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Pi network mining



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विश्वास

 8 साल का एक बच्चा 1 रूपये का सिक्का मुट्ठी में लेकर एक दुकान पर जाकर पूछने लगा,

--क्या आपकी दुकान में ईश्वर मिलेंगे?


दुकानदार ने यह बात सुनकर सिक्का नीचे फेंक दिया और बच्चे को निकाल दिया।


बच्चा पास की दुकान में जाकर 1 रूपये का सिक्का लेकर चुपचाप खड़ा रहा!


-- ए लड़के.. 1 रूपये में तुम क्या चाहते हो?

-- मुझे ईश्वर चाहिए। आपकी दुकान में है?


दूसरे दुकानदार ने भी भगा दिया।


लेकिन, उस अबोध बालक ने हार नहीं मानी। एक दुकान से दूसरी दुकान, दूसरी से तीसरी, ऐसा करते करते कुल चालीस दुकानों के चक्कर काटने के बाद एक बूढ़े दुकानदार के पास पहुंचा। उस बूढ़े दुकानदार ने पूछा,


-- तुम ईश्वर को क्यों खरीदना चाहते हो? क्या करोगे ईश्वर लेकर?


पहली बार एक दुकानदार के मुंह से यह प्रश्न सुनकर बच्चे के चेहरे पर आशा की किरणें लहराईं ৷ लगता है इसी दुकान पर ही ईश्वर मिलेंगे ! 

 बच्चे ने बड़े उत्साह से उत्तर दिया,


----इस दुनिया में मां के अलावा मेरा और कोई नहीं है। मेरी मां दिनभर काम करके मेरे लिए खाना लाती है। मेरी मां अब अस्पताल में हैं। अगर मेरी मां मर गई तो मुझे कौन खिलाएगा ? डाक्टर ने कहा है कि अब सिर्फ ईश्वर ही तुम्हारी मां को बचा सकते हैं। क्या आपकी दुकान में ईश्वर मिलेंगे?


-- हां, मिलेंगे...! कितने पैसे हैं तुम्हारे पास?


-- सिर्फ एक रूपए।


-- कोई दिक्कत नहीं है। एक रूपए में ही ईश्वर मिल सकते हैं।


दुकानदार बच्चे के हाथ से एक रूपए लेकर उसने पाया कि एक रूपए में एक गिलास पानी के अलावा बेचने के लिए और कुछ भी नहीं है। इसलिए उस बच्चे को फिल्टर से एक गिलास पानी भरकर दिया और कहा, यह पानी पिलाने से ही तुम्हारी मां ठीक हो जाएगी।


अगले दिन कुछ मेडिकल स्पेशलिस्ट उस अस्पताल में गए। बच्चे की मां का आप्रेशन हुआ और बहुत जल्दी ही वह स्वस्थ हो उठीं।


डिस्चार्ज के कागज़ पर अस्पताल का बिल देखकर उस महिला के होश उड़ गए। डॉक्टर ने उन्हें आश्वासन देकर कहा, "टेंशन की कोई बात नहीं है। एक वृद्ध सज्जन ने आपके सारे बिल चुका दिए हैं। साथ में एक चिट्ठी भी दी है"। 


महिला चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगी, उसमें लिखा था-

"मुझे धन्यवाद देने की कोई आवश्यकता नहीं है। आपको तो स्वयं ईश्वर ने ही बचाया है ...  मैं तो सिर्फ एक ज़रिया हूं। यदि आप धन्यवाद देना ही चाहती हैं तो अपने अबोध बच्चे को दीजिए जो सिर्फ एक रूपए लेकर नासमझों की तरह ईश्वर को ढूंढने निकल पड़ा। उसके मन में यह दृढ़ विश्वास था कि एकमात्र ईश्वर ही आपको बचा सकते है। विश्वास इसी को ही कहते हैं। ईश्वर को ढूंढने के लिए करोड़ों रुपए दान करने की ज़रूरत नहीं होती, यदि मन में अटूट विश्वास हो तो वे एक रूपए में भी मिल सकते हैं।"

 अगर पोस्ट प्रेरणादायक लगी हो तो शेयर कर दीजिए  और

कमेंट बॉक्स में अपने विचार अवश्य व्यक्त करें। 

पाशुपतास्त्र स्तोत्रम्

 


मात्र एक बार श्रद्धा से पढने से समस्त बाधाएँ दूर होती ही हैं। 


इस पाशुपत स्तोत्र का मात्र एक बार जप करने पर ही मनुष्य समस्त विघ्नों का नाश कर सकता है, सौ बार जप करने पर समस्त उत्पातों को नष्ट कर सकता है तथा युद्ध आदि में विजय प्राप्त कर सकता है। इस मंत्र का घी और गुग्गल से हवन करने से मनुष्य असाध्य कार्यो को पूर्ण कर सकता है, इस पाशुपातास्त्र मंत्र के पाठ मात्र से समस्त क्लेशों की शांति हो जाती है।

।जय सद्गुरुदेव, जय महांकाल।


।।पाशुपतास्त्र स्तोत्रम।।

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इस पाशुपत स्तोत्र का मात्र एक बार जप करने पर ही मनुष्य समस्त विघ्नों का नाश कर सकता है । सौ बार जप करने पर समस्त उत्पातो को नष्ट कर सकता है तथा युद्ध आदि में विजय प्राप्त के सकता है । इस मंत्र का घी और गुग्गल से हवं करने से मनुष्य असाध्य कार्यो को पूर्ण कर सकता है । इस पाशुपातास्त्र मंत्र के पाठ मात्र से समस्त क्लेशो की शांति हो जाती है । 


स्तोत्रम:-


ॐ नमो भगवते महापाशुपतायातुल बलवीर्यपराक्रमाय त्रिपन्चनयनाय नानारुपाय नानाप्रहरणोद्यताय सर्वांगडरक्ताय भिन्नांजनचयप्रख्याय श्मशान वेतालप्रियाय सर्वविघ्ननिकृन्तन रताय सर्वसिध्दिप्रदाय भक्तानुकम्पिने असंख्यवक्त्रभुजपादाय तस्मिन् सिध्दाय वेतालवित्रासिने शाकिनीक्षोभ जनकाय व्याधिनिग्रहकारिणे पापभन्जनाय सूर्यसोमाग्नित्राय विष्णु कवचाय खडगवज्रहस्ताय यमदण्डवरुणपाशाय रूद्रशूलाय ज्वलज्जिह्राय सर्वरोगविद्रावणाय ग्रहनिग्रहकारिणे दुष्टनागक्षय कारिणे ।

ॐ कृष्णपिंग्डलाय फट । हूंकारास्त्राय फट । वज्र हस्ताय फट । शक्तये फट । दण्डाय फट । यमाय फट । खडगाय फट । नैऋताय फट । वरुणाय फट । वज्राय फट । पाशाय फट । ध्वजाय फट । अंकुशाय फट । गदायै फट । कुबेराय फट । त्रिशूलाय फट । मुदगराय फट । चक्राय फट । पद्माय फट । नागास्त्राय फट । ईशानाय फट । खेटकास्त्राय फट । मुण्डाय फट । मुण्डास्त्राय फट । काड्कालास्त्राय फट । पिच्छिकास्त्राय फट । क्षुरिकास्त्राय फट । ब्रह्मास्त्राय फट । शक्त्यस्त्राय फट । गणास्त्राय फट । सिध्दास्त्राय फट । पिलिपिच्छास्त्राय फट । गंधर्वास्त्राय फट । पूर्वास्त्रायै फट । दक्षिणास्त्राय फट । वामास्त्राय फट । पश्चिमास्त्राय फट । मंत्रास्त्राय फट । शाकिन्यास्त्राय फट । योगिन्यस्त्राय फट । दण्डास्त्राय फट । महादण्डास्त्राय फट । नमोअस्त्राय फट । शिवास्त्राय फट । ईशानास्त्राय फट । पुरुषास्त्राय फट । अघोरास्त्राय फट । सद्योजातास्त्राय फट । हृदयास्त्राय फट । महास्त्राय फट । गरुडास्त्राय फट । राक्षसास्त्राय फट । दानवास्त्राय फट । क्षौ नरसिन्हास्त्राय फट । त्वष्ट्रास्त्राय फट । सर्वास्त्राय फट । नः फट । वः फट । पः फट । फः फट । मः फट । श्रीः फट । पेः फट । भूः फट । भुवः फट । स्वः फट । महः फट । जनः फट । तपः फट । सत्यं फट । सर्वलोक फट । सर्वपाताल फट । सर्वतत्व फट । सर्वप्राण फट । सर्वनाड़ी फट । सर्वकारण फट । सर्वदेव फट । ह्रीं फट । श्रीं फट । डूं फट । स्त्रुं फट । स्वां फट । लां फट । वैराग्याय फट । मायास्त्राय फट । कामास्त्राय फट । क्षेत्रपालास्त्राय फट । हुंकरास्त्राय फट । भास्करास्त्राय फट । चंद्रास्त्राय फट । विघ्नेश्वरास्त्राय फट । गौः गां फट । स्त्रों स्त्रौं फट । हौं हों फट । भ्रामय भ्रामय फट । संतापय संतापय फट । छादय छादय फट । उन्मूलय उन्मूलय फट । त्रासय त्रासय फट । संजीवय संजीवय फट । विद्रावय विद्रावय फट । सर्वदुरितं नाशय नाशय फट ।

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#स्तोत्रम् ●


ॐ नमो भगवते महापाशुपतायातुलबलवीर्यपराक्रमाय त्रिपन्चनयनाय नानारुपाय नानाप्रहरणोद्यताय सर्वांगडरक्ताय भिन्नांजनचयप्रख्याय श्मशान वेतालप्रियाय सर्वविघ्ननिकृन्तन रताय सर्वसिध्दिप्रदाय भक्तानुकम्पिने असंख्यवक्त्रभुजपादाय तस्मिन् सिध्दाय वेतालवित्रासिने शाकिनीक्षोभ जनकाय व्याधिनिग्रहकारिणे पापभन्जनाय सूर्यसोमाग्नित्राय विष्णु कवचाय खडगवज्रहस्ताय यमदण्डवरुणपाशाय रूद्रशूलाय ज्वलज्जिह्राय सर्वरोगविद्रावणाय ग्रहनिग्रहकारिणे दुष्टनागक्षय कारिणे।


ॐ कृष्णपिंग्डलाय फट।

हूंकारास्त्राय फट।

वज्र हस्ताय फट।

शक्तये फट।

दण्डाय फट।

यमाय फट।

खडगाय फट।

नैऋताय फट।

वरुणाय फट।

वज्राय फट।

पाशाय फट।

ध्वजाय फट।

अंकुशाय फट।

गदायै फट।

कुबेराय फट।

त्रिशूलाय फट।

मुदगराय फट।

चक्राय फट।

पद्माय फट।

नागास्त्राय फट।

ईशानाय फट।

खेटकास्त्राय फट।

मुण्डाय फट।

मुण्डास्त्राय फट।

काड्कालास्त्राय फट।

पिच्छिकास्त्राय फट।

क्षुरिकास्त्राय फट।

ब्रह्मास्त्राय फट।

शक्त्यस्त्राय फट।

गणास्त्राय फट।

सिध्दास्त्राय फट।

पिलिपिच्छास्त्राय फट।

गंधर्वास्त्राय फट।

पूर्वास्त्रायै फट।

दक्षिणास्त्राय फट।

वामास्त्राय फट।

पश्चिमास्त्राय फट।

मंत्रास्त्राय फट।

शाकिन्यास्त्राय फट।

योगिन्यस्त्राय फट।

दण्डास्त्राय फट।

महादण्डास्त्राय फट।

नमोअस्त्राय फट।

शिवास्त्राय फट।

ईशानास्त्राय फट।

पुरुषास्त्राय फट।

अघोरास्त्राय फट।

सद्योजातास्त्राय फट।

हृदयास्त्राय फट।

महास्त्राय फट।

गरुडास्त्राय फट।

राक्षसास्त्राय फट।

दानवास्त्राय फट।

क्षौ नरसिन्हास्त्राय फट।

त्वष्ट्रास्त्राय फट।

सर्वास्त्राय फट।

नः फट।

वः फट।

पः फट।

फः फट।

मः फट।

श्रीः फट।

पेः फट।

भूः फट।

भुवः फट।

स्वः फट।

महः फट।

जनः फट।

तपः फट।

सत्यं फट।

सर्वलोक फट।

सर्वपाताल फट।

सर्वतत्व फट।

सर्वप्राण फट।

सर्वनाड़ी फट।

सर्वकारण फट।

सर्वदेव फट।

ह्रीं फट।

श्रीं फट।

डूं फट।

स्त्रुं फट।

स्वां फट।

लां फट।

वैराग्याय फट।

मायास्त्राय फट।

कामास्त्राय फट।

क्षेत्रपालास्त्राय फट।

हुंकरास्त्राय फट।

भास्करास्त्राय फट।

चंद्रास्त्राय फट।

विघ्नेश्वरास्त्राय फट।

गौः गां फट।

स्त्रों स्त्रौं फट।

हौं हों फट।

भ्रामय भ्रामय फट।

संतापय संतापय फट।

छादय छादय फट।

उन्मूलय उन्मूलय फट।

त्रासय त्रासय फट।

संजीवय संजीवय फट।

विद्रावय विद्रावय फट।

सर्वदुरितं नाशय नाशय फट।

||करालं महाँकाल कालं कृपालं||

एक्सीडेंट क्यों होती है?

