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ओशो वाणी




बुद्ध कहते हैं: पहले तो स्वीकार करो कि दुख है।



क्योंकि अगर तुम दुख को स्वीकार ही न करोगे, तो फिर आगे तो यात्रा चलेगी ही नहीं।

फिर दूसरी बात बुद्ध कहते हैं: समझने की कोशिश करो कि दुख के कारण हैं। अकारण तो कोई नहीं होता।

मत टालो भाग्य पर! भाग्य तो बहाना है। कारण से बचने का बहाना है। मत कहो विधाता ने लिख दिया है!
मत कहो कि किसी और की जिम्मेवारी है।
कारण तो तुम हो। कारण हैं तो तुम्हारे भीतर हैं, तुम्हारी मूर्च्छा में हैं।
अब क्रोध करोगे तो दुख न होगा तो क्या होगा ।
और लोभ करोगे तो दुख न होगा तो और क्या होगा ।
दूसरों को दुख दोगे, सताओगे, तो क्या तुम सोचते हो तुम्हारे जीवन में सुख की वीणा बजेगी ।
तुम जो दूसरों को दोगे, वही तुम पर लौट आएगा। यह जगत तो प्रतिफल करता है। यह जगत तो यूं हैं कि तुम जो इसे देते हो, उसी को हजार गुना करके लौटा देता है। सब तुम पर ही आ जाता है वापिस। जो गङ्ढे तुम औरों के लिए खोदते हो, एक दिन सिद्ध होता है कि तुम्हारे लिए ही, तुम्हारी ही कब्र बन जाती हैं।तो कारण हैं। लेकिन हम कारणों को भी बचाते हैं।
पहले तो हम दुख है, यह मानने को राजी नहीं होते। अपने से भी छिपाते हैं, औरों से भी छिपाते हैं।
यूं भ्रांति बनाए रखते हैं, ऐसा भरम बनाए रखते हैं कि सब ठीक है। भीतर आग लगती रहती है, ज्वालामुखी उबलता है और बाहर एक मुखौटा ओढ़े रखते हैं। फिर दूसरे अगर यह स्वीकार भी कर लें कि दुख है, तो हम सदा कारण दूसरों पर थोपते हैं।

पति अगर दुखी है तो पत्नी के कारण। पत्नी अगर दुखी है तो पति के कारण। बाप अगर दुखी है तो बेटे के कारण।
बेटा अगर दुखी है तो बाप के कारण।
जो व्यक्ति कारण दूसरों पर छोड़ देता है, उसने फिर बचाव का उपाय खोज लिया। वह कहने लगा कि मैं करूं तो करूं क्या!
समाज बुरा, समाज की व्यवस्था बुरी, यह परिवार का ढांचा बुरा, यह अर्थनीति बुरी, यह राजनीति बुरी। मैं अकेला आदमी इस भवसागर में फंसा हूं! कैसे हो छुटकारा ।कुछ दिखाई पड़ता नहीं, किनारे का कुछ पता नहीं। और हरेक जान लेने को तत्पर है।यूं तुम बच जाते हो, मगर यह कुछ बचना न हुआ। यह अपने हाथ से फांसी लगा लेना हुआ।
कारण तुम्हारे भीतर हैं।
इसलिए बुद्ध ने दूसरा  कहा--पहला: दुख है,
और दूसरा कि दुख के कारण हैं, कारण तुम्हारे भीतर हैं।
और तीसरा कारणों को काटने के उपाय हैं।
हताश मत हो जाना! विधियां हैं, जिनसे कारण उखाड़े जा सकते हैं। एक बार पता चल जाए कि जड़ कहां है, तो गङ्ढे खोदे जा सकते हैं, घास-पात उखाड़ी जा सकती है, काटी जा सकती है।
उसी विधि का नाम धर्म है,
ध्यान है,
योग है,
तंत्र हैं।
सब अलग अलग नाम है
                                                ओशो  

सर्दी खासी की इलाज

100 ग्राम गुड़
100 ग्राम अदरक
50 ग्राम अजवाइन
10 ग्राम हल्दी
10 ग्राम सरसों का तेल
सभी को गरम कर के लेने से सर्दी खासी जड़ से खत्म।

श्रीगणपति स्तुति


🚩:ओम् श्री गौरीशंकरसुतायश्रीमन् महागणाधिपतये नमो नम:🚩
****************************************************


              🚩:श्रीगणपति स्तुति से मनोकामना पूर्ति:🚩
            *************************************
💥: शास्त्रों में एक ऐसी सरल गणेश स्तुति बतायी गयी है जिसको करने से मनोकामना पूर्ण होती है तथा लक्ष्मी का सुगम आगमन होता है।
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
💥: किसी शुक्ल पक्षीय प्रथम बुधवार या चतुर्थी तिथि को प्रातःकाल स्नानोपरांत किसी गणेश मंदिर में या घर में ही गणपति चित्र के समक्ष हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम करें। तदोपरांत गणपति महाराज को पुष्प,दूब,लड्डू,धूप तथा दीप अर्पित करें और पूर्ण श्रध्दाभाव से इस गणेश मंत्र स्तुति का 21 बार पाठ करें............
....................................................................................
💥:गणाधिप नमस्तुभ्यं सर्वविघ्नप्रशन्तिद्।
             उमानन्दप्रज्ञ प्राज्ञ त्राहिमाम् भवसागरात्।।
हरानन्दकर ध्यानज्ञानविज्ञानद प्रभो।
             विघ्नराज नमस्तुभ्यं सर्वदैत्यैकसूदन।।
सर्वप्रीतिप्रद श्रीद सर्वयज्ञैकरक्षक।
             सर्वाभीष्टप्रद प्रीत्या नमामि त्वां गणाधिपः।।
....................................................................................
💥:भावार्थ - भगवान गणेश को नमस्कार है।सभी विघ्नों के शांति- कर्ता, बुद्धिमान और जीवन रूपी भवसागर से तारने वाले, मां पार्वती को सुख देने वाले श्री गणेश मेरा कल्याण करें। जिनको देख शिव भी आनंदित होते हैं,दानवों के नाशक,अपने भक्तों को ज्ञान-विज्ञान, कृपा और लक्ष्मी कृपा प्रदान करने वाले, कामनासिद्धि करने वाले विघ्न- हर्ता को मेरा हृदय से नमस्कार है।
==========================================
         🚩:विघ्न-विपत्ति व संकट दूर करने का उपाय:🚩
       *****************************************
💥:प्रातःकाल स्नानोपरांत गणपति जी के मंदिर में या घर पर ही भगवान गणेशजी के चित्र के समक्ष गणपति महाराज को अक्षत, पीले पुष्प,पीला वस्त्र,दूर्वा,सिंदूर,धूप,दीप आदि अर्पित कर मोदक का भोग अर्पित करें तदोपरांत निम्नोक्त गणेश मंत्र का 21 बार पाठ करें -----------
....................................................................................
💥:गणपूज्यो वक्रतुण्ड एकदंष्ट्री त्रियम्बक:।
              नीलग्रीवो लम्बोदरो विकटो विघ्नराजक:।।
      धूम्रवर्णों भालचन्द्रो दशमस्तु विनायक:।
               गणपर्तिहस्तिमुखो द्वादशारे यजेद्गणम्।।
....................................................................................
💥:भावार्थ - इस स्तुति में भगवान गणेश के बारह नामों का स्मरण है। ये बारह नाम हैं - गणपूज्य,वक्रतुण्ड,एकदंष्ट्र,त्रियम्बक (त्र्यम्बक), नीलग्रीव, लम्बोदर, विकट, विघ्रराज,धूम्रवर्ण,भालचन्द्र,विनायक और हस्तिमुख।
भगवान गणेश जी के इन बारह नामों का उच्चारण करके भी गणपति आराधना की जा सकती है।
==========================================
       🚩:मनोकामना पूर्ति सहित सर्वकल्याण का उपाय:🚩
      *******************************************
💥: शुक्ल पक्ष चतुर्थी तिथि से नित्य संध्या काल के समय इस मंत्र का 108 बार पाठ करें। पाठ प्रारंभ करने से पूर्व श्रीगणेश जी को सिंदूर, अक्षत, दूर्वा,धूप,दीप अर्पित कर लड्डुओं का भोग लगायें।

सिध्द गणपति मंत्र..........."ओम् गं गणपतये गं नमः।।"
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           🚩: गणपति आराधना के आवश्यक नियम:🚩
         ***************************************
💥: गणपति आराधना का प्रारंभ शुक्ल पक्ष के प्रथम बुधवार या चतुर्थी तिथि से करना चाहिये।
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
💥: गणपति आराधना के अंत में गणेश जी की आरती कर उनसे क्षमाप्रार्थना करनी चाहिये तथा इसके उपरांत अपनी मनोकामना पूर्ति हेतु प्रार्थना कर आशीर्वाद लेना चाहिये।
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💥: गणपति आराधना बिना शिव जी तथा पार्वती जी की आराधना किये पूर्ण नहीं होती है।
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💥: गणपति महाराज की (शिव परिवार सहित) पूर्ण श्रध्दाभाव से की गयी आराधना जीवन में अपार सुख-समृद्धि लाती है तथा समस्त कष्टों से मुक्ति दिलाती है।
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💥: बुध ग्रह संबंधी कोई शुभत्व प्राप्त करना हो या किसी अशुभ प्रभाव की शांति करनी हो,तो गणपति आराधना ही सर्वश्रेष्ठ माध्यम सिध्द होती है।
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💥: बुध ग्रह यदि कारक हो तो पन्ना नामक रत्न पूर्ण प्राण-प्रतिष्ठा कराकर शुभ मुहूर्त भें धारण करना चाहिये।किसी सिध्द व्यक्ति से लेकर ही इसे धारण करना चाहिये।
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💥: यदि बुध अकारक हो तो उपरोक्त गणपति आराधना सहित बुध संबंधी दान करना श्रेयस्कर रहता है।
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श्रीगणपति स्तुति

