#मय_दानव द्वारा रचित #मयमतम् नामक ग्रन्थ, #दक्षिण_भारतीय (द्रविड़) #स्थापत्यशास्त्र का प्रमाण-ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में वास्तु के स्थान पर सर्वत्र ‘वस्तु’ पद तथा #वास्तुशास्त्र के स्थान पर सर्वत्र ‘वस्तुशास्त्र’ का ही प्रयोग किया गया है। मय के अनुसार वस्तु से उत्पन्न पदार्थ ‘वास्तु’ है। मय ने पृथिवी को प्रथम वस्तु माना है। इसके अतिरिक्त प्रासाद, यान एवं शयन भी वास्तु की श्रेणी में परिगणित हैं।
‘मयमतम्’ ग्रन्थ में 36 अध्याय, 1 परिशिष्ट और 3,344 श्लोक हैं। इनका विवरण इस प्रकार है— 1. संग्रह (12 श्लोक), 2. वस्तुप्रकार (15 श्लोक), 3. भूपरीक्षा (20 श्लोक), 4. भूपरिग्रह (19 श्लोक), 5. मानोपकरण (25 श्लोक), 6. दिक्परिच्छेद (29 श्लोक), 7. पददेवताविन्यास (58 श्लोक), 8. बलिकर्मविधान (23 श्लोक), 9. ग्रामविन्यास (130 श्लोक), 10. नगरविधान (95 श्लोक), 11. भूलम्भविधान (27 श्लोक), 12. गर्भविन्यास (114 श्लोक), 13. उपपीठविधान (22 श्लोक), 14. अधिष्ठानविधान (48 श्लोक), 15. पादप्रमाणद्रव्यपरिग्रह (123 श्लोक), 16. प्रस्तरकरण (68 श्लोक), 17. सन्धिकर्मविधान (62 श्लोक), 18. शिखरकरणभवनकर्मसमाप्तिविधान (216 श्लोक), 19. एकभूमिविधान (49 श्लोक), 20. द्विभूमिविधान (39 श्लोक), 21. त्रिभूमिविधान (99 श्लोक), 22. चतुर्भूम्यादिबहुभूमिविधान (94 श्लोक), 23. प्राकारपरिवारविधान (131 श्लोक), 24. गोपुरविधान (137 श्लोक), 25. मण्डपसभाविधान (237 श्लोक), 26. शालाविधान (220 श्लोक), 27. चतुर्गृहविधान (136 श्लोक), 28. गृहप्रवेश (36 श्लोक), 29. राजवेश्मविधान (228 श्लोक), 30. द्वारविधान (121 श्लोक), 31. यानाधिकार (62 श्लोक), 32. शयनाधिकार (24 श्लोक), 33. लिंगलक्षण (162 श्लोक), 34. पीठलक्षण (74 श्लोक), 35. अनुकर्मविधान (59 श्लोक), 36. प्रतिमालक्षण (315 श्लोक) और ‘कूपारम्भ’ संज्ञक परिशिष्ट (15 श्लोक)। ‘मयमतम्’ का प्रथम अध्याय सबसे छोटा है, जिसमें केवल 12 श्लोक हैं जबकि अन्तिम 36वाँ अध्याय सबसे बड़ा है, जिसमें 315 श्लोक हैं।
इस प्रकार विषयवस्तु की दृष्टि से ‘मयमतम्’ ग्रन्थ में प्रथम ‘वस्तु (अथवा ‘वास्तु’) भूमि है। तदनन्तर ग्राम-नगरादि का स्थान आता है। इसके पश्चात् देवों एवं चातुर्वर्ण्य के लिए भूमि, भवन, यान तथा शयन का स्थान आता है। तीसरे एवं चौथे अध्याय में भूमि के परिक्षण का वर्णन प्राप्त होता है। तदनन्तर माप के विभिन्न प्रकारों एवं इकाइयों का निरूपण किया गया है। चार प्रकार के शिल्पी स्थपति, सूत्रग्राही, तक्षक तथा वर्धकि निर्माण-कार्य के अभिन्न अंग हैं। अतः इनका ग्रन्थ में विस्तार से वर्णन किया गया है। निर्माण हेतु दिशा का सटीक ज्ञान एवं कार्य के अनुसार वास्तुपदविन्यास आवश्यक होता है। अतः ग्रन्थ में इनका विवेचन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त ग्राम, नगर, भवन, नींव में गर्भविन्यास, उपपीठ, अधिष्ठान, स्तम्भ, द्रव्य-स्तम्भ, प्रस्तरकरण, सन्धिकर्म, कलश, छत एवं शिखर आदि का निरूपण किया गया है। देवालय, राजभवन-मर्यादा, गोपुर, मंडप, सभागृह, शालगृह, अलिन्द्र, आँगन, आदि वास्तु ले अंग हैं। इन सभी के विषय में ‘मयमतम्’ में प्रकाश डाला गया है।
