ख दो ही हैं। पहला राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है, और दूसरा दरबारी पंडित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए ग़लत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है।

(कुछ बोल न सकने की स्थिति में कालिदास वृद्धा के पैर पर गिर पड़े और पानी की याचना में गिड़गिड़ाने लगे)


वृद्धा ने कहा :- उठो वत्स ! (आवाज़ सुनकर कालिदास ने ऊपर देखा तो साक्षात माता सरस्वती वहां खड़ी थी, कालिदास पुनः नतमस्तक हो गए)

माता ने कहा :- शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार । तूने शिक्षा के बल पर प्राप्त मान और प्रतिष्ठा को ही अपनी उपलब्धि मान लिया और अहंकार कर बैठे इसलिए मुझे तुम्हारे चक्षु खोलने के लिए ये स्वांग करना पड़ा।

.

कालिदास को अपनी गलती समझ में आ गई और भरपेट पानी पीकर वे आगे चल पड़े।


शिक्षा :-

विद्वत्ता पर कभी घमण्ड न करें, यही घमण्ड विद्वत्ता को नष्ट कर देता है।

दो चीजों को कभी व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए.....

अन्न के कण को

"और"

आनंद के क्षण को...

(साभार)

विष्णु भगवान ने पृथ्वी को किस समुद्र से निकाला था ?

 


 जबकि समुद्र पृथ्वी पर ही है ?


बचपन से मेरे मन मे भी ये सवाल था , कि आखिर कैसे पृथ्वी को समुद्र में छिपा दिया जबकि समुद पृथ्वी पर ही है। 

 हिरण्यकश्यप का भाई हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को ले जाकर समुद्र में छिपा दिया था। फलस्वरूप भगवान बिष्णु ने  ' सूकर '  का रूप धारण करके हिरण्याक्ष का वध किया और पृथ्वी को पुनः उसकी कक्षा में स्थापित कर दिया।*

इस पौराणिक सत्य को आज के युग में एक दंतकथा के रूप में लिया जाता था। लोगों का ऐसा मानना था कि ये मनगढंत कहानी है । 

लेकिन अभी नासा के एक नवीन खोज के अनुसार

खगोल विज्ञान की दो टीमों ने ब्रह्मांड में अब तक खोजे गए पानी के सबसे बड़े और सबसे दूर के जलाशय की खोज की है ।

 उस जलाशय का पानी, हमारी पृथ्वी के समुद्र के  140 खरब गुना पानी के बराबर है। जो 12 बिलियन से अधिक प्रकाश-वर्ष दूर है। 

*जाहिर सी बात है कि उस राक्षस ने पृथ्वी को इसी जलाशय में छुपाया होगा।*

 हमारे वेद ग्रंथ इसे *"भवसागर"*  कहते हैं। 

 जब मैंने ये खबर पढ़ा तो मेरा भी भ्रम दूर हो गया। और अंत मे मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहुँगा की जो इस ब्रह्मांड का रचयिता है, जिसके मर्जी से ब्रह्मांड चलता है। उसकी शक्तियों की थाह लगाना  एक तुच्छ मानव के वश की बात नही है। मानव तो अपनी आंखों से उनके विराट स्वरूप को भी नही देख सकता।

 कुछ बेवकूफों को लगता है कि हमारा देश और यहाँ की सभ्यता गवांर है , उनके लिये मैं बता दूं कि 

सभ्यता, ज्ञान, विज्ञान, धर्म, सम्मान भारत से ही शुरू हुआ है। अगर आपको इसपर भी सवाल करना है तो आप इतिहास खंगाल कर देखिये। जिन सभ्यताओं की मान कर आप अपने ही धर्म पर सवाल कर रहे हैं उनके देश मे जाकर देखिये। उनके भगवान तथा (अ)धर्म पर कोई सवाल नही करता , बल्कि उन्होंने अपने धर्म का इतना प्रचार किया है कि मात्र 2000 साल में ही आज संसार मे सबसे ज्यादा ईसाई व मुस्लिम हैं। 

और हम जैसे बेवकूफों को धर्मपरिवर्तन कराते हैं। और हम बेवकूफ हैं , जो बिना धर्म-शास्त्रों के अध्ययन के , खुद अपने ही देश और धर्म पर सवाल करते हैं !!

 आपको बतला दे , नासा हमारे धर्मग्रंथों को आधार मानकर ही खोजो की दिशा तय करता है । हिन्दू धर्म कितना प्राचीन है इसका अनुमान भी नही लगा सकता नासा। 

जब इंग्लैंड में पहला स्कूल खुला था , तब भारत में लाखों गुरुकुल थे। और *हजारो साल पहले 4 वेद और 18 पुराण लिखे जा चुके थे। जब भारत मे प्राचीन राजप्रथा चल रही थी तब ये लोग कपड़े पहनना भी नही जानते थे।*

 खगोलशास्त्र के सबसे बड़े वैज्ञानिक आर्यभट्ट जो भारत के थे। उन्होंने दुनिया को इस बात से अवगत कराया कि ब्रह्मांड क्या है, पृथ्वी का आकार और व्यास कितना है। *सारे ग्रह-नक्षत्रों की गति , दूरी , उनका प्रभाव ...   ईसा से पूर्व ही विक्रमादित्य काल से पहले ही खोजा जा चुका था ।*

 कई अज्ञानी वामपंथी लोग मानते हैं कि कोई परमतत्व है ही नहीं।  हम ही हमारे भाग्य के निर्माता है। हम ही संचार चला रहे हैं। हम जो करते हैं, वही होता है। 

अ-विद्या से ग्रस्त ऐसे ईश्‍वर विरोधी लोग मृतक के समान है जो बगैर किसी आधार और तर्क के ईश्‍वर को नहीं मानते हैं।

 बाद के बने हुए क्रिश्चियन ओर इस्लाम धर्म आज भी पृथ्वी को गोल नही फ्लैट मानते है ।

जबकि हजारो साल पहले , सुकर अवतार में , पृथ्वी गोल बतलाई गई थी । 

 दिन और रात का सही समय पर होना। सही समय पर सूर्य अस्त और उदय होना। पेड़ पौधे, अणु परमाणु तथा मनुष्य की मस्तिष्क की कार्यशैली का ठीक ढंग से चलना ये अनायास ही नही हो रहा है।  *जीव के अंदर चेतना कहाँ से आती है , हर प्राणी अपने जैसा ही बीज कैसे उत्पन्न करता है ??* शरीर की बनावट उसके जरूरत के अनुसार ही कैसे होता है? बिना किसी निराकार शक्ति के ये अपने आप होना असंभव है। 

और अगर अब भी 

*ईश्वर और वेद पुराण के प्रति तर्क करना है,  तो विधर्मियों के जीवन का कोई महत्व नही है।*


सनातन धर्म की उत्पत्ति कब हुई?

 


सनातन धर्म की उत्पत्ति कब हुई बता पाना अत्यंत कठिन है । भारत में  सनातन धर्म को ही कालांतर में हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाने लगा था । हिन्दू धर्म शाब्दिक रूप से बहुत पुराना नहीं है । इसे इसके वर्तमान स्वरुप में कई वर्ष पहले अस्तित्व में आना माना जाता है ।


हिन्दू शब्द की उत्पति सिन्धु से होना माना गया है । ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिंदू नाम से पुकारा करते थे । इस तरह हिंदुस्तान में भी इस समुदाय विशेष को लोग हिन्दू नाम से धीरे धीरे पुकारना शुरू कर दिया ।


हिन्दू लोग सनातन धर्म को मानने वाले थे, धीरे धीरे हिन्दुओं के द्वारा माने जाने वाले धर्म को हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाने लगा । सनातन धर्म की उत्पत्ति या यूँ कहे की हिन्दू धर्म की उत्पति कब हुई, इस मामले में कुछ ठीक ठीक बता पाना कठिन है ।


एक अन्य मान्यता के अनुशार कुछ इतिहासकार सनातन धर्म की उत्पत्ति के संबंद्ध में यह मानते हैं कि चीनी यात्री हुएनसांग के समय हिन्दू शब्द का प्रयोग शुरू हुवा । चीनी लोग हिन्दुओं को इंदु नाम से पुकारते थे, इंदु यानि चन्द्रमा । भारतीय ज्योतिषीय शास्त्र का आधार चंद्रमास से ही माना गया है ।

