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जय गुरुदेव

जय निखिलेश्वर.. सदगुरुदेव के ॠण चुकाने के लिए दो तरीके बहुत अच्छे हैं - एक तो गुरु की शिक्षा का प्रचार एवं उनके छोड़े हुए कार्य का प्रसार।

ज्यादातर लोग अपने गुरु की महानता को प्रदर्शित करने के लिए सिर्फ मिथकों(रूढ़िवादी अंधविश्वास) का सहारा लेते हैं। वे अपने सदगुरुदेव को मिथकों के ताना-बाना से बुनी चादर से ढक देते हैं, नतीजा यह निकलता है कि हम आने वाली पीढ़ी के सामने गुरु का न सही रूप रख पाते हैं, न उनकी शिक्षा को ही सही रूप में पेश कर पाते हैं। गुरु के चमत्कारों के वर्णन से किसी का भला नहीं होता, उल्टा नया साधक अपने ध्येय से भटक जाता है।

अगर आपको अपने सदगुरुदेव  के नाम को रोशन करना है, उनके आध्यात्मिक चेतना  को बढ़ाना है, नई पीढ़ी को उनके बताए मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना है तो दो बातों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है -

पहला तो यह कि हम नये साधकों के सामने अपने गुरु की शिक्षा, उनके आदर्श व मूल साधना सही रूप में रक्खें।पुस्तकों में लिखे हुए उनके प्रवचनों में निहित भावना को सही तरह से नये साधकों को समझायें।

दूसरा तरीका और भी अच्छा है। वह यह है कि हम अपने सदगुरुदेव  की शिक्षाओं को, उनके आदर्शों को पूरे तौर से अपने जीवन का अंग बनायें। हमारे अंदर संयम हो,सच्चाई हो,सरलता हो,सेवाभाव हो, विनम्रता हो,त्याग और वैराग्य की भावना हो,सही आचरण के साथ साथ सदगुरुदेव एवं उसके बताये हुए मार्ग में पूरी आस्था हो,विश्वास हो, श्रद्धा हो।नया साधक हमको देखकर यह सोचने पर विवश हो जाये कि जब शिष्य ऐसा है तो सदगुरुदेव न मालूम कितना भव्य होगा,महान होगा। आपको देखकर ही उसके अंदर भी इस मार्ग पर चलने की इच्छा स्वतः ही जागृत हो जायेगी और हमारा भी मनोरथ पूरा हो जाएगा।

जीवन यापन भी एक यात्रा है। यात्री मार्ग जाता हुआ जैसे बहुत से दृश्य देखता हुआ, रात्रि को विश्राम करता हुआ तथा अनेक आपदा व् सुख भोगता हुआ अपने मार्ग को तय करता है, ठीक इसी प्रकार हमारी भी जीवन यात्रा है, इसे हमें तय करना ही है। चाहे शान्ति से व्यतीत करो, चाहे उद्धिग्न होकर । चाहे अपने को कोसते हुए चलो , चाहे प्रसन्न चित्त होते हुए पार कर लो , यह अपने विचारों पर निर्भर है। हाँ सदगुरुदेव  का ध्यान , गुरु का संग ही एक ऐसा पन्थ है कि हमें आनन्द के साथ अपना मार्ग तय करा देता है।
हमें करना भी क्या है ? केवल उसकी याद । बस , इसी से सब सफलता मिलता है। हर समय याद रखने को ही अजपा जाप कहते है, जिसका महत्व शास्त्रो में बहुत कुछ कहा गया है ।
जिस वस्तु का हर समय ध्यान रखा जायेगा, जीव वैसे ही बन जायेगा अतः हमको सदैव  सदगुरुदेव का ध्यान रखना ही आवश्यक है। हम जिस शक्ति को सदगुरुदेव  का सम्बोधन करते है, कोई उसे राम-कृष्ण तथा ओ३म आदि कहकर पुकारते हैं , वह हमें हर समय घेरे हुए ही नही बल्कि हममे ओत- प्रोत हो रही है। हम यदि चाहें भी तो उससे अलग नही हो सकते। यह समझना कि हम उससे दूर तथा अलग है, झूठा ख्याल है। अतः जीव की हर समय की दशा पर वह ख्याल करके उसको मनवाँछित फल देती रहती है, उसी का आशीर्वाद हमे कृतार्थ करता है । हर एक वस्तु में हमको उसे देखने का अभ्यास करना चाहिए।

प्रेम और सेवा*
गुर ने यह साधना संसार के सामने रखते हुए कहा था कि यह "प्रेम" भी देती है। *प्रेम ही आत्मिक उन्नति की कसौटी है*। अगर हम मानव को मानव न समझें, व्यक्ति को व्यक्ति न समझें या किसी दुःखी दरिद्र को देखकर हमारे हृदय में वेदना न जागे तो समझना चाहिए कि हमारी साधना बेकार है।
अतः सबसे इतना प्रेम करो जितना तुम अपने से करते हो।तुम्हारे अंदर हमेशा देने के भाव रहें,लेने से बचते रहो। प्रेम से सेवा करो और सेवा कराने से परहेज रखो। *पूज्य गुरुदेव के प्रेम और सेवा के सबक को हमें याद रखना चाहिए*
प्रेम, निरहंकारिता,नम्रता,दया, करुणा अपने स्वभाव में बढ़ाओ और इन्हीं से प्रेरित होकर हर मनुष्य, हर जीव की सेवा करो।यही गुरु व भगवान को प्रसन्न करने की कुंजी है।
सबसे प्रथम गुरु से प्रेम पैदा होता है साधक के हृदय में। वही प्रेम जब और बढ़ता है तो स्वाभाविक रूप से गुरु परिवार  से हो जाता है। जब यह प्रेम और फैलता व गहराता है तो विश्व प्रेम का स्वरूप ग्रहण कर लेता है।

*सबसे बड़ी सेवा जो सदगुरुदेव चाहते थे वह थी -"गुरु की आध्यात्मिक चेतना का प्रचार

*पूज्य सद गुरुदेव चाहते थे कि हर साधक के हृदय में सेवा भाव हो।बस एक ही विचार हो कि हमें गुरु सेवा करनी है चाहे वह परोक्ष हो या अपरोक्ष। सेवा के बदले में कदापि कुछ न चाहें। आगे चलकर जीव मात्र की सेवा ही गुरु सेवा हो जाती है।

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