🚩:ओम् श्री गौरीशंकरसुतायश्रीमन् महागणाधिपतये नमो नम:🚩
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              🚩:श्रीगणपति स्तुति से मनोकामना पूर्ति:🚩
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💥: शास्त्रों में एक ऐसी सरल गणेश स्तुति बतायी गयी है जिसको करने से मनोकामना पूर्ण होती है तथा लक्ष्मी का सुगम आगमन होता है।
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💥: किसी शुक्ल पक्षीय प्रथम बुधवार या चतुर्थी तिथि को प्रातःकाल स्नानोपरांत किसी गणेश मंदिर में या घर में ही गणपति चित्र के समक्ष हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम करें। तदोपरांत गणपति महाराज को पुष्प,दूब,लड्डू,धूप तथा दीप अर्पित करें और पूर्ण श्रध्दाभाव से इस गणेश मंत्र स्तुति का 21 बार पाठ करें............
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💥:गणाधिप नमस्तुभ्यं सर्वविघ्नप्रशन्तिद्।
             उमानन्दप्रज्ञ प्राज्ञ त्राहिमाम् भवसागरात्।।
हरानन्दकर ध्यानज्ञानविज्ञानद प्रभो।
             विघ्नराज नमस्तुभ्यं सर्वदैत्यैकसूदन।।
सर्वप्रीतिप्रद श्रीद सर्वयज्ञैकरक्षक।
             सर्वाभीष्टप्रद प्रीत्या नमामि त्वां गणाधिपः।।
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💥:भावार्थ - भगवान गणेश को नमस्कार है।सभी विघ्नों के शांति- कर्ता, बुद्धिमान और जीवन रूपी भवसागर से तारने वाले, मां पार्वती को सुख देने वाले श्री गणेश मेरा कल्याण करें। जिनको देख शिव भी आनंदित होते हैं,दानवों के नाशक,अपने भक्तों को ज्ञान-विज्ञान, कृपा और लक्ष्मी कृपा प्रदान करने वाले, कामनासिद्धि करने वाले विघ्न- हर्ता को मेरा हृदय से नमस्कार है।
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         🚩:विघ्न-विपत्ति व संकट दूर करने का उपाय:🚩
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💥:प्रातःकाल स्नानोपरांत गणपति जी के मंदिर में या घर पर ही भगवान गणेशजी के चित्र के समक्ष गणपति महाराज को अक्षत, पीले पुष्प,पीला वस्त्र,दूर्वा,सिंदूर,धूप,दीप आदि अर्पित कर मोदक का भोग अर्पित करें तदोपरांत निम्नोक्त गणेश मंत्र का 21 बार पाठ करें -----------
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💥:गणपूज्यो वक्रतुण्ड एकदंष्ट्री त्रियम्बक:।
              नीलग्रीवो लम्बोदरो विकटो विघ्नराजक:।।
      धूम्रवर्णों भालचन्द्रो दशमस्तु विनायक:।
               गणपर्तिहस्तिमुखो द्वादशारे यजेद्गणम्।।
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💥:भावार्थ - इस स्तुति में भगवान गणेश के बारह नामों का स्मरण है। ये बारह नाम हैं - गणपूज्य,वक्रतुण्ड,एकदंष्ट्र,त्रियम्बक (त्र्यम्बक), नीलग्रीव, लम्बोदर, विकट, विघ्रराज,धूम्रवर्ण,भालचन्द्र,विनायक और हस्तिमुख।
भगवान गणेश जी के इन बारह नामों का उच्चारण करके भी गणपति आराधना की जा सकती है।
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       🚩:मनोकामना पूर्ति सहित सर्वकल्याण का उपाय:🚩
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💥: शुक्ल पक्ष चतुर्थी तिथि से नित्य संध्या काल के समय इस मंत्र का 108 बार पाठ करें। पाठ प्रारंभ करने से पूर्व श्रीगणेश जी को सिंदूर, अक्षत, दूर्वा,धूप,दीप अर्पित कर लड्डुओं का भोग लगायें।

सिध्द गणपति मंत्र..........."ओम् गं गणपतये गं नमः।।"
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           🚩: गणपति आराधना के आवश्यक नियम:🚩
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💥: गणपति आराधना का प्रारंभ शुक्ल पक्ष के प्रथम बुधवार या चतुर्थी तिथि से करना चाहिये।
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💥: गणपति आराधना के अंत में गणेश जी की आरती कर उनसे क्षमाप्रार्थना करनी चाहिये तथा इसके उपरांत अपनी मनोकामना पूर्ति हेतु प्रार्थना कर आशीर्वाद लेना चाहिये।
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💥: गणपति आराधना बिना शिव जी तथा पार्वती जी की आराधना किये पूर्ण नहीं होती है।
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💥: गणपति महाराज की (शिव परिवार सहित) पूर्ण श्रध्दाभाव से की गयी आराधना जीवन में अपार सुख-समृद्धि लाती है तथा समस्त कष्टों से मुक्ति दिलाती है।
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💥: बुध ग्रह संबंधी कोई शुभत्व प्राप्त करना हो या किसी अशुभ प्रभाव की शांति करनी हो,तो गणपति आराधना ही सर्वश्रेष्ठ माध्यम सिध्द होती है।
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💥: बुध ग्रह यदि कारक हो तो पन्ना नामक रत्न पूर्ण प्राण-प्रतिष्ठा कराकर शुभ मुहूर्त भें धारण करना चाहिये।किसी सिध्द व्यक्ति से लेकर ही इसे धारण करना चाहिये।
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💥: यदि बुध अकारक हो तो उपरोक्त गणपति आराधना सहित बुध संबंधी दान करना श्रेयस्कर रहता है।
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Shiva Lingashtakam Mantra With Meaning



Brahma Murari surarchita Lingam
Nirmala bhasita sobhita Lingam
Janmaja dukha vinasaka Lingam
Tat pranamami Sadasiva Lingam

I bow before that Lingam, the eternal Shiva,
Worshipped by Brahma, Vishnu and other Devas,
Pure and resplendent,
Which destroys sorrows of birth

Devamuni pravararchita Lingam
Kamadahana karunakara Lingam
Ravana darpa vinasaka Lingam
Tat pranamami Sadasiva Lingam

I bow before that Lingam, the eternal Shiva,
Worshipped by great sages and devas,
Which destroyed the god of love,
Which showers mercy and destroyed the pride of Ravana.

Sarva sugandhi sulepita Lingam
Buddhi vivardhana karana Lingam
Siddha surasura vandita Lingam
Tat pranamami Sadasiva Lingam

I bow before that Lingam, the eternal Shiva,
Anointed by perfumes,
Leading to growth of wisdom,
Which is worshipped by sages, devas and asuras.

Kanaka maha mani bhushita Lingam
Paniphati veshtitha shobhita Lingam
Dakshasu yajna vinashana Lingam
Tat pranamami Sadasiva Lingam

I bow before that Lingam, the eternal Shiva,
Ornamented by gold and great jewels,
Shining with the snake being with it,
Which destroyed the Yagna of Daksha.

Kumkuma chandana lepita Lingam
Pankaja hara sushosbhita Lingam
Sanchita papa vinashana Lingam
Tat pranamami Sadasiva Lingam

I bow before that Lingam, the eternal Shiva,
Adorned by sandal paste and saffron,
Wearing a garland of lotus flowers,
Which can destroy accumulated sins.

Devaganarchita sevita Lingam
Bhavair bhaktibhi revacha Lingam
Dinakarakoti prabhakara Lingam
Tat pranamami Sadasiva Lingam

I bow before that Lingam, the eternal Shiva,
Served by gods and other beings,
The doorway for devotion and good thought,
Which shines like a billion Suns.

Ashtadalo pariveshtia Lingam
Sarva samudbhava karana Lingam
Ashtadaridra vinashana Lingam
Tatpranamami Sadashiva Lingam

I bow before that Lingam, the eternal Shiva,
Surrounded by 8 petals,
The prime reason of all riches,
Which destroys 8 types of poverty.

Suraguru suravara pujita Lingam
Suravana pushpa sadarchita Lingam
Paratparam paramatmaka Lingam
Tatpranamami Sadashiva Lingam

I bow before that Lingam, the eternal Shiva,
Worshipped by the teacher of gods and best of gods,
Always worshipped by the flowers,
From the garden of Gods, the eternal abode,
Which is the ultimate truth.

Lingashtakamidam punyam
Yat Pathet Shivasannidhau
Shivalokamavapnoti
Shivena saha modate.

All who chant the holy octet of the Lingam
In the holy presence of Lord Shiva,
Can ultimately reach His world
And keep Lord Shiva company.

Love All - Serve All


वास्तुशास्त्र

#मय_दानव द्वारा रचित #मयमतम् नामक ग्रन्थ, #दक्षिण_भारतीय (द्रविड़) #स्थापत्यशास्त्र का प्रमाण-ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में वास्तु के स्थान पर सर्वत्र ‘वस्तु’ पद तथा #वास्तुशास्त्र के स्थान पर सर्वत्र ‘वस्तुशास्त्र’ का ही प्रयोग किया गया है। मय के अनुसार वस्तु से उत्पन्न पदार्थ ‘वास्तु’ है। मय ने पृथिवी को प्रथम वस्तु माना है। इसके अतिरिक्त प्रासाद, यान एवं शयन भी वास्तु की श्रेणी में परिगणित हैं।

‘मयमतम्’ ग्रन्थ में 36 अध्याय, 1 परिशिष्ट और 3,344 श्लोक हैं। इनका विवरण इस प्रकार है— 1. संग्रह (12 श्लोक), 2. वस्तुप्रकार (15 श्लोक), 3. भूपरीक्षा (20 श्लोक), 4. भूपरिग्रह (19 श्लोक), 5. मानोपकरण (25 श्लोक), 6. दिक्परिच्छेद (29 श्लोक), 7. पददेवताविन्यास (58 श्लोक), 8. बलिकर्मविधान (23 श्लोक), 9. ग्रामविन्यास (130 श्लोक), 10. नगरविधान (95 श्लोक), 11. भूलम्भविधान (27 श्लोक), 12. गर्भविन्यास (114 श्लोक), 13. उपपीठविधान (22 श्लोक), 14. अधिष्ठानविधान (48 श्लोक), 15. पादप्रमाणद्रव्यपरिग्रह (123 श्लोक), 16. प्रस्तरकरण (68 श्लोक), 17. सन्धिकर्मविधान (62 श्लोक), 18. शिखरकरणभवनकर्मसमाप्तिविधान (216 श्लोक), 19. एकभूमिविधान (49 श्लोक), 20. द्विभूमिविधान (39 श्लोक), 21. त्रिभूमिविधान (99 श्लोक), 22. चतुर्भूम्यादिबहुभूमिविधान (94 श्लोक), 23. प्राकारपरिवारविधान (131 श्लोक), 24. गोपुरविधान (137 श्लोक), 25. मण्डपसभाविधान (237 श्लोक), 26. शालाविधान (220 श्लोक), 27. चतुर्गृहविधान (136 श्लोक), 28. गृहप्रवेश (36 श्लोक), 29. राजवेश्मविधान (228 श्लोक), 30. द्वारविधान (121 श्लोक), 31. यानाधिकार (62 श्लोक), 32. शयनाधिकार (24 श्लोक), 33. लिंगलक्षण (162 श्लोक), 34. पीठलक्षण (74 श्लोक), 35. अनुकर्मविधान (59 श्लोक), 36. प्रतिमालक्षण (315 श्लोक) और ‘कूपारम्भ’ संज्ञक परिशिष्ट (15 श्लोक)। ‘मयमतम्’ का प्रथम अध्याय सबसे छोटा है, जिसमें केवल 12 श्लोक हैं जबकि अन्तिम 36वाँ अध्याय सबसे बड़ा है, जिसमें 315 श्लोक हैं।