 


संसार में जन्म लेने के लिए माँ के गर्भ में *9 महीने* रुक सकते है।

चलने के लिए *2 वर्ष*,

स्कूल में प्रवेश के लिए *3 वर्ष,*

मतदान के लिए *18 वर्ष,*

नौकरी के लिए *22 वर्ष ,*

शादी के लिये *25 -30 वर्ष*,

इस तरह अनेक मौकों के लिए हम *इंतजार* करते है। लेकिन,,,,,,

गाड़ी *ओवरटेक* करते समय *30 सेकंड* भी नही रुकते,,,,।।

बाद में *एक्सीडेंट* होने के बाद *जिन्दा* रहे तो एक्सीडेंट निपटाने के लिए *कई घण्टे*, हॉस्पिटल में *कई दिन, महीने या साल* निकाल देते है।

*कुछ सेकंड* की गड़बड़ी कितना *भयंकर परिणाम* ला सकती है। जाने वाले चलें जाते हैं , पीछे वालों का क्या! इस पर विचार किया, कभी किया नहीं ।

फिर हर बार की तरह, सिर्फ *नियति* को ही दोष ।।

इसलिये *सही रफ्तार*, *सही दिशा* में व वाहन *संभल* कर चलायें *सुरक्षित* पहुंचे।

*आपका अपना मासूम परिवार आपका घर पर इंतजार कर रहा है।*


आप से निवेदन है इसे आगे फैलाने में मदद करें।क्या पता 1% लोग भी मेरे विचार से सहमत हो तो.......................................

बागेश्वर धाम की सच्चाई ?

 इस तस्वीर को गौर से देखिये

यह फोटो आज से चार माह पुरानी है !

जब बागेश्वर महाराज बुन्देलखण्ड पन्ना जिले के 90 प्रतिशत आदिवासी वनवासी इलाके कलदा पहाड़ पर श्रीराम कथा करने गए थे।


यह वो इलाका है जिसे धर्मान्तरण कराने वाली मिशनरियों और सनातन विरोधी अन्य संस्थाओं ने अपना चरागाह बनाकर रखा है। 

महराज ने यहां खुद टेंट पंडाल लगाया आदिवासियों को मंच पर बुलाकर उनसे आरती कराई,

अनेक लोगों की सनातन में धर्म बापसी कराई।


बस उसी दिन से जमीन पर बैठा यह 27 साल का लड़का देश की अनेक संस्थओं का दुश्मन बन गया।


इसके बाद दमोह में ईसाई बन चुके 300 परिवारों की घर बापीसी कराई तो इन विधर्मियो के सीने में आग लग गई।


यह तो होना ही था


लेकिन अब यह लड़ाई सिर्फ बागेश्वर महाराज जी की नही है।यह हर हिंदू की लड़ाई है।


मुझे नही पता बागेश्वर महाराज चमत्कार करते हैं !

या नहीं !

लेकिन मुझे पता है कि -

आज बागेश्वर महाराज जैसे संतों की सनातन को सख्त जरूरत है।


मैं इस लड़ाई में पंडित धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री जी महाराज जी के साथ हूं।


मेरा देश चादर और फादर का नही! 


सनातन और साधु संतो का है।


जय श्री हिंदू राष्ट्र।🚩🚩


#WesupportBageshwardham🙏🙏


#बागेश्वर_धाम #हम_धीरेंद्र_शास्त्री_जी_के_साथ_हैं #arnabarmy #टूलकिट #बागेश्वर_धाम_सरकर

रुद्राक्ष की सम्पूर्ण जानकारी।

 


1 से 14 मुखी रुद्राक्ष की सम्पूर्ण जानकारी | रुद्राक्ष धारण करें और पाए सभी कष्टों से निवारण |


रुद्राक्ष एक फल के अंदर निकलने वाला बीज है जिसका पेड़ पहाड़ी क्षत्रों में पाया जाता है | धार्मिक मान्यता के अनुसार जब भगवान शिव ने कठोर तपस्या के बाद अपने नेत्र खोले तो  उनकी आँखों से कुछ आंसू पृथ्वी पर आ गिरे जिनसे रुद्राक्ष के पेड़ की उत्त्पत्ति हुई |


रुद्राक्ष = रूद्र + अक्ष , इन दो शब्दों से मिलकर बना यह शब्द ‘ रुद्राक्ष ‘ भगवान शिव का प्रतीक माना जाता है |  जिसमें रूद्र-  भगवान शिव का ही नाम है और अक्ष का अर्थ आंसू से है | इस प्रकार रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के आंसुओ से हुई | रुद्राक्ष को धारण करने वाले  व्यक्ति भगवान शिव को प्रिय होते है |


रुद्राक्ष की उत्पत्ति :- 

रुद्राक्ष का पेड़ भारत में हिमालय क्षेत्र में और असम व उत्तरांचल के जंगलो में पाए जाते है इसके साथ -साथ नेपाल , मलेशिया और इंडोनेशिया में काफी मात्रा में पायें जाते है |   नेपाल और इंडोनेशिया से रुद्राक्ष सबसे अधिक मात्रा मे निर्यात भारत में होता है |


रुद्राक्ष कितने प्रकार के होते है :- 

रुद्राक्ष कितने प्रकार के होते है यह सुनिश्चित कर पाना कठिन है |  विशेषज्ञों के अनुसार रुद्राक्ष 14 मुखी , 21 मुखी और शिव महापुराण अनुसार रुद्राक्ष 38 मुखी तक होते है  | किन्तु रुद्राक्ष 21 मुखी तक ही देखने को मिलते है | इनमें से एक मुखी और 14 मुखी रुद्राक्ष बहुत ही दुर्लभ होते है और बहुत ही कम मात्रा में होते है | पांच मुखी रुद्राक्ष सबसे अधिक होते है और आसानी से उपलब्ध हो जाते है |


रुद्राक्ष धारण करने का महत्व : –

धार्मिक महत्व : – रुद्राक्ष भगवान शिव को बहुत प्रिय होते है अतः इन्हें धारण करने वाले मनुष्य पर हमेशा भगवान शिव की विशेष कृपा बनी रहती है | रुद्राक्ष धारण करने से सभी प्रकार की नकारात्मक उर्जा दूर रहती है | भय आदि से मुक्ति मिलती है | रुद्राक्ष के मुख के आधार पर इसके धार्मिक महत्व को और स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है |


वैज्ञानिक महत्व : – रुद्राक्ष को शरीर पर धारण करने के धार्मिक महत्व के साथ -साथ इसके वैज्ञानिक कारण भी है | रुद्राक्ष के रोम छिद्रों से एक अलग प्रकार का स्पदंन होता है जो मानव ह्रदय पर सकारात्मक प्रभाव दिखाता है | रुद्राक्ष के धारण करने से ह्रदय रक्त चाप सामान्य रहता है | इसके अतिरिक्त मानव मस्तिस्क पर भी रुद्राक्ष से निकलने वाली विशेष तरंगे सकारात्मक प्रभाव दिखाती है | रुद्राक्ष धारण करने वाला व्यक्ति तनाव ,चिंता और अवसाद आदि से मुक्त रहता है |


रुद्राक्ष धारण करने की विधि :-


रुद्राक्ष को अधिकतर व्यक्ति इसे बिना किसी पूजन के धारण कर लेते है इस प्रकार रुद्राक्ष धारण करने से उन्हें सिर्फ वैज्ञानिक लाभ प्राप्त होते है | रुद्राक्ष को धारण करने की एक विधि होती है आप उसके अनुसार ही रुद्राक्ष धारण करें |


रुद्राक्ष के धारण करने से पहले आप इसे 7 दिन तक सरसों के तेल में डुबो कर रखे | रुद्राक्ष को आप  श्रावन मास में किसी भी सोमवार के दिन या आप पूरे श्रावन मास में किसी भी दिन धारण कर सकते है  , शिवरात्रि या किसी भी पूर्णिमा के दिन धारण कर सकते है |


इन पवित्र दिनों में आप  रुद्राक्ष  को  पंचामृत (दूध , शहद , दही , तुलसी  और गंगाजल) से स्नान कराने के पश्चात् गंगाजल से स्नान कराये और   हवन की भभूती से तिलक करने के पश्चात् “ॐ तत्पुरुषाय विदमहे महादेवाय धीमहि तन्नो रूद्र: प्रचोदयात ” मंत्र का जाप करते हुए गले में  धारण करना चाहिए  | यदि हवन की भभूति उपलब्ध नहीं हो तो कुमकुम से तिलक कर सकते है |


इसके अतिरिक्त आप जब भी शिव मंदिर जाते है रुद्राक्ष  को शिवलिंग से स्पर्श कराये और प्रत्येक मास में कम से कम  2 सोमवार को इसे पंचामृत और गंगाजल से स्नान अवश्य कराये | और प्रतिदिन पूजा करते समय दूप -दीप दिखाए |


रुद्राक्ष धारण करने वाले व्यक्ति को क्या सावधानियां रखनी चाहिए :-

रुद्राक्ष को साक्षात् भगवान शिव का ही रूद्र रूप माना जाता है अतः इसे धारण करने वाले व्यक्ति को सैदव पवित्र रहना चाहिए | मांस -मदिरा से बिलकुल दूर रहें | रुद्राक्ष पहनकर किसी भी शवयात्रा या शमशान में न जाये | घर पर कभी  श्यावड या सूतक के दिनों का आभाष होने पर इसे निकालकर पूजा स्थल पर रख दे और बाद में गंगाजल से पवित्र करने के पश्चात् ही धारण करें |


रुद्राक्ष के प्रकार और रुद्राक्ष धारण करने के लाभ :-

आज के समय में आपको एक से 14 मुखी तक ही रुद्राक्ष मिल पाएंगे | जिनकों धारण करने के लाभ इस प्रकार है : –


एक मुखी रुद्राक्ष 


एक मुखी रुद्राक्ष Rudraksha को साक्षात् भगवान शिव का ही रूप माना गया है | इसकी उत्पत्ति बहुत कम होती है | अतः इसे प्राप्त कर पाना बहुत ही दुर्लभ है | एक मुखी रुद्राक्ष सूर्य जनित दोषों को समाप्त करता है | इसे धारण करने से नेत्र संबधी रोग , ह्रदय रोग , पेट रोग और हड्डी के रोगों से मुक्ति मिलती है | इस धारण करने से सांसारिक , मानसिक ,शारीरिक और देवीय कष्टों से मुक्ति मिलने के साथ -साथ आत्म मनोबल में वृद्धि होती है | राशि अनुसार कर्क , सिंह और मेष राशि के व्यक्ति इसे धारण करें तो उनके लिए यह अधिक उत्तम होता है |  असली एक मुखी रुद्राक्ष को प्राप्त कर पाना बहुत ही मुश्किल है | अतः किसी विशेषज्ञ द्वारा असली एक मुखी रुद्राक्ष की पहचान करने के पश्चात ही इसे धारण करना चाहिए | ऑनलाइन और ऊँची कीमत पर मिलने वाले रुदाक्ष को उनकी कीमत के आधार पर उनके असली व नकली होने की पहचान कदापि न करें |


दो मुखी रुद्राक्ष/ 2 Mukhi Rudraksha :-

2 mukhi rudraksh ke laabh 


दो मुखी रुद्राक्ष Rudraksha को शिव शक्ति का स्वरुप माना जाता है | मष्तिष्क , ह्रदय , फेफड़ों  और नेत्र रोगों में इस रुद्राक्ष को धारण करने से विशेष लाभ  प्राप्त होता है | इसे धारण करने से भगवान अर्धनारीश्वर प्रसन्न होते है | इसे धारण/dharan करने से पति – पत्नी के बीच प्रेम भाव बढ़ता है | गो हत्या के पाप का दोष इस रुद्राक्ष के धारण करने और इसकी नित्य पूजा करने से समाप्त हो जाता है | युवक- युवतियों के विवाह में यदि  विलम्ब हो रहा हो तो  इस रुद्राक्ष के धारण करने से शीघ्र शुभ परिणाम मिलते है | कर्क राशी वालो के लिए यह रुद्राक्ष अत्यधिक लाभकारी है |


तीन मुखी रुद्राक्ष /3 Mukhi Rudraksha:- 

3 mukhi rudraksh ke laabh 


तीन मुखी रुद्राक्ष Rudraksha अग्नि देव का स्वरुप माना गया है इस रुद्राक्ष को धारण करने से स्त्री हत्या जैसे पापों से मुक्ति मिलती है | नीरस बन चुके जीवन में फिर से  नई  उमंग जगाने के साथ -साथ  तीन मुखी रुद्राक्ष पेट से संबधित होने वाली सभी बिमारियों के लिए भी बहुत लाभदायक है


चार मुखी रुद्राक्ष /4 Mukhi Rudraksha:- 

4 mukhi rudraksh ke laabh 


चार मुखी रुद्राक्ष Rudraksha को धारण करने से संतान प्राप्ति होते है | यह रुद्राक्ष बुद्धि को तीव्र करता है शरीर के रोगों को भी दूर करने में भी सहायक सिद्ध होता है | इस रुद्राक्ष को धारण करने से वाणी में मिठास और दूसरों को अपना बनाने की कला विकसित होती है | वेदों और धार्मिक ग्रंथो के अध्यन में भी सफलता प्राप्त होती है | शिवमहापुराण  के अनुसार इस रुद्राक्ष को लम्बे समय तक धारण करने से और भगवान शिव के बीज मंत्रो का पाठ करने से जीव हत्या के पाप से भी मुक्ति मिल सकती है |


