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गुरु और श्रद्धा

गुरु के प्रति अगर श्रद्धा नहीं हो तो मनुष्य का जीवन व्यर्थ हो जाता है उसकी की गई सारी साधनाएं तपस्या और पूजा सभी कुछ व्यर्थ हो जाता है क्योंकि मुक्ति का मार्ग केवल गुरु ही दिख जा सकता है अगर गुरु नहीं है तो आपके अंदर कुछ कोई भी विकास संभव हो ही नहीं सकता मानव का सबसे बड़ा अस्तित्व अगर कोई बनाए रखता है तो वह गुरु ही है जो स्वयं ब्रह्म होते हैं आपके समक्ष आपके जैसा बनकर आपके सामने प्रस्तुत होता है आपकी ही तरह वह हंसता है आपकी तरह ही रोता है आपकी तरह ही मजाक करता है और आपकी तरह ही रहन-सहन जीवन यापन करता है सुख दुख का भी उपयोग करता है पर मनुष्य यहीं पर भूल कर जाता है की गुरु तो जो हैं और उनकी माया में फंस जाता है मनुष्य को ही जो भ्रम पैदा होता है इसी कारण होता है कि उसकी जो कर्म dos हैं वही उसके पैरों में बेड़िया बन जाति है जो गुरु के पास पहुंचने पर रोक देती है और वह असहाय होकर दुखों का भोग करता है गुरु तो हमेशा ही आवाज देते रहते हैं शिष्य को साधक को कि आप आइए मेरे साथ चलिए पर शिष्य और साधक अपनी ही कर्म दोषों से से बने हुए वही पर पड़े रहते हैं गुरु हमेशा ही आपकी उस बंधन को खोलने का प्रयास करते हैं बार-बार आपको उस यंत्र को काटने का मार्ग बताते हैं और आपको कभी-कभी खुद भी आपके सामने प्रकट होकर उस बंधनों को काटने का प्रयास करते हैं पर जैसे ही वह बंधनकटता है मनुष्य के अंदर फिर से भ्रम और माया का आवरण उस को रोक देती है और वह फिरसे गुरु को मानव समझने की भूल कर जाता है क्योंकि जी परीक्षा साधक को देनी ही पड़ती है और बार-बार देनी पड़ती है क्योंकि बिना परीक्षा के आपको उच्च कक्षा में प्रवेश पाने की अनुमति को भी कैसे सकती है परीक्षाएं गुरु ना दे तो आपके जीवन में कैसे पता चले कि आप योग्य हुए या नहीं आप योग्यता के अनुसार ही आपको मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया जाता है आपको यह लगता होगा कि सामान्य बातें हैं पर सामान्य बातें कैसे हो सकती है आप गुरु को अपनी आंखों से देख नहीं सकते हैं क्योंकि इन आंखों की क्षमता बहुत ही कम है कि केवल अपनी ही बारे में कम दृष्टि रखती है तो दूसरों के प्रति तो बिल्कुल भी दृष्टिहीन हो जाती आपको पता होगा यह जो बातें आपको बताई जाती हैं यह सब आपको पता है सब आप जानते भी हैं सुना भी है पर आप फिर भी गलती कर ही जाती है और जब आप जानबूझकर गलती करते हैं तो यही हमारे कर्म   dos  बन जाते है।

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