इस प्रकार विषयवस्तु की दृष्टि से ‘मयमतम्’ ग्रन्थ में प्रथम ‘वस्तु (अथवा ‘वास्तु’) भूमि है। तदनन्तर ग्राम-नगरादि का स्थान आता है। इसके पश्चात् देवों एवं चातुर्वर्ण्य के लिए भूमि, भवन, यान तथा शयन का स्थान आता है। तीसरे एवं चौथे अध्याय में भूमि के परिक्षण का वर्णन प्राप्त होता है। तदनन्तर माप के विभिन्न प्रकारों एवं इकाइयों का निरूपण किया गया है। चार प्रकार के शिल्पी स्थपति, सूत्रग्राही, तक्षक तथा वर्धकि निर्माण-कार्य के अभिन्न अंग हैं। अतः इनका ग्रन्थ में विस्तार से वर्णन किया गया है। निर्माण हेतु दिशा का सटीक ज्ञान एवं कार्य के अनुसार वास्तुपदविन्यास आवश्यक होता है। अतः ग्रन्थ में इनका विवेचन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त ग्राम, नगर, भवन, नींव में गर्भविन्यास, उपपीठ, अधिष्ठान, स्तम्भ, द्रव्य-स्तम्भ, प्रस्तरकरण, सन्धिकर्म, कलश, छत एवं शिखर आदि का निरूपण किया गया है। देवालय, राजभवन-मर्यादा, गोपुर, मंडप, सभागृह, शालगृह, अलिन्द्र, आँगन, आदि वास्तु ले अंग हैं। इन सभी के विषय में ‘मयमतम्’ में प्रकाश डाला गया है।
यह भी पढ़े

*‘मयमतम्’ के विभिन्न संस्करण :*
• मयमतं, महामहोपाध्याय टी. गणपति शास्त्री (सं.), त्रिवेन्द्रम संस्कृत सीरीज, 1919.
• Mayamata, Bruno Dagens, Institut Français D'indologie, Pondicherry, 1970.
• मयमतम्, 2 खण्ड, इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के सौजन्य से मोतीलाल बनारसीदास, नयी दिल्ली, 2007.
• मयमतम्, 2 खण्ड, डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू (हिंदी-टीकाकार), चौखम्बा संस्कृत सीरीज़, 2008.
• मयमतम्, 2 खण्ड, शिवार्पिता हिंदी-व्याख्या सहित, डॉ. शैलजा पाण्डेय (हिंदी-टीकाकार), चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, 2013.
• Mayamata : trattato sull'abitare, sull'architettura e sull'iconografia nell'India antica, Luni Editrice 

एक षड्यंत्र और शराब की घातकता|

जोक्स और फालतू पोस्ट के बजाये आज 5 मिनट इस पोस्ट पै ध्यान जरूर दे ,,,,,,,👇🏼👇🏼👇🏼👇🏼

"एक षड्यंत्र और शराब की घातकता...
"हिंदू धर्म ग्रंथ नहीँ कहते कि देवी को शराब चढ़ाई जाये.., ग्रंथ नहीँ कहते की शराब पीना ही क्षत्रिय धर्म है..ये सिर्फ़ एक मुग़लों का षड्यंत्र था हिंदुओं को कमजोर करने का !

जानिये एक अनकही ऐतिहासिक घटना..
."एक षड्यंत्र और शराब की घातकता...."कैसे हिंदुओं की सुरक्षा प्राचीर को ध्वस्त किया मुग़लों ने ??

जानिये और फिर सुधार कीजिये !!

मुगल बादशाह का दिल्ली में दरबार लगा था और हिंदुस्तान के दूर दूर के राजा महाराजा दरबार में हाजिर थे । उसी दौरान मुगल बादशाह ने एक दम्भोक्ति की "है कोई हमसे बहादुर इस दुनिया में है ?"

सभा में सन्नाटा सा पसर गया ,एक बार फिर वही दोहराया गया !

तीसरी बार फिर उसने ख़ुशी से चिल्ला कर कहता" कोई है हमसे बहादुर जो हिंदुस्तान पर सल्तनत कायम कर सके ??

सभा की खामोशी तोड़ती एक बुलन्द शेर सी दहाड़ गूंजी तो सबका ध्यान उस शख्स की ओर गया ! वो जोधपुर के महाराजा राव रिड़मल राठौड़ थे ! रिड़मल जी राठौड़ ने कहा, "मुग़लों में बहादुरी नहीँ कुटिलता है..., सबसे बहादुर तो राजपूत है दुनियाँ में ! मुगलो ने राजपूतो को आपस में लड़वा कर हिंदुस्तान पर राज किया!

कभी सिसोदिया राणा वंश को कछावा जयपुर से तो कभी राठोड़ो को दूसरे राजपूतो से...। बादशाह का मुँह देखने लायक था ,ऐसा लगा जैसे किसी ने चोरी करते रंगे हाथो पकड़ लिया हो।

"बातें मत करो राव...उदाहरण दो वीरता का।
"रिड़मल राठौड़ ने कहा "क्या किसी कौम में देखा है किसी को सिर कटने के बाद भी लड़ते हुए ??"

बादशाह बोला ये तो सुनी हुई बात है देखा तो नही, रिड़मल राठौड़ बोले " इतिहास उठाकर देख लो कितने वीरो की कहानिया है सिर कटने के बाद भी लड़ने की...

"बादशाह हंसा और दरबार में बैठे कवियों की ओर देखकर बोला "इतिहास लिखने वाले तो मंगते होते है । मैं भी १०० मुगलो के नाम लिखवा दूँ इसमें क्या ? मुझे तो जिन्दा ऐसा राजपूत बताओ जो कहे की मेरा सिर काट दो में फिर भी लड़ूंगा।

"राव रिड़मल राठौड़ निरुत्तर हो गए और गहरे सोच में डूब गए। रात को सोचते सोचते अचानक उनको रोहणी ठिकाने के जागीरदार का ख्याल आया।

रात  रोहणी ठिकाना (जो की जेतारण कस्बे जोधपुर रियासत) में दो घुड़सवार बुजुर्ग जागीरदार के पोल पर पहुंचे और मिलने की इजाजत मांगी। ठाकुर साहब काफी वृद्ध अवस्था में थे फिर भी उठ कर मेहमान की आवभगत के लिए बाहर पोल पर आये ,,

घुड़सवारों ने प्रणाम किया और वृद्ध ठाकुर की आँखों में चमक सी उभरी और मुस्कराते हुए बोले" जोधपुर महाराज... आपको मैंने गोद में खिलाया है और अस्त्र शस्त्र की शिक्षा दी है.. इस तरह भेष बदलने पर भी में आपको आवाज से पहचान गया हूँ। हुकम आप अंदर पधारो...मैं आपकी रियासत का छोटा सा जागीरदार, आपने मुझे ही बुलवा लिया होता। राव रिड़मल राठौड़ ने उनको झुककर प्रणाम किया और बोले एक समस्या है , और बादशाह के दरबार की पूरी कहानी सुना दी !

अब आप ही बताये की जीवित योद्धा का कैसे पता चले की ये लड़ाई में सिर कटने के बाद भी लड़ेगा ?

रोहणी जागीदार बोले ," बस इतनी सी बात..मेरे दोनों बच्चे सिर कटने के बाद भी लड़ेंगे और आप दोनों को ले जाओ दिल्ली दरबार में ये आपकी और राजपूती की लाज जरूर रखेंगे..

"राव रिड़मल राठौड़ को घोर आश्चर्य हुआ कि एक पिता को कितना विश्वास है अपने बच्चो पर.. , मान गए राजपूती धर्म को। सुबह जल्दी दोनों बच्चे अपने अपने घोड़ो के साथ तैयार थे!

उसी समय ठाकुर साहब ने कहा ," महाराज थोडा रुकिए !!

मैं एक बार इनकी माँ से भी कुछ चर्चा कर लूँ इस बारे में। "राव रिड़मल राठौड़ ने सोचा आखिर पिता का ह्रदय है कैसे मानेगा ! अपने दोनों जवान बच्चो के सिर कटवाने को ,एक बार रिड़मल जी ने सोचा की मुझे दोनों बच्चो को यही छोड़कर चले जाना चाहिए।

ठाकुर साहब ने ठकुरानी जी को कहा" आपके दोनों बच्चो को दिल्ली मुगल बादशाह के दरबार में भेज रहा हूँ सिर कटवाने को ,दोनों में से कौनसा सिर कटने के बाद भी लड़ सकता है ? आप माँ हो आपको ज्यादा पता होगा !

ठकुरानी जी ने कहा"बड़ा लड़का तो क़िले और क़िले के बाहर तक भी लड़ लेगा पर छोटा केवल परकोटे में ही लड़ सकता है क्योंकि पैदा होते ही इसको मेरा दूध नही मिला था। लड़ दोनों ही सकते है, आप निश्चित् होकर भेज दो

"दिल्ली के दरबार में आज कुछ विशेष भीड़ थी और हजारो लोग इस दृश्य को देखने जमा थे। बड़े लड़के को मैदान में लाया गया औरमुगल बादशाह ने जल्लादो को आदेश दिया की इसकी गर्दन उड़ा दो..तभी बीकानेर महाराजा बोले "ये क्या तमाशा है ?