 


सनातन धर्म की उत्पत्ति से अंक ६ और १० का हमेशा से ही विशेष महत्व रहा है ।

अंक 6:

छ: मुक्ति : 1) सार्ष्टि (ऐश्‍वर्य), (2) सालोक्य (लोक की प्राप्ती), (3) सारूप (ब्रह्म स्वरूप), (4) सामीप्य (ब्रह्म के पास), (5) साम्य (ब्रह्म जैसी समानता), (6) लीनता या सामुज्य (ब्रह्म में लीन हो जाना)। ब्रह्मलीन हो जाना ही पूर्ण मोक्ष है।

छ: शिक्षा : वेदांग, सांख्य, योग, निरुक्त, व्याकरण और छंद।

छ: ऋतु : बसंत, ग्रीष्म, शरद, हेमंत और शिशिर।

अंक 7:

सप्तऋषि : कष्यप, भारद्वाज, गौतम, अगस्त्य, वशिष्ट।

सात छंद : गायत्री, वृहत्ती, उष्ठिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति।

सात योग : ज्ञान, कर्म, भक्ति, ध्यान, राज, हठ, सहज।

सात भूत : भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्मांडा, ब्रह्मराक्षस, वेताल और क्षेत्रपाल।

सात वायु : प्रवह, आवह, उद्वह, संवह, विवह, परिवह, परावह।

सात द्वीप : जम्बूद्वीप, प्लक्ष द्वीप, शाल्मली द्वीप, कुश द्वीप, क्रौंच द्वीप, शाक द्वीप एवं पुष्कर द्वीप।

सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, पाताल तथा रसातल।

सात लोक : भूर्लोक, भूवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक, सत्यलोक। सत्यलोक को ही ब्रह्मलोक कहते है।

सात समुद्र : क्षीरसागर, दुधीसागर, घृत सागर, पयान, मधु, मदिरा, लहू।

सात पर्वत : सुमेरु, कैलाश, मलय, हिमालय, उदयाचल, अस्ताचल, सपेल? माना जाता है कि गंधमादन भी है।

सप्त पुरी : अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, कांची, अवंतिका (उज्जयिनी) और द्वारका।

अंक 8:

अष्‍ट विनायक : वक्रतुंड, एकदंत, मनोहर, गजानन, लम्बोदर, विकट, विध्नराज, धूम्रवर्ण।

आठ भैरव : रुद्र, संहार, काल, असिति, क्रौध, भीषण, महा, खट्वांग।

आठ योगांग : यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधी।

आठ नदी : गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, नर्मदा, सिंधु, कावेरी, ब्रह्मपुत्र

आठ वसु : अहश, ध्रुव, सोम, धरा, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभाष। (यह रहने के आठ स्थान है तथा अग्नि के आठ प्रकार भी। यह अदिति के आठ पुत्रों के नाम भी है)

आठ धातु : सोना, चांदी, लोहा, तांबा, शीशा, कांसा, रांगा, पीतल।

आठ प्रहर : दिन के चार और रात के चार मिलाकर आठ प्रहर होते हैं। यानि एक पहर तीन घंटे का होता है। जैसे प्रात:काल, मध्यकाल, संध्याकाल, ब्रह्मकाल आदि।

अंक 9:

नवधा भक्ति : श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चना, वंदना, मित्र, दाम्य, आत्मनिवेदन।

नौ विधि : पक्ष, महापक्ष, शंख, मकर, कश्यप, कुकंन, मुकन्द, नील, बार्च।

नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कंद, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिरात्रि। ऐसा भी कह सकते हैं- काली, कात्यायानी, ईशानी, चामुंडा, मर्दिनी, भद्रकाली, भद्रा, त्वरिता तथा वैष्णवी।

अंक 10:

दस दिशा : (दस दिग्पाल), पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, वायव, नैऋत्य, आग्नेय और ईशान।

दस अवतारी पुरुष : मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशु, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्की।

ब्रह्मा के दस मानस पुत्र : (मन से उत्पन्न) मरिचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, पुलस्य, प्रचेता, भृगु, नारद एवं महातपस्वी वशिष्ट।

साधुओं के दस संप्रदाय:- 1.गिरि, 2.पर्वत, 3.सागर, 4.पुरी, 5.भारती, 6.सरस्वती, 7.वन, 8.अरण्य, 9.तीर्थ और 10.आश्रम।

दस महाविद्या : काली, तारादेवी, ललिता-त्रिपुरसुन्दरी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंकि और कमला।

देवी भागवत पुराण के दस नियम



 देवी भागवत पुराण में मां दुर्गा द्वारा बताये गये दस नियम

  "मानुश तन अनमोल ये ,तू माटी में ना रोल रे "


मनुष्य को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, इसका वर्णन कई ग्रंथों और शास्त्रों में पाया जाता है। इन बातों को समझ कर, उनका पालन करने पर जीवन को सुखद बनाया जा सकता है। श्रीमद् देवी भागवत महापुराण में स्वयं देवी भगवती ने दस नियमों के बारे में बताया है। इन नियमों का पालन हर मनुष्य को अपने जीवन में करना ही चाहिए।


श्रीमद् देवी भागवत महापुराण के अनुसार, ये है वह दस नियम जिन्हें हर मनुष्य को अपने जीवन में अपनाना चाहिए-


तपः सन्तोष आस्तिक्यं दानं देवस्य पूजनम्।

सिद्धान्तश्रवणं चैव ह्रीर्मतिश्च जपो हुतम्।।


अर्थात- तप, संतोष, आस्तिकता, दान, देवपूजन, शास्त्रसिद्धांतों का श्रवण, लज्जा, सद्बुद्धि, जप और हवन- ये दस नियम मेरे द्वारा (देवी भगवती) कहे गए है।


1. तप- तपस्या करने या ध्यान लगाने से मन को शांति मिलती है। मनुष्य को जीवन में कई बातें होती हैं, जिन्हें समझ पाना कभी-कभी मुश्किल हो जाता है। तप करने या ध्यान लगाने से हमारा सारा ध्यान एक जगह केन्द्रित हो जाता है और मन भी शांत हो जाता है। शांत मन से किसी भी समस्या का हल निकाला जा सकता है। साथ ही ध्यान लगाने से कई मानसिक और शारीरिक रोगों का भी नाश होता है।


2. संतोष- मनुष्य के जीवन में कई इच्छाएं होती हैं। हर इच्छा को पूरा कर पाना संभव नहीं होता। ऐसे में मनुष्य को अपने मन में संतोष (संतुष्टि) रखना बहुत जरूरी होता है। असंतोष की वजह से मन में जलन, लालच जैसी भावनाएं जन्म लेने लगती हैं। जिनकी वजह से मनुष्य गलत काम तक करने को तैयार हो जाता है। सुखी जीवन के लिए इन भावनाओं से दूर रहना बहुत आवश्यक होता है। इसलिए, मनुष्य हमेशा अपने मन में संतोष रखना चाहिए।


3. आस्तिकता- आस्तिकता का अर्थ होता है- देवी-देवता में विश्वास रखना। मनुष्य को हमेशा ही देवी-देवताओं का स्मरण करते रहना चाहिए। नास्तिक व्यक्ति पशु के समान होता है। ऐसे व्यक्ति के लिए अच्छा-बुरा कुछ नहीं होता। वह बुरे कर्मों को भी बिना किसी भय के करता जाता है। जीवन में सफलता हासिल करने के लिए आस्तिकता की भावना होना बहुत ही जरूरी होता है।


4. दान- हिंदू धर्म में दान का बहुत ही महत्व है। दान करने से पुण्य मिलता है। दान करने पर ग्रहों के दोषों का भी नाश होता है। कई बार मनुष्य को उसकी ग्रह दशाओं की वजह से कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। दान देकर या अन्य पुण्य कर्म करके ग्रह दोषों का निवारण किया जा सकता है। मनुष्य को अपने जीवन में हमेशा ही दान कर्म करते रहना चाहिए।


