Yllix

Gurudev Nikhil





यह पत्र सदगुरुदेव जी ने सिद्धाश्रम जाने से पहले लिखा था
.....
जब जब इसको पड़ता हु रोना अता है।....आप भी
एक एक शब्द पढ़े इसे  ..
गुरु पूर्णिमा, वि॰ संवत् 2056,
मेरे परम आतमीय पुत्रों,
तुम क्यों निराश हो जाते हो, मुझे ना पाकर अपने
बीच ? मगर मैं तो तुम्हारे बिलकुल बीच ही हूँ, क्या
तुमने अपने ह्रदय की आवाज़ को ध्यान से कान
लगाकर नहीं सुना है ?शायद नहीं भी सुन पा रहे
होगे..... और मुझे मालूम था, कि एक दिन यह
स्थिति आएगी, इसीलिए ये पत्र मैंने पहले ही
लिखकर रख दिया था, कि अगली गुरु पूर्णिमा में
शिष्यों के लिए पत्रिका में दिया जा सके... परन्तु
मैं तुमसे दूर हुआ ही कहाँ हूँ ! तुमको लगता है, कि मैं
चला गया हूँ, परन्तु एक बार फिर अपने ह्रदय को
टहोक कर देखो, पूछ कर देखो तो सही एक बार कि
क्या वास्तव में गुरुदेव चले गये हैं ? ऐसा हो ही नहीं
सकता, कि तुम्हारा ह्रदय इस बात को मान ले,
क्यूंकि उस ह्रदय में मैंने प्राण भरे हैं, मैंने उसे सींचा है
खुद अपने रक्त कणों से ! तो फिर उसमें से ऐसी
आवाज़ भला आ भी कैसे सकेगी ?
जिसे तुम अपना समझ रहे हो, वह शरीर तो तुम्हारा
है ही नहीं, और जब तुम तुम हो ही नहीं, तो फिर
तुम्हारा जो ये शरीर है, जो ह्रदय है, तुम्हारी आँखों
में छलछलाते जो अश्रुकण हैं, वो मैं ही नहीं हूँ तो और
कौन है ? तुम्हारे अन्दर ही तो बैठा हुआ हूँ मैं, इस
बात को तुम समझ नहीं पाते हो, और कभी-कभी
समझ भी लेते हो, परन्तु दूसरे व्यक्ति अवश्य ही इस
बात को समझते हैं, अनुभव करते हैं, की कुछ न कुछ
विशेष तुम्हारे अन्दर है तो जरूर.. और वो विशेष मैं ही
तो हूँ, जो तुममें हूँ !
......और फिर अभी तो मेरे काफी कार्य शेष पड़े हैं,
इसीलिए तो अपने खून से सींचा है तुम्हें, सींचकर
अपनी तपस्या को तुममें डालकर तैयार किया है तुम
सबको, उन कार्यों को तुम्हें ही पूर्णता देनी है ! मेरे
कार्यों को मेरे ही तो मानस पुत्र परिणाम दे सकते
हैं, अन्य किसमें वह पात्रता है, अन्य किसी में वह
सामर्थ्य हो भी नहीं सकता, क्यूंकि वह योग्यता
मैंने किसी अन्य को दी भी तो नहीं है ?
उस नित्य लीला विहारिणी को एक कार्य मुझसे
कराना था, इसलिए देह का अवलम्बन लेकर मैं
उपस्थित हुआ तुम्हारे मध्य !...... और वह कारण था -
तुम्हारा निर्माण ! तुमको गढ़ना था और जब मुझे
विश्वास हो गया कि अपने मानस पुत्रों को ऊर्जा
प्रदान कर दी है, चेतना प्रदान कर दी है ! तुम्हें तैयार
कर दिया है, तो मेरे कार्य का वह भाग समाप्त हो
गया, परन्तु अभी तो मेरे अवशिष्ट कार्यों को
पूर्णता नहीं मिल पायी है, वे सब मैंने तुम्हारे मजबूत
कन्धों पर छोड़ दिया है ! ये कौन से कार्य तुम्हें
अभी करने हैं, किस प्रकार से करने हैं, इसके संकेत तुम्हें
मिलते रहेंगे !