राजपूती इतनी भी सस्ती नही हुई है , लड़ाई का मौका दो और फिर देखो कौन बहादुर है ? बादशाह ने खुद के सबसे मजबूत और कुशल योद्धा बुलाये और कहा ये जो घुड़सवार मैदान में खड़ा है उसका सिर् काट दो...२० घुड़सवारों को दल रोहणी ठाकुर के बड़े लड़के का सिर उतारने को लपका और देखते ही देखते उन २० घुड़सवारों की लाशें मैदान में बिछ गयी।दूसरा दस्ता आगे बढ़ा और उसका भी वही हाल हुआ ,मुगलो में घबराहट और झुरझरि फेल गयी ,इसी तरह बादशाह के ५०० सबसे ख़ास योद्धाओ की लाशें मैदान में पड़ी थी और उस वीर राजपूत योद्धा के तलवार की खरोंच भी नही आई।ये देख कर मुगल सेनापति ने कहा" ५०० मुगल बीबियाँ विधवा कर दी आपकी इस परीक्षा ने अब और मत कीजिये हजुर , इस काफ़िर को गोली मरवाईए हजुर...तलवार से ये नही मरेगा...कुटिलता और मक्कारी से भरे मुगलो ने उस वीर के सिर में गोलिया मार दी।सिर के परखचे उड़ चुके थे पर धड़ ने तलवार की मजबूती कम नही करीऔर मुगलो का कत्लेआम खतरनाक रूप से चलते रहा। बादशाह ने छोटे भाई को अपने पास निहत्थे बैठा रखा था ये सोच कर की ये बड़ा यदि बहादुर निकला तो इस छोटे को कोई जागीर दे कर अपनी सेना में भर्ती कर लूंगा लेकिन जब छोटे ने ये अंन्याय देखा तो उसने झपटकर बादशाह की तलवार निकाल ली। उसी समय बादशाह के अंगरक्षकों ने उनकी गर्दन काट दी फिर भी धड़ तलवार चलाता गया और अंगरक्षकों समेत मुगलो का काल बन गए।

बादशाह भाग कर कमरे में छुप गया और बाहर मैदान में बड़े भाई और अंदर परकोटे में छोटे भाई का पराक्रम देखते ही बनता था। हजारो की संख्या में मुगल हताहत हो चुके थे और आगे का कुछ पता नही था। बादशाह ने चिल्ला कर कहा अरे कोई रोको इनको..।

राजा के दरबार का एक मौलवी आगे आया और बोला इन पर शराब छिड़क दो। राजपूत का इष्ट कमजोर करना हो तो शराब का उपयोग करो। दोनों भाइयो पर शराब छिड़की गयी ऐसा करते ही दोनों के शरीर ठन्डे पड़ गए ।

मौलवी ने बादशाह को कहा " हजुर ये लड़ने वाला इनका शरीर नही बल्कि इनकी कुल देवी है और ये राजपूत शराब से दूर रहते है और अपने धर्म और इष्ट को मजबूत रखते है। यदि मुगलो को हिन्दुस्तान पर शासन करना है तो इनका इष्ट और धर्म भ्रष्ट करो और इनमे दारु शराब की लत लगाओ। यदि मुगलो में ये कमियां हटा दे तो मुगल भी मजबूत बन जाएंगे। उसके बाद से ही राजपूतो में मुगलो ने शराब का प्रचलन चलाया और धीरे धीरे राजपूत शराब में डूबते गए और अपनी इष्ट देवी को आराधक से खुद को भ्रष्ट करते गए। और मुगलो ने मुसलमानो को कसम खिलवाई की शराब पीने के बाद नमाज नही पढ़ी जा सकती। इसलिए इससे दूर रहिये।

हिन्दू भाइयों ये सच्ची घटना है और हमे हिन्दू समाज को इस कुरीति से दूर करना होगा। तब ही हम पुनः खोया हुआ वैभव पा सकेंगे और हिन्दू धर्म की रक्षा कर सकेंगे।तथ्य एवं श्रुति पर आधारित। नमन ऐसी वीर परंपरा को नमन..
आग्रह शराब से दूर रहे सभी..!
हुक्म आप सभी से निवेदन है  पोस्ट ज्यादा से ज्यादा शेयर जरूर करें।
    जय श्री राम,🚩
 जय मां भवानी🚩

छत्तीसगढ़ राज्य जॉब

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ओशो - गीता दर्शन



संत अगस्तीन एक चर्च बनवा रहा था। उसने एक बहुत बड़े चित्रकार को बुलाया और कहा कि इस चर्च के प्रथम द्वार पर मृत्यु का चित्र अंकित कर दो। क्योंकि जो मृत्यु को नहीं समझ पाता, वह मंदिर में प्रवेश भी कैसे कर पाएगा!

अगस्तीन ने चर्च के द्वार पर मृत्यु का चित्र बनवाया। जब चित्र बन गया, तो अगस्तीन उसे देखने आया। पर उसने कहा कि और तो सब ठीक है, लेकिन यह जो मृत्यु की काली छाया है, इसके हाथ में तुमने कुल्हाड़ी क्यों दी है?

चित्रकार ने मृत्यु की काली छाया बनाई है, एक भयंकर विकराल रूप और उसके हाथ में एक कुल्हाड़ी दी है।

उस चित्रकार ने कहा, यह प्रतीक है कि मृत्यु की कुल्हाडी सभी को काट डालती है, तोड़ डालती है। अगस्तीन ने कहा, और सब ठीक है, कुल्हाड़ी अलग कर दो और हाथ में चाबी दे दो।

चित्रकार ने कहा, कुछ समझ में नहीं आया! चाबी से क्या लेना—देना? अगस्तीन ने कहा, जो हमारा अनुभव है, वह यह है कि मृत्यु सिर्फ एक नया द्वार खोलती है, किसी को मिटाती—करती नहीं। इसलिए चाबी! नया द्वार खोलती है।

लेकिन नया द्वार उनके लिए खोलती है, जो होशपूर्वक मरते हैं। जो बेहोशी से मरते हैं, उनकी तो गरदन ही काटती है। उनके लिए तो मृत्यु के हाथ में कुल्हाड़ी ही है।

शरीर छोड़कर जाते हुए को हम नहीं जान पाते, क्योंकि हम बेहोश होते हैं। और हम तभी जान पाएंगे, जब मृत्यु में होश सधे। इसका अभ्यास करना होगा। इसका इतना अभ्यास करना होगा कि यह चेतन से उतरते—उतरते अचेतन में चला जाए। और जब तक यह अचेतन में न चला जाए अभ्यास.।.

इसलिए योग दो शब्दों का उपयोग करता है, वैराग्य और अभ्यास। बस, प्रक्रिया पूरी उन दो में समाई हुई है। वैराग्य की हमने बात की, क्या है वैराग्य। और दूसरा है कि उसका गहन अभ्यास, रोज—रोज साधना। ताकि मरने के पहले आपके भीतर इतना उतर जाए कि मृत्यु उसको हिला न सके।

मेरे एक मित्र हैं। मिलिट्री में मेजर हैं। उनकी पत्नी मेरे पड़ोस में रहती थीं। वे तो कभी—कभी आते थे। जगह—जगह उनकी बदलिया होती रहती थीं। पत्नी उनकी एक कालेज में प्रोफेसर थीं।

जब भी मित्र आते, तो पत्नी थोड़ी परेशान हो जाती। क्योंकि और तो सब ठीक था, बहुत प्यारे आदमी हैं, लेकिन रात में धुर्राते बहुत थे। और पत्नी अकेली रहने की आदी हो गई थी वर्षों से। तो जब भी साल में महीने, दो महीने के लिए आते, तो उसकी नींद हराम हो जाती थी।

उसने मुझे एक दिन कहा कि बड़ी अजीब हालत है। कहते भी अच्छा नहीं मालूम पड़ता; वे कभी आते हैं। लेकिन मेरी नींद मुश्किल हो जाती है। या मैं यह कहूं कि मैं दूसरे कमरे में सोऊ, तो भी अशोभन मालूम पड़ता है, इतने दिन के बाद पति घर आते हैं। और रात में तो सो ही नहीं पाती।
यह भी पढ़े

मैंने उनसे पूछा कि मुझे पूरा ब्यौरा दो।

तो उसने कहा कि जब भी वे बाएं सोते हैं, तो घुर्राते हैं। जब दाएं बदल लेते हैं करवट, तो ठीक सो जाते हैं। पर रात में उनको सोते में करवट कौन बदलवाए! और वजनी शरीर है, भारी, सैनिक हैं। और बदलाओ उनको करवट, तो नींद टूट जाएगी।

तो मैंने उसको कहा कि मैं तुझे एक मंत्र देता हूं; उनके कान में अभ्यास करना। दूसरे दिन उसने अभ्यास करके मुझे कहा कि अदभुत मंत्र है!

छोटा—सा मंत्र था। मैंने कहा, उनके कान में कहना राइट टर्न। मिलिट्री के आदमी। जिदगीभर का अभ्यास। मंत्र काम कर गया। जैसे ही उसने कहा राइट टर्न, उन्होंने नींद में अपनी करवट बदल ली।

ओशो - गीता दर्शन – भाग - 7, - अध्‍याय—15
(प्रवचन—चौथा) — समर्पण की छलांग

ओशो - गीता दर्शन 7

पोस्ट - 1940/3440 - ओशो - गीता दर्शन - भाग – 7

संत अगस्तीन एक चर्च बनवा रहा था। उसने एक बहुत बड़े चित्रकार को बुलाया और कहा कि इस चर्च के प्रथम द्वार पर मृत्यु का चित्र अंकित कर दो। क्योंकि जो मृत्यु को नहीं समझ पाता, वह मंदिर में प्रवेश भी कैसे कर पाएगा!

अगस्तीन ने चर्च के द्वार पर मृत्यु का चित्र बनवाया। जब चित्र बन गया, तो अगस्तीन उसे देखने आया। पर उसने कहा कि और तो सब ठीक है, लेकिन यह जो मृत्यु की काली छाया है, इसके हाथ में तुमने कुल्हाड़ी क्यों दी है?