5. देव पूजन- हर मनुष्य की कई कामनाएं होती हैं। अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए कर्मों के साथ-साथ देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना भी की जाती है। मनुष्य अपने हर दुःख में, हर परेशानी में भगवान को याद अवश्य करता है। सुखी जीवन और हमेशा भगवान की कृपा अपने परिवार पर बनाए रखने के लिए पूरी श्रद्धा के साथ भगवान की पूजा करनी चाहिए।


6. शास्त्र सिद्धांतों का श्रवण- कई पुराणों और शास्त्रों में धर्म-ज्ञान संबंधी कई बातें बताई गई हैं। जो बातें न कि सिर्फ उस समय बल्कि आज भी बहुत उपयोगी हैं। अगर उन सिद्धान्तों का जीवन में पालन किया जाए तो किसी भी कठिनाई का सामना आसानी से किया जा सकता है। शास्त्रों में दिए गए सिद्धांतों से सीख के साथ-साथ पुण्य भी प्राप्त होता है। इसलिए, शास्त्रों और पुराणों का अध्यन और श्रवण करना चाहिए।


7. लज्जा- किसी भी मनुष्य में लज्जा (शर्म) होना बहुत जरूरी होता है। बेशर्म मनुष्य पशु के समान होता है। जिस मनुष्य के मन में लज्जा का भाव नहीं होता, वह कोई भी दुष्कर्म कर सकता है। जिसकी वजह से कई बार न की सिर्फ उसे बल्कि उसके परिवार को भी अपमान का पात्र बनना पड़ सकता है। लज्जा ही मनुष्य को सही और गलत में फर्क करना सिखाती है। मनुष्य को अपने मन में लज्जा का भाव निश्चित ही रखना चाहिए।


8. सदबुद्धि- किसी भी मनुष्य को अच्छा या बुरा उसकी बुद्धि ही बनाती है। अच्छी सोच रखने वाला मनुष्य जीवन में हमेशा ही सफलता पाता है। बुरी सोच रखने वाला मनुष्य कभी उन्नति नहीं कर पाता। मनुष्य की बुद्धि उसके स्वभाव को दर्शाती है। सदबुद्धि वाला मनुष्य धर्म का पालन करने वाला होता है और उसकी बुद्धि कभी गलत कामों की ओर नहीं जाती। अतः हमेशा सदबुद्धि का पालन करना चाहिए।


9. जप- पुराणों और शास्त्रों के अनुसार, जीवन में कई समस्याओं का हल केवल भगवान का नाम जपने से ही पाया जा सकता है। जो मनुष्य पूरी श्रद्धा से भगवान का नाम जपता हो, उस पर भगवान की कृपा हमेशा बनी रहती है। भगवान का भजन-कीर्तन करने से मन को शांति मिलती है और पुण्य की भी प्राप्ति होती है। शास्त्रों के अनुसार, कलियुग में देवी-देवताओं का केवल नाम ले लेने मात्र से ही पापों से मुक्ति मिल जाती है।


10. हवन- किसी भी शुभ काम के मौके पर हवन किया जाता है। हवन करने से घर का वातावरण शुद्ध होता है। कहा जाता है, हवन करने पर हवन में दी गई आहुति का एक भाग सीधे देवी-देवताओं को प्राप्त होता है। उससे घर में देवी-देवताओं की कृपा सदा बनी रहती है। साथ ही वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा भी बढ़ती है।


      !!!!! इति, शुभमस्तु !!!!!

एक कदम आध्यात्म की ओर




आत्मा जब शरीर छोड़ती है तो मनुष्य को पहले ही पता चल जाता है । ऐसे में वह स्वयं भी हथियार डाल देता है अन्यथा उसने आत्मा को शरीर में बनाये रखने का भरसक प्रयत्न किया होता है और इस चक्कर में कष्ट झेला होता है । 


अब उसके सामने उसके सारे जीवन की यात्रा चल-चित्र की तरह चल रही होती है । उधर आत्मा शरीर से निकलने की तैयारी कर रही होती है इसलिये शरीर के पाँच प्राण एक 'धनंजय प्राण' को छोड़कर शरीर से बाहर निकलना आरम्भ कर देते हैं । 


ये प्राण, आत्मा से पहले बाहर निकलकर आत्मा के लिये सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं जो कि शरीर छोड़ने के बाद आत्मा का वाहन होता है । धनंजय प्राण पर सवार होकर आत्मा शरीर से निकलकर इसी सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है । 


बहरहाल अभी आत्मा शरीर में ही होती है और दूसरे प्राण धीरे-धीरे शरीर से बाहर निकल रहे होते हैं कि व्यक्ति को पता चल जाता है । 


उसे बेचैनी होने लगती है, घबराहट होने लगती है । सारा शरीर फटने लगता है, खून की गति धीमी होने लगती है । सांँस उखड़ने लगती है । बाहर के द्वार बंद होने लगते हैं । 


अर्थात् अब चेतना लुप्त होने लगती है और मूर्च्छा आने लगती है । चैतन्य ही आत्मा के होने का संकेत है और जब आत्मा ही शरीर छोड़ने को तैयार है - तो चेतना को तो जाना ही है और वो मूर्छित होने लगता है ।


 बुद्धि समाप्त हो जाती है और किसी अनजाने लोक में प्रवेश की अनुभूति होने लगती है - यह चौथा आयाम होता है ।


फिर मूर्च्छा आ जाती है और आत्मा एक झटके से किसी भी खुली हुई इंद्रिय से बाहर निकल जाती है । इसी समय चेहरा विकृत हो जाता है । यही आत्मा के शरीर छोड़ देने का मुख्य चिह्न होता है । 


शरीर छोड़ने से पहले - केवल कुछ पलों के लिये आत्मा अपनी शक्ति से शरीर को शत-प्रतिशत सजीव करती है - ताकि उसके निकलने का मार्ग अवरुद्ध न रहे - और फिर उसी समय आत्मा निकल जाती है और शरीर खाली मकान की तरह निर्जीव रह जाता है । 

इससे पहले घर के आसपास कुत्ते-बिल्ली के रोने की आवाजें आती हैं । इन पशुओं की आँखे अत्याधिक चमकीली होती है  जिससे ये रात के अँधेरे में तो क्या सूक्ष्म-शरीर धारी आत्माओं को भी देख लेते हैं । 


जब किसी व्यक्ति की आत्मा शरीर छोड़ने को तैयार होती है तो उसके अपने सगे-संबंधी जो मृतात्माओं के रूप में होते है  उसे लेने आते हैं और व्यक्ति उन्हें यमदूत समझता है और कुत्ते-बिल्ली उन्हें साधारण जीवित मनुष्य ही समझते हैं और अनजान होने की वजह से उन्हें देखकर रोते हैं और कभी-कभी भौंकते भी हैं ।


शरीर के पाँच प्रकार के प्राण बाहर निकलकर उसी तरह सूक्ष्म-शरीर का निर्माण करते हैं । जैसे गर्भ में स्थूल-शरीर का निर्माण क्रम से होता है । 


सूक्ष्म-शरीर का निर्माण होते ही आत्मा अपने मूल वाहक धनंजय प्राण के द्वारा बड़े वेग से निकलकर सूक्ष्म-शरीर में प्रवेश कर जाती है ।


 आत्मा शरीर के जिस अंग से निकलती है उसे खोलती, तोड़ती हुई निकलती है । जो लोग भयंकर पापी होते है उनकी आत्मा मूत्र या मल-मार्ग से निकलती है । जो पापी भी हैं और पुण्यात्मा भी हैं उनकी आत्मा मुख से निकलती है । जो पापी कम और पुण्यात्मा अधिक है उनकी आत्मा नेत्रों से निकलती है और जो पूर्ण धर्मनिष्ठ हैं, पुण्यात्मा और योगी पुरुष हैं उनकी आत्मा ब्रह्मरंध्र से निकलती है ।


अब तक शरीर से बाहर सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हुआ रहता है । लेकिन ये सभी का नहीं हुआ रहता । जो लोग अपने जीवन में ही मोहमाया से मुक्त हो चुके योगी पुरुष है  उन्ही के लिये तुरंत सूक्ष्म-शरीर का निर्माण हो पाता है । 


