मां भगवती की प्रसन्नता के लिए योनि मुद्रा प्रदर्शित करने की आज्ञा है। प्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव लंबी योग साधना के अंतर्गत तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना से भी दृष्टिगोचर होता है। इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से साधक की प्राण-अपान वायु को मिला देनेवाली मूलबंध क्रिया को भी साथ करने से जो स्थिति बनती है, उसे ही योनि मुद्रा की संज्ञा दी है। यह बड़ी चमत्कारी मुद्रा है|
पद्मासन की स्थिति में बैठकर, दोनों हाथों की उंगलियों से योनि मुद्रा बनाकर और पूर्व मूलबंध की स्थिति में सम्यक् भाव से स्थित होकर प्राण-अपान को मिलाने की प्रबल भावना के साथ मूलाधार स्थान पर यौगिक संयम करने से कई प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं।
ऋषियों का मत है कि जिस योगी को उपरोक्त स्थिति में योनि मुद्रा का लगातार अभ्यास करते-करते सिद्धि प्राप्त हो गई है, उसका शरीर साधनावस्था में भूमि से आसन सहित ऊपर अधर में स्थित हो जाता है। संभवतः इसी कारण आदि शंकराचार्यजी ने अपने योग रत्नावली नामक विशेष ग्रंथ में मूलबंध का उल्लेख विशेष रूप से किया है।
मूलबंध योग की एक अद्भुत क्रिया है| इसको करने से योग की अनेक कठिनतम क्रियाएं स्वतः ही सिद्ध हो जाती हैं, जिनमें अश्विनी और बज्रौली मुद्राएं प्रमुख हैं। इन मुद्राओं के सिद्ध हो जाने से योगी में कई प्रकार की शक्तियों का उदय हो जाता है।
शक्तमत के आराधकों के लिये अति गूढ योनि आराधन का भी निर्देश मिलता है। जिन्हें केवल जननांग नहीं सर्जन ओर व्यापक अर्थ मे समझाया गया है।
यौगिक दृष्टि से मनुष्य के अंदर कई प्रकार के रहस्यमयी शक्ति छिपी हूई है । इन शक्ति को शरीर के अन्तर छिपाकर रखने वाली मुद्रा का नाम ही ‘योनि मुद्रा’ है । तत योग के अनुसार केवल हाथों की उंगलियों से महाशक्ति भगवती की प्रसन्नता के लिए योनि मुद्रा प्रदर्शित करने की आज्ञा है ।
प्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव लंबी योग साधना के अंतर्गत तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना से भी दृष्टिगोचर होता है । इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से साधक की प्राण-अपान वायु को मिला देने वाली मूलबंध क्रिया को भी साथ करने से जो स्थिति बनती है, उसे ही योनि मुद्रा की संज्ञा दी गयी है । यह एक बड़ी चमत्कारी मुद्रा है ।
पद्मासन की स्थिति में बैठकर, दोनों हाथों की उंगलियों से योनि मुद्रा बनाकर और पूर्व मूलबंध की स्थिति में सम्यक् भाव से स्थित होकर प्राण-अपान को मिलाने की प्रबल भावना के साथ मूलाधार स्थान पर यौगिक संयम करने से कई प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं ।