चित्रकार ने मृत्यु की काली छाया बनाई है, एक भयंकर विकराल रूप और उसके हाथ में एक कुल्हाड़ी दी है।

उस चित्रकार ने कहा, यह प्रतीक है कि मृत्यु की कुल्हाडी सभी को काट डालती है, तोड़ डालती है। अगस्तीन ने कहा, और सब ठीक है, कुल्हाड़ी अलग कर दो और हाथ में चाबी दे दो।

चित्रकार ने कहा, कुछ समझ में नहीं आया! चाबी से क्या लेना—देना? अगस्तीन ने कहा, जो हमारा अनुभव है, वह यह है कि मृत्यु सिर्फ एक नया द्वार खोलती है, किसी को मिटाती—करती नहीं। इसलिए चाबी! नया द्वार खोलती है।

लेकिन नया द्वार उनके लिए खोलती है, जो होशपूर्वक मरते हैं। जो बेहोशी से मरते हैं, उनकी तो गरदन ही काटती है। उनके लिए तो मृत्यु के हाथ में कुल्हाड़ी ही है।

शरीर छोड़कर जाते हुए को हम नहीं जान पाते, क्योंकि हम बेहोश होते हैं। और हम तभी जान पाएंगे, जब मृत्यु में होश सधे। इसका अभ्यास करना होगा। इसका इतना अभ्यास करना होगा कि यह चेतन से उतरते—उतरते अचेतन में चला जाए। और जब तक यह अचेतन में न चला जाए अभ्यास.।.

इसलिए योग दो शब्दों का उपयोग करता है, वैराग्य और अभ्यास। बस, प्रक्रिया पूरी उन दो में समाई हुई है। वैराग्य की हमने बात की, क्या है वैराग्य। और दूसरा है कि उसका गहन अभ्यास, रोज—रोज साधना। ताकि मरने के पहले आपके भीतर इतना उतर जाए कि मृत्यु उसको हिला न सके।
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मेरे एक मित्र हैं। मिलिट्री में मेजर हैं। उनकी पत्नी मेरे पड़ोस में रहती थीं। वे तो कभी—कभी आते थे। जगह—जगह उनकी बदलिया होती रहती थीं। पत्नी उनकी एक कालेज में प्रोफेसर थीं।

जब भी मित्र आते, तो पत्नी थोड़ी परेशान हो जाती। क्योंकि और तो सब ठीक था, बहुत प्यारे आदमी हैं, लेकिन रात में धुर्राते बहुत थे। और पत्नी अकेली रहने की आदी हो गई थी वर्षों से। तो जब भी साल में महीने, दो महीने के लिए आते, तो उसकी नींद हराम हो जाती थी।

उसने मुझे एक दिन कहा कि बड़ी अजीब हालत है। कहते भी अच्छा नहीं मालूम पड़ता; वे कभी आते हैं। लेकिन मेरी नींद मुश्किल हो जाती है। या मैं यह कहूं कि मैं दूसरे कमरे में सोऊ, तो भी अशोभन मालूम पड़ता है, इतने दिन के बाद पति घर आते हैं। और रात में तो सो ही नहीं पाती।

मैंने उनसे पूछा कि मुझे पूरा ब्यौरा दो।

तो उसने कहा कि जब भी वे बाएं सोते हैं, तो घुर्राते हैं। जब दाएं बदल लेते हैं करवट, तो ठीक सो जाते हैं। पर रात में उनको सोते में करवट कौन बदलवाए! और वजनी शरीर है, भारी, सैनिक हैं। और बदलाओ उनको करवट, तो नींद टूट जाएगी।

तो मैंने उसको कहा कि मैं तुझे एक मंत्र देता हूं; उनके कान में अभ्यास करना। दूसरे दिन उसने अभ्यास करके मुझे कहा कि अदभुत मंत्र है!

छोटा—सा मंत्र था। मैंने कहा, उनके कान में कहना राइट टर्न। मिलिट्री के आदमी। जिदगीभर का अभ्यास। मंत्र काम कर गया। जैसे ही उसने कहा राइट टर्न, उन्होंने नींद में अपनी करवट बदल ली।

ओशो - गीता दर्शन – भाग - 7, - अध्‍याय—15
(प्रवचन—चौथा) — समर्पण की छलांग

ओशो - गीता प्रवचन 4



मौत के क्षण में तो आप तभी होश रख पाएंगे, जब जिंदगीभर अभ्यास किया हो। और वह इतना गहरा हो गया हो कि मौत भी सामने खड़ी हो, तो भी चित्त बेहोश न हो। अचेतन तक, अनकांशस तक पहुंच जाना जरूरी है।

इसलिए समर्पण का जितना से जितना प्रयोग हो सके, जितना ज्यादा प्रयोग हो सके, जिन—जिन स्थितियों में आप अपने को खो सकें, खोए। अपने को सम्हाले मत। क्योंकि वह खोना इकट्ठा होता जाएगा। रत्ती—रत्ती इकट्ठा होते—होते उसका पहाड़ बन जाएगा। और जब मौत आएगी, तो आप होशपूर्वक जा सकेंगे।

और जो व्यक्ति होशपूर्वक मर गया, उसका दूसरा जन्म होशपूर्वक होता है। क्योंकि जन्म और मृत्यु एक ही द्वार के दो हिस्से है इस तरफ से जब हम प्रवेश करते है, तो मृत्यु; और जब उसी

दरवाजे से उस तरफ निकलते है, तो जन्म। जैसे एक ही दरवाजे पर लिखा होता है, भीतर। तो बाहर से जब हम प्रवेश करते हैं, तो भीतर, वह बाहर जब हम खड़े थे दरवाजे के। लेकिन जैसे ही दरवाजे के भीतर गए, दूसरा जगत शुरू हो गया।

मृत्यु, इस शरीर से बाहर; और जन्म, दूसरे शरीर में भीतर। लेकिन प्रक्रिया एक ही है। अगर आप होशपूर्वक मर सकते हैं, तो आपका जन्म होशपूर्वक होगा। और तब आपको पिछले जन्म की याद रहेगी। और तब पिछले जन्म के अनुभव व्यर्थ नहीं जाएंगे। उनका निचोड़ आपके हाथ में होगा। और तब आपने जो भूलें पिछले जन्म में कीं, वे आप इस जन्म में न कर सकेंगे। अन्यथा हर बार वही भूल है। और यह चक्र दुष्टचक्र है, विशियस सर्किल है। हर बार भूल जाते हैं; फिर वही भूल करते हैं।

ऐसा आप बहुत बार कर चुके हैं। यही काम जो आप आज कर रहे हैं, इसको आप अनंत बार कर चुके हैं। यही शादी, यही बच्चे, यही धन, यही पद—प्रतिष्ठा, यही लड़ाई—झगड़ा, कलह, अदालत,

दुकान; यह आप बहुत बार कर चुके हैं।

काश, आपको एक दफे भी याद आ जाए कि यह आप बहुत बार कर चुके हैं, तो इसमें जो आज आप इतना रस ले रहे हैं, वह एकदम खो जाएगा। यह पागलपन मालूम पड़ेगा। आप एकदम ठहर जाएंगे।

मृत्यु में जो होशपूर्वक मरे, वह जन्म में भी होशपूर्वक पैदा होता है। और जो मृत्यु और जन्म में होशपूर्वक रह जाए, वह जीवन में होशपूर्वक रहता है। क्योंकि मृत्यु और जन्म छोर हैं; बीच में जीवन है। और हम तीनों में बेहोश हैं।
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इसलिए हम कितना ही सुनें कि शरीर नहीं है, आत्मा है, यह बात बैठती नहीं है। कितना ही कोई कहे कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं, मान भी लें, तो भी यह बात भीतर उतरती नहीं। क्योंकि हमारा अनुभव नहीं है। लगता तो ऐसे ही है कि शरीर ही होंगे। यह आत्मा हवा मालूम पड़ती है, हवाई बात मालूम पड़ती है।

कृष्ण कहते हैं, परंतु शरीर छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को और विषयों को भोगते हुए को अथवा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानीजन नहीं जानते हैं। क्योंकि मूर्च्छा सतत है। केवल ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्व को जानते हैं।

कौन—सा है ज्ञान—नेत्र जो ज्ञानियों को मिल जाता है? उसको ही मैं अमूर्च्छा कह रहा हूं। होशपूर्वक घटनाओं को घटने देना, मृत्यु को, जन्म को, जीवन को। ये तीन घटनाएं हैं। अगर ये तीनों होशपूर्वक घट जाएं, तो आपके पास ज्ञान—नेत्र उपलब्ध हो गया। जहां आप हैं, वहीं से शुरू करना पड़ेगा। जन्म तो पीछे छूट गया। मौत आगे आ रही है। वह अभी दूर है। जीवन अभी है। जीवन के साथ शुरू करना जरूरी है कि हम जीएं, तो ज्ञानपूर्वक जीएं। जो भी करें, होशपूर्वक करें। बार—बार होश छूट जाएगा, फिर उसे पकड़े।

रास्ते पर चलें, तो होश से। भोजन करें, तो होश से। किसी से बात करें, तो होश से। एक बात सतत बनी रहे कि मेरे द्वारा मूर्च्छा में कुछ न हो। कोई गाली दे, तो पहले होश को सम्हाले, फिर उत्तर दें।

आप चकित हो जाएंगे, होश सम्हल जाए तो उत्तर निकलेगा नहीं। और होश न सम्हला हो, तो जो आप नहीं करना चाहते, वह भी हो जाता है, वह भी निकल जाता है।

ओशो - गीता दर्शन – भाग - 7, - अध्‍याय—15
(प्रवचन—चौथा) — समर्पण की छलांग

ओशो - गीता



मुल्ला नसरुद्दीन एक यात्रा पर गया। दो मित्र साथ थे। तीनों बैलगाडी से यात्रा कर रहे थे। तीनों ने चिटें डालकर तय किया कि भोजन कौन बनाएगा। एक का नाम आ गया। पर उसमें भी एक शर्त थी। वह शर्त यह थी कि जिसका नाम आ जाएगा, वह भोजन बनाएगा; लेकिन बाकी दो में से कोई भी भोजन की शिकायत न कर सकेगा। और जिसने शिकायत की, उसी दिन से भोजन उसको बनाना पड़ेगा।

मुल्ला बड़ी मुश्किल में पड़ गया। नाम तो दूसरे का आया, इससे प्रसन्न हुआ। लेकिन भोजन उसने इतना रही बनाना शुरू किया कि वह खाया न जाए और शिकायत कर नहीं सकते। शिकायत की, तो खुद बनाना पड़े।

एक दिन, दो दिन, तीन दिन, फिर उसने होश खो दिया। तीसरे दिन उसने कहा कि इट टेस्ट्स लाइक हार्स शिट—घोड़े की लीद जैसा इसका स्वाद है। लेकिन तभी उसको खयाल आया, तो उसने कहा, बट डिलीशियस—पर बड़ा स्वादिष्ट है। क्योंकि कंप्लेंट नहीं करनी है, शिकायत नहीं करनी है।