 

पांच मुखी रुद्राक्ष/5 Mukhi Rudraksha :- 

5 mukhi rudraksh ke laabh 


पंच मुखी रुद्राक्ष Rudraksha को सर्वगुण संपन्न कहा गया है | यह भगवान शिव का सबसे प्रिय रुद्राक्ष है   इसे सभी रुद्राक्षो में सबसे अधिक शुभ और पुण्य प्रदान करने वाला माना गया है |इसका अधिपति गृह बृहस्पति है  इसलिए बृहस्पति गृह के प्रतिकूल होने के कारण आने वाली समस्याएं  इस रुद्राक्ष के धारण करने से स्वतः दूर हो जाती है | पांच मुखी रुद्राक्ष के धारण करने से जीवन में सुख -शांति और प्रसद्धि प्राप्त होती है | पंचमुखी रुद्राक्ष कालाग्नि के नाम से विख्यात है पंचमुखी रुद्राक्ष में पंचदेवों का निवास माना गया है |


पंचमुखी रुद्राक्ष के धारण करने से रक्तचाप और मधुमेह सामान्य रहता है | पेट के रोगों में भी यह रुद्राक्ष लाभ पहुंचाता है | मन में आने वाले गलत विचारो को नियंत्रित कर मानसिक रूप से स्वस्थ बनाता है | राशि के अनुसार मेष , कर्क , सिंह , वृश्चिक , धनु और मीन राशी वालों के लिए यह अत्यंत लाभकारी है |


छह मुखी रुद्राक्ष/ 6 Mukhi Rudraksha :-

6 mukhi rudraksh ke laabh 


छह मुखी रुद्राक्ष Rudraksha को भगवान शिव पुत्र कार्तिकेय का स्वरुप माना गया है | शिव महापुराण अनुसार इस रुद्राक्ष को विधिवत धारण करने और नियमित पूजा करने से ब्रह्म हत्या के पाप से सभी मुक्ति मिल सकती है | इस रुद्राक्ष को धारण करने से बुद्धि का विकास होने के साथ -साथ  नेतृत्व करने की क्षमता भी विकसित होती है |  शरीर में आने वाले रोगों को भी दूर कर स्वस्थ जीवन प्रदान करता है | इस रुद्राक्ष को विधिवत पूजन कर धारण करने से भगवान कार्तिकेय की विशेष कृपा प्राप्त होती है जिसके फलस्वरूप जीवन में आने वाले सभी कष्ट स्वतः ही दूर होने लगते है | इस रुद्राक्ष के प्रधान देव शुक्र देव को माना गया है |


सात मुखी रुद्राक्ष /7 Mukhi Rudraksha :- 

7 mukhi rudraksh ke laabh 


सात मुखी रुद्राक्ष सप्त ऋषियों का प्रतिनिधित्त्व करता है | माँ लक्ष्मी की विशेष कृपा इस रुद्राक्ष को धारण करने वाले व्यक्ति पर हमेशा बनी रहती है | घर में धन की वृद्धि होती है | सात मुखी रुद्राक्ष Rudraksha पर शनिदेव का प्रभाव माना गया है | इसलिए इसको धारण करने पर शनिदेव प्रसन्न होकर अपनी विशेष कृपा बनाये रखते है | सप्तमुखी होने के कारण यह रुद्राक्ष शरीर में सप्धातुओं की रक्षा करता है और इम्यून सिस्टम को भी मजबूत करता है | जो व्यक्ति मानसिक बीमारी या जोड़ो के दर्द से परेशान है उन्हें इस रुद्राक्ष को अवश्य धारण करना चाहिए |


आठ मुखी रुद्राक्ष / 8 Mukhi Rudraksha : – 

8 mukhi rudraksh ke labh


आठ मुखी रुद्राक्ष भैरो देव जी का स्वरुप माना गया  है | और इसके प्रधान देव श्री गणेश जी है | इसे धारण करने से अष्टदेवियों का आशीर्वाद प्राप्त होता है | इसे धारण करने से इन्द्रियों को नियंत्रित करने की शक्ति जागृत होती है | इस रुद्राक्ष को धारण करने से बुद्धि , ज्ञान, धन और यश की प्राप्ति होती है | इस रुद्राक्ष के धारण करने से और विधिवत पूजन करने से  पर स्त्री भोग के पाप से मुक्ति मिलती है | यह रुद्राक्ष जीवन की हर मुश्किलों को दूर कर रिद्धि -सिद्धि प्रदान करता है |आठ मुखी रुद्राक्ष राहू गृह से सम्बंधित है | अगर आपकी कुंडली में राहू दोष होने के कारण कठिनाइयाँ आ रही है तो इस रुद्राक्ष को अवश्य धारण करें |


नौ मुखी रुद्राक्ष /9 Mukhi Rudraksha :- 

9 mukhi rudraksh ke labh 


नौ मुखी रुद्राक्ष Rudraksha को माँ भगवती की नौ शक्तियों  का प्रतीक माना गया है | इसके साथ -साथ कपिलमुनि और भैरोदेव की भी कृपा इस रुद्राक्ष पर है | इस रुद्राक्ष Rudraksha को धारण करने से शक्ति का आशीर्वाद प्राप्त होता है |   इस रुद्राक्ष का प्रधान गृह केतु है अतः यह  केतु गृह के कारण जीवन में आने वाले प्रतिकूल प्रभावों को कम करता है | इस रुद्राक्ष को धारण करने से कीर्ति , मान -सम्मान में वृद्धि होती है और मन को शांति मिलती है | माँ नवदुर्गा का स्वरुप होने के कारण यह रक्षा कवच का कार्य करता है | जो माँ दुर्गा की पूजा करते है उन्हें इस रुद्राक्ष को अवश्य धारण करना चाहिये |


दस मुखी रुद्राक्ष/ 10 Mukhi Rudraksha :- 

10 mukhi rudraksh ke labh


इस रुद्राक्ष Rudraksha को भगवान विष्णु का स्वरुप माना गया है | इस रुद्राक्ष के धारण करने से उपरी बाधाएं , भूत-प्रेत  जैसी नकारात्मक शक्तियां शरीर से दूर रहती है | तंत्र – मंत्र और साधनाएं करने वाले जातक को इस रुद्राक्ष को अवश्य धारण करना चाहिए | पेट के रोगों में , गठिया ,दमा और नेत्र रोगों में यह रुद्राक्ष विशेष लाभ पहुंचाता है |


ग्यारह मुखी रुद्राक्ष/ 11 Mukhi Rudraksha : –

11 mukhi rudraksh ke labh


ग्यारह मुखी रुद्राक्ष Rudraksha को भगवान शिव के 11 रुद्रों का प्रतीक माना गया है | भगवान शिव के 11वे अवतार हनुमान जी की विशेष कृपा इस रुद्राक्ष को धारण करने पर बनी रहती है | व्यापार में उन्नत्ति प्राप्त करने के लिए इस रुद्राक्ष को अवश्य धारण/dharan करना चाहिए | इस रुद्राक्ष के धारण करने पर अकाल मृत्यु का भय नही रहता | धार्मिक अनुष्ठान , यज्ञ -हवन आदि धार्मिक कार्यों में यह रुद्राक्ष सफलता प्रदान करता है |


बारह मुखी रुद्राक्ष/ 12 Mukhi Rudraksha : – 

12 mukhi rudraksh ke labh


बारह मुखी रुद्राक्ष Rudraksha को भगवान महाविष्णु का स्वरुप माना गया है | इस रुद्राक्ष को धारण करने से असाध्य से असाध्य रोग भी ठीक हो जाते है | इस रुद्राक्ष के धारण/Dharan करने से ह्रदय , मष्तिस्क और उदर रोगों में लाभ प्राप्त होता है | गोवध और रत्नों की चोरी करने जैसे महापापों में इस रुद्राक्ष द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है | यह रुद्राक्ष सभी प्रकार की दुर्घटनाओ से आपको बचाता है |


तेरह  मुखी रुद्राक्ष/ 13 Mukhi Rudraksha : –

13 rudraksh ke labh


तेरह मुखी रुद्राक्ष Rudraksha को स्वर्ग के राजा इन्द्रदेव का स्वरुप माना गया है | इसके साथ -साथ इसे धारण करने पर कामदेव का भी आशीर्वाद प्राप्त होता है | इस धारण करने से वशीकरण और किसी को अपनी तरफ आकर्षित करने का गुण भी आता है | जिनके जीवन में प्रेम और ग्रहस्थ सुख की कमी हो उन्हें इस रुद्राक्ष Rudraksha को अवश्य धारण करना चाहिए | सभी ग्रहों के प्रभाव को अपने अनुकूल बनाने के लिए भी इस रुद्राक्ष को धारण/Dharan किया जा सकता है |


चौदह मुखी रुद्राक्ष/ 14 Mukhi Rudraksha : – 

14 mukhi rudraksh


चौदह मुखी रुद्राक्ष Rudraksha को साक्षात् हनुमान जी का स्वरुप माना गया है इसलिए हनुमान जी की उपासना करने वाले जातक को इस रुद्राक्ष को अवश्य धारण करना चाहिए | भूत – प्रेत और उपरी बाधाएं इस रुद्राक्ष के धारण करने स्वतः अपना स्थान छोड़ देती है | यह रुद्राक्ष व्यक्ति को उर्जावान और निरोगी बनाता है | इस रुद्राक्ष Rudraksha के धारण/Dharan करने से साधना में सिद्धि शीघ्र प्राप्त होती है |

धूमावती साधना।

 


साधना जीवन का प्रारंभ हुए मात्र २ वर्ष ही हुए थे और सदगुरुदेव की छत्र-छाया में कुछ लघु साधनाओं को संपन्न करते हुए मेरे साधना जगत में प्रवेश का श्री गणेश हुआ था .सच कहूँ तो जबसे उन्होंने हाथ थामा था ,निर्भयता ही जीवन में व्याप्त हो गयी थी .जब भी वरिष्ट गुरु भाइयों को उग्र साधनाओं की बात करते हुए सुनता था तो पता नहीं मन में एक अजीब सी लहर उठने लगती थी जो की भय की तो कदापि नहीं थी .मैं उन रहस्यों को जानने के लिए बैचेन था ,पर पता नहीं क्यूँ मेरे अग्रज गुरु बन्धुं इन रहस्यों को बताने में हिचकिचाते थे . हालाँकि ये दौर ऐसा था की सदगुरुदेव समस्त साधनाओं के रहस्यों को शिष्यों की जिज्ञासा समाधान के लिए और उन्हें सजीव ग्रन्थ बनाने के लिए सदैव प्रकट करते रहते थे. नवार्ण मन्त्र रहस्य शिविर ,सूर्य सिद्धांत , महालक्ष्मी आबद्ध ,साबर साधना , गोपनीय तंत्र ,ब्रह्मत्व गुरु साधना, मातंगी साधना, महाकाली हनुमान साधना इत्यादि साधनाओं के ऊपर पूरा प्रयोगात्मक शिविर ही ८-९ दिनों का गुरुधाम में लगातार आयोजित होते रहते थे . ये तो मात्र कुछ नाम ही हैं उन शक्तियों के जिनका प्रयोगात्मक और सिद्धात्मक सत्र सदगुरुदेव ने आयोजन किया था. ऐसे सैकडो शिविर आयोजित हुए थे उन दिनों .शिविरों में सदगुरुदेव इन साधनाओं के समस्त गोपनीय रहस्यों को सहज रूप से शिष्यों और साधकों के सामने प्रकट करते रहते थे . जिनके द्वारा निश्चित रूप से उन साधनाओं में सफलता मिलती ही थी. एक दिन अचानक सदगुरुदेव ने मुझे कार्यालय में बुलाया और कहा की – अब तुम अपना ध्यान पूर्ण रूप से तीव्र साधनाओं की और लगा दो . क्यूंकि वर्तमान युग तीव्र और तीक्ष्ण साधनाओं का ही युग है . और मैं देख रहा हूँ की आगे के जीवन में तुम्हे इन साधनाओं की बहुत आवशयकता पड़ेगी .

जैसी आपकी आज्ञा ....-मैंने धीरे से कहा .

बेटा आज शायद समाज इन साधनाओं के मूल्य को नहीं पहचान रहा है . पर जिस प्रकार धन जीवन के लिए अनिवार्य है, जिस प्रकार सौम्यता साधक का श्रृंगार है ,ठीक उसी प्रकार तीव्रता और संयमित क्रोध भी जीवन को दुष्ट शक्तियों से बचाए रखने के लिए और आत्मसम्मान की गरिमा को सुरक्षित रखने के लिए जरुरी है – गुरुदेव ने शांत स्वर में कहा .

भविष्य में ये रहस्य कब प्रकाशित होंगे इन पर अभी तो चर्चा करना व्यर्थ है....... ये कहकर उन्होंने मुझे शाम को पुनः आने के लिए कहा .