ऋषिमुनियों के अनुसार जिस योगी को उपरोक्त स्थिति में योनि मुद्रा का लगातार अभ्यास करते-करते सिद्धि प्राप्त हो गई है । उसका शरीर साधनावस्था में भूमि से आसन सहित ऊपर अधर में स्थित हो जाता है ।
इस मुद्रा का प्रयोग साधना में शाक्ति को द्रवित किये जाने के लिये किया जाता है । भगवती की साधना में उन्हें प्रसन्न करने के लिए इस मुद्रा का प्रदर्शन उनके सम्मुख किया जाता है । पंचमकार साधना में मुद्रा का अति आवश्यक स्थान होता है ।
योग तन्त्र का पूरा आधार गुढ़ रहस्यमयी है । जिसको समझना बहूत कठीन है । इस के जितने गहराई में जाये उतनी ही उलझने सामने आती रहती है । जितना भी समज आये कम ही है ।
सदियों से साधक ने इस आधार को समझाने की कोशिश की है और अत्यधिक से अत्यधिक ज्ञान प्राप्त करने पर भी उसके सभी पक्षों की खोज नही कर पाये है । वह आधार है कुण्डलिनी शक्ति जागरण की । कुण्डलिनी के जितने भी पक्ष अब तक विविध साधकों, ऋषिमुनी ने सामने रखे है ।
वह मनुष्यों को उसकी शक्ति के परिचय के लिए पर्याप्त है । सामान्य रूप मे साधको के मध्य कुण्डलिनी का षट्चक्र जागरण ही प्रचलित है । लेकिन उच्चकोटि के योगियों का कथन है की सहस्त्रारजागरण तो कुण्डलिनी जागरण की शुरुआत मात्र है ।
उसके बाद ह्रदयचक्र, चित चक्र, मस्तिस्क चक्र, सूर्यचक्र जागरण जैसे कई चक्रों की अत्यधिक दुस्कर सिद्धिया है । जिन के बारे मे सामान्य मनुष्यों को भले ही ज्ञान न हो लेकिन इन एक एक चक्रों के जागरण के लिए उच्चकोटि के साधकों एवं ऋषिमुनी बर्षो तक साधना करते रहते है
। इस प्रकार यह कभी न खत्म होने वाला एक अत्यधिक गुढ़ विषय है । इसी क्रम मे आज हमारे तंत्र के धरातल पे अलग अलग बहूत से विधान प्रचलित है ।
योग तन्त्र के मध्य कायाकल्प के लिए एक अत्यधिक महत्वपूर्ण विधान है । कायाकल्प और सौंदर्य का सही अर्थ क्या है ? यह मात्र काया को सुन्दर बनाने की कोई विधि मात्र नही है ।
यह आत्मा की निर्मलता से ले के पाप मुक्त हो के आनंद प्राप्ति की क्रिया है । अगर साधक आतंरिक चक्रों के दर्शन की प्रक्रिया कुण्डलिनी के वेग मार्ग से करता है । तब उसे मूलाधार से आगे बढ़ते ही एक त्रिकोण द्रष्टिगोचर होता है । जो की आतंरिक योनी है ।
मनुष्यका ह्रदय पक्ष और स्त्री भाव इस त्रिकोण पर निर्भर करता है । और उसके ऊपर मणिपुर चक्र के पास एक लिंग ठीक उस त्रिकोण अर्थात योनी के ऊपर स्थिर रहता है । जो की व्यक्ति के मस्तिष्क पक्ष और पुरुष भाव से सबंधित होता है ।
यह त्रिकोण और लिंग से एक पूर्ण शिवलिंग का निर्माण होता है । जिसे योग-तन्त्र मे आत्मलिंग कहा गया है । इस लिंग के दर्शन करना अत्यधिक सौभाग्य सूचक और सिद्धि प्रदाता है । शिवलिंग के अभिषेक के महत्व के बारे मे हर व्यक्ति जनता ही है ।
इसी क्रम मे साधक इस लिंग का भी अभिषेक करे तो आत्मलिंग से जो उर्जा व्याप्त होती है । वह पुरे शरीर मे फ़ैल कर आतंरिक शरीर का कायाकल्प कर देती है ।