अगर आप खयाल रखेंगे, तो चौबीस घंटे ऐसे मौके आपको आएंगे, जब आधा वाक्य बेहोशी में निकलेगा, और तब आपको खयाल आएगा; आधा तब आप पीछे से कहेंगे, बट डिलीशियस।

जीवन है हाथ में अभी, और अभी ही कुछ किया जा सकता है। वाणी, विचार, आचरण, सब पहलुओं पर होश की साधना। जो भी मैं कहूं जो भी मैं सोचूं जो भी मैं करूं, वह होशपूर्वक हो, इतना भर काफी है। तो धीरे—धीरे आप पाएंगे कि बेहोशी टूटने लगी। और बेहोशी के टूटने के साथ ही दुख टूटने शुरू हो जाते हैं। बेहोशी के कारण ही दुखों को हम निमंत्रण देते हैं। और बेहोशी के कारण ही हम वे क्षण चूक जाते हैं जिनसे आनंद उपलब्ध हो सकता था।

मुल्ला नसरुद्दीन के पास एक गधा था। और गधे को अक्सर सर्दी लग जाती, तो वह कंपने लगता, बुखार आ जाता। तो वह लेकर गया उसको एक जानवरों के डाक्टर के पास।

उस डाक्टर ने जांच—पड़ताल की और उसको दो गोलियां दीं और एक पोली नली दी। और कहा कि नली में गोलियों को रखना और एक छोर गधे के मुंह में डालना और दूसरे से फूंक मार देना, तो गोलियां इसके पेट में चली जाएंगी। गोलियां बहुत गरम हैं, एक ही दिन में ठीक हो जाएगा।

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शाम को ही नसरुद्दीन लौटा, तो वह लट्ठ लिए हुए था। उसने जाकर दरवाजे पर लट्ठ मारा और कहा, कहां है वह डाक्टर का बच्चा? डाक्टर भी डरा, क्योंकि उसकी आंखें लाल, चेहरा सुर्ख, पसीने से भरा हुआ।

डाक्टर ने पूछा कि क्या हुआ?

उसने कहा, तूने पूरी बात क्यों न बताई?

कौन—सी पूरी बात?

नसरुद्दीन ने कहा, गधे ने पहले फूंक मार दी; गोलियां मेरे पेट में चली गईं!

उस डाक्टर ने पूछा, तुम करने क्या लगे?

उसने कहा, मैं जरा दूसरे सोच में पड़ गया, जरा देर हो गई। गोली रखकर, मुंह में नली लगाकर मैं बैठा और कुछ दूसरा खयाल आ गया।

उतने खयाल में तो बेहोशी हो जाएगी।

हम सब ऐसे ही जी रहे हैं। कुछ कर रहे हैं, कुछ खयाल आ रहा है। कुछ करना चाहते हैं, कुछ हो जाता है। कुछ सोचा था, कुछ परिणाम आते हैं। कभी भी वही नहीं हो पाता, तो हम चाहते हैं। वह होगा भी नहीं, क्योंकि वह केवल तभी हो सकता है, जब होश पूरा हो।

जिसका होश पूरा है, उसके जीवन में वही होता है, जो होना चाहिए। उससे अन्यथा का कोई उपाय नहीं है। जिसका जीवन मूर्च्छा में चल रहा है, वह शराबी की तरह है। जाना चाहता था घर, पहुंच गया कहीं और। क्योंकि पैर का उसे कोई पता नहीं कि कहा जा रहे हैं। वह शराबी की तरह है। करना चाहता था कुछ और, हो गया कुछ और।

ओशो - गीता दर्शन – भाग - 7, - अध्‍याय—15
(प्रवचन—चौथा) — समर्पण की छलांग

ओशो - गीता


ऐसे खतरे कोई अतीत में कहानियों में घटे हैं, ऐसा ही नहीं है। अभी इस सदी के प्रारंभ में रूस में एक बहुत अदभुत व्यक्ति था, रासपुतिन। अनूठी प्रतिभा का आदमी था। ठीक उसी हैसियत का आदमी था, जिस हैसियत के आदमी गुरजिएफ या रमण। लेकिन एक खतरा था कि हृदय की शुद्धि नहीं थी।

रासपुतिन गहन साधना किया था। और पूरब की जितनी पद्धतिया हैं, सब पर काम किया था। ठेठ तिब्बत तक उसने खोजबीन की थी, और अनूठी शक्तियों का मालिक हो गया था। लेकिन हृदय साधारण था। साधारण आदमी का हृदय था। इसलिए जो चाहता, वह हो जाता था। लेकिन जो वह चाहता, वह गलत ही चाहता था। वह ठीक तो चाह नहीं सकता था।

पूरे रूस को डुबाने का कारण रासपुतिन बना, क्योंकि उसने जार को प्रभावित कर लिया। खासकर जार की पत्नी जारीना को प्रभावित कर लिया। उसमें ताकत थी।

और ताकत सच में अदभुत थी। उसके दुश्मनों ने भी स्वीकार किया। क्योंकि जब उसको मारा, हत्या की गई उसकी, तो उसको पहले बहुत जहर पिलाया, लेकिन वह बेहोश न हुआ। एकाग्रता इतनी थी उसकी। उसको जहर पिलाते गए, वह बेहोश न हुआ। जितने जहर से कहते हैं, पांच सौ आदमी मर जाते, उनसे वह सिर्फ बेहोश ही नहीं हुआ, मरने की तो बात ही अलग रही।

फिर उसको गोलिया मारी, तो कोई बाईस गोलिया उसके शरीर में मारी, तो भी नहीं मरा! तो फिर उसको बांधकर और पत्थरों से लपेटकर वोलग़ के अंदर उसको डुबो दिया। और जब दो दिन बाद उसकी लाश मिली, तो उसने पत्थरों से अपने को छुड़ा लिया था। बंधन काट डाले थे। और डाक्टरों ने कहा कि वह पत्थरों की वजह से नहीं मरा है; उसके दो घंटे बाद मरा है।

अंदर भी वोल्‍गा में वह इतना सारा—इतना नशा, इतनी जहर, इतनी गोलियां, पत्थर बंधे—फिर भी उसने अपने पत्थर छोड़ लिए थे और अपने बंधन भी अलग कर डाले थे। हो सकता था, वह निकल ही आता। गहन शक्ति का आदमी था। लेकिन सारा प्रयोग उसकी शक्ति का उलटा हुआ।

रूस की क्रांति में लेनिन का उतना हाथ नहीं जितना रासपुतिन का है। क्योंकि रासपुतिन ने रूस को बरबाद करवा दिया। जार के ऊपर उसका प्रभाव था। उसने जो चाहा, वह हुआ। सारा उपद्रव

हो गया। उस उपद्रव का फल लेनिन ने उठाया। क्रांति आसान हो गई। आधा काम रासपुतिन ने किया, आधा लेनिन ने।

अगर हृदय शुद्ध न हो, तो शक्ति तो यत्न से आ सकती है। लेकिन उससे आत्मा नहीं आ जाएगी। यह रासपुतिन के पास इतनी ताकत है, लेकिन आत्मा नहीं है। यह शक्ति भी मन और शरीर की है।

हृदय की शुद्धि का अर्थ है, भावों की निर्मलता। बच्चे जैसा हृदय हो जाए। कठोरता छूटे, क्रोध छूटे, अहंकार छूटे, ईर्ष्या—द्वेष छूटे, घृणा—वैमनस्य छूटे और हृदय शुद्ध हो; और साथ में योग का यत्न हो। यत्न और शुद्ध भाव।

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इसे हम ऐसा भी कह सकते हैं कि सिर्फ योगी होना काफी नहीं है, भक्त होना भी जरूरी है। सिर्फ योगी खतरनाक है, सिर्फ भक्त कमजोर है।

भक्त निर्बल है। वह सिर्फ दीनता—हीनता की प्रार्थना कर सकता है कि तुम पतित—पावन हो और मैं पापी हूं मुझे मुक्त करो। यह सब कह सकता है। लेकिन निर्बल है। उसके पास कोई शक्ति नहीं है। योगी के पास बड़ी शक्ति इकट्ठी हो सकती है, लेकिन उसके पास भाव नहीं है।

जहां भक्त और योगी का मिलन होता है, जहां भाव और यत्न दोनों संयुक्त हो जाते हैं, वहां आत्मा उपलब्ध होती है।

आज इतना ही।

ओशो - गीता दर्शन – भाग - 7, - अध्‍याय—15
(प्रवचन—चौथा) — समर्पण की छलांग

ओशो - गीता दर्शन ओशो



प्रवचन 15. एकाग्रता और ह्रदय—शुद्धि

सूत्र—

यदादित्यगतं तेजो जगद्यासयतेऽखिलम्।
यच्‍चन्द्रमलि यचाग्नौ तत्तेजो विद्धि मांक्कम्।। 12।।

गामांविश्य च भूतानि धारयाथ्यमोजसा।
पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमो भूत्वा रसात्मक:।। 13।।

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमांश्रित:।
प्राणायानसमांयुक्त: पचाम्यन्‍नं चतुर्विधम्।। 14।।

सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत: स्मृतिज्ञनिमयहेनं च।
वेदैश्च सवैंरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदीवदेव चाहम्।। 15।।

और हे अर्जुन, जो तेज सूर्य में स्थ्ति हुआ संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चंद्रमा में स्थ्ति है और जो तेज अग्नि में स्थित है, उसको तू मेरा ही तेज जान।

और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्‍ति से सब भतों को धारण करता हूं और रस—स्वरूप अर्थात अमृतमय सोम होकर संपूर्ण औषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं।

मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अश्निरूप होकर प्राण और अपान मे स्थ्ति हुआ चार प्रकार के अन्न को पचाता हूं।

और मैं ही सब प्राणियों के ह्रदय में अंतर्यामीरूय से स्थित हूं तथा मेरे से ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन अर्थात संशय—विसर्जन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने के योग्य हूं तथा वेदांत का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं।

पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न :
कल आपने रासपुतिन की जो घटना कही, वह विस्मयजनक है। हमने तो अब तक यही सुना था कि शक्ति जब जागती है—उसे चाहे कुंडलिनी कहें या त्रिनेत्र—तो उसकी अग्नि में मनष्य के सभी मैल, सभी कलुष जल जाते हैं, और वह शुद्ध और पवित्र हो जाता है!