अन्यथा जो लोग मोहमाया से ग्रस्त हैं परंतु बुद्धिमान हैं, ज्ञान-विज्ञान से अथवा पांडित्य से युक्त हैं ,  ऐसे लोगों के लिये दस दिनों में सूक्ष्म शरीर का निर्माण हो पाता है ।


हिंदू धर्म-शास्त्र में - दस गात्र का श्राद्ध और अंतिम दिन मृतक का श्राद्ध करने का विधान इसीलिये है कि - दस दिनों में शरीर के दस अंगों का निर्माण इस विधान से पूर्ण हो जाये और आत्मा को सूक्ष्म-शरीर मिल जाये ।


 ऐसे में, जब तक दस गात्र का श्राद्ध पूर्ण नहीं होता और सूक्ष्म-शरीर तैयार नहीं हो जाता आत्मा, प्रेत-शरीर में निवास करती है ।


 अगर किसी कारणवश ऐसा नहीं हो पाता है तो आत्मा प्रेत-योनि में भटकती रहती है । 


एक और बात, आत्मा के शरीर छोड़ते समय व्यक्ति को पानी की बहुत प्यास लगती है । शरीर से प्राण निकलते समय कण्ठ सूखने लगता है । ह्रदय सूखता जाता है और इससे नाभि जलने लगती है । लेकिन कण्ठ अवरुद्ध होने से पानी पिया नहीं जाता और ऐसी ही स्थिति में आत्मा शरीर छोड़ देती है । प्यास अधूरी रह जाती है । इसलिये अंतिम समय में मुख में 'गंगा-जल' डालने का विधान है । 


इसके बाद आत्मा का अगला पड़ाव होता है शमशान का 'पीपल' ।


 यहाँ आत्मा के लिये 'यमघंट' बंँधा होता है । जिसमें पानी होता है । यहाँ प्यासी आत्मा यमघंट से पानी पीती है जो उसके लिये अमृत तुल्य होता है । इस पानी से आत्मा तृप्ति का अनुभव करती है । 


 हिन्दू धर्म शास्त्रों में विधान है कि - मृतक के लिये यह सब करना होता है ताकि उसकी आत्मा को शान्ति मिले । अगर किसी कारण वश मृतक का दस गात्र का श्राद्ध न हो सके और उसके लिये पीपल पर यमघंट भी न बाँधा जा सके तो उसकी आत्मा प्रेत-योनि में चली जायेगी और फिर कब वहांँ से उसकी मुक्ति होगी, कहना कठिन होगा l


*हांँ,  कुछ उपाय अवश्य हैं। पहला तो यह कि किसी के देहावसान होने के समय से लेकर तेरह दिन तक  निरन्तर भगवान् के नामों का उच्च स्वर में जप अथवा कीर्तन किया जाय और जो संस्कार बताये गये हैं उनका पालन करने से मृतक भूत प्रेत की योनि, नरक आदि में जाने से बच जायेगा , लेकिन यह करेगा कोन ?*


*यह संस्कारित परिजन, सन्तान, नातेदार ही कर सकते हैं l अन्यथा आजकल अनेक लोग केवल औपचारिकता निभाकर केवल दिखावा ही अधिक करते हैं l*


*दूसरा उपाय कि मरने वाला व्यक्ति स्वयं भजनानंदी हो, भगवान का भक्त हो और अंतिम समय तक यथासंभव हरि स्मरण में रत रहा हो ।*


इसी संदर्भ में , भक्त कहता है...


कृष्ण त्वदीय पदपंकजपंजरांके अद्यैव मे विशतु मानस राजहंसः


प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः कंठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते।।


श्रीकृष्ण कहते हैं....


कफवातादिदोषेन मद्भक्तो न तु मां स्मरेत् 


अहं स्मरामि तद्भक्तं ददामि परमां गतिम्।।


फिर श्रीकृष्ण को लगता है कि यह मैं कुछ अनुचित बोल गया।


पुनश्च वे कहते हैं....


कफवातादिदोषेन मद्भक्तो न च मां स्मरेत्


तस्य स्मराम्यहं नो चेत् कृतघ्नो नास्ति मत्परः


ततस्तं मृयमाणं तु काष्ठपाषाणसन्निभं 


अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्।।


*तीसरा भगवान के धामों में देह त्यागी हो, अथवा दाह संस्कार काशी, वृंदावन या चारों धामों में से किसी में हुआ हो l*


*स्वयं विचार करना चाहिये कि हम दूसरों के भरोसे रहें या अपना हित स्वयं साधें l*


 जीवन बहुत अनमोल है, इसको व्यर्थ मत गँवायें। एक - एक पल को सार्थक करें। हरिनाम का नित्य आश्रय लें । मन के दायरे से बाहर निकल कर सचेत होकर जीवन को जियें, न कि मन के अधीन होकर। 


यह मानव शरीर बार- बार नहीं मिलता। 


जीवन का एक- एक पल जो जीवन का गुजर रहा है ,वह फिर वापस नहीं मिलेगा। इसमें जितना अधिक हो भगवान् का स्मरण जप करते रहें,   हर पल जो भी कर्म करो बहुत सोच कर करें। क्योंकि कर्म परछाईं की तरह मनुष्य के साथ रहते है। इसलिये सदा शुभ कर्मों की शीतल छाया में रहें।


 वैसे भी कर्मों की ध्वनि शब्दों की धवनि से अधिक ऊँची होती है।


अतः सदा कर्म सोच विचार कर करें। जिस प्रकार धनुष में से तीर छूट जाने के बाद वापस नहीं आता, इसी प्रकार जो कर्म आपसे हो गया वह उस पल का कर्म वापस नहीं होता चाहे अच्छा हो या बुरा।


इसलिये इससे पहले कि आत्मा इस शरीर को छोड़ जाये, शरीर मेँ रहते हुए आत्मा को यानी स्वयं को जान लें और जितना अधिक हो सके मन से, वचन से, कर्म से भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण का ध्यान, चिंतन, जप कीर्तन करते रहें, निरन्तर स्मरण से हम यम पाश से तो बचेंगे ही बचेंगे, साथ ही हमें भगवत् धाम भी प्राप्त हो सकेगा जो कि जीवन

 का वास्तविक लक्ष्य है ।


आयुष्यक्षणमेकोSपि न लभ्यः स्वर्णकोटिभिः


स वृथा नीयते येन तस्मै मूढात्मने नमः।।


।। हरिः ओम् तत् सत् ।।


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 


( साभार )

भारतीय इतिहास की भयंकर भूल

 


भारतीय इतिहास की भयंकर भूले काला_पहाड़

बांग्लादेश यह नाम स्मरण होते ही भारत के पूर्व में एक बड़े भूखंड का नाम स्मरण हो उठता है। 

जो कभी हमारे देश का ही भाग था।

 जहाँ कभी बंकिम के ओजस्वी आनंद मठ, कभी टैगोर की हृद्यम्य कवितायेँ, कभी अरविन्द का दर्शन, कभी वीर सुभाष की क्रांति ज्वलित होती थी। 


आज बंगाल प्रदेश एक मुस्लिम राष्ट्र के नाम से प्रसिद्द है। जहाँ हिन्दुओं की दशा दूसरे दर्जें के नागरिकों के समान हैं। 

क्या बंगाल के हालात पूर्व से ऐसे थे? बिलकुल नहीं। अखंड भारतवर्ष की इस धरती पर पहले हिन्दू सभ्यता विराजमान थी।

कुछ ऐतिहासिक भूलों ने इस प्रदेश को हमसे सदा के लिए दूर कर दिया। एक ऐसी ही भूल का नाम कालापहाड़ है।

 बंगाल के इतिहास में काला पहाड़ का नाम एक अत्याचारी के नाम से स्मरण किया जाता है। काला पहाड़ का असली नाम कालाचंद राय था। कालाचंद राय एक बंगाली ब्राहण युवक था।


पूर्वी बंगाल के उस वक्‍त के मुस्लिम शासक की बेटी को उससे प्‍यार हो गया। बादशाह की बेटी ने उससे शादी की इच्‍छा जाहिर की। 

वह उससे इस कदर प्‍यार करती थी। वह उसने इस्‍लाम छोड़कर हिंदू विधि से उससे शादी करने के लिए तैयार हो गई। 