उसके बाद साधक निर्मल रहता है । उसके चेहरे पर और वाणी मे एक विशेष प्रभाव आ जाता है । साधक एक हर्षोल्लास और आनंद मे मग्न रहता है और कई सिद्धिया उसे स्वतः प्राप्त हो जाती है ।
योगतन्त्र मे इस दुर्लभ विधान की प्रक्रिया निम्न दी गयी है । यथा संभव इस अभ्यास को साधक ब्रम्ह मुहूर्त मे ही करे । अगर यह संभव न हो तो कोई ऐसे समय का चयन करे जब शान्ती हो और अभ्यास के मध्य कोई विघ्न ना आये ।
साधक पहले अपनी योग्यता से सोऽहं बीज के साथ अनुलोम विलोम की प्रक्रिया करे । उसके बाद भस्त्रिका करे । अनुभव मे आया है की जब साधक २ मिनट मे १२० बार पूर्ण भस्त्रिका करे तब उसे कुछ समय आँखे बांध करने पर कुण्डलिनी का आतंरिक मार्ग कुछ क्षणों तक दिखता है ।
इस समय मे साधक को
"।। ॐ आत्मलिंगायै हूं ।।"
का सतत जाप करते रहना चाहिए । नियमित रूप से जाप करते रहने से वह लिंग धीरे धीरे स्पष्ट दिखाई देने लगता है । जब वह पूर्ण रूप से दिखाई देने लग जाए तब आत्मलिंग के ऊपर अपनी कल्पना के योग्य
"।। ॐ आत्मलिंगायै सिद्धिं फट ।।"
मंत्र द्वारा अभिषेक करे । जिसे आँखों के मध्य हम बहार देखते है । चित के माध्यम से शरीर उसे अंदर देख सकता है ।
चित, द्रष्टि के द्वारा पदार्थो का आतंरिक सर्जन करता है और उसे ही मस्तिक के माध्यम से बिम्ब का रूप समज कर हम बहार देखकर महसूस करते है ।
इस प्रक्रिया मे चित का सूक्ष्म सर्जन ही मूल सर्जन की भाव भूमि का निर्माण करता है । इस लिए अभिषेक करते वक्त चित मे से निकली हुयी अभिषेक की कल्पना सूक्ष्मजगत मे मूल पदार्थ की रचना करती ही है ।
जिससे साधक जो भी अभिषेक विधान की प्रक्रिया करता है वो साधक के लिए भले ही कल्पना हो । सूक्ष्म जगत मे उसका बराबर अस्तित्व होता ही है । अभिषेक का अभ्यास शुरू होते ही साधक का कायाकल्प भी शुरू हो जाता है । "लिंग" का सामान्य अर्थ "चिन्ह" होता है । इस अर्थ में लिंग पूजन, शिव के चिन्ह या प्रतीक के रूप में ही होता है ।
अब मानसपटल पे सवाल उठता है कि लिंग पूजन केवल शिव का ही क्यों होता है ? अन्य देवताओं का क्यों नहीं ? कारण यह है कि शिव को आदि शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है । जिसकी कोई आकृति नहीं है ।
इस रूप में शिव निराकार है । लिंग का अर्थ ओंकार ( ॐ ) बताया गया है । “प्रणव तस्य लिंग ” उस ब्रह्म का चिन्ह प्रणव, ओंकार है ।
अतः "लिंग" का अर्थ शिव की जननेन्द्रिय से नहीं है । उनके पहचान चिह्न से है । जो अज्ञात तत्त्व का परिचय देता है । यह पुराण प्रधान प्रकृति को ही लिंग रूप मानता है ।
साधना काल के दौरान आपको कुछ आश्चर्य जनक अनुभव हो सकते हैं, पर इनसे न परेशान या बिचलित न हो , ये तो साधना सफलता के लक्षण हैं l
योनि पुजा ही तंत्र का मेरूदणड....