गुरुदेव के निर्देशानुसार महाकाली साधना , भैरव साधना करने के बाद , श्मशान साधनाओं की और उन्होंने आगे बढाया . यहाँ एक बात मैं आप सभी को बता दूँ की कई साधकों को सामूहिक रूप से शमशान साधनाओं को करने की आज्ञा भी सदगुरुदेव देते थे . अयोध्या में सरयू नदी के तट पर घोर रात्रि में कई बार ऐसी साधनाओं का आयोजन हुआ है जब कई वरिष्ट भाई अघोर पद्धति से इन साधनाओं को संपन्न करते थे . ऐसे कई स्थान थे उन साधनाओं को करने के लिए . हाँ ये अलग बात है की सामान्य साधकों को इसकी भनक भी नहीं लगती थी . पर ये भी उतना बड़ा सत्य है की जब भी कोई साधक सदगुरुदेव के पास किसी पद्धति को जानने के लिए जाता था तो उसे निराशा कभी हाथ नहीं लगती थी .

कई उग्र साधनों को भली भांति करने के बाद जब मैंने धूमावती साधना को करने के लिए गुरुदेव से आज्ञा चाही तो उन्होंने कहा की ये साधना अति दुष्कर साधना है .और इसकी पूर्ण सिद्धि के लिए तुम्हे इसके तीनो चरण करने पड़ेंगे ... दो चरण तो तुम अब तक जहा तीव्र साधना करते रहे हो वहां कर सकते हो पर तीसरे चरण के लिए तुम्हे किसी शक्ति पीठ का चयन करना पड़ेगा . और साधना के गोपनीय रहस्यों को समझाकर मुझे सफलता का आशीर्वाद दिया .

किसी भी महाविद्या की पूर्ण सिद्धि तभी संभव है जब आपको उसके समस्त रहस्यों का पता हो और पूर्ण वीर भाव से उसे करने के लिए आप संकल्पबद्ध हों . अन्य साधनाएं तो आप फिर भी कर सकते हैं पर महाविद्या साधनाओं के लिए अलग जीवन चर्या का ही पालन किया जाता है .संयमित और मर्यादित जीवन जीते हुए आप इन साधनाओं को निश्चित रूप से सिद्ध कर सकते हैं. जरा सा भी भय आपके मन में हो तो इन साधनाओं को नहीं करना चाहिए . इन साधनाओं की सफलता के लिए यदि #स्थापन दीक्षा या #पूर्णरूपेण #सफलता प्राप्ति दीक्षा ले ली जाये तो सफलता असंदिग्ध रहती है.धूमावती साधना साधक के जीवन को अद्भुत अभय से आप्लावित कर देती हैं , हाँ ये सत्य है की संहार की चरम सीमा यदि कोई है तो वो यही हैं . साधक के जीवन को अभाव और शत्रु से पूर्ण रूपेण मुक्त कर देती हैं साथ ही देती हैं शमशान साधनाओं में सफलता , प्रेत और तंत्र बाधा निवारण और आत्म आवाहन साधनाओं में सफलता का वरदान भी .इनकी साधना सहज भी नहीं है साधक के पूर्ण आत्म,मानसिक और शारीरिक बल का परिक्षण इस साधना से ही ही जाता है . दया तो संभव ही नहीं है और जरा सी चूक घातक भी हो जाती खुद के लिए. दो तरीके से आप इन साधनाओं को कर सकते हैं . यदि मात्र आपको अपना कार्य सिद्धि का मनोरथ पूरा करना हो तो आप गुरु निर्देशित संख्या में मूल मन्त्र का जप कर ये सहज रूप से कर सकते हैं. पर जब आपका लक्ष्य पूर्ण सिद्धि हो तो महाविद्या साधनाओं के तीन चरण तो करने ही पड़ेंगे . तभी आपको सफलता मिलती है और पूर्ण वरदायक जीवन पर्यंत प्रभाव भी .

ये चरण निनानुसार होते हैं.

बीजमंत्र सिद्धि (जिससे उस महाविद्या का आपकी आत्मा और सप्त शरीरों में स्थापन हो सके)

सपर्या विधि (जिससे उस महाविद्या की समस्त शक्तियों का स्थापन आपमें हो सके)

मूल मंत्र और प्रत्यक्षीकरण विधान( निश्चित सफलता और पूर्णरूपेण प्रत्यक्षीकरण के लिए)


मैंने प्रारंभ की दो क्रियाएँ तो उसी पहाड पर की जो चारों तरफ से शमशान से घिरा हुआ है और जहा मैं प्रारंभ से तीव्र साधनाएं शमशान साधनाएं करता रहा हूँ . ७-७ दिन के दोनों चरणों को सफलता पूर्वक करने के बाद मैंने माँ कामाख्या शक्ति पीठ को तीसरे और अंतिम चरण के लिए चुना . रस तंत्र के शोध के लिए मैं लगातार आसाम में रहा करता था और कामाख्या पीठ से एक अद्भुत लगाव की वजह से मुझे वही उचित भी लगा...वैसे भी इस साधना के पहले कुछ और साधनाएं भी मैंने उस भव्य पीठ पर संपन्न की थी ,जिनमे मुझे आशातीत सफलता भी मिली थी .

कामाख्या पीठ पर कामाख्या मंदिर से दक्षिण की तरफ लगभग २७ फीट नीचे माँ धूमावती का भव्य पीठ है . वह एकांत भी है और मनोनुकूल वातावरण भी...... वही पर सदगुरुदेव के द्वारा बताये गए गोपनीय सूत्रों का अनुसरण कर मैंने इस साधना को संपन्न की . सदगुरुदेव के आशीर्वाद से माँ का प्रत्यक्षीकरण भी हुआ और वरदान भी मिला . गुरु चरणों में #अश्रुयुक्त #प्रणिपात के अतिरिक्त मैं समर्पित भी क्या कर सकता था . बाद के वर्षों में कई गुरुभाई उस स्थान पर मेरे साथ भी गए . उस समय मैं शत्रु बाधा निवारण के लिए इस साधना का प्रयोग भी नहीं कर पाया क्योंकि कभी आवशयकता भी नहीं पड़ी .हाँ शमशान साधनों में कीलन और आत्माओं का सहयोग लेने के लिए जरुर कई बार प्रयोग किया. पर अन्य साधनाओं पर भी लगातार शोध करने के कारण फिर मैंने इस साधना का प्रयोग आगे कभी नहीं किया परन्तु कई वर्षों के बाद हालत कुछ ऐसे बने कि...........


घुमक्कड स्वभाव का होने कारन मैं घर पर कई कई महीने नहीं रह पाता था . एक बार लंबे समय के बाद जब मैं घर पंहुचा तो घर में सभी कुछ अस्त-व्यस्त था .माँ , पिताजी, भाई भाभी , बहन , सभी दर्द से भरे हुए चेहरों के साथ बैठे थे . पूछने पर मुझे बताया की मेरे छोटे भाई को जान से मारने की फिराक में कुछ लोग लगातार लगे हुए हैं. झूठे प्रकरण में उसे फसाया गया है. कई दिनों से वो भागा भागा फिर रहा है. पुलिस वाले भी उल्टा परेशान कर रहे हैं . मेरे पिताजी को गन्दी गन्दी गालियाँ सुनने को मिलती थी .पुलिस उन्हें धमकाती रहती थी. भाभी और बहन को घर से वे असामाजिक तत्व उठाने की धमकी दिया करते थे . मेरे भाई एक सीधे साधे शिक्षक थे . मेरा पूरा परिवार जिसकी ख्याति उस कसबे में संस्कारित और अत्यधिक सभ्य परिवार के रूप में होती थी . उसके ऊपर लगातार प्रहार हो रहे थे. उन असामजिक तत्वों का इतना खौफ उस कसबे में था की कोई भी कुछ बोलने का साहस नहीं कर पाता था. सभी आस पास वाले चुपचाप अपने अपने घरों में डरे सिमटे से बैठे रहते थे. आतंक और खौफ को फैलाकर रख दिया था उन लोगों ने . कानून तो जैसे खिलौना था उन के हाथों का . कोई सुनवाई नहीं बल्कि जो शिकायत करने जाता , उसे ही वह बिठा लिया जाता था परेशां करने के लिए.

मुझे कुछ भी सूझ नहीं रहा था ........... गुरुधाम संपर्क करने पर पाता लगा की गुरुदेव बाहर गए हुए हैं.

और निकट भविष्य में जोधपुर में शिविर था . मैंने वहा जाने का निश्चय किया और पहुच ही गया . गुरुदेव से संपर्क करने की कोशिश की तो वे बाकि लोगो से तो मिल लिए पर मुझसे मिलने के लिए मना कर दिया . हताश होकर मैं शिविर स्थल में बैठ कर रो रहा था . ये सोच कर की आखिर मुझसे क्या गलती हुयी है जो सदगुरुदेव ने मिलने से मना कर दिया. सत्र प्रारंभ होने वाला था और पाणिग्रहण का महोत्सव था . सदगुरुदेव नियत समय पर आये और मंचासीन होकर उन्होंने प्रवचन प्रारंभ किया “ मेरा शिष्य कायर हो ही नहीं सकता, मुसीबतों से भागना मैंने कभी सिखाया ही नहीं . मैंने हमेशा यही कहा है की कोई तुम्हे एक चांटा मारने की सोचे उसके पहले दस तमाचे सामने वाले को पद जाना चाहिए..............” इस प्रकार इतना क्रोध से भरा हुआ प्रवचन मैं पहली बार सुन रहा था . मुझे समझ में आने लगा की वो मेरे प्रश्नों का ही उत्तर दे रहे हैं. अब मुझे अपनी बेवकूफी पर गुस्सा आने लगा और रोना भी . उस दिन के प्रवचन को मैं आज भी सुनता हूँ जब भी निराशा मेरे अंदर प्रवेश करने लगती है ... तब तब वो प्रवचन मेरे उत्साह को अनंत्गुनित कर देता है .

“युद्धं देहि” के नाम से वो प्रवचन संकलित है केसेट रूप में . खैर...... प्रवचन की समाप्ति के बाद सदगुरुदेव जब वापस जाने लगे तो मैं रास्ते में ही खड़ा था और मेरे सामने से निकलते हुए वे एक पल के लिए रुके और मुस्कुराते हुए मुझे देखा और चले गए .

थोड़ी देर बाद एक गुरुभाई आये और उन्होंने कहा की सदगुरुदेव तुम्हे ऑफिस में बुला रहे हैं. मैं दौड़ता हुआ पंहुचा . और उनके चरण स्पर्श करने के बाद रोने लगा.

सदगुरुदेव बोले – बेटा जीवन में भागना या चुनौतियों से डरना ही गलत है . ये एक साधक को शोभा नहीं देता .

मैं क्या करूँ ,मेरी समझ ही नहीं आ रहा, मैंने कभी अपने परिवार को ऐसा नहीं देखा. मेरे पिताजी का इतना सम्मान है उस क्षेत्र में , पर आज उन्हें पुलिस वाले उल्टा-सीधा बोल रहे हैं- मैंने कहा

तो क्या भागने से तेरी समस्या का समाधान हो जायेगा ....... बोल- उन्होंने कहा.

आप कोई साधना बताइए जिससे मैं इस अपमान का प्रतिशोध ले सकूँ, हमारी कोई गलती नहीं है गुरुदेव- सर झुकाए मैंने कहा.

मुझे पाता है तभी तो कह रहा हूँ की परिवार की अस्मिता की रक्षा करना और अन्याय का प्रतिकार करना ही साधक धर्म है . और अभी कोई नविन साधना तुझ से हो भी नहीं पायेगी . क्यूंकि स्थिर चित्त से ही साधना हो पाती है. और ये समय किसी नए को आजमाने के बजाय पहले की गयी साधनाओं को प्रयोग करने की है.

फिर मैं क्या करूँ............

तुने धूमावती की साधना भली प्रकार से सफलता पूर्वक की है तू उसी का प्रयोग कर –गुरुदेव ने कहा .

और फिर उन्होंने उसका प्रयोग कैसे शत्रु बाधा पर करना है ये बताकर मुझे जाने की आज्ञा दी. हालाँकि शिविर का दूसरा दिन अभी बाकि था पर उन्होंने कहा की अभी तेरे लिए इस प्रयोग को शीघ्रातिशीघ्र करना कही ज्यादा जरुरी है. आशीर्वाद प्राप्त कर मैं वापस आ गया.

और उसी पहाड पर मैंने इस ७ दिवसीय प्रयोग को प्रारंभ किया . प्रतिदिन मध्य रात्रि से उस वीरान पहाड पर मैं अपनी साधना को प्र५अरम्भ करता जो की सुबह ३.३० तक चलती. शुरू के ६ दिन तो अत्यधिक दबाव बना रहा ,मानों शारीर फट ही जायेगा. और ऐसा लगता जैसे कोई मन्त्र-जप को रोक रहा हो . पर अंतिम दिवस जैसे ही पूर्णाहुति की एक तीव्र धमाका हुआ और यज्ञ कुंड के टुकड़े टुकड़े होकर ऊंचाई तक उछालते चले गए . और एक सब कुछ शांत होकर निस्तब्धता छा गई.एक प्रकाश पुंज तीव्र गति से कसबे की और चला गया. और मुझ पर से दबाव हट गया. मैं घर चला आया और स्नान कर सो गया. सुबह शोर शराबे से मेरी नींद खुली तो . मैंने कमरे से बाहर आकर उसका कारन पूछा. तो मेरी माँ ने बताया की कल रात ३-४ बजे उस लीडर का उसके घर में ही बैठे बैठे मष्तिष्क फट गया . मेरी आँखों से प्रसन्नता के अश्रु निकलने लगे और मैं अपने साधना कक्ष की और दौड़ता चला गया ...... आभार प्रकट करने के लिए. २ दिन बाद ही वे समस्त उपद्रवी एक एक्सीडेंट में हताहत हो गए. जिस भाई के राजनितिक संबंधो के कारन उस लीडर को कानून सहयोग करता था .उसका समस्त व्यापार ही बर्बाद हो गया. मेरा कसबे में फिर से चैन और सुकून का वातावरण दिखाई देने लगा.