इस संबंध में कुछ बातें महत्वपूर्ण हैं।

एक, शक्ति स्वयं में निष्पक्ष और निरपेक्ष है। शक्ति न तो शुभ है और न अशुभ। उसका शुभ उपयोग हो सकता है; अशुभ उपयोग हो सकता है।

दीए से अंधेरे में रोशनी भी हो सकती है, और किसी के घर में आग भी लगाई जा सकती है। जहर से हम किसी के प्राय भी ले सकते हैं, और किसी मरणासन्न व्यक्ति के लिए जहर औषधि भी बन सकता है।

शक्ति सभी— भौतिक या अभौतिक—निष्पक्ष और निरपेक्ष है। क्या उपयोग करते हैं, इस पर परिणाम निर्भर होंगे।

शुद्ध अंतःकरण न हुआ हो, तो भी शक्ति उपलब्ध हो सकती है। क्योंकि शक्ति की कोई शर्त भी नहीं कि शुद्ध अंतःकरण हो, तो ही उपलब्ध होगी। अशुद्ध अंतःकरण को भी उपलब्ध हो सकती है। और अक्सर तो ऐसा होता है कि अशुद्ध अंतःकरण शक्ति को पहले उपलब्ध कर लेता है। क्योंकि शक्ति की आकांक्षा भी अशुद्धि की ही आकांक्षा है।

शुद्ध अंतःकरण शक्ति की आकांक्षा नहीं करता, शांति की आकांक्षा करता है। अशुद्ध अंतःकरण शक्ति की आकांक्षा करता है, शांति की नहीं। शुद्ध अंतःकरण को शक्ति मिलती है, वह प्रसाद है, वह परमात्मा की कृपा है, अनुकंपा है। वह उसने मांगा नहीं है, वह उसने चाहा भी नहीं है। वह उसने खोजा भी नहीं है। वह उसे सहज मिला है।
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अशुद्ध अंतःकरण को शक्ति मिलती है, वह उसकी वासना की मांग है। वह प्रभु का प्रसाद नहीं है। वह उसने चाहा है, यत्न किया है, और उसे पा लिया है। शक्ति की चाह ही हमारे भीतर इसलिए पैदा होती है कि हम कुछ करना चाहते हैं। शक्ति के बिना न कर सकेंगे।

शुद्ध अंतःकरण कुछ करना नहीं चाहता। शक्ति की कोई जरूरत भी नहीं है। अशुद्ध अंतःकरण बहुत कुछ करना चाहता है। वासनाओं की पूर्ति करनी है; महत्वाकांक्षाएं भरनी हैं; मन की पागल दौड़ है, उस दौड़ के लिए सहारा चाहिए ईंधन चाहिए। तो शक्ति की मांग होती है।

और शक्ति मिलती है न तो शुद्धि से, न अशुद्धि से। शक्ति मिलती है यत्न, प्रयत्न, साधना से। अगर कोई व्यक्ति अपने चित्त को एकाग्र करे, तो शुभ विचार पर भी एकाग्र कर सकता है, अशुभ विचार पर भी।

इस संबंध में महावीर की अंतर्दृष्टि बडी गहरी है। महावीर ने ध्यान के दो रूप कर दिए हैं। एक को वे धर्म— ध्यान कहते हैं; एक को अधर्म— ध्यान। ऐसा भेद मनुष्य जाति के इतिहास में किसी दूसरे व्यक्ति ने नहीं किया। यह भेद बड़ा कीमती है। हमें तो लगेगा कि सभी ध्यान धार्मिक होते हैं। लेकिन महावीर दो हिस्से करते हैं, अधर्म—ध्यान और धर्म—ध्यान।

तो ध्यान अपने आप में धार्मिक नहीं है। शुद्ध अंतःकरण के साथ जुड़े तो ही धार्मिक है, अशुद्ध अंतःकरण के साथ जुड़े तो अधार्मिक है।

आपको भी अनुभव हुआ होगा। धार्मिक ध्यान का तो अनुभव शायद न हुआ हो, लेकिन अधार्मिक ध्यान का आपको भी अनुभव हुआ है।

जब आप क्रोध में होते हैं, तो चित्त एकाग्र हो जाता है। जब कामवासना से भरते हैं, तो चित्त एकाग्र हो जाता है। परमात्मा पर मन को लगाना हो, तो यहां—वहा भटकता है। एक सुंदर स्त्री मन में समां जाए, तो भटकता नहीं है, सुंदर स्त्री में रुक जाता है। परमात्मा की मूर्ति पर ध्यान को लगाएं, तो बडी मेहनत करनी पड़ती है तो भी नहीं रुकता। एक नग्न स्त्री का चित्र सामने रखा हो, तो मन एकदम रुक जाता है; कहीं जाता नहीं। पास शोरगुल भी होता रहे, तो भी मन विचलित नहीं होता।

इसे महावीर अधर्म—ध्यान कहते हैं। यह भी ध्यान तो है ही। क्योंकि ध्यान का तो मतलब है, मन का ठहर जाना। वह कहां ठहरता है, यह सवाल नहीं है।

जब आप क्रोध में होते हैं, तब मन ठहर जाता है। इसलिए आपको अनुभव होगा कि क्रोध में आपकी शक्ति बढ़ जाती है। साधारणत: हो सकता है आपमें इतनी शक्ति न हो, लेकिन जब क्रोध में आप होते हैं, तो अनंत गुना शक्ति हो जाती है। क्रोध की अवस्था में लोगों ने ऐसे पत्थरों को हटा दिया है, जिनको सामान्य अवस्था में वे हिला भी नहीं सकते। क्रोध की अवस्था में अपने से दुगुने ताकतवर आदमियों को लोगों ने पछाड़ दिया है, जिनको साधारण अवस्था में वे देखकर भाग ही खड़े होते।

क्रोध में मन एकाग्र हो जाता है, शक्ति उपलब्ध होती है। वासना के क्षण में मन एकाग्र हो जाता है, शक्ति उपलब्ध होती है। एकाग्रता शक्ति है। कहां एकाग्र कर रहे हैं, यह बात एकाग्रता के लिए आवश्यक नहीं है कि वह शुभ हो या अशुभ हो।

रासपुतिन जैसे व्यक्ति बड़ी एकाग्रता को साधते हैं। लेकिन हृदय अशुद्ध है, तो उस एकाग्रता का अंतिम परिणाम अशुभ होता है। रासपुतिन ने अपनी शक्तिओं का जो उपयोग किया…….।

ओशो - गीता दर्शन – भाग - 7, - अध्‍याय—15
(प्रवचन—पांचवां) — एकाग्रता और ह्रदय—शुद्धि

ओशो - गीता दर्शन – भाग - 7, - अध्‍याय—15



जार का एक ही लड़का था, रूस के सम्राट का एक ही लड़का था। और सम्राट और सम्राज्ञी दोनों ही उस लड़के के लिए बड़े चिंतातुर थे। वह बचपन से ही बीमांर था, अस्वस्थ था। रासपुतिन की किसी ने खबर दी कि वह शायद ठीक कर दे। रासपुतिन ने उसे ठीक भी कर दिया। रासपुतिन ने उसके सिर पर हाथ रखा और वह बच्चा पहली दफा ठीक स्वस्थ अनुभव हुआ।

लेकिन तब से सम्राट के पूरे परिवार को रासपुतिन का गुलाम हो जाना पड़ा। क्योंकि रासपुतिन दो दिन के लिए कहीं चला जाए, तो वह बच्चा अस्वस्थ हो जाए। रासपुतिन का रोज राजमहल आना जरूरी है। और यह बात थोड़े दिन में साफ हो गई कि रासपुतिन अगर न होगा, तो बच्चा मर जाएगा। इलाज तो कम हुआ, इलाज बीमांरी बन गया! पहले तो कुछ चिकित्सकों का परिणाम भी होता था, अब किसी का भी कोई परिणाम न रहा। अब रासपुतिन की मौजूदगी नियमित चाहिए।

और उस लड़के के आधार पर रासपुतिन जितना शोषण कर सकता था जार का और ज़ारीना का, उसने किया। उसने जो चाहा, वह करवाया। मुल्क का प्रधानमंत्री भी नियुक्त करना हो, तो रासपुतिन जिसको इशारा करे, वह प्रधानमंत्री हो जाए। क्योंकि वह लड़के की जान उसके हाथ में हो गई। जिस व्यक्ति ने चित्त को बहुत एकाग्र किया हो, यह बड़ा आसान है। वह बच्चा सम्मोहित हो गया। वह बच्चा हिम्मोटाइब्द हो गया। अब यह सम्मोहित अवस्था उस बच्चे की, शोषण का आधार बन गई।

जीसस ने भी लोगों को स्वस्थ किया है। जीसस ने भी लोगों के सिर पर हाथ रखकर उनकी बीमांरियां अलग कर दी हैं। रासपुतिन के पास भी ताकत वही है, जो जीसस के पास है। रासपुतिन भी बीमांरी दूर कर सकता है। लेकिन रासपुतिन बीमांरी को रोक भी सकता है, जीसस वह न कर सकेंगे। रासपुतिन बीमांरी का शोषण भी कर सकता है, जीसस वह न कर सकेंगे।

हृदय शुद्ध हो, तो वही शक्ति सिर्फ चिकित्सा बनेगी। हृदय अशुद्ध हो, तो वही शक्ति शोषण भी बन सकती है।

कठिनाई हमें समझने में यह होती है कि अशुद्ध हृदय एकाग्र कैसे हो सकता है! कोई अड़चन नहीं है। एकाग्रता तो एक कला है; मन को एक जगह रोकने की कला है। इसलिए अगर दुनिया में बुरे लोगों के पास भी शक्ति होती है, तो उसका कारण यही है कि उनके पास भी एकाग्रता होती है।

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हिटलर के पास बड़ी एकाग्रता है। जर्मन जैसी बुद्धिमान जाति को इतने बड़े पागलपन में उतार देना सामान्य व्यक्ति की क्षमता नहीं है। हिटलर ने जो भी कहा, वह जर्मन जाति ने स्वीकार कर लिया। उसकी आंखों में जादू था। उसके कहने में बल था। उसके खड़े होते से सम्मोहन पैदा हो जाता।

जर्मनी की पराजय के बाद जिन लोगों ने अंतर्राष्ट्रीय अदालत में वक्तव्य दिए—उसमें बड़े बुद्धिमान लोग थे, प्रोफेसर थे, युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर थे—उन्होंने यही कहा कि हम अब सोच भी नहीं पाते कि हमने यह सब कैसे किया! जैसे कोई शक्ति हमसे करवा रही थी।