समाज में आज योनी पुजा की बात करे तो मनुष्य उसको नकारात्मक दृष्टी से देखना शुरू कर देते है । जो मनुष्य योनि पूजा को नकारात्मक दृष्टि से देखते हैं, परमात्मा उन्हें सदवुद्धी दे । कृपा करे यैसे अज्ञानीओं पे ।
उन्हें पता ही नहीं कि वह जननी शक्ति, श्रृष्टि शक्ति को नकारात्मक दृष्टि से देख रहे हैं । देवो के देव महादेव उनपर कृपा बरसाये रखे जो योनि पूजा का महत्व जानते हीं नही हैं । उन्हें इस सत्यता का पत्ता ही नहीं हैे की योनी पूजा के बिना कोई भी साधना पूर्ण नहीं है ।
शक्ती और शव की बहूत बडी कृपा है की हमें ये अति महत्वपूर्ण ज्ञान दिया और हमे शक्ति साधक बनाया ।
योनिपूजा से ही हम भैरवी साधना, शक्ति साधना, कुंडलिनी साधना और भी बहूत साधना मार्ग पर अग्रसर हो सकते है र सफलता प्राप्त कर सकते है ।
लिंग पूजा पूरे विश्व में होती है । सभी बड़ी ख़ुशी के साथ करते हैं, पर योनिपूजा के नाम पर नाक भौं सिकुड़ता है । जबकि सम्पूर्ण विश्व का मूल उत्पत्ति कारक यही योनी है । आज हम मनुष्य सत्यता को अनदेखा कर रहे है । इसे मूर्खता और छुद्र मानसिकता नहीं कहेगे तो और क्या कहेंगे ।
जो मनुष्य काम भावना से परेशान हैं ।
कामुकता से पीड़ित हैं । ना चाहते हुए भी दिमाग काम वासना की ओर ही जाता है । पूजा पाठ में भी भावना शुद्ध नहीं तह पाती । कामुकता जगती है । अपराधबोध उपजता है ।
यैसे मनुष्य इन सब से मुक्ति चाहते है तो इनको साधना करना बहूत जरूरी है । कामुक्ता से मुक्ती और शक्ति प्राप्ती के लिए भैरवी तंत्र मार्ग सर्वोत्तम मार्ग है ।
प्राकृतिक नियमो पर आधारित ये साधना मनुष्य को काम उर्जा मोक्ष तक पहुचा सकती है । अन्य कोई साधना मार्ग से काम बासना मुक्ति का रास्ता बहूत ही कठीन है ।
स्कन्द पुराण में भगवान् शिव ने ऋषि नारद को नाद ब्रह्म का ज्ञान दिया था और मनुष्य देह में स्थित चक्रों और आत्म ज्योति रूपी परमात्मा के साक्षात्कार का मार्ग बताया था । स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर प्रत्येक मनुष्य के अस्तित्व में हैं । सूक्ष्म शारीर में मन और बुद्धि हैं ।
मन सदा संकल्प -विकल्प में लगा रहता है । बुद्धि अपने लाभ के लिए मन के सुझावों को तर्क -वितर्क से विश्लेषण करती रहती है । कारण या लिंग शरीर ह्रदय में स्थित होता है जिसमें अहंकार और चित्त मंडल के रूप में दिखाई देते हैं ।
अहंकार अपने को श्रेष्ठ और दूसरों को नीचा दिखाने का प्रयास करता है और चित्त पिछले अनेक जन्मों के घनीभूत अनुभवों को संस्कार के रूप में संचित रखना चाहाता है ।
आत्मा जो एक ज्योति है । इस से परे है किन्तु आत्मा के निकलते ही स्थूल शरीर से सूक्ष्म और कारण शरीर अलग हो जाते हैं । कारण शरीर को लिंग शरीर भी कहा गया हैं । क्योंकि इसमें निहित संस्कार ही आत्मा के अगले शरीर का निर्धारण करता हैं । आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति महादेव ने बतायी है ।