ये सब आत्म-प्रवंचना के लिए नहीं बताया गया है. बल्कि इसलिए की समय रहते हम इन साधनाओं का मूल्य समझ लें. सदगुरुदेव ने पत्रिका, शिविरों, और ग्रंथों के माध्यम से सब कुछ दिया है. हम ललक कर आगे बढे और इस साधनाओं को अपनाकर पूर्णता और निर्भयता पायें .मेरे पास प्रमाण है अपनी सफलता का और मुझे पाता है की मेरे कई गुरु भाई हैं जिन्हें सफलता मिली है पर वे अपने संस्मरण बताना ही नहीं चाहते. शायद मेरे किसी भाई को ये पंक्तियाँ प्रेरित कर सकें इस पथ पर आगे बढ़ने के लिए ....... मुझे जो भी मिला है मैं बताते जा रहा हूँ. कोई जबरदस्ती नहीं है विश्वास करने के लिए. विश्वास करना या नहीं करना हमारा व्यक्तिगत भाव है जो थोपा नहीं जा सकता. पर बगैर साधनाओं को परखे उसकी आलोचना तो कदापि उचित नहीं . बाकि मर्जी है आपकी क्योंकि जीवन है आपका.........


घोरतम_संकट निवारण की एकमात्र साधना - माँ_धूमावती_साधना।


एक बार सती शिव के साथ हिमालय में विचरण कर रही थीं। तभी उन्हें ज़ोरों की भूख लगी।उन्होने शिव से कहा-” मुझे भूख लगी है. मेरे लिए भोजन का प्रबंध करें”।शिव ने कहा-” अभी कोई प्रबंध नहीं हो सकता”।तब सती ने कहा-” ठीक है, मैं तुम्हें ही खा जाती हूँ”।और वे शिव को ही निगल गयीं।शिव, जो इस जगत के सर्जक हैं, परिपालक हैं


फिर शिव ने उनसे अनुरोध किया कि’ मुझे बाहर निकालो’,तो उन्होंने उगल कर उन्हें बाहर निकाल दिया. निकालने के बाद शिव ने उन्हें शाप दिया कि ‘अभी से तुम विधवा रूप में रहोगी.’


तभी से वे विधवा हैं-अभिशप्त और परित्यक्त।भूख लगना और पति को निगल जाना सांकेतिक है - यह इंसान की कामनाओं का प्रतीक है, जो कभी ख़त्म नहीं होती और इसलिए वह हमेशा असंतुष्ट रहता है।माँ धूमावती उन कामनाओं को खा जाने यानी नष्ट करने की ओर इशारा करती हैं।


उनका विधवापन वास्तव में स्थितप्रज्ञता है.


कहानी में क्या होता है? पहले तो वे शिव को खा जाती हैं अर्थात अपने साधक की रक्षा के लिए वे किसी भी हद तक जा सकती हैं।#कोई_काल_महाकाल_उन्हें_नहीं_रोक_सकते।लेकिन दूसरी ओर वे शिव का शाप भी सहर्ष स्वीकारकर लेती हैं. यानी प्रकृति के, सृष्टि के नियमों को स्वीकारकर लेना चाहिए।स्थितप्रज्ञता कभी  अकर्मण्यता नहीं है।


इसलिए माँ धूमावती रोग शोक आौर दुख की नियंत्रक महाविद्या मानी जाती हैं।माँ के धूमावती स्वरूप उनके सबसे शक्तिशाली स्वरूपों में से है। 


माता का ये अटल प्रण है कि जो भी उन्हें पराजित करके उनका गर्व भंग करेगा उसी से वे विवाह करेंगी।ऐसा_न_कोई_हुआ_न_कोई_होगा।


वे प्रसन्न होती हैं तो रोगों और दुखों को दूर कर देती हैं और क्रुद्ध होती हैं तो समस्त सुखों और कामनाओं का नाश कर देती हैं।उनकी शरण में गये लोगों की विपत्ति दूर हो जाती है। वे संपन्न होकर दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं। ऋग्वेद के रात्रि सूक्त में उन्हें सुतरा कहा गया है-सुखपूर्वक तरने योग्य।ऋण, अभाव और संकट दूर  कर धन और सुख देने के कारण उन्हें ‘भूति’‘ कहा गया है.-उष ऋणेक यातय(ऋग्वेद,१०.१२७.७)


दस महाविद्याओं में भगवती धूमावती साधना स्थाई संपत्ति की प्राप्ति हेतु,प्रचण्ड शत्रुनाश, विपत्ति निवारण एवं संतान की रक्षा के लिये की जाती है।वास्तव में इस साधना को सम्पन्न करना जीवन की अद्वितीयता है।इस साधना को सिद्ध करने के उपरांत प्राणी भौतिक समृद्धि के साथ साथ जीवन मे पूर्णता प्राप्त कर लेता है।चराचर जगत की कोई बाधा कोई शत्रु उसके समक्ष टिक नहीं पाती।साधक के जीवन से दरिद्रता, दुर्भाग्य, रोग,ऋण,भूत-प्रेत बाधा एवं समस्त प्रकार के शत्रु सदा सर्वदा के लिये समाप्त हो जाते हैं।उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।


जन्म से मृत्यु तक देखभाल करनेवाली सातवीं महाविद्या माँ धूमावती हैं।


वे महाप्रलय के समय मौज़ूद रहती हैं।उनका रंग महाप्रलय के बादलों जैसा है।जब ब्रह्मांड की उम्र ख़त्‍म हो जाती है...#काल ख़त्म हो जाता है और स्वयं #महाकाल शिव भी अंतर्ध्यान हो जाते हैं, माँ धूमावती अकेली खड़ी रहती हैं और काल तथा आकाश से परे की अपनी शक्ति को जताती हैं।उस समय न तो धरती, न ही सूरज, चाँद ,सितारे रहते हैं...रहता है सिर्फ़ धुआँ और राख- वही चरमज्ञान है, निराकार- न अच्छा. न बुरा; न शुद्ध, न अशुद्ध;न शुभ, न अशुभ- धुएँ के रूप में अकेली माँ धूमावती।वे अकेली रह जाती हैं, सभी उनका साथ छोड़ जाते हैं।इसलिए अल्प जानकारी रखने वाले लोग उन्हें अशुभ घोषित करते हैं.


 यही उनका रहस्य है. वे दरअसल वास्तविकता को जताती हैं जो कड़वी,रूखी और इसलिए अशुभ लगती हैं। लेकिन वहीं से अध्यात्मिक ज्ञान जागता है जो हमें मोक्ष दिलाता है।माँ धूमावती अपने साधक को सारे सांसारिक बंधनों से आज़ाद करती हैं।सांसारिक मोह -माया से विरक्ति दिलाती हैं. यही विरक्त भाव उनके साधकों को अन्य लोगों से अलग-थलग और एकांतवास करने को प्रेरित करता है।


हिंदू धर्म में इसे अध्यात्मिक खोज की चरम स्थिति कहाजाता है।सन्यासी लोग परम संतुष्ट जीव होते हैं-जो भी मिला खा लिया, पहन लिया, जहाँ भी ठहरने को मिला,ठहर लिये।तभी तो धूमावती धुएँ के रूप में हैं-हमेशा अस्थिर, गतिशील और बेचैन।उनका साधक भी ज्ञान प्राप्ति हेतु बेचैन रहता है।


धूमावती सहस्रनाम में यह भी कहा गया है कि  वे महिलाओं के बीच निवास करती हैंऔर संतान प्राप्ति कराती हैं।


बच्चे की प्रसूति से लेकर मनुष्य की मृत्यु तक सिर्फ़ वही खड़ी  रहती हैं।उनकी मूर्ति में भी उन्हें हमेशा वरदान देने की मुद्रा में दिखाया जाता है. हालाँकि उनके चेहरे पर उदासी छायी रहती है।वे महाविद्या तो हैं लेकिन उनका व्यवहार गाँव-टोले की दादी- माँ जैसा है-सभी के लिए मातृत्व से लबालब।


यानी उनका अशुभत्व शुभ की ओर बदलाव का संकेत है।

 

साधना_विधान


मित्रों...गुरु कृपा से ये अत्यंत सरल विधान प्रस्तुत है जिसे आप अपने घर मे सम्पन्न कर सकते है ।इसमें आपको कोई हानि नहीं होगी।


इस साधना को आप दिन अथवा रात में कभी भी सम्पन्न कर सकते हैं।वैसे मूल रूप में ये रात की ही साधना है।

साधक लाल वस्त्र धारण करके लाल आसन पर दक्षिण दिशा की तरफ मुख करके बैठे।अपने सामने बाजोट पर लाल कपड़ा बिछाकर उसपर प्राण प्रतिष्ठा युक्त #धूमावती_यंत्र स्थापित करें।तेल का दीपक प्रज्वलित करें।इसमे तेल कोई भी हो सकता है।अब प्राण प्रतिष्ठा युक्त #काली_हकीक माला से 1500 माला जप सम्पन्न करें।ये जप आप 11,14,21 अथवा 40 दिनों में सम्पन्न करें।

यूं अगर हर रोज 11 माला जप संपन्न कर लिया जाये तो भी कुछ समय पश्चात साधक की मनोकामना पूर्ण हो जाती है।

सफलता प्राप्ति तक आप अनुष्ठान को दोहरा सकते हैं।साधना सम्पन्न होने के पश्चात यंत्र और माला शुभ जल में विसर्जित कर दें।


प्रभु कृपा से आपको सफलता मिले यही शुभकामनाएं हैं...अस्तु


#साधना_मंत्र


धूं धूं धूमावती ठः ठः


- सदगुरुदेव श्री निखिलेश्वरानंद जी

जीवन दर्शन कथा

  




एक राज्य का क़ानून था कि वो एक साल बाद अपना राजा बदल लेते थे। उस दिन जो भी सब से पहले शहर में आता था तो उसे राजा घोषित कर लेते थे, और इससे पहले वाले राजा को एक बहुत ही ख़तरनाक और मीलों मॆं फैले जंगल के बीचों बीच छोड़ कर आते, जहां बेचारा अगर खूंखार जानवरो से किसी तरह अपने आप को बचा लेता तो भूख-प्यास से मर जाता । ना जाने कितने ही राजा ऐसे ही एक साल की राजगद्दी के बाद जंगल में जा कर मर गए । 


एक बार राज्य में एक नौजवान किसी दूसरे राज्य से आया और इस राज्य के कानून से अनजान था, तब सब लोगों ने आगे बढ़कर उसे बधाईयाँ दी और उसे बताया कि उसको इस राज्य का राजा चुन लिया गया है और उसे बड़े मान-शान के साथ राजमहल में ले गए ।


वो हैरान भी हुआ और बहुत ख़ुश भी । राजगद्दी पर बैठते ही उसने पूछा कि मुझ से पहले जो राजा था, वो कहाँ है? तो दरबारियों ने उसे इस राज्य का क़ानून बताया कि हर राजा को एक साल बाद जंगल में छोड़ दिया जाता है और नया राजा चुन लिया जाता है । 


ये बात सुनते ही वो एक बार तो परेशान हुआ लेकिन फिर उसने अपनी दिमाग का इस्तेमाल करते हुए कहा कि मुझे उस जगह लेकर चलो जहाँ तुम अपने पहले के राजाओं को छोड़ कर आते हो। 


दरबारियों ने सिपाहियों को साथ लिया और नये नियुक्त राजा को वो जगह दिखाने जंगल में ले गए | राजा ने अच्छी तरह उस जगह को देख लिया और वापस आ गया....


अगले दिन उसने सबसे पहला आदेश ये दिया कि मेरे राजमहल से जंगल तक एक सड़क बनाई जाये और जंगल के बीचों बीच एक ख़ूबसूरत राजमहल बनाया जाये जहां पर हर तरह की सुविधा मौजूद हो और राजमहल के बाहर ख़ूबसूरत बाग़ बनाया जाए। 


राजा के आदेश का पालन किया गया, जंगल मे सड़क और राजमहल बन कर तैयार हो गया। एक साल के पूरे होते ही राजा ने दरबारियों से कहा कि आप अपने कानून का पालन करो और मुझे वहां छोड़ आओ जहां मुझ से पहले राजाओं को छोड़ के आते थे। 


दरबारियों ने कहा कि महाराज आज से ये कानून ख़त्म हो गया क्योंकि हमें एक अक़लमंद राजा मिल गया है | वहाँ तो हम उन बेवक़ूफ राजाओं को छोड़ कर आते थे जो एक साल की राजशाही के मज़े में बाक़ी की ज़िंदगी को भूल जाते और अपने लिए कोई बंदोबस्त ना करते थे, लेकिन आप ने अपने दिमाग का इस्तेमाल किया और आगे का बंदोबस्त कर लिया। हमें ऐसे ही होशियार राजा की ज़रूरत थी | अब आप आराम से सारी ज़िंदगी हमारे राज्य पर राज करें । 


अब हम लोग भी यह सोचें कि कुछ दिन बाद हमें भी ये दुनिया वाले एक दिन ऐसी जगह छोड़कर आयेंगे.....