ब्राहमणों को जब पता चला कि कालाचंद राय एक मुस्लिम राजकुमारी से शादी कर उसे हिंदू बनाना चाहता है तो ब्राहमण समाज ने कालाचंद का विरोध किया। 


उन्होंने उस मुस्लिम युवती के हिंदू धर्म में आने का न केवल विरोध किया, बल्कि कालाचंद राय को भी जाति बहिष्‍कार की धमकी दी। कालाचंद राय को अपमानित किया गया। अपने अपमान से क्षुब्ध होकर कालाचंद गुस्‍से से आग बबुला हो गया और उसने इस्‍लाम स्‍वीकारते हुए उस युवती से निकाह कर उसके पिता के सिंहासन का उत्‍तराधिकारी हो गया। अपने अपमान का बदला लेते हुए राजा बनने से पूर्व ही उसने तलवार के बल पर ब्राहमणाों को मुसलमान बनाना शुरू किया।


 उसका एक ही नारा था मुसलमान बनो या मरो। पूरे पूर्वी बंगाल में उसने इतना कत्‍लेआम मचाया कि लोग तलवार के डर से मुसलमान होते चले गए। इतिहास में इसका जिक्र है कि पूरे पूर्वी बंगाल को इस अकेले व्‍यक्ति ने तलवार के बल पर इस्‍लाम में धर्मांतरित कर दिया। यह केवल उन मूर्ख, जातिवादी, अहंकारी व हठधर्मी ब्राहमणों को सबक सिखाने के उददेश्‍य से किया गया था। उसकी निर्दयता के कारण इतिहास उसे काला पहाड़ के नाम से जानती है। अगर अपनी संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर कुछ हठधर्मी ब्राह्मणों ने कालाचंद राय का अपमान न किया होता तो आज बंगाल का इतिहास कुछ ओर ही होता।।

अखण्ड भारत स्वप्न या सत्य



 अखण्ड_भारत: स्वप्न या सत्य.... आजादी का 75वां वर्ष है। देश अमृत महोत्सव मना रहा है। आजादी अपने साथ जनाधिकार, भागीदारी, समानता व समग्र विकास का लक्ष्य लेकर आयी। लेकिन जो डूरंड व रेडक्लिफ रेखाओं से विभाजन का अभिशाप था उससे मुक्ति हमारे नये नेताओं का लक्ष्य नहीं बना। क्या गांधार काबुल से लेकर रंगून तक विस्तारित अपनी अखण्ड सांस्कृतिक भूमि तक पहुंचने का हमारा स्वप्न, स्वप्न ही रहेगा? 


हमारा सबसे बड़ा विष्णु मंदिर अंकोरवाट कम्बोडिया में है। हमारी संस्कृति धर्म व इतिहास गांधार अफगानिस्तान से म्यानमार इंडोनेशिया तक इस अखण्ड सांस्कृतिक क्षेत्र के कण कण में मुखर है। लेकिन यह भी सत्य है कि राष्ट्रवादी हिंदू संगठनों विशेषकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अतिरिक्त कोई प्रभावी विमर्श सामने नहीं आया है। आज हमारा कोई ऐसा अध्ययन संस्थान भी नहीं है जो इस सांस्कृतिक-राजनैतिक एकता के विचार को समर्पित हो। लेकिन हम वसीम रिजवी, अली अकबर कालीदासी आदि बहुत से लोगों से बदलते समय की आहटें सुन रहे हैं। अखंडता बेचैन होकर अपना मार्ग तलाश रही है।


हमारा बिखराव आठवीं शताब्दी से हो रहे इस्लामिक आक्रमणों से प्रारंभ होता है। आजादी के आंदोलन के दौरान अस्तित्व में आयी सत्ता आकांक्षी राजनीति ने अपना भविष्य धर्म से विभाजित हुए भारत में देखा। देश को बांटने वाले ही जब सत्ता में आ गये तो अखण्ड भारत उनका लक्ष्य हो, यह संभव ही नहीं था। उन्होंने देश को बांटा फिर कश्मीर को बांटा। जो चला गया वह उन्हें वापस नहीं चाहिए था।


इस खण्डित भारत के विद्यालयों में हमें कभी अफगानिस्तान, पंजाब, सिंध, श्रीलंका, म्यांमार व सुदूर श्रीविजय साम्राज्य का इतिहास नहीं पढ़ाया गया। आजाद भारत के नये शासकों को चिंता तो यह थी कि यदि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जागरण हो गया तो उनके सत्ता के मुख्य उपकरण छद्म धर्मनिरपेक्षता का क्या होगा? यह विभाजन के गुनाहगारों की मूल समस्या थी।


वे जो इस्लामिक सेनाओं से गांधार, गजनी, काबुल, पुरुषपुर और जाबुल की पश्चिमी सरहद पर सैकड़ों वर्ष तक जूझते रहे, आज हमें उनके नाम भी नहीं मालूम हैं। आज का अफगानिस्तान, सम्पूर्ण पंजाब, सिंधु प्रदेश इतिहास के प्रारंभ से आर्य सभ्यता का आदि क्षेत्र रहा है। यही पंजाब है जहां की सात नदियों के तटों पर वेदों की रचना हुई, जहां का महान् हिंदूशाही राज्य 250 वर्षों तक विधर्मियों से लड़ता रहा। 


जिन लोगों ने अपना बलिदान देकर 450 वर्षों तक इस्लामिक आक्रांताओं को सीमाओं पर रोके रखा, वे तो वही पुरु की सेना के वारिस वीर सैनिक थे, जिन्होंने कभी विश्व विजयी सिकंदर को वापस जाने को मजबूर कर दिया था। अरब आक्रांता, पंजाब सिंध से वापस खदेड़ दिये गये थे। बकौल अरब इतिहासकार अरब सेनाओं को भागने के लिए जमीन कम पड़ गयी थी। ऐसे बहादुर जुझारू योद्धा, बहादुर सैनिक आखिर धर्मपरिवर्तन को क्यों मजबूर हुए? जब वे जूझ रहे थे तब शेष भारत उनके पीछे दीवार बन कर क्यों खड़ा नहीं हुआ? 


अपना सिर कटा देना उन योद्धाओं के लिए क्या मुश्किल था? लेकिन अपने पीछे बेटियों और पत्नियों को कैसे भेड़ियों के हवाले चले जाने दें? ये जो आठवीं शताब्दी से लेकर आज तक धर्म रक्षा के युद्धों में दस करोड़ हिंदुओं की आहुति हुई है, इसमें गांधार पंजाब के हिंदुओं का एक बड़ा हिस्सा रहा है।


अपनी पुत्रियों, महिलाओं को अपहरण व बलात्कार से बचाने के लिए पीढ़ियों से युद्धरत हिंदू समाज कन्वर्जन को बाध्य हुआ। भारत की मुख्यभूमि में उस संक्रमण कालखण्ड में संभवतः रणनैतिक दायित्वबोध, धर्मरक्षाभाव विहीनता के कारण तराइन पानीपत जैसे युद्ध हिंदुकुश, गांधार में न होकर भारत भूमि पर दिल्ली के निकट आकर हुए। छोटे राज्यों के ये बड़ी उपाधियों वाले राजा देश के महान सम्राटों चंद्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त, विक्रमादित्य, कनिष्क का इतिहास भूल चुके थे। 


जब जेहादी सुलतानों ने मुख्यभूमि में आकर कटे हुए सरों की मीनारें सजानी शुरू कीं, मजहब के अनुसार मंदिरों देव मूर्तियों को तोड़ना, जजिया लगाना, बहनों बेटियों को गुलाम व रखैलें बनाना और बाजारों में बेचना प्रारंभ किया, तब धनाढ्य मोटे राजाओं, सेठों, मठाधीशों को समझ में आया कि गांधार व पंजाब पर पिछले चार सौ वर्षों से क्या बीत रहा था।