‘मयमतम्’ ग्रन्थ में 36 अध्याय, 1 परिशिष्ट और 3,344 श्लोक हैं। इनका विवरण इस प्रकार है— 1. संग्रह (12 श्लोक), 2. वस्तुप्रकार (15 श्लोक), 3. भूपरीक्षा (20 श्लोक), 4. भूपरिग्रह (19 श्लोक), 5. मानोपकरण (25 श्लोक), 6. दिक्परिच्छेद (29 श्लोक), 7. पददेवताविन्यास (58 श्लोक), 8. बलिकर्मविधान (23 श्लोक), 9. ग्रामविन्यास (130 श्लोक), 10. नगरविधान (95 श्लोक), 11. भूलम्भविधान (27 श्लोक), 12. गर्भविन्यास (114 श्लोक), 13. उपपीठविधान (22 श्लोक), 14. अधिष्ठानविधान (48 श्लोक), 15. पादप्रमाणद्रव्यपरिग्रह (123 श्लोक), 16. प्रस्तरकरण (68 श्लोक), 17. सन्धिकर्मविधान (62 श्लोक), 18. शिखरकरणभवनकर्मसमाप्तिविधान (216 श्लोक), 19. एकभूमिविधान (49 श्लोक), 20. द्विभूमिविधान (39 श्लोक), 21. त्रिभूमिविधान (99 श्लोक), 22. चतुर्भूम्यादिबहुभूमिविधान (94 श्लोक), 23. प्राकारपरिवारविधान (131 श्लोक), 24. गोपुरविधान (137 श्लोक), 25. मण्डपसभाविधान (237 श्लोक), 26. शालाविधान (220 श्लोक), 27. चतुर्गृहविधान (136 श्लोक), 28. गृहप्रवेश (36 श्लोक), 29. राजवेश्मविधान (228 श्लोक), 30. द्वारविधान (121 श्लोक), 31. यानाधिकार (62 श्लोक), 32. शयनाधिकार (24 श्लोक), 33. लिंगलक्षण (162 श्लोक), 34. पीठलक्षण (74 श्लोक), 35. अनुकर्मविधान (59 श्लोक), 36. प्रतिमालक्षण (315 श्लोक) और ‘कूपारम्भ’ संज्ञक परिशिष्ट (15 श्लोक)। ‘मयमतम्’ का प्रथम अध्याय सबसे छोटा है, जिसमें केवल 12 श्लोक हैं जबकि अन्तिम 36वाँ अध्याय सबसे बड़ा है, जिसमें 315 श्लोक हैं।
इस प्रकार विषयवस्तु की दृष्टि से ‘मयमतम्’ ग्रन्थ में प्रथम ‘वस्तु (अथवा ‘वास्तु’) भूमि है। तदनन्तर ग्राम-नगरादि का स्थान आता है। इसके पश्चात् देवों एवं चातुर्वर्ण्य के लिए भूमि, भवन, यान तथा शयन का स्थान आता है। तीसरे एवं चौथे अध्याय में भूमि के परिक्षण का वर्णन प्राप्त होता है। तदनन्तर माप के विभिन्न प्रकारों एवं इकाइयों का निरूपण किया गया है। चार प्रकार के शिल्पी स्थपति, सूत्रग्राही, तक्षक तथा वर्धकि निर्माण-कार्य के अभिन्न अंग हैं। अतः इनका ग्रन्थ में विस्तार से वर्णन किया गया है। निर्माण हेतु दिशा का सटीक ज्ञान एवं कार्य के अनुसार वास्तुपदविन्यास आवश्यक होता है। अतः ग्रन्थ में इनका विवेचन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त ग्राम, नगर, भवन, नींव में गर्भविन्यास, उपपीठ, अधिष्ठान, स्तम्भ, द्रव्य-स्तम्भ, प्रस्तरकरण, सन्धिकर्म, कलश, छत एवं शिखर आदि का निरूपण किया गया है। देवालय, राजभवन-मर्यादा, गोपुर, मंडप, सभागृह, शालगृह, अलिन्द्र, आँगन, आदि वास्तु ले अंग हैं। इन सभी के विषय में ‘मयमतम्’ में प्रकाश डाला गया है।
यह भी पढ़े
*‘मयमतम्’ के विभिन्न संस्करण :*
• मयमतं, महामहोपाध्याय टी. गणपति शास्त्री (सं.), त्रिवेन्द्रम संस्कृत सीरीज, 1919.
• Mayamata, Bruno Dagens, Institut Français D'indologie, Pondicherry, 1970.
• मयमतम्, 2 खण्ड, इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के सौजन्य से मोतीलाल बनारसीदास, नयी दिल्ली, 2007.
• मयमतम्, 2 खण्ड, डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू (हिंदी-टीकाकार), चौखम्बा संस्कृत सीरीज़, 2008.
• मयमतम्, 2 खण्ड, शिवार्पिता हिंदी-व्याख्या सहित, डॉ. शैलजा पाण्डेय (हिंदी-टीकाकार), चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, 2013.
• Mayamata : trattato sull'abitare, sull'architettura e sull'iconografia nell'India antica, Luni Editrice
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