जहां से कोई वापस नहीं आता तो क्यो ना हम भी वक्त रहते हुए नेक कर्म और ईश्वर की बदंगी करके अपने अगले सफर की तैयारी कर लें.... या बेवक़ूफ़ बन कर कुछ दिनों की ज़िंदगी के मज़ों में लगे रहें और ये जन्म बर्बाद कर लें।

 ।। जय श्री राम।।



योनि मुद्रा तन्त्र के लाभ।

 



      मां  भगवती की प्रसन्नता के लिए योनि मुद्रा प्रदर्शित करने की आज्ञा है। प्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव लंबी योग साधना के अंतर्गत तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना से भी दृष्टिगोचर होता है। इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से साधक की प्राण-अपान वायु को मिला देनेवाली मूलबंध क्रिया को भी साथ करने से जो स्थिति बनती है, उसे ही योनि मुद्रा की संज्ञा दी है। यह बड़ी चमत्कारी मुद्रा है|


पद्मासन की स्थिति में बैठकर, दोनों हाथों की उंगलियों से योनि मुद्रा बनाकर और पूर्व मूलबंध की स्थिति में सम्यक् भाव से स्थित होकर प्राण-अपान को मिलाने की प्रबल भावना के साथ मूलाधार स्थान पर यौगिक संयम करने से कई प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं। 


ऋषियों का मत है कि जिस योगी को उपरोक्त स्थिति में योनि मुद्रा का लगातार अभ्यास करते-करते सिद्धि प्राप्त हो गई है, उसका शरीर साधनावस्था में भूमि से आसन सहित ऊपर अधर में स्थित हो जाता है। संभवतः इसी कारण आदि शंकराचार्यजी ने अपने योग रत्नावली नामक विशेष ग्रंथ में मूलबंध का उल्लेख विशेष रूप से किया है। 


मूलबंध योग की एक अद्भुत क्रिया है| इसको करने से योग की अनेक कठिनतम क्रियाएं स्वतः ही सिद्ध हो जाती हैं, जिनमें अश्विनी और बज्रौली मुद्राएं प्रमुख हैं। इन मुद्राओं के सिद्ध हो जाने से योगी में कई प्रकार की शक्तियों का उदय हो जाता है। 


शक्तमत के आराधकों के लिये अति गूढ योनि आराधन का भी निर्देश मिलता है। जिन्हें केवल जननांग नहीं सर्जन ओर व्यापक अर्थ मे समझाया गया है।


            यौगिक दृष्टि से मनुष्य के अंदर कई प्रकार के रहस्यमयी शक्ति छिपी हूई है । इन शक्ति को शरीर के अन्तर छिपाकर रखने वाली मुद्रा का नाम ही ‘योनि मुद्रा’ है । तत योग के अनुसार केवल हाथों की उंगलियों से महाशक्ति भगवती की प्रसन्नता के लिए योनि मुद्रा प्रदर्शित करने की आज्ञा है ।


 प्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव लंबी योग साधना के अंतर्गत तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना से भी दृष्टिगोचर होता है । इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से साधक की प्राण-अपान वायु को मिला देने वाली मूलबंध क्रिया को भी साथ करने से जो स्थिति बनती है, उसे ही योनि मुद्रा की संज्ञा दी गयी है । यह एक बड़ी चमत्कारी मुद्रा है ।


                पद्मासन की स्थिति में बैठकर, दोनों हाथों की उंगलियों से योनि मुद्रा बनाकर और पूर्व मूलबंध की स्थिति में सम्यक् भाव से स्थित होकर प्राण-अपान को मिलाने की प्रबल भावना के साथ मूलाधार स्थान पर यौगिक संयम करने से कई प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं । 


ऋषिमुनियों के अनुसार जिस योगी को उपरोक्त स्थिति में योनि मुद्रा का लगातार अभ्यास करते-करते सिद्धि प्राप्त हो गई है । उसका शरीर साधनावस्था में भूमि से आसन सहित ऊपर अधर में स्थित हो जाता है । 


इस मुद्रा का प्रयोग साधना में शाक्ति को द्रवित किये जाने के लिये किया जाता है । भगवती की साधना में उन्हें प्रसन्न करने के लिए इस मुद्रा का प्रदर्शन उनके सम्मुख किया जाता है । पंचमकार साधना में मुद्रा का अति आवश्यक स्थान होता है ।


               योग तन्त्र का पूरा आधार गुढ़ रहस्यमयी है । जिसको समझना बहूत कठीन है । इस के जितने गहराई में जाये उतनी ही उलझने सामने आती रहती है । जितना भी समज आये कम ही है ।


 सदियों से साधक ने इस आधार को समझाने की कोशिश की है और अत्यधिक से अत्यधिक ज्ञान प्राप्त करने पर भी उसके सभी पक्षों की खोज नही कर पाये है । वह आधार है कुण्डलिनी शक्ति जागरण की । कुण्डलिनी के जितने भी पक्ष अब तक विविध साधकों, ऋषिमुनी ने सामने रखे है । 


वह मनुष्यों को उसकी शक्ति के परिचय के लिए पर्याप्त है । सामान्य रूप मे साधको के मध्य कुण्डलिनी का षट्चक्र जागरण ही प्रचलित है । लेकिन उच्चकोटि के योगियों का कथन है की सहस्त्रारजागरण तो कुण्डलिनी जागरण की शुरुआत मात्र है । 


उसके बाद ह्रदयचक्र, चित चक्र, मस्तिस्क चक्र, सूर्यचक्र जागरण जैसे कई चक्रों की अत्यधिक दुस्कर सिद्धिया है । जिन के बारे मे सामान्य मनुष्यों को भले ही ज्ञान न हो लेकिन इन एक एक चक्रों के जागरण के लिए उच्चकोटि के साधकों एवं ऋषिमुनी बर्षो तक साधना करते रहते है


 । इस प्रकार यह कभी न खत्म होने वाला एक अत्यधिक गुढ़ विषय है । इसी क्रम मे आज हमारे तंत्र के धरातल पे अलग अलग बहूत से विधान प्रचलित है ।


                योग तन्त्र के मध्य कायाकल्प के लिए एक अत्यधिक महत्वपूर्ण विधान है । कायाकल्प और सौंदर्य का सही अर्थ क्या है ? यह मात्र काया को सुन्दर बनाने की कोई विधि मात्र नही है ।


 यह आत्मा की निर्मलता से ले के पाप मुक्त हो के आनंद प्राप्ति की क्रिया है । अगर साधक आतंरिक चक्रों के दर्शन की प्रक्रिया कुण्डलिनी के वेग मार्ग से करता है । तब उसे मूलाधार से आगे बढ़ते ही एक त्रिकोण द्रष्टिगोचर होता है । जो की आतंरिक योनी है । 


मनुष्यका ह्रदय पक्ष और स्त्री भाव इस त्रिकोण पर निर्भर करता है । और उसके ऊपर मणिपुर चक्र के पास एक लिंग ठीक उस त्रिकोण अर्थात योनी के ऊपर स्थिर रहता है । जो की व्यक्ति के मस्तिष्क पक्ष और पुरुष भाव से सबंधित होता है ।       


             यह त्रिकोण और लिंग से एक पूर्ण शिवलिंग का निर्माण होता है । जिसे योग-तन्त्र मे आत्मलिंग कहा गया है । इस लिंग के दर्शन करना अत्यधिक सौभाग्य सूचक और सिद्धि प्रदाता है । शिवलिंग के अभिषेक के महत्व के बारे मे हर व्यक्ति जनता ही है ।


 इसी क्रम मे साधक इस लिंग का भी अभिषेक करे तो आत्मलिंग से जो उर्जा व्याप्त होती है । वह पुरे शरीर मे फ़ैल कर आतंरिक शरीर का कायाकल्प कर देती है ।


 उसके बाद साधक निर्मल रहता है । उसके चेहरे पर और वाणी मे एक विशेष प्रभाव आ जाता है । साधक एक हर्षोल्लास और आनंद मे मग्न रहता है और कई सिद्धिया उसे स्वतः प्राप्त हो जाती है ।


             योगतन्त्र मे इस दुर्लभ विधान की प्रक्रिया निम्न दी गयी है । यथा संभव इस अभ्यास को साधक ब्रम्ह मुहूर्त मे ही करे । अगर यह संभव न हो तो कोई ऐसे समय का चयन करे जब शान्ती हो और अभ्यास के मध्य कोई विघ्न ना आये ।


 साधक पहले अपनी योग्यता से सोऽहं बीज के साथ अनुलोम विलोम की प्रक्रिया करे । उसके बाद भस्त्रिका करे । अनुभव मे आया है की जब साधक २ मिनट मे १२० बार पूर्ण भस्त्रिका करे तब उसे कुछ समय आँखे बांध करने पर कुण्डलिनी का आतंरिक मार्ग कुछ क्षणों तक दिखता है । 


इस समय मे साधक को


 "।। ॐ आत्मलिंगायै हूं ।।"


 का सतत जाप करते रहना चाहिए । नियमित रूप से जाप करते रहने से वह लिंग धीरे धीरे स्पष्ट दिखाई देने लगता है । जब वह पूर्ण रूप से दिखाई देने लग जाए तब आत्मलिंग के ऊपर अपनी कल्पना के योग्य


 "।। ॐ आत्मलिंगायै सिद्धिं फट ।।"  


मंत्र द्वारा अभिषेक करे । जिसे आँखों के मध्य हम बहार देखते है । चित के माध्यम से शरीर उसे अंदर देख सकता है । 

              चित, द्रष्टि के द्वारा पदार्थो का आतंरिक सर्जन करता है और उसे ही मस्तिक के माध्यम से बिम्ब का रूप समज कर हम बहार देखकर महसूस करते है ।  


इस प्रक्रिया मे चित का सूक्ष्म सर्जन ही मूल सर्जन की भाव भूमि का निर्माण करता है । इस लिए अभिषेक करते वक्त चित मे से निकली हुयी अभिषेक की कल्पना सूक्ष्मजगत मे मूल पदार्थ की रचना करती ही है । 


जिससे साधक जो भी अभिषेक विधान की प्रक्रिया करता है वो साधक के लिए भले ही कल्पना हो । सूक्ष्म जगत मे उसका बराबर अस्तित्व होता ही है । अभिषेक का अभ्यास शुरू होते ही साधक का कायाकल्प भी शुरू हो जाता है । "लिंग" का सामान्य अर्थ "चिन्ह" होता है । इस अर्थ में लिंग पूजन, शिव के चिन्ह या प्रतीक के रूप में ही होता है । 


             अब मानसपटल पे सवाल उठता है कि लिंग पूजन केवल शिव का ही क्यों होता है ? अन्य देवताओं का क्यों नहीं ? कारण यह है कि शिव को आदि शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है । जिसकी कोई आकृति नहीं है । 


इस रूप में शिव निराकार है । लिंग का अर्थ ओंकार ( ॐ ) बताया गया है । “प्रणव तस्य लिंग ” उस ब्रह्म का चिन्ह प्रणव, ओंकार है । 


अतः  "लिंग" का अर्थ शिव की जननेन्द्रिय से नहीं है । उनके पहचान चिह्न से है । जो अज्ञात तत्त्व का परिचय देता है । यह पुराण प्रधान प्रकृति को ही लिंग रूप मानता है ।


साधना काल के दौरान आपको कुछ आश्चर्य जनक अनुभव हो सकते हैं, पर इनसे न परेशान या बिचलित न हो , ये तो साधना सफलता के लक्षण हैं l


योनि पुजा ही तंत्र का मेरूदणड....