कतिपय सुविधा आकांक्षी नगरजीवी दरबारियों में लालच, सत्ता की आकांक्षा, लूट में हिस्सेदारी का भाव हो सकता है। लेकिन कन्वर्जन मूलतः तलवार से बलात् हुआ। लेकिन जब कभी समय आया तो भी अपने इस धर्म दूषित समाज को धर्म में वापस लाने का कोई अभियान नहीं चलाया गया। यहीं से अखण्ड भारत का संकट प्रारंभ हुआ। बहुत से लोग तो आज भी उस दिवस की प्रतीक्षा में हैं, जब धर्म के द्वार उनके लिए खुलेंगे।


 आज तो हमारे सामने इंडोनेशिया की राजकुमारी सुकमावती सुकर्णोपुत्री व उनके साथ हिंदू धर्म में वापस आए हजारों इंडोनेशियाइयों का गर्व करने वाला आह्लादकारी उदाहरण भी है। अब धर्माधिकारियों के सम्मुख धर्म में वापसी का अभियान न चलाने का कोई बहाना भी नहीं है।


हमारी पीढ़ियों को अपने देश-धर्म के बलिदानों का असल इतिहास जानना कितना जरूरी हो गया है। हम अपने धर्मांतरित समाज को, उनकी परंपरा व इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में बताएं और जब भी कभी अवसर बने, उन्हें विधर्मियों के इंद्रजाल से निकाल कर वापस ले आने का आह्वान भी करें। 


यही भविष्य की अखण्डता की दिशा होगी। जो मोर्चा कल गांधार मुलतान में था, वह आज मुख्य भूमि में बंगाल, केरल तक लगा है। यह युद्धरत भारत है। हम मध्यांतर को युद्ध का समापन न समझें। इसमें सभी की भूमिका है।

धारा 370 गयी तो हमें पीओके स्पष्ट दिखने लगा। इसी तरह जब डूरंड और रेडक्लिफ लाइनों के मध्य अंग्रेजों द्वारा बनाया गया नकली देश पाकिस्तान जाएगा, तब हमें गांधार का मार्ग भी साफ दिखेगा। हमें उन सरहदों तक पहुंचना है जो हमारे पूर्वजों ने, हमारे इतिहास ने हमें दी हैं। हम वो नहीं हैं जो धर्मशत्रुओं के साथ सह-अस्तित्व को लक्ष्य बनाएं। 


पाकिस्तान का अस्तित्व अखण्ड भारत के लक्ष्य में सबसे बड़ी बाधा है। उनसे बड़ी बाधा है यहां विकसित हो गया पाक-समर्थक राष्ट्र विरोधी राजनैतिक तंत्र। अतः भारत का सशक्त होते जाना पाकिस्तान विचारधारा की स्वाभाविक पराजय है।


भारत और स्पेन लगभग समान काल तक विधर्मियों के गुलाम रहे थे। स्पेन में धर्मयुद्धों के बाद आज उस गुलामी के निशान भी नहीं हैं। सबकी घर वापसी हो गयी। यहां उसी समयकाल में खानवा में राणा सांगा की हार हुई और मुगल साम्राज्य स्थापित हो गया। अखण्ड भारत समझौतापरस्तों का स्वप्न नहीं है। आपका लक्ष्य यदि सबल समृद्ध भारत है तो आप स्वतः अखण्ड भारत के योद्धा हैं। सामाजिक एकता, अखण्ड भारत की सबसे बड़ी शक्ति होगी। अखण्डता मात्र राजनैतिक विचार नहीं बल्कि एकात्म सांस्कृतिक रणनीति भी है। एक महान् लक्ष्य जिसकी कार्ययोजना को आकार दिया जाना अभी शेष है।


साभार- पाथेय कण

हिंदू धर्म का इतिहास

 हमारा धर्म पहले संपूर्ण धरती पर व्याप्त था।




पहले धरती के सात द्वीप थे- जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौंच, शाक एवं पुष्कर। इसमें से जम्बूद्वीप सभी के बीचोबीच स्थित है। राजा प्रियव्रत संपूर्ण धरती के और राजा अग्नीन्ध्र सिर्फ जम्बूद्वीप के राजा थे। 


जम्बूद्वीप में नौ खंड हैं- इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। इसमें से भारतखंड को भारत वर्ष कहा जाता था। भारतवर्ष के 9 खंड हैं- इसमें इन्द्रद्वीप, कसेरु, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व और वारुण तथा यह समुद्र से घिरा हुआ द्वीप उनमें नौवां है। भारतवर्ष के इतिहास को ही हिन्दू धर्म का इतिहास नहीं समझना चाहिए।


ईस्वी सदी की शुरुआत में जब अखंड भारत से अलग दुनिया के अन्य हिस्सों में लोग पढ़ना-लिखना और सभ्य होना सीख रहे थे, तो दूसरी ओर भारत में विक्रमादित्य, पाणीनी, चाणक्य जैसे विद्वान व्याकरण और अर्थशास्त्र की नई इमारत खड़ी कर रहे थे। इसके बाद आर्यभट्ट, वराहमिहिर जैसे विद्वान अंतरिक्ष की खाक छान रहे थे। वसुबंधु, धर्मपाल, सुविष्णु, असंग, धर्मकीर्ति, शांतारक्षिता, नागार्जुन, आर्यदेव, पद्मसंभव जैसे लोग उन विश्वविद्यालय में पढ़ते थे जो सिर्फ भारत में ही थे। तक्षशिला, विक्रमशिला, नालंदा आदि अनेक विश्व विद्यालयों में देश विदेश के लोग पढ़ने आते थे।


तो यदि आप हिन्दू हैं , तो गर्व कीजिए कि आप एक महान विरासत का हिस्सा हैं, अपने धर्मग्रंथो का अध्ययन कीजिये और उनके ज्ञान से स्वयं को उन्नत और श्रेष्ठ बनाइये । और यदि आप हिन्दू नहीं भी हैं तब भी हर मनुष्य को स्वयं को अच्छाई की और ले जाने का जन्मजात हक है । आइये और हिंदुत्व की महान विरासत से, अद्भुत ज्ञान से अपने जीवन का निर्माण कीजिये । और प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं।


जय श्री राम

मृत्युंजय महादेव साधना महातम्य-


 


स्वास्थ्य एक बहुत बड़ा धन है । बिना इस धन के हुए आप अन्य किसी धन का सुखोपभोग वास्तव में कर हि नहीं सकते हैँ। 


मनुष्य के शरीर में अगर बाहर एक जरा सा चोट या कट लग जाए तो व्यक्ति तत्काल दर्द से दुःखी हो जाता है और उसका उपचार करता हैँ।


लेकिन जब आपके शरीर में भीतर कोई अनियमित्ता होता है तो आप उसे तब तक नहीं जान सकते हैँ जब तक की वोह एक सीमा तक और ज्यादा नहीं बढ़ जाता हैँ।


और कई एक बार तो आप को इसकी अनुभूति अथवा संज्ञान तब होता है जब की उसका उपचार ही संभव न शेष हो ।


दूसरा है मृत्यु भय कब किस पल् व्यक्ति की किसी दुर्घटना से अथवा किसी अन्य कारणों से मृत्यु नहीं हो जाए कौन जानता है?


और ये मृत्यु भय परिवार के अन्य सदस्यों के लिए भी हो सकता हैँ।


तीसरा जीवन में कभी कभार जब विभिन्न महादशाओं में राहु अथवा शनि ग्रह् एक आगमन होता है तो कई एक बार ग्रहों के  बलाबल के कारण व्यक्ति अत्यंत जटिल समस्याओ से गुजरता तो


उसे ऐसा लगाता है जैसे अब सब कुछ आने वाले समय में नष्ट होने हि वाला हैँ।


या फिर अब जीवन समाप्त होने वाला हैँ।


और ऐसी स्थितिओ में एक विशेष बात यह भी होता है की वह व्यक्ति दिग्भ्रमित हो जाता हैँ। 


उसका विवेक उसका साथ छोड़ जाता हैँ। उसे समझ हि नहीं आता है की क्या करें क्या नहीं करें ।


विशेषतया उन क्रियायो उन विधियों से जिस से उसका कल्याण हो सकता है उसी से ये ग्रह उसे उच्चाटित किए देते हैँ।


सामान्य व्यक्ति क्या स्वयं को साधक मानने वाले वर्ग के बड़े बड़े बाबा और गुरु ही सबसे ज्यादा पीड़ित होते हैँ।


