अगर कभी तुम्हें कोई जीवित गुरु मिल जाए,
तो उन क्षणों को मत चूकना।
मुर्दा संप्रदायों से तुम्हें कुछ भी न मिलेगा।
मुर्दा संप्रदाय ऐसे हैं
जैसे तुम कभी—कभी फूलों को किताब में रख देते हो,
सूख जाते हैं, गंध भी खो जाती है,
सिर्फ एक याददाश्त रह जाती है।
फिर कभी वर्षों बाद किताब खोलते हो,
एक सूखा फूल मिल जाता है।
संप्रदाय सूखे फूल हैं,
शास्त्र किताबों में दबे हुए सूखे फूल हैं।
उनसे न गंध आती है, न उनमें जीवन का उत्सव है,
न उनसे परमात्मा का अब कोई संबंध है।
क्योंकि उनकी कहीं जड़ें नहीं अब,
पृथ्वी से कहीं वे जुड़े नहीं, आकाश से जुड़े नही,
सूर्य से उनका कुछ अब संवाद नहीं,
सब तरफ से कट गए, टूट गए,
अब तो शास्त्र में पड़े हैं। सूखे फूल हैं।
तो उन क्षणों को मत चूकना।
मुर्दा संप्रदायों से तुम्हें कुछ भी न मिलेगा।
मुर्दा संप्रदाय ऐसे हैं
जैसे तुम कभी—कभी फूलों को किताब में रख देते हो,
सूख जाते हैं, गंध भी खो जाती है,
सिर्फ एक याददाश्त रह जाती है।
फिर कभी वर्षों बाद किताब खोलते हो,
एक सूखा फूल मिल जाता है।
संप्रदाय सूखे फूल हैं,
शास्त्र किताबों में दबे हुए सूखे फूल हैं।
उनसे न गंध आती है, न उनमें जीवन का उत्सव है,
न उनसे परमात्मा का अब कोई संबंध है।
क्योंकि उनकी कहीं जड़ें नहीं अब,
पृथ्वी से कहीं वे जुड़े नहीं, आकाश से जुड़े नही,
सूर्य से उनका कुछ अब संवाद नहीं,
सब तरफ से कट गए, टूट गए,
अब तो शास्त्र में पड़े हैं। सूखे फूल हैं।
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अगर तुम्हें जिंदा फूल मिल जाए तो
सूखे फूल के मोह को छोडना।
जानता हूं मैं, अतीत का बड़ा मोह होता है।
जानता हूं मैं, परंपरा में बंधे रहने में बड़ी सुविधा होती है।
छोड़ने की कठिनाई भी मुझे पता है।
अड़चन बहुत है। अराजकता आ जाती है।
जिंदगी जमीन खो देती है।
कहां खड़े हैं, पता नहीं चलता।
अकेले रह जाते हैं।
भीड़ का संग—साथ नहीं रह जाता।
लेकिन धर्म रास्ता अकेले का है।
वह खोज तनहाई की है।
और व्यक्ति ही वहां तक पहुंचता है,
समाज नहीं।
अब तक तुमने कभी किसी समाज को बुद्ध होते देखा?
किसी भीड़ को तुमने समाधिस्थ होते देखा?
व्यक्ति—व्यक्ति पहुंचते हैं, अकेले—अकेले पहुंचते हैं।
परमात्मा से तुम डेपुटेशन लेकर न मिल सकोगे,
अकेला ही साक्षात्कार करना होगा।
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