                 समाज में आज योनी पुजा की बात करे तो मनुष्य उसको नकारात्मक दृष्टी से देखना शुरू कर देते है । जो मनुष्य  योनि पूजा को नकारात्मक दृष्टि से देखते हैं, परमात्मा उन्हें सदवुद्धी दे । कृपा करे यैसे अज्ञानीओं पे ।


 उन्हें पता ही नहीं कि वह जननी शक्ति, श्रृष्टि शक्ति को नकारात्मक दृष्टि से देख रहे हैं । देवो के देव महादेव उनपर कृपा बरसाये रखे जो योनि पूजा का महत्व जानते हीं नही हैं । उन्हें इस सत्यता का पत्ता ही नहीं हैे की योनी पूजा के बिना कोई भी साधना पूर्ण नहीं है । 


शक्ती और शव की बहूत बडी कृपा है की हमें ये अति महत्वपूर्ण ज्ञान दिया और हमे शक्ति साधक बनाया ।


 योनिपूजा से ही हम भैरवी साधना, शक्ति साधना, कुंडलिनी साधना और भी बहूत साधना मार्ग पर अग्रसर हो सकते है र सफलता प्राप्त कर सकते है । 


                लिंग पूजा पूरे विश्व में होती है । सभी बड़ी ख़ुशी के साथ करते हैं, पर योनिपूजा के नाम पर नाक भौं सिकुड़ता है । जबकि सम्पूर्ण विश्व का मूल उत्पत्ति कारक यही योनी है । आज हम मनुष्य सत्यता को अनदेखा कर रहे है । इसे मूर्खता और छुद्र मानसिकता नहीं कहेगे तो और क्या कहेंगे ।


                जो मनुष्य काम भावना से परेशान हैं ।


 कामुकता से पीड़ित हैं । ना चाहते हुए भी दिमाग काम वासना की ओर ही जाता है । पूजा पाठ में भी भावना शुद्ध नहीं तह पाती । कामुकता जगती है । अपराधबोध उपजता है ।


 यैसे मनुष्य इन सब से मुक्ति चाहते है तो इनको साधना करना बहूत जरूरी है । कामुक्ता से मुक्ती और शक्ति प्राप्ती के लिए भैरवी तंत्र मार्ग सर्वोत्तम मार्ग है ।


 प्राकृतिक नियमो पर आधारित ये साधना मनुष्य को काम उर्जा मोक्ष तक पहुचा सकती है । अन्य कोई साधना मार्ग से काम बासना मुक्ति का रास्ता बहूत ही कठीन है । 


                स्कन्द पुराण में भगवान् शिव ने ऋषि नारद को नाद ब्रह्म का ज्ञान दिया था और मनुष्य देह में स्थित चक्रों और आत्म ज्योति रूपी परमात्मा के साक्षात्कार का मार्ग बताया था । स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर प्रत्येक मनुष्य के अस्तित्व में हैं । सूक्ष्म शारीर में मन और बुद्धि हैं । 


मन सदा संकल्प -विकल्प में लगा रहता है । बुद्धि अपने लाभ के लिए मन के सुझावों को तर्क -वितर्क से विश्लेषण करती रहती है । कारण या लिंग शरीर ह्रदय में स्थित होता है जिसमें अहंकार और चित्त मंडल के रूप में दिखाई देते हैं । 


अहंकार अपने को श्रेष्ठ और दूसरों को नीचा दिखाने का प्रयास करता है और चित्त पिछले अनेक जन्मों के घनीभूत अनुभवों को संस्कार के रूप में संचित रखना चाहाता है ।

                   आत्मा जो एक ज्योति है । इस से परे है किन्तु आत्मा के निकलते ही स्थूल शरीर से सूक्ष्म और कारण शरीर अलग हो जाते हैं । कारण शरीर को लिंग शरीर भी कहा गया हैं । क्योंकि इसमें निहित संस्कार ही आत्मा के अगले शरीर का निर्धारण करता हैं । आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति महादेव ने बतायी है ।    


                    पिछले कर्म द्वारा प्रेरित जीव आत्मा, वीर्य जो की खाए गए भोजन का सूक्ष्मतम तत्व है, के रूपप में परिणत हो कर माता के गर्भ में प्रवेश करता है । जहाँ मान के स्वभाव के अनुसार उसके नए व्यक्तित्व का निर्माण होता है ।


 गर्भ में स्थित शिशु अपने हाथों से कानों को बंद करके अपने पूर्व कर्मों को याद करके पीड़ित होता है । और अपने को धिक्कार कर गर्भ से मुक्त होने का प्रयास करता है । जन्म लेते ही बाहर की वायु का पान करते ही वह अपने पिछले संस्कार से युक्त होकर पुरानी स्मृतियों को भूल जाता है । 


                  शरीर में सात धातु हैं । त्वचा, रक्त, मांस वसा, हड्डी, मज्जा और वीर्य (नर शरीर में ) या रज (नारी शरीर में ) । देह में नो छिद्र हैं । दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, मुख, गुदा और लिंग । स्त्री शरीर में दो स्तन और एक भग यानी गर्भ का छिद्र अतिरिक्त छिद्र हैं ।


 स्त्रियों में बीस पेशियाँ पुरुषों से अधिक होती हैं । उनके वक्ष में दस और भग में दस और पेशियाँ होती हैं ।


 योनी में तीन चक्र होते हैं तीसरे चक्र में गर्भ शैय्या स्थित होती है । लाल रंग की पेशी वीर्य को जीवन देती है । शरीर में एक सौ सात मर्म स्थान और तीन करोड़ पचास लाख रोम कूप होते हैं । जो व्यक्ति योग अभ्यास में निरत रहता है वह नाद ब्रह्म और तीनों लोकों को सुखपूर्वक जानता और भोगता है । 


मूल आधार स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार नामक सात ऊर्जा केंद्र शरीर में है । जिन पर ध्यान का अभ्यास करने से देवीय शक्ति प्राप्त होती है ।


 सहस्रार में प्रकाश दीखने पर वहां से अमृत वर्षा का सा आनंद प्राप्त होता है । जो मनुष्य शरीर की परम उपलब्धि है । जिसको अपने शरीर में दिव्य आनंद मिलने लगता है । वह फिर चाहे भीड़ में रहे या अकेले में, चाहे इन्द्रियों से विषयों को भोगे या आत्म ध्यान का अभ्यास करे । उसे सदा परम आनंद और मोह से मुक्ति का अनुभव होता है ।


 मनुष्य का शरीर अनु, परमाणुओं के संघटन से बना है । जिस तरह अणु, परमाणु सदा गति शील रहते हैं । किन्तु प्रकाश एक ऊर्जा मात्र है जो कभी तरंग और कभी कण की तरह व्यवहार करता है । 


उसी तरह आत्म सूर्य के प्रकाश से भी अधिक सूक्ष्म और व्यापक है । यह इस तरह सिद्ध होता है की सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी तक आने में कुछ मिनट लगते हैं । जब की मनुष्य उसे आँख खोलते ही देख लेता है । 


अतः आत्मा प्रकाश से भी सूक्ष्म है । जिसका अनुभव और दर्शन केवल ध्यान के माध्यम से ही होता है । जब तक मन उस आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर लेता उसे मोह से मुक्ति नहीं मिल सकती ।


 मोह मनुष्य को भय भीत करता है । क्योंकि जो पाया है उसके खोने का भय उसे सताता रहता है । जबकि आत्म दर्शन से दिव्य प्रेम की अनुभूति होती है । जो व्यक्ति को निर्भय करती है क्योंकि उसे सब के अस्तित्व में उसी दिव्य ज्योति का दर्शन होने लगता है ।


योनि तंत्र.....


         सृष्टि का प्रथम बीज रूप उत्पत्ति योनि से ही होने के कारण तंत्र मार्ग के सभी साधक ‘योनि’ को आद्याशक्ति मानते हैं । लिंग का अवतरण इसकी ही प्रतिक्रिया में होता है । लिंग और योनि के घर्षण से ही सृष्टि आदि का परमाणु रूप उत्पन्न होता है ।


 इन दोनों संरचनाओं के मिलने से ही इस ब्रह्माण्ड और सम्पुर्ण इकाई का शरीर बनता है और इनकी क्रिया से ही उसमें जीवन और प्राणतत्व ऊर्जा का संरचना होता है । यह योनि एवं लिंग का संगम प्रत्येक के शरीर में चल रहा है ।       

         

         शक्तिमन्त्रमुपास्यैव यदि योनिं न पुजयेत् ।

    तेषा दीक्षाश्चय मन्त्रश्चय ठ नरकायोपेपधते ।। ७ ।।

        अहं मृत्युञ्जयो देवी तव योनि प्रसादतः ।

    तव योनिं महेशनि भाव यामि अहर्निशम् ।। ८ ।।


         योनी तंत्र के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों 

शक्तियों का निवास प्रत्येक नारी की योनी में है । क्योंकि 

हर स्त्री देवी भगवती का ही अंश है ।


 दश महाविद्या


 

अर्थात देवी के दस पूज्नीय रूप भी योनी में निहित है ।अतः पुरुष को अपना आध्यात्मिक उत्थान करने के लिए मन्त्र उच्चारण के साथ देवी के दस रूपों की अर्चना योनी 

पूजन द्वारा करनी चाहिए ।


 योनी तंत्र में भगवान् शिव ने 

स्पष्ट कहा है की श्रीकृष्ण, श्रीराम और स्वयं शिव भी 

योनी पूजा से ही शक्तिमानहुए हैं । भगवान् राम, शिव 

जैसे योगेश्वर भी योनी पूजा कर योनीतत्त्वको सादर मस्तक पर धारण करते थे । 


योनी तंत्र में कहा गया है क्यों कि बिना योनी की दिव्य उपासना के पुरुषकीआध्यात्मिक उन्नति संभव नहीं है । सभी स्त्रियाँ परमेश्वरी भगवती

का अंश होने के कारण इस सम्मान की अधिकारिणी हैं ।      

          अतः तंत्र साधक हो या फीर आम मनुष्य कभी 

भी स्त्रियों का तिरस्कार या अपमान नहीं करना चाहिए ।


नोटः-


शुद्ध उच्चारण के साथ किसी साधक के मार्गदर्शन में इन मंत्रों का प्रयोग करना ही लाभकर होगा।यदि किसी भी प्रकार की दिक्कते हो,तो मुझसे सम्पर्क कर सकते है।


आप सभी को मेरी शुभकामनाएं साधना करें साधनामय बनें......


साधको को सूचित किया जाता हैं की हर चीज की अपनी एक सीमा होती हैं , इसलिए किसी भी साधना का प्रयोग उसकी सीमा में ही रहकर करे , और मानव होकर मानवता की सेवा करे अपने जीवन को उच्च स्तर पर ले जाएँ ,.


.चेतावनी -


सिद्ध गुरु कि देखरेख मे साधना समपन्न करेँ , सिद्ध गुरु से दिक्षा , आज्ञा , सिद्ध यंत्र , सिद्ध माला , सिद्ध सामग्री लेकर हि गुरू के मार्ग दरशन मेँ साधना समपन्न करेँ ।


 बिना गुरू साधना करना अपने विनाश को न्यौता देना है बिना गुरु आज्ञा साधना करने पर साधक पागल हो जाता है या म्रत्यु को प्राप्त करता है इसलिये कोई भी साधना बिना गुरु आज्ञा ना करेँ ।

कामाख्याकवच तथा  योनिस्तोत्र!! 

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कामाख्या देवी का कवच पाठ करने से सभी बाधाओं से मुक्ति मिल जाती है।

      इस कवच के प्रभाव से मनुष्य भय रहित, तेजस्वी तथा भैरवतुल्य हो जाता है। जप, होम आदि कर्मों में समासक्त मन वाले भक्त की मंत्र-तंत्रों में सिद्घि निर्विघ्न हो जाती है।। 30।।