पिछले कर्म द्वारा प्रेरित जीव आत्मा, वीर्य जो की खाए गए भोजन का सूक्ष्मतम तत्व है, के रूपप में परिणत हो कर माता के गर्भ में प्रवेश करता है । जहाँ मान के स्वभाव के अनुसार उसके नए व्यक्तित्व का निर्माण होता है ।
गर्भ में स्थित शिशु अपने हाथों से कानों को बंद करके अपने पूर्व कर्मों को याद करके पीड़ित होता है । और अपने को धिक्कार कर गर्भ से मुक्त होने का प्रयास करता है । जन्म लेते ही बाहर की वायु का पान करते ही वह अपने पिछले संस्कार से युक्त होकर पुरानी स्मृतियों को भूल जाता है ।
शरीर में सात धातु हैं । त्वचा, रक्त, मांस वसा, हड्डी, मज्जा और वीर्य (नर शरीर में ) या रज (नारी शरीर में ) । देह में नो छिद्र हैं । दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, मुख, गुदा और लिंग । स्त्री शरीर में दो स्तन और एक भग यानी गर्भ का छिद्र अतिरिक्त छिद्र हैं ।
स्त्रियों में बीस पेशियाँ पुरुषों से अधिक होती हैं । उनके वक्ष में दस और भग में दस और पेशियाँ होती हैं ।
योनी में तीन चक्र होते हैं तीसरे चक्र में गर्भ शैय्या स्थित होती है । लाल रंग की पेशी वीर्य को जीवन देती है । शरीर में एक सौ सात मर्म स्थान और तीन करोड़ पचास लाख रोम कूप होते हैं । जो व्यक्ति योग अभ्यास में निरत रहता है वह नाद ब्रह्म और तीनों लोकों को सुखपूर्वक जानता और भोगता है ।
मूल आधार स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार नामक सात ऊर्जा केंद्र शरीर में है । जिन पर ध्यान का अभ्यास करने से देवीय शक्ति प्राप्त होती है ।
सहस्रार में प्रकाश दीखने पर वहां से अमृत वर्षा का सा आनंद प्राप्त होता है । जो मनुष्य शरीर की परम उपलब्धि है । जिसको अपने शरीर में दिव्य आनंद मिलने लगता है । वह फिर चाहे भीड़ में रहे या अकेले में, चाहे इन्द्रियों से विषयों को भोगे या आत्म ध्यान का अभ्यास करे । उसे सदा परम आनंद और मोह से मुक्ति का अनुभव होता है ।
मनुष्य का शरीर अनु, परमाणुओं के संघटन से बना है । जिस तरह अणु, परमाणु सदा गति शील रहते हैं । किन्तु प्रकाश एक ऊर्जा मात्र है जो कभी तरंग और कभी कण की तरह व्यवहार करता है ।
उसी तरह आत्म सूर्य के प्रकाश से भी अधिक सूक्ष्म और व्यापक है । यह इस तरह सिद्ध होता है की सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी तक आने में कुछ मिनट लगते हैं । जब की मनुष्य उसे आँख खोलते ही देख लेता है ।
अतः आत्मा प्रकाश से भी सूक्ष्म है । जिसका अनुभव और दर्शन केवल ध्यान के माध्यम से ही होता है । जब तक मन उस आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर लेता उसे मोह से मुक्ति नहीं मिल सकती ।
मोह मनुष्य को भय भीत करता है । क्योंकि जो पाया है उसके खोने का भय उसे सताता रहता है । जबकि आत्म दर्शन से दिव्य प्रेम की अनुभूति होती है । जो व्यक्ति को निर्भय करती है क्योंकि उसे सब के अस्तित्व में उसी दिव्य ज्योति का दर्शन होने लगता है ।
योनि तंत्र.....