तुम्हें तो प्रचण्ड दावानल बनकर समाज में व्याप्त
अविश्वास, अज्ञानता, कुतर्क, पाखण्ड, ढोंग और
मिथ्या अहंकार के खांडव वन को जलाकर राख कर
देना है ! और उन्हीं में से कुछ ज्ञान के पिपासु भी
होंगे, सज्जन भी होंगे, हो सकता है वो कष्टों से
ग्रस्त हों, परन्तु उनमें ह्रदय हो और वो ह्रदय की
भाषा को समझते हों, तो ऐसे लोगों पर प्रेम बनकर
भी तुम बरस जाना ! और गुरुदेव का सन्देश देकर उनको
भी प्रेम का एक मेघ बना देना !
फिर वो दिन दूर नहीं होगा जब इस धरती पर प्रेम के
ही बादल बरसा करेंगे, और उन जल बूंदों से जो पौधे
पनपेंगे, उस हरियाली से भारतवर्ष झूम उठेगा ! फिर
हिमालय का एक छोटा स भू-भाग ही नहीं पूरा
भारत ही सिद्धाश्रम बन जायेगा, और पूरा भारत
ही क्यूं, पूरा विश्व ही सिद्धाश्रम बन सकेगा !
कौन कहता है, ये सब संभव नहीं है ? एक अकेला मेघ
खण्ड नहीं कर सकता ये सब, पूरी धरती को एक
अकेला मेघ खण्ड नहीं सींच सकता अपनी पावन
फुहारों से ..... परन्तु जब तुम सभी मेघ खण्ड बनकर
एक साथ उड़ोगे, तो उस स्थान पर जहाँ प्रचण्ड धूप में
धरती झुलस रही होगी, वहां पर एकदम से मौसम बदल
जायेगा !
“अलफांसो” अव्वल दर्जे के आम होते हैं, उन्हें भारत में
नहीं रखा जाता, उन्हें तो विदेश में भेज दिया
जाता है, नियात कर दिया जाता है, और भारत
विदेशों में इन्हीं आमों से भारत की छवि बनती है !
तुम भी अव्वल दर्जे के मेरे शिष्य हो, तुम्हें भी फैल
जाना है, मेरे प्रतीनिधी बनकर और सुगंध को बिखेर
देना है, सुवासित कर देना है पुरे विश्व को, उस गंध से,
जिसको तुमने एहसास किया है !
गुरु नानक एक गाँव में गए, उस गाँव के लोगों ने उनका
खूब सत्कार किया ! जब वे गाँव से प्रस्थान करने लगे,
तो गाँव के सब लोग उनको विदाई देने के लिए
एकात्र हुए ! वे सब गुरूजी के आगे हाँथ जोड़कर और
शीश झुकाकर खाए हो गए ! नानक ने कहा – “आप
सब बड़े नेक और उपकारी हैं, इसीलिए आपका गाँव
और आप सब उजड़ जायें !”
इस प्रकार आशीर्वा देकर आगे चल दिए और एक दूसरे
गाँव पहुंचे ! दूसरे गाँव के लोगों ने गुरु नानक के साथ
अच्छा व्यवहार नहीं किया ! नानक जी ने वहाँ से
प्रस्थान करते समय वहाँ के लोगों को आशीर्वाद
देते हुए कहा – “तुम्हारा गाँव और तुम सदा बसे
रहो !”
मरदाना जो उनका सेवक था, उसने नानक से पूछा –
“आपने अछे लोगों को बुरा, और बुरे लोगों को
अच्छा आशीर्वाद दिया, ऐसा क्यों ?”
नानक मुस्कुराए और बोले – “तुम इस बात को नहीं
समझे, तो सुनो ! जो लोग बुरे हैं, उन्हें एक ही स्थान
पर बने रहना चाहिए, जिससे वे अपनी बुराई से दूसरों
को हानि नहीं पहुँचा सकें ! परन्तु जो लोग अछे हैं
उन्हें एक जगह नहीं रहना चाहिए ! उन्हें सब जगह फैल
जाना चाहिए जिससे उनके गुण और आदर्श दूसरे लोग
भी सीखकर अपना सकें !
इसीलिए मैं तुम्हें कह रहा हूँ, की तुम्हें किसी एक
जगह ठहरकर नहीं रहना है, तुम्हें तो गतिशील रहना
है, खलखल करती नदी की तरेह, जिससे तुम्हारे जल से
कई और भी कई प्यास बुह सकें, क्यूंकि वह जल
तुम्हारा नहीं है, वह तो मेरा दिया हुआ है ! इसलिए
तुम्हें फैल जाना है पूरे भारत में, पूरे विश्व में......