।।मांकामाख्या देवी कवच।।


ओं प्राच्यां रक्षतु मे तारा कामरूप निवासिनी।

आग्नेय्यां षोडशी पातु याम्यां धूमावती स्वयम्।।31


नैर्ऋत्यां भैरवी पातु वारुण्यां भुवनेश्वरी।

वायव्यां सततं पातु छिन्नमस्ता महेश्वरी।। 32।।


कौबेर्यां पातु मे देवी श्रीविद्या बगलामुखी।

ऐशान्यां पातु मे नित्यं महात्रिपुर सुन्दरी।। 33।।


ऊध्र्वरक्षतु मे विद्या मातंगी पीठवासिनी।

सर्वत: पातु मे नित्यं कामाख्या कलिका स्वयम्।। 34।।


ब्रह्मरूपा महाविद्या सर्वविद्यामयी स्वयम्।

शीर्षे रक्षतु मे दुर्गा भालं श्री भवगेहिनी।। 35।।


त्रिपुरा भ्रूयुगे पातु शर्वाणी पातु नासिकाम।

चक्षुषी चण्डिका पातु श्रोत्रे नीलसरस्वती।। 36।।


मुखं सौम्यमुखी पातु ग्रीवां रक्षतु पार्वती।

जिव्हां रक्षतु मे देवी जिव्हाललन भीषणा।। 37।।


वाग्देवी वदनं पातु वक्ष: पातु महेश्वरी।

बाहू महाभुजा पातु कराङ्गुली: सुरेश्वरी।। 38।।


पृष्ठत: पातु भीमास्या कट्यां देवी दिगम्बरी।

उदरं पातु मे नित्यं महाविद्या महोदरी।। 39।।


उग्रतारा महादेवी जङ्घोरू परिरक्षतु।

गुदं मुष्कं च मेदं च नाभिं च सुरसुंदरी।। 40।।


पादाङ्गुली: सदा पातु भवानी त्रिदशेश्वरी।

रक्तमासास्थिमज्जादीनपातु देवी शवासना।। 41।


महाभयेषु घोरेषु महाभयनिवारिणी।

पातु देवी महामाया कामाख्यापीठ वासिनी।। 42।।


भस्माचलगता दिव्यसिंहासनकृताश्रया।

पातु श्री कालिकादेवी सर्वोत्पातेषु सर्वदा।। 43।।


रक्षाहीनं तु यत्स्थानं कवचेनापि वर्जितम्।

तत्सर्वं सर्वदा पातु सर्वरक्षण कारिणी।। 44।।


इदं तु परमं गुह्यं कवचं मुनिसत्तम।कामाख्या भयोक्तं ते सर्वरक्षाकरं परम्।। 45।।

~~~~````~~~~````~~~~`````~~~ फलश्रुति

अनेन कृत्वा रक्षां तु निर्भय: साधको भवेत।न तं स्पृशेदभयं घोरं मन्त्रसिद्घि विरोधकम्।। 46।।


जायते च मन: सिद्घिर्निर्विघ्नेन महामते।इदं यो धारयेत्कण्ठे बाहौ वा कवचं महत्।। 47।।


अव्याहताज्ञ: स भवेत्सर्वविद्याविशारद:।सर्वत्र लभते सौख्यं मंगलं तु दिनेदिने।। 48।।


य: पठेत्प्रयतो भूत्वा कवचं चेदमद्भुतम्।स देव्या: पदवीं याति सत्यं सत्यं न संशय:।। 49।।


हिन्दी में अर्थ : कामरूप में निवास करने वाली भगवती तारा पूर्व दिशा में, पोडशी देवी अग्निकोण में तथा स्वयं धूमावती दक्षिण दिशा में रक्षा करें।। 31।। 


नैऋत्यकोण में भैरवी, पश्चिम दिशा में भुवनेश्वरी और वायव्यकोण में भगवती महेश्वरी छिन्नमस्ता निरंतर मेरी रक्षा करें।। 32।। 


उत्तरदिशा में श्रीविद्यादेवी बगलामुखी तथा ईशानकोण में महात्रिपुर सुंदरी सदा मेरी रक्षा करें।। 33।। 


भगवती कामाख्या के शक्तिपीठ में निवास करने वाली मातंगी विद्या ऊध्र्वभाग में और भगवती कालिका कामाख्या स्वयं सर्वत्र मेरी नित्य रक्षा करें।। 34।। 


ब्रह्मरूपा महाविद्या सर्व विद्यामयी स्वयं दुर्गा सिर की रक्षा करें और भगवती श्री भवगेहिनी मेरे ललाट की रक्षा करें।। 35।। 


त्रिपुरा दोनों भौंहों की, शर्वाणी नासिका की, देवी चंडिका आँखों की तथा नीलसरस्वती दोनों कानों की रक्षा करें।। 36।। 


भगवती सौम्यमुखी मुख की, देवी पार्वती ग्रीवा की और जिव्हाललन भीषणा देवी मेरी जिव्हा की रक्षा करें।। 37।। 


वाग्देवी वदन की, भगवती महेश्वरी वक्ष: स्थल की, महाभुजा दोनों बाहु की तथा सुरेश्वरी हाथ की, अंगुलियों की रक्षा करें।। 38।। 


भीमास्या पृष्ठ भाग की, भगवती दिगम्बरी कटि प्रदेश की और महाविद्या महोदरी सर्वदा मेरे उदर की रक्षा करें।। 39।। 


महादेवी उग्रतारा जंघा और ऊरुओं की एवं सुरसुन्दरी गुदा, अण्डकोश, लिंग तथा नाभि की रक्षा करें।। 40।। 


भवानी त्रिदशेश्वरी सदा पैर की, अंगुलियों की रक्षा करें और देवी शवासना रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा आदि की रक्षा करें।। 41।। 


भगवती कामाख्या शक्तिपीठ में निवास करने वाली, महाभय का निवारण करने वाली देवी महामाया भयंकर महाभय से रक्षा करें। भस्माचल पर स्थित दिव्य सिंहासन विराजमान रहने वाली श्री कालिका देवी सदा सभी प्रकार के विघ्नों से रक्षा करें।। 43।। 


जो स्थान कवच में नहीं कहा गया है, अतएव रक्षा से रहित है उन सबकी रक्षा सर्वदा भगवती सर्वरक्षकारिणी करे।। 44।। 


मुनिश्रेष्ठ! मेरे द्वारा आप से महामाया सभी प्रकार की रक्षा करने वाला भगवती कामाख्या का जो यह उत्तम कवच है वह अत्यन्त गोपनीय एवं श्रेष्ठ है।। 45।। 


इस कवच से रहित होकर साधक निर्भय हो जाता है। मन्त्र सिद्घि का विरोध करने वाले भयंकर भय उसका कभी स्पर्श तक नहीं करते हैं।। 46।। 


महामते! जो व्यक्ति इस महान कवच को कंठ में अथवा बाहु में धारण करता है उसे निर्विघ्न मनोवांछित फल मिलता है।। 48।। 


वह अमोघ आज्ञावाला होकर सभी विद्याओं में प्रवीण हो जाता है तथा सभी जगह दिनोंदिन मंगल और सुख प्राप्त करता है। जो जितेन्द्रिय व्यक्ति इस अद्भुत कवच का पाठ करता है वह भगवती के दिव्य धाम को जाता है। यह सत्य है, इसमें संशय नहीं है।। 49।


।।योनिस्तोत्र।। 

ॐभग-रूपा जगन्माता सृष्टि-स्थिति लयान्विता ।

दशविद्या - स्वरूपात्मा योनिर्मां पातु सर्वदा।।१


कोण-त्रय-युता देवि स्तुति-निन्दा विवर्जिता ।

जगदानन्द-सम्भूता योनिर्मां पातु सर्वदा ।।२


कात्र्रिकी - कुन्तलं रूपं योन्युपरि सुशोभितम्।

भुक्ति-मुक्ति-प्रदा योनि: योनिर्मां पातु सर्वदा।।३


वीर्यरूपा शैलपुत्री मध्यस्थाने विराजिता। 

ब्रह्म-विष्णु-शिव श्रेष्ठा योनिर्मां पातु सर्वदा।।४


योनिमध्ये महाकाली छिद्ररूपा सुशोभना।

सुखदा मदनागारा योनिर्मां पातु सर्वदा ।।५


काल्यादि-योगिनी-देवी योनिकोणेषु संस्थिता।

मनोहरा दुःख लभ्या योनिर्मां पातु सर्वदा ।।६


सदा शिवो मेरु-रूपो योनिमध्ये वसेत् सदा ।

वैâवल्यदा काममुक्ता योनिर्मां पातु सर्वदा ।।७


सर्व-देव स्तुता योनि सर्व-देव-प्रपूजिता।

सर्व-प्रसवकत्र्री त्वं योनिर्मां पातु सर्वदा ।।८


सर्व-तीर्थ-मयी योनि: सर्व-पाप प्रणाशिनी।

सर्वगेहे स्थिता योनि: योनिर्मां पातु सर्वदा।।९


मुक्तिदा धनदा देवी सुखदा कीर्तिदा तथा ।

आरोग्यदा वीर-रता पञ्च-तत्व-युता सदा।।१०


llजय सद्गुरुदेव, जय महाकाल ll

funny khel


via https://youtu.be/EhfGfQtc3D0

शिव पुराण के उपाय

 जय शिव शंकर





ये हैं शिवपुराण के छोटे-छोटे उपाय, कर सकते हैं आपकी हर इच्छा पूरी...


भगवान शिव बहुत भोले हैं, यदि कोई भक्त सच्ची श्रद्धा से उन्हें सिर्फ एक लोटा पानी भी अर्पित करे तो भी वे प्रसन्न हो जाते हैं। इसीलिए उन्हें भोलेनाथ भी कहा जाता है। भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए कुछ छोटे और अचूक उपायों के बारे शिवपुराण में भी लिखा है। ये उपाय इतने सरल हैं कि इन्हें बड़ी ही आसानी से किया जा सकता है। हर समस्या के समाधान के लिए शिवपुराण में एक अलग उपाय बताया गया है। 


ये उपाय..........

#शिवपुराण के अनुसार, भगवान शिव को प्रसन्न करने के उपाय इस प्रकार हैं-

1. भगवान शिव को चावल चढ़ाने से धन की प्राप्ति होती है।

2. तिल चढ़ाने से पापों का नाश हो जाता है।

3. जौ अर्पित करने से सुख में वृद्धि होती है।

4. गेहूं चढ़ाने से संतान वृद्धि होती है।

यह सभी अन्न भगवान को अर्पण करने के बाद गरीबों में बांट देना चाहिए।

शिवपुराण के अनुसार, जानिए भगवान शिव को कौन-सा रस (द्रव्य) चढ़ाने से क्या फल मिलता है-

1. बुखार होने पर भगवान शिव को जल चढ़ाने से शीघ्र लाभ मिलता है। सुख व संतान की वृद्धि के लिए भी जल द्वारा शिव की पूजा उत्तम बताई गई है।

2. तेज दिमाग के लिए शक्कर मिला दूध भगवान शिव को चढ़ाएं।

3. शिवलिंग पर गन्ने का रस चढ़ाया जाए तो सभी आनंदों की प्राप्ति होती है।

4. शिव को गंगा जल चढ़ाने से भोग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।

5. शहद से भगवान शिव का अभिषेक करने से टीबी रोग में आराम मिलता है।

6. यदि शारीरिक रूप से कमजोर कोई व्यक्ति भगवान शिव का अभिषेक गाय के शुद्ध घी से करे तो उसकी कमजोरी दूर।


शिवपुराण के अनुसार, जानिए भगवान शिव को कौन-सा फूल चढ़ाने से क्या फल मिलता है-

1. लाल व सफेद आंकड़े के फूल से भगवान शिव का पूजन करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।

2. चमेली के फूल से पूजन करने पर वाहन सुख मिलता है।

3. अलसी के फूलों से शिव का पूजन करने पर मनुष्य भगवान विष्णु को प्रिय होता है।

4. शमी वृक्ष के पत्तों से पूजन करने पर मोक्ष प्राप्त होता है।

5. बेला के फूल से पूजन करने पर सुंदर व सुशील पत्नी मिलती है।

6. जूही के फूल से भगवान शिव का पूजन करें तो घर में कभी अन्न की कमी नहीं होती।

7. कनेर के फूलों से भगवान शिव का पूजन करने से नए वस्त्र मिलते हैं।

8. हरसिंगार के फूलों से पूजन करने पर सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है।

9. धतूरे के फूल से पूजन करने पर भगवान शंकर सुयोग्य पुत्र प्रदान करते हैं, जो कुल का नाम रोशन करता है।

10. लाल डंठलवाला धतूरा शिव पूजन में शुभ माना गया है।

11. दूर्वा से भगवान शिव का पूजन करने पर आयु बढ़ती है।


इन उपायों से प्रसन्न होते हैं भगवान शिव

1. सावन में रोज 21 बिल्वपत्रों पर चंदन से ऊं नम: शिवाय लिखकर शिवलिंग पर चढ़ाएं। इससे आपकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो सकती हैं।


2. अगर आपके घर में किसी भी प्रकार की परेशानी हो तो सावन में रोज सुबह घर में गोमूत्र का छिड़काव करें तथा गुग्गुल का धूप दें।


3. यदि आपके विवाह में अड़चन आ रही है तो सावन में रोज शिवलिंग पर केसर मिला हुआ दूध चढ़ाएं। इससे जल्दी ही आपके विवाह के योग बन सकते हैं।


4. सावन में रोज नंदी (बैल) को हरा चारा खिलाएं। इससे जीवन में सुख-समृद्धि आएगी और मन प्रसन्न रहेगा।


5. सावन में गरीबों को भोजन कराएं, इससे आपके घर में कभी अन्न की कमी नहीं होगी तथा पितरों की आत्मा को शांति मिलेगी।


6. सावन में रोज सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि से निपट कर समीप स्थित किसी शिव मंदिर में जाएं और भगवान शिव का जल से अभिषेक करें और उन्हें काले तिल अर्पण करें। इसके बाद मंदिर में कुछ देर बैठकर मन ही मन में ऊं नम: शिवाय मंत्र का जाप करें। इससे मन को शांति मिलेगी।


7. सावन में किसी नदी या तालाब जाकर आटे की गोलियां मछलियों को खिलाएं। जब तक यह काम करें मन ही मन में भगवान शिव का ध्यान करते रहें। यह धन प्राप्ति का बहुत ही सरल उपाय है।


आमदनी बढ़ाने के लिए


सावन के महीने में किसी भी दिन घर में पारद शिवलिंग की स्थापना करें और उसकी यथा विधि पूजन करें। इसके बाद नीचे लिखे मंत्र का 108 बार जप करें-

ऐं ह्रीं श्रीं ऊं नम: शिवाय: श्रीं ह्रीं ऐं

प्रत्येक मंत्र के साथ बिल्वपत्र पारद शिवलिंग पर चढ़ाएं। बिल्वपत्र के तीनों दलों पर लाल चंदन से क्रमश: ऐं, ह्री, श्रीं लिखें। अंतिम 108 वां बिल्वपत्र को शिवलिंग पर चढ़ाने के बाद निकाल लें तथा उसे अपने पूजन स्थान पर रखकर प्रतिदिन उसकी पूजा करें। माना जाता है ऐसा करने से व्यक्ति की आमदानी में इजाफा होता है।


बीमारी ठीक करने के लिए उपाय


सावन में किसी सोमवार को पानी में दूध व काले तिल डालकर शिवलिंग का अभिषेक करें। अभिषेक के लिए तांबे के बर्तन को छोड़कर किसी अन्य धातु के बर्तन का उपयोग करें। अभिषेक करते समय ऊं जूं स: मंत्र का जाप करते रहें। इसके बाद भगवान शिव से रोग निवारण के लिए प्रार्थना करें और प्रत्येक सोमवार को रात में सवा नौ बजे के बाद गाय के सवा पाव कच्चे दूध से शिवलिंग का अभिषेक करने का संकल्प लें। इस उपाय से बीमारी ठीक होने में लाभ मिलता है।

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