ये तो थी समस्याएं अब आते हैँ इनके समाधान पर 


समाधान है मृत्युंजय साधना ।


अगले लेख में इस साधना को लिखेंगे ।


*मृत्युंजय महादेव साधना-*


शिव जी का ही नाम है मृत्युंजय


इसलिए कि मात्र वो ही मृत्यु से भी अभय देने वाले औघड़दानी हैं।


यह साधना मुख्यतः निम्न उद्देश्य के लिए करें -


 मरनोन्मुखी रोगी को पुनः स्वस्थ करने हेतु ।

 जब आपके देवी देवता आपके इष्ट भी कठिन काल में आपकी नहीं सुने उस समय इस साधना का आश्रय लें ।

 सभी ग्रहों के दोषों के समाधान के लिए करें । विशेषकर शनि राहु केतु अथवा किसी भी मारकेश के दशाओं के दुष्प्रभाव निवारणार्थ

 जब भी आपकी स्थिति को देखते हुए गुरु आज्ञा हो 


आज हम ज्यादा बात नहीं करके सीधे साधना पर आगे बढ़ते हैं।


इस महा साधना के 5 आवश्यक चरण हैं।


गुरु निर्दिष्ट संकल्प

शिव परिवार का पूजन

शिव लिंग का अभिषेक

मृत्युंजय जप 

यज्ञ


यदि यह साधना किसी के प्राण रक्षार्थ सम्पन्न कर या करवा रहे हैं तो यह आवश्यक है कि साधना में लक्षित जप संख्या को कम से कम दिनों में पूर्ण कर दिया जाए।


और इस उद्देश्य के निमित्त इस साधना को समूह में भी कर सकते हैं। 4-5 लोग मिलकर निर्धारित जप संख्या को पूर्ण कर सकते हैं।


आवश्यकता है कि सब के सब को गुरु आज्ञा हो सब सामान्य साधनात्मक क्रम को जानने वाले हों । वो सभी एक ही संकल्प लेंगे । एवं उनमें से कोई एक संकल्प का उच्चारण करेगा बाकी दुहराते जाएंगे ।


पूजन अभिषेक आदि के सभी मंत्र सभी पढ़ें यद्यपि व्यवहारिक उपचार अर्पण उनमें से कोइ एक ही कर लें ।


जब प्रयोग स्वयं ही स्वयं के लिए करना है तो भी यह श्रेष्ठ होता है की अपनी शारीरिक क्षमता से ऊपर उठकर कम से कम दिनों में निर्धारित जप संख्या को पूर्ण कर दिया जाए ।


इससे साधना का अद्भुत और वास्तविक प्रभाव निःसंदेह स्वतः प्रकट होगा ही...!!!




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राष्ट्रीय युवा दिवस

 National Youth Day 2022: यूं ही नहीं युवाओं के प्रेरणास्रोत बने स्वामी विवेकानंद, राष्ट्रीय युवा दिवस पर स्वामी विवेकानंद जी के  10 अनमोल विचार



National Youth Day 2022: स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) अपने ओजपूर्ण और बेबाक भाषणों के कारण काफी लोकप्रिय हुए, खासकर युवाओं के बीच. यही कारण है कि उनके जन्मदिन को पूरा राष्ट्र 'युवा दिवस' के रूप में मनाता है. उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए’ का संदेश देने वाले युवाओं के प्रेरणास्रोत, समाज सुधारक युवा युग-पुरुष ‘स्वामी विवेकानंद’ (Swami Vivekananda) का आज जन्मदिन है. 12 जनवरी 1863 को उनका जन्म कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) में हुआ था. हर साल इसी दिन (12 जनवरी) को राष्ट्रीय युवा दिवस (National Youth Day 2022) के रूप में मनाया जाता है. स्वामी विवेकानंद अपने ओजपूर्ण और बेबाक भाषणों के कारण काफी लोकप्रिय हुए, खासकर युवाओं के बीच. यही कारण है कि उनके जन्मदिन को पूरा राष्ट्र ‘युवा दिवस’ के रूप में मनाता है. स्वामी विवेकानंद का नाम इतिहास में एक ऐसे विद्वान के रूप में दर्ज है, जिन्होंने मानवता की सेवा को अपना सर्वोपरि धर्म माना.


उन्होंने मानवता की सेवा एवं परोपकार के लिए 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की. इस मिशन का नाम विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के नाम पर रखा. स्वामी विवेकानंद का रोम रोम राष्ट्रभक्ति से ओत प्रोत था. स्वामी जी मानवता की सेवा एवं परोपकार को ही भगवान की सच्ची पूजा मानते थे. स्वामी विवेकानंद को यु्वाओं से बड़ी उम्मीदें थीं. उन्होंने युवाओं को धैर्य, व्यवहारों में शुद्ध‍ता रखने, आपस में न लड़ने, पक्षपात न करने और हमेशा संघर्षरत रहने का संदेश दिया. आज भी वे कई युवाओं के लिए प्रेरणा के स्त्रोत बने हुए हैं. आज भी स्वामी विवेकानंद को उनके विचारों और आदर्शों के कारण जाना जाता है. ऐसे में आइए हम आपको उनके जन्मदिन के अवसर पर बताते हैं उनके 10 अनमोल विचार…


उठो, जागो और तब तक नहीं रुको, जब तक कि लक्ष्य न प्राप्त हो जाए.

जिस समय जिस काम के लिए प्रतिज्ञा करो, ठीक उसी समय पर उसे करना ही चाहिए, नहीं तो लोगों का विश्वास उठ जाता है.

जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते, तब तक आप भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते.

सत्य को हजार तरीकों से बताया जा सकता है, फिर भी हर एक सत्य ही होगा.

जिस दिन आपके सामने कोई समस्या न आए, आप यकीन कर सकते हैं कि आप गलत रास्ते पर सफर कर रहे हैं.

विश्व एक व्यायामशाला है, जहां हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं.

यह जीवन अल्पकालीन है, संसार की विलासिता क्षणिक है, लेकिन जो दूसरों के लिए जीते हैं, वे वास्तव में जीते हैं.

जिस तरह से विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न धाराएं अपना जल समुद्र में मिला देती हैं, उसी प्रकार मनुष्य द्वारा चुना हर मार्ग चाहे वह अच्छा हो या बुरा, भगवान तक जाता है.

हम वो हैं, जो हमें हमारी सोच ने बनाया है इसलिए इस बात का ध्यान रखिए कि आप क्या सोचते हैं. शब्द गौण हैं, विचार रहते हैं, वे दूर तक यात्रा करते हैं.

उठो मेरे शेरों, इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल हो, तुम एक अमर आत्मा हो, स्वच्छंद जीव हो, धन्य हो, सनातन हो, तुम तत्व नहीं हो, न ही शरीर हो, तत्व तुम्हारा सेवक है, तुम तत्व के सेवक नहीं हों.

आदित्य-हृदय स्तोत्र (Aditya Hridaya Stotra) मकर संक्रान्ति स्पेशल

 आदित्य-हृदय स्तोत्र (Aditya Hridaya Stotra)



आदित्यहृदयम् सूर्य देव की स्तुति के लिए वाल्मीकि रामायण के लंकाकाण्ड (युद्धकाण्ड) मे लिखे मंत्र हैं। जब राम, रावण से युद्ध के लिये रणक्षेत्र में आमने-सामने थे, उस समय अगस्त्य ऋषि ने श्री राम को सूर्य देव की स्तुति करने की सलाह दी। आदित्यहृदयम् में कुल ३० श्लोक हैं तथा इन्हें ६ भागों में बाँटा जा सकता हैं।


आज के समय मे, आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ, नौकरी में पदोन्नति, धन प्राप्ति, प्रसन्नता, आत्मविश्वास के साथ-साथ समस्त कार्यों में सफलता पाने तथा मनोकामना सिद्ध करने मे किया जाता है।