..... और यूँ ही निकल पड़ना घर से निहत्थे एक दिन
प्रातः को नित्य के कार्यों को एक तरफ रखकर,
हाँथ में दस-बीस पत्रिकाएँ लेकर.... और घर वापिस
तभी लौटना जब उन पत्रिकाओं को किसी सुपात्र
के हाथों पर अर्पित कर तुमने यह समझ लिया हो,
कि वह तुम्हारे सद्गुरुदेव का और उनके इस ज्ञान का
अवश्य सम्मान करेगा !
...... और फिर देख लेना कैसे नहीं सद्गुरुदेव की कृपा
बरसती है ! तुम उसमें इतने अधिक भींग जाओगे, कि
तुम्हें अपनी सुध ही नहीं रहेगी !
एक बार बगावत करके तो देखो, एक बार अपने अन्दर
तूफ़ान लाकर तो देखो ! देखो तो सही एक बार
गुरुदेव का हाँथ बनकर ! फिर तुम्हें खुद कुछ करना भी
नहीं पड़ेगा ! सबकुछ स्वतः ही होता चला जायेगा,
पर पहला कदम तो तुम्हें उठाना ही होगा, एक बार
प्रयास तो करना ही होगा ! निकल के देखो तो
सही घर के बंद दरवाज़ों से बाहर समाज में और फैल
जाओ बुद्ध के श्रमणों की तरेह पूरे भारतवर्ष में और पूरे
विश्व में भी !
फिर देखना कैसे नहीं गुरुदेव का वरद्हस्त तुम्हें अपने
सिर पर अनुभव होता है और छोटी समस्याओं से
घबराना नहीं, डरना नहीं ! समुद्र में अभी इतना जल
नहीं है की वह निखिलेश्वरानंद के शिष्यों को डुबो
सके ! क्योंकि तुम्हारे पीछे हमेशा से ही मैं खड़ा हूँ
और खड़ा रहूँगा भी !
तुम मुझसे न कभी अलग थे और ना ही हो सकते हो !
दीपक की लौ से प्रकाश को अलग नहीं किया जा
सकता और ना ही किया जा सकता है पृथक सूर्य
की किरणों को सूर्य से ही ! तुम तो मेरी किरणें
हो, मेरा प्रकाश हो, मेरा सृजन हो, मेरी कृति हो,
मेरी कल्पना हो, तुमसे भला मैं कैसे अलग हो सकता
हूँ !
‘तुम भी तो....’ (जुलाई-98 के अंक में) मैंने तुम्हें पत्र
दिया था यही तो उसका शीर्षक था, लेकिन अब
‘तुम भी तो’ नहीं, वरण ‘तुम ही तो’ मेरे हाँथ-पाँव
हो, और फिर कौन कहता है, कि मैं शरीर रूप में
उपस्थित नहीं हूँ ! मैं तो अब पहले से भी अधिक
उपस्थित हूँ ! और अभी इसका एहसास शायद नहीं
भी हो, की मेरा तुमसे कितना अटूट सम्बन्ध है,
क्योंकि अभी तो मैंने इस बात का तुम्हें पूरी तरह
एहसास होने भी तो नहीं दिया है !
पर वो दिन भी अवश्य आएगा, जब तुम रोम-रोम में
अपने गुरुदेव को, माताजी को अनुभव कर सकोगे,
शीग्र ही आ सके, इसी प्रयास में हूँ और शीघ्र ही
आयेगा !
मैंने तुम्हें बहुत प्यार से, प्रेम से पाला-पोसा है, कभी
भी निखिलेश्वरानंद कि कठोर कसौटी पर
तुम्हारी परीक्षा नहीं ली है, हर बार नारायणदत्त
श्रीमाली बनकर ही उपस्थित हुआ हूँ, तुम्हारे मध्य !
और परीक्षा नहीं ली, तो इसलिए कि तुम इस प्यार
को भुला न सको, और न ही भुला सको इस परीवार
को जो तुम्हारे ही गुरु भाई-बहनों का है, तुम्हें इसी
परिवार में प्रेम से रहना है !
समय आने पर यह तो मेरा कार्य है, मैं तुम्हें गढ़ता
चला जाऊंगा, और मैंने जो-जो वायदे तुमसे किये हैं,
उन्हें मैं किसी भी पल भूला नहीं हूँ, तुम उन सब
वायदों को अपने ही नेत्रों से अपने सामने साकार
होते हुए देखते रहोगे ! तुम्हारे नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के
अलावा और किसी सिद्धि की चाह बचेगी ही
नहीं, क्योंकि मेरा सब कुछ तो तुम्हारा हो चुका
होगा, क्यूंकि ‘तुम ही तो मेरे हो..’
सदा की ही भांति स्नेहासिक्त आशीर्वाद
नारायणदत्त श्रीमाली

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