सृष्टि का प्रथम बीज रूप उत्पत्ति योनि से ही होने के कारण तंत्र मार्ग के सभी साधक ‘योनि’ को आद्याशक्ति मानते हैं । लिंग का अवतरण इसकी ही प्रतिक्रिया में होता है । लिंग और योनि के घर्षण से ही सृष्टि आदि का परमाणु रूप उत्पन्न होता है ।
इन दोनों संरचनाओं के मिलने से ही इस ब्रह्माण्ड और सम्पुर्ण इकाई का शरीर बनता है और इनकी क्रिया से ही उसमें जीवन और प्राणतत्व ऊर्जा का संरचना होता है । यह योनि एवं लिंग का संगम प्रत्येक के शरीर में चल रहा है ।
शक्तिमन्त्रमुपास्यैव यदि योनिं न पुजयेत् ।
तेषा दीक्षाश्चय मन्त्रश्चय ठ नरकायोपेपधते ।। ७ ।।
अहं मृत्युञ्जयो देवी तव योनि प्रसादतः ।
तव योनिं महेशनि भाव यामि अहर्निशम् ।। ८ ।।
योनी तंत्र के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों
शक्तियों का निवास प्रत्येक नारी की योनी में है । क्योंकि
हर स्त्री देवी भगवती का ही अंश है ।
दश महाविद्या
अर्थात देवी के दस पूज्नीय रूप भी योनी में निहित है ।अतः पुरुष को अपना आध्यात्मिक उत्थान करने के लिए मन्त्र उच्चारण के साथ देवी के दस रूपों की अर्चना योनी
पूजन द्वारा करनी चाहिए ।
योनी तंत्र में भगवान् शिव ने
स्पष्ट कहा है की श्रीकृष्ण, श्रीराम और स्वयं शिव भी
योनी पूजा से ही शक्तिमानहुए हैं । भगवान् राम, शिव
जैसे योगेश्वर भी योनी पूजा कर योनीतत्त्वको सादर मस्तक पर धारण करते थे ।
योनी तंत्र में कहा गया है क्यों कि बिना योनी की दिव्य उपासना के पुरुषकीआध्यात्मिक उन्नति संभव नहीं है । सभी स्त्रियाँ परमेश्वरी भगवती
का अंश होने के कारण इस सम्मान की अधिकारिणी हैं ।
अतः तंत्र साधक हो या फीर आम मनुष्य कभी
भी स्त्रियों का तिरस्कार या अपमान नहीं करना चाहिए ।
नोटः-
शुद्ध उच्चारण के साथ किसी साधक के मार्गदर्शन में इन मंत्रों का प्रयोग करना ही लाभकर होगा।यदि किसी भी प्रकार की दिक्कते हो,तो मुझसे सम्पर्क कर सकते है।
आप सभी को मेरी शुभकामनाएं साधना करें साधनामय बनें......
साधको को सूचित किया जाता हैं की हर चीज की अपनी एक सीमा होती हैं , इसलिए किसी भी साधना का प्रयोग उसकी सीमा में ही रहकर करे , और मानव होकर मानवता की सेवा करे अपने जीवन को उच्च स्तर पर ले जाएँ ,.
.चेतावनी -
सिद्ध गुरु कि देखरेख मे साधना समपन्न करेँ , सिद्ध गुरु से दिक्षा , आज्ञा , सिद्ध यंत्र , सिद्ध माला , सिद्ध सामग्री लेकर हि गुरू के मार्ग दरशन मेँ साधना समपन्न करेँ ।
बिना गुरू साधना करना अपने विनाश को न्यौता देना है बिना गुरु आज्ञा साधना करने पर साधक पागल हो जाता है या म्रत्यु को प्राप्त करता है इसलिये कोई भी साधना बिना गुरु आज्ञा ना करेँ ।
कामाख्याकवच तथा योनिस्तोत्र!!
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कामाख्या देवी का कवच पाठ करने से सभी बाधाओं से मुक्ति मिल जाती है।
इस कवच के प्रभाव से मनुष्य भय रहित, तेजस्वी तथा भैरवतुल्य हो जाता है। जप, होम आदि कर्मों में समासक्त मन वाले भक्त की मंत्र-तंत्रों में सिद्घि निर्विघ्न हो जाती है।। 30।।
।।मांकामाख्या देवी कवच।।