आदित्यहृदय स्तोत्र

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् ।

रावणं चाग्रतो दृष्टवा युद्धाय समुपस्थितम् ॥1॥


दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् ।

उपगम्याब्रवीद् राममगरत्यो भगवांस्तदा ॥2॥


राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम् ।

येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे ॥3॥


आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम् ।

जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ॥4॥


सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम् ।

चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वधैनमुत्तमम् ॥5॥


रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम् ।

पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥6॥


सर्वदेवतामको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः ।

एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः ॥7॥


एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः ।

महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ॥8॥


पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः ।

वायुर्वन्हिः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः ॥9॥


आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गर्भास्तिमान् ।

सुवर्णसदृशो भानुहिरण्यरेता दिवाकरः ॥10॥


हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान् ।

तिमिरोन्मथनः शम्भूस्त्ष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान् ॥11॥


हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहरकरो रविः ।

अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः ॥12॥


व्योमनाथस्तमोभेदी ऋम्यजुःसामपारगः ।

घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥13॥


आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः ।

कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोदभवः ॥14॥


नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः ।

तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ॥15॥


नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः ।

ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ॥16॥


जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः ।

नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ॥17॥


नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः ।

नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥18॥


ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूरायदित्यवर्चसे ।

भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ॥19॥


तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने ।

कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ॥20॥


तप्तचामीकराभाय हस्ये विश्वकर्मणे ।

नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥21॥


नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः ।

पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ॥22॥


एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः ।

एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम् ॥23 ॥


देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च ।

यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः ॥24॥


एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च ।

कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव ॥25॥


पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम् ।

एतत् त्रिगुणितं जप्तवा युद्धेषु विजयिष्ति ॥26॥


अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि ।

एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ॥27॥


एतच्छ्रुत्वा महातेजा, नष्टशोकोऽभवत् तदा ।

धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान् ॥28॥


आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान् ।

त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥29॥


रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थे समुपागमत् ।

सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ॥30॥


अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितनाः परमं प्रहृष्यमाणः ।

निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥31 ॥


हिन्दी भावार्थ :- उधर श्री रामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिन्ता करते हुए रणभूमि में खड़े थे । इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया । यह देख भगवान अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आये थे, श्रीराम के पास जाकर बोले ॥ 1-2


सबके हृदय में रमण करने वाले महाबाहो राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो । वत्स ! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय पा जाओगे ॥ 3

इस गोपनीय स्तोत्र का नाम है आदित्यहृदय । यह परम पवित्र और सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला है । इसके जप से सदा विजय की प्राप्ति होती है । यह नित्य अक्ष्य और परम कल्याणमय स्तोत्र है । सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है । इससे सब पापों का नाश हो जाता है । यह चिन्ता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने वाला उत्तम साधन है ॥ 4-5


भगवान सूर्य अपनी अनन्त किरणों से सुशोभित (रश्मिमान्) हैं । ये नित्य उदय होने वाले (समुद्यन्), देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान् नाम से प्रसिद्ध, प्रभा का विस्तार करने वाले (भास्कर) और संसार के स्वामी (भुवनेश्वर) हैं । तुम इनका (रश्मिमते नमः, समुद्यते नमः, देवासुरनमस्कताय नमः, विवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराय नमः इन नाम मंत्रों के द्वारा) पूजन करो ॥ 6


सम्पूर्ण देवता इन्हीं के स्वरूप हैं । ये तेज की राशि तथा अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं । ये ही अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित सम्पूर्ण लोकों का पालन करते हैं ॥ 7

ये ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरूण, पितर, वसु, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुदगण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओं को प्रकट करने वाले तथा प्रभा के पुंज हैं ॥ 8


इन्हीं के नाम आदित्य (अदितिपुत्र), सविता (जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य (सर्वव्यापक), खग (आकाश में विचरने वाले), पूषा (पोषण करने वाले), गभस्तिमान् (प्रकाशमान), सुर्वणसदृश, भानु (प्रकाशक), हिरण्यरेता (ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बीज), दिवाकर (रात्रि का अन्धकार दूर करके दिन का प्रकाश फैलाने वाले), हरिदश्व (दिशाओं में व्यापक अथवा हरे रंग के घोड़े वाले), सहस्रार्चि (हजारों किरणों से सुशोभित), तिमिरोन्मथन (अन्धकार का नाश करने वाले), शम्भू (कल्याण के उदगमस्थान), त्वष्टा (भक्तों का दुःख दूर करने अथवा जगत का संहार करने वाले), अंशुमान (किरण धारण करने वाले), हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शिशिर (स्वभाव से ही सुख देने वाले), तपन (गर्मी पैदा करने वाले), अहरकर (दिनकर), रवि (सबकी स्तुति के पात्र), अग्निगर्भ (अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले), अदितिपुत्र, शंख (आनन्दस्वरूप एवं व्यापक), शिशिरनाशन (शीत का नाश करने वाले), व्योमनाथ (आकाश के स्वामी), तमोभेदी (अन्धकार को नष्ट करने वाले), ऋग, यजुः और सामवेद के पारगामी, घनवृष्टि (घनी वृष्टि के कारण), अपां मित्र (जल को उत्पन्न करने वाले), विन्ध्यीथीप्लवंगम (आकाश में तीव्रवेग से चलने वाले), आतपी (घाम उत्पन्न करने वाले), मण्डली (किरणसमूह को धारण करने वाले), मृत्यु (मौत के कारण), पिंगल (भूरे रंग वाले), सर्वतापन (सबको ताप देने वाले), कवि (त्रिकालदर्शी), विश्व (सर्वस्वरूप), महातेजस्वी, रक्त (लाल रंगवाले), सर्वभवोदभव (सबकी उत्पत्ति के कारण), नक्षत्र, ग्रह और तारों के स्वामी, विश्वभावन (जगत की रक्षा करने वाले), तेजस्वियों में भी अति तेजस्वी तथा द्वादशात्मा (बारह स्वरूपों में अभिव्यक्त) हैं । (इन सभी नामों से प्रसिद्ध सूर्यदेव !) आपको नमस्कार है ॥ 9-10-11-12-13-14-15

पूर्वगिरी उदयाचल तथा पश्चिमगिरि अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है । ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है ॥ 16


आप जय स्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता है । आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुते रहते हैं । आपको बारंबार नमस्कार है । सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य ! आपको बारंबार प्रणाम है । आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से प्रसिद्ध है, आपको नमस्कार है ॥ 17


(परात्पर रूप में) आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी हैं । सूर आपकी संज्ञा हैं, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाला अग्नि आपका ही स्वरूप है, आप रौद्ररूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है ॥ 18


(परात्पर-रूप में) आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी हैं । सूर आपकी संज्ञा है, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाला अग्नि आपका ही स्वरूप है, आप रौद्ररूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है ॥ 19

आप अज्ञान और अन्धकार के नाशक, जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं, आपका स्वरूप अप्रमेय है । आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, सम्पूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देवस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है ॥ 20


आपकी प्रभा तपाये हुए सुवर्ण के समान है, आप हरि (अज्ञान का हरण करने वाले) और विश्वकर्मा (संसार की सृष्टि करने वाले) हैं, तम के नाशक, प्रकाशस्वरूप और जगत के साक्षी हैं, आपको नमस्कार है ॥ 21


रघुनन्दन ! ये भगवान सूर्य ही सम्पूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं । ये ही अपनी किरणों से गर्मी पहुँचाते और वर्षा करते हैं ॥ 22


ये सब भूतों में अन्तर्यामीरूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं । ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं ॥ 23


(यज्ञ में भाग ग्रहण करने वाले) देवता, यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं । सम्पूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं ॥ 24


राघव ! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता ॥ 25


इसलिए तुम एकाग्रचित होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर की पूजा करो । इस आदित्य हृदय का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे ॥ 26


महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे । यह कहकर अगस्त्य जी जैसे आये थे, उसी प्रकार चले गये ॥ 27


उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया । उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्धचित्त से आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान सूर्य की ओर देखते हुए इसका तीन बार जप किया । इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ । फिर परम पराक्रमी रघुनाथजी ने धनुष उठाकर रावण की ओर देखा और उत्साहपूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढ़े । उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया ॥ 28-29-30


उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर श्रीरामचन्द्रजी की ओर देखा और निशाचराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा रघुनन्दन ! अब जल्दी करो ॥ 31

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