ओं प्राच्यां रक्षतु मे तारा कामरूप निवासिनी।
आग्नेय्यां षोडशी पातु याम्यां धूमावती स्वयम्।।31
नैर्ऋत्यां भैरवी पातु वारुण्यां भुवनेश्वरी।
वायव्यां सततं पातु छिन्नमस्ता महेश्वरी।। 32।।
कौबेर्यां पातु मे देवी श्रीविद्या बगलामुखी।
ऐशान्यां पातु मे नित्यं महात्रिपुर सुन्दरी।। 33।।
ऊध्र्वरक्षतु मे विद्या मातंगी पीठवासिनी।
सर्वत: पातु मे नित्यं कामाख्या कलिका स्वयम्।। 34।।
ब्रह्मरूपा महाविद्या सर्वविद्यामयी स्वयम्।
शीर्षे रक्षतु मे दुर्गा भालं श्री भवगेहिनी।। 35।।
त्रिपुरा भ्रूयुगे पातु शर्वाणी पातु नासिकाम।
चक्षुषी चण्डिका पातु श्रोत्रे नीलसरस्वती।। 36।।
मुखं सौम्यमुखी पातु ग्रीवां रक्षतु पार्वती।
जिव्हां रक्षतु मे देवी जिव्हाललन भीषणा।। 37।।
वाग्देवी वदनं पातु वक्ष: पातु महेश्वरी।
बाहू महाभुजा पातु कराङ्गुली: सुरेश्वरी।। 38।।
पृष्ठत: पातु भीमास्या कट्यां देवी दिगम्बरी।
उदरं पातु मे नित्यं महाविद्या महोदरी।। 39।।
उग्रतारा महादेवी जङ्घोरू परिरक्षतु।
गुदं मुष्कं च मेदं च नाभिं च सुरसुंदरी।। 40।।
पादाङ्गुली: सदा पातु भवानी त्रिदशेश्वरी।
रक्तमासास्थिमज्जादीनपातु देवी शवासना।। 41।
महाभयेषु घोरेषु महाभयनिवारिणी।
पातु देवी महामाया कामाख्यापीठ वासिनी।। 42।।
भस्माचलगता दिव्यसिंहासनकृताश्रया।
पातु श्री कालिकादेवी सर्वोत्पातेषु सर्वदा।। 43।।
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं कवचेनापि वर्जितम्।
तत्सर्वं सर्वदा पातु सर्वरक्षण कारिणी।। 44।।
इदं तु परमं गुह्यं कवचं मुनिसत्तम।कामाख्या भयोक्तं ते सर्वरक्षाकरं परम्।। 45।।
~~~~````~~~~````~~~~`````~~~ फलश्रुति
अनेन कृत्वा रक्षां तु निर्भय: साधको भवेत।न तं स्पृशेदभयं घोरं मन्त्रसिद्घि विरोधकम्।। 46।।
जायते च मन: सिद्घिर्निर्विघ्नेन महामते।इदं यो धारयेत्कण्ठे बाहौ वा कवचं महत्।। 47।।
अव्याहताज्ञ: स भवेत्सर्वविद्याविशारद:।सर्वत्र लभते सौख्यं मंगलं तु दिनेदिने।। 48।।
य: पठेत्प्रयतो भूत्वा कवचं चेदमद्भुतम्।स देव्या: पदवीं याति सत्यं सत्यं न संशय:।। 49।।
हिन्दी में अर्थ : कामरूप में निवास करने वाली भगवती तारा पूर्व दिशा में, पोडशी देवी अग्निकोण में तथा स्वयं धूमावती दक्षिण दिशा में रक्षा करें।। 31।।
नैऋत्यकोण में भैरवी, पश्चिम दिशा में भुवनेश्वरी और वायव्यकोण में भगवती महेश्वरी छिन्नमस्ता निरंतर मेरी रक्षा करें।। 32।।
उत्तरदिशा में श्रीविद्यादेवी बगलामुखी तथा ईशानकोण में महात्रिपुर सुंदरी सदा मेरी रक्षा करें।। 33।।
भगवती कामाख्या के शक्तिपीठ में निवास करने वाली मातंगी विद्या ऊध्र्वभाग में और भगवती कालिका कामाख्या स्वयं सर्वत्र मेरी नित्य रक्षा करें।। 34।।
ब्रह्मरूपा महाविद्या सर्व विद्यामयी स्वयं दुर्गा सिर की रक्षा करें और भगवती श्री भवगेहिनी मेरे ललाट की रक्षा करें।। 35।।
त्रिपुरा दोनों भौंहों की, शर्वाणी नासिका की, देवी चंडिका आँखों की तथा नीलसरस्वती दोनों कानों की रक्षा करें।। 36।।
भगवती सौम्यमुखी मुख की, देवी पार्वती ग्रीवा की और जिव्हाललन भीषणा देवी मेरी जिव्हा की रक्षा करें।। 37।।
वाग्देवी वदन की, भगवती महेश्वरी वक्ष: स्थल की, महाभुजा दोनों बाहु की तथा सुरेश्वरी हाथ की, अंगुलियों की रक्षा करें।। 38।।
भीमास्या पृष्ठ भाग की, भगवती दिगम्बरी कटि प्रदेश की और महाविद्या महोदरी सर्वदा मेरे उदर की रक्षा करें।। 39।।
महादेवी उग्रतारा जंघा और ऊरुओं की एवं सुरसुन्दरी गुदा, अण्डकोश, लिंग तथा नाभि की रक्षा करें।। 40।।
भवानी त्रिदशेश्वरी सदा पैर की, अंगुलियों की रक्षा करें और देवी शवासना रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा आदि की रक्षा करें।। 41।।
भगवती कामाख्या शक्तिपीठ में निवास करने वाली, महाभय का निवारण करने वाली देवी महामाया भयंकर महाभय से रक्षा करें। भस्माचल पर स्थित दिव्य सिंहासन विराजमान रहने वाली श्री कालिका देवी सदा सभी प्रकार के विघ्नों से रक्षा करें।। 43।।
जो स्थान कवच में नहीं कहा गया है, अतएव रक्षा से रहित है उन सबकी रक्षा सर्वदा भगवती सर्वरक्षकारिणी करे।। 44।।
मुनिश्रेष्ठ! मेरे द्वारा आप से महामाया सभी प्रकार की रक्षा करने वाला भगवती कामाख्या का जो यह उत्तम कवच है वह अत्यन्त गोपनीय एवं श्रेष्ठ है।। 45।।
इस कवच से रहित होकर साधक निर्भय हो जाता है। मन्त्र सिद्घि का विरोध करने वाले भयंकर भय उसका कभी स्पर्श तक नहीं करते हैं।। 46।।
महामते! जो व्यक्ति इस महान कवच को कंठ में अथवा बाहु में धारण करता है उसे निर्विघ्न मनोवांछित फल मिलता है।। 48।।
वह अमोघ आज्ञावाला होकर सभी विद्याओं में प्रवीण हो जाता है तथा सभी जगह दिनोंदिन मंगल और सुख प्राप्त करता है। जो जितेन्द्रिय व्यक्ति इस अद्भुत कवच का पाठ करता है वह भगवती के दिव्य धाम को जाता है। यह सत्य है, इसमें संशय नहीं है।। 49।
।।योनिस्तोत्र।।
ॐभग-रूपा जगन्माता सृष्टि-स्थिति लयान्विता ।
दशविद्या - स्वरूपात्मा योनिर्मां पातु सर्वदा।।१
कोण-त्रय-युता देवि स्तुति-निन्दा विवर्जिता ।
जगदानन्द-सम्भूता योनिर्मां पातु सर्वदा ।।२
कात्र्रिकी - कुन्तलं रूपं योन्युपरि सुशोभितम्।
भुक्ति-मुक्ति-प्रदा योनि: योनिर्मां पातु सर्वदा।।३
वीर्यरूपा शैलपुत्री मध्यस्थाने विराजिता।
ब्रह्म-विष्णु-शिव श्रेष्ठा योनिर्मां पातु सर्वदा।।४
योनिमध्ये महाकाली छिद्ररूपा सुशोभना।
सुखदा मदनागारा योनिर्मां पातु सर्वदा ।।५
काल्यादि-योगिनी-देवी योनिकोणेषु संस्थिता।
मनोहरा दुःख लभ्या योनिर्मां पातु सर्वदा ।।६
सदा शिवो मेरु-रूपो योनिमध्ये वसेत् सदा ।
वैâवल्यदा काममुक्ता योनिर्मां पातु सर्वदा ।।७
सर्व-देव स्तुता योनि सर्व-देव-प्रपूजिता।
सर्व-प्रसवकत्र्री त्वं योनिर्मां पातु सर्वदा ।।८
सर्व-तीर्थ-मयी योनि: सर्व-पाप प्रणाशिनी।
सर्वगेहे स्थिता योनि: योनिर्मां पातु सर्वदा।।९
मुक्तिदा धनदा देवी सुखदा कीर्तिदा तथा ।
आरोग्यदा वीर-रता पञ्च-तत्व-युता सदा।।१०
llजय सद्गुरुदेव, जय महाकाल ll
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