दुनिया में बुरे आदमी के पास भी ताकत होती है, भले आदमी के पास भी ताकत होती है। ताकत एक ही है। बुरे आदमी के पास हृदय का यंत्र बुरा है। वही ताकत उसके बुरे यंत्र को चलाती है।

यह बिजली दौड़ रही है। इससे बिजली भी चल रही है, पंखा भी चल रहा है। पंखा खराब हो, बिजली वही दौड़ती रहेगी, लेकिन पंखे में खड़—खड़ शुरू हो जाएगी। पंखा बहुत खराब हो, तो टूटकर गिर भी सकता है, और किसी के प्राण भी ले सकता है। कसूर बिजली का नहीं है।

ओशो - गीता दर्शन – भाग - 7, - अध्‍याय—15
(प्रवचन—पांचवां) — एकाग्रता और ह्रदय—शुद्धि

ओशो - गीता दर्शन - भाग – 7 अध्याय 15



मनुष्य तो एक यंत्र है। शक्ति तो सभी परमात्मा की है, चाहे बुरे आदमी में हो, चाहे भले आदमी में हो। शक्ति का स्रोत तो एक ही है। राम में भी वही स्रोत है, रावण में भी वही स्रोत है। रावण के लिए कोई अलग मांर्ग नहीं है शक्ति को पाने का। उसी महास्रोत से रावण भी शक्ति पाता है, जिस महास्रोत से राम शक्ति पाते हैं।

शक्ति के स्रोत में कोई भी फर्क नहीं है, लेकिन दोनों के हृदय में फर्क है। एक के पास शुद्ध हृदय है, एक के पास अशुद्ध हृदय है। उस अशुद्ध हृदय में से शक्ति विनाशक हो जाती है। शुद्ध हृदय से शक्ति निर्मात्री, सृजनात्मक हो जाती है। शुद्ध से जीवन बहने लगता है, अशुद्ध से मृत्यु बहने लगती है। शुद्ध से प्रकाश बन जाता है, अशुद्ध से अंधकार बन जाता है।

लेकिन शक्ति का स्रोत एक है। दो स्रोत हो भी नहीं सकते, दो स्रोत का कोई उपाय भी नहीं है। कितना ही बुरा आदमी हो, परमात्मा उसके भीतर वही है।

इसलिए जो सदगुरु वस्तुत: सैकड़ों लोगों पर साधना के प्रयोग किए हैं, करवाए हैं, उन्होंने अनिवार्यरूप से कुछ व्यवस्था की है जिससे कि अंतःकरण शुद्ध हो। या तो साधना के साथ शुद्ध हो या साधना के पूर्व शुद्ध हो; शक्ति की घटना घटने के पहले अंतःकरण शुद्ध हो जाए। अन्यथा हित की जगह अहित की संभावना है।

आप सोचें, अगर आपको अभी शक्ति मिल जाए, तो आप क्या करेंगे? अगर आपको एक शक्ति मिल जाए कि आप चाहें तो किसी को जीवन दे सकें और चाहे तो किसी को मृत्यु दे सकें, तो आपके मन में सब से पहले क्या खयाल उठेगा?

शायद यह आपके मन में खयाल उठे कि मित्र को मैं शाश्वत बना दूं। लेकिन शत्रु को नष्ट कर दूं यह खयाल पहले उठेगा। वह जो अंतःकरण भीतर है, जैसा है, वैसे ही खयाल देगा।

अगर आपको यह शक्ति मिल जाए कि आप अदृश्य हो सकते हैं, तो आपको यह खयाल शायद ही आए कि अदृश्य होकर जाऊं और लोगों के पैर दबाऊं, सेवा करूं। मैं नहीं सोचता कि यह खयाल भी आ सकता है। अदृश्य होने का खयाल आते ही से, किसकी पत्नी को आप ले भागें, किसकी तिजोरी खोल लें, जहा कल तक आप प्रवेश नहीं कर सकते थे, वहां कैसे प्रवेश कर जाएं, वही खयाल आएगा।

सोचने भर से कि आपको अगर अदृश्य होने की शक्ति मिल जाए, तो आप क्या करेंगे? एक कागज पर आप बैठकर आज ही रात लिखना, तो आपको खयाल में आ जाएगा कि. अभी शक्ति मिल नहीं गई है, सिर्फ खयाल है, लेकिन मन सपने संजोना शुरू कर देगा कि क्या करना है।
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और शक्ति अशुद्ध को भी मिल सकती है। इसलिए शक्ति के स्रोत छिपाकर रखे गए हैं। सीक्रेसी, योग, तंत्र और धर्म के आस—पास इतनी गुप्तता का कुल कारण यही है। क्योंकि शक्ति का स्रोत गलत आदमी को भी मिल सकता है; खतरनाक आदमी को भी मिल सकता है। और जब भी कोई वितान—कोई भी विज्ञान, चाहे आंतरिक, चाहे बाह्य—ऊंचाइयों पर पहुंचता है, तो खतरे शुरू हो जाते हैं।

अभी पश्चिम में विचार चलता है कि विज्ञान की जो नई खोजें हैं, वे गुप्त रखी जाएं, अब उनको प्रकट न किया जाए। क्योंकि विज्ञान की नई खोजें अब खतरे की सीमां पर पहुंच गई हैं। वे बुरे आदमी के हाथ में पड़ सकती हैं। पड़ ही रही हैं; क्योंकि राजनीतिज्ञ के हाथ में पड़ जाती है सारी खोज।

आइंस्टीन, जिसने हाथ बंटाया अणु शक्ति के निर्माण में, उसने कभी सोचा भी नहीं था कि हिरोशिमां और नागासाकी में एक—एक लाख लोग जलकर राख हो जाएंगे मेरी खोज से।

ओशो - गीता दर्शन – भाग - 7, - अध्‍याय—15
(प्रवचन—पांचवां) — एकाग्रता और ह्रदय—शुद्धि

ओशो - गीता दर्शन भाग 7



तो ज्ञान चाहे खो जाए लेकिन गलत को मत देना। यह जो हिंदुओं ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की व्यवस्था की, उस व्यवस्था में यह सारा का सारा खयाल था। ब्राह्मण के अतिरिक्त चाबी किसी को न दी जाए।

शूद्र के हाथ तक तो पहुंचने न दी जाए। शूद्र से कोई मतलब उस आदमी का नहीं, जो शूद्र घर में जन्मा है। हिंदुओं का हिसाब बहुत अनूठा है। हिंदुओं का हिसाब यह है कि पैदा तो हर आदमी शूद्र ही होता है। शूद्रता तो जन्म से सभी को मिलती है। इसलिए ब्राह्मण को हम द्विज कहते हैं। उसका दुबारा जन्म होना चाहिए। वह गुरु के पास फिर से उसका जन्म होगा। मां—बाप ने जो जन्म दिया, उसमें तो शूद्र ही पैदा होता है। उससे कोई कभी ब्राह्मण पैदा नहीं होता है। और जो अपने को मां—बाप से पैदा होकर ब्राह्मण समझ लेता है, उसे कुछ पता ही नहीं है।

ब्राह्मण तो पैदा होगा गुरु की सन्निधि में। वह दुबारा उसका जन्म होगा, वह ट्वाइस बॉर्न होगा। इसलिए हम उसे द्विज कहते हैं, जिसका दूसरा जन्म हो गया। और दूसरे जन्म के बाद वह अधिकारी होगा कि गुरु उसे जो गुह्य है, जो छिपा है, वह दे। जो नहीं दिया जा सकता सामान्य को, वह उसे दे। वह उसकी धरोहर होगी।

इसलिए बहुत सैकड़ों वर्ष तक हिंदुओं ने चेष्टा कि उनके शास्त्र लिखे न जाएं, कंठस्थ किए जाएं। क्योंकि लिखते ही चीज सामान्य हो जाती है, सार्वजनिक हो जाती है। फिर उस पर कब्जा नहीं रह जाता। फिर नियंत्रण रखना असंभव है।

और जब लिखे भी गए शास्त्र, तो मूल बिंदु छोड़ दिए गए हैं। इसलिए आप शास्त्र कितना ही पढ़ें, सत्य आपको नहीं मिल सकेगा। सब शास्त्र पढकर आपको अंततः गुरु के पास ही जाना पड़ेगा।

तो सभी शास्त्र गुरु तक ले जा सकते हैं, बस। और सभी शास्त्र आप में प्यास जगाके और बेचैनी पैदा करेंगे, और चाबी कहां है, इसकी चिंता पैदा होगी। और तब आप गुरु की तलाश में निकलेंगे, जिसके पास चाबी मिल सकती है।

आध्यात्मिक विज्ञान तो और भी खतरनाक है। क्योंकि आपको खयाल ही नहीं कि आध्यात्मिक विज्ञान क्या कर सकता है। अगर कोई व्यक्ति थोड़ी—सी भी एकाग्रता साधने में सफल हो जाए, तो वह दूसरे लोगों के मनों को बिना उनके जाने प्रभावित कर सकता है। आप छोटे—मोटे प्रयोग करके देखें, तो आपको खयाल में आ जाएगा।

रास्ते पर जा रहे हों, किसी आदमी के पीछे चलने लगें; कोई तीन—चार कदम का फासला रखें। फिर दोनों आंखों को उसकी चेथी पर, सिर के पीछे थिर कर लें। एक सेकेंड भी आप एकाग्र नहीं हो पाएंगे कि वह आदमी लौटकर पीछे देखेगा। आपने कुछ किया नहीं; सिर्फ आंख।

लेकिन ठीक रीढ़ के आखिरी हिस्से से मस्तिष्क शुरू होता है। मस्तिष्क रीढ़ का ही विकास है। जहा से मस्तिष्क शुरू होता है, वहां बहुत संवेदनशील हिस्सा है। आपकी आंख का जरा—सा भी प्रभाव, और वह संवेदना वहा पैदा हो जाती है; सिर घुमांकर देखना जरूरी हो जाएगा।

और अगर आप दस—पांच लोगों पर प्रयोग करके समझ जाएं कि यह हो सकता है, तो उस संवेदनशील हिस्से से कोई भी विचार किसी व्यक्ति में डाला जा सकता है।

बहुत बार ऐसा होता है, आपको पता भी नहीं होता है कि बहुत—से विचार आप में किस भांति प्रवेश कर जाते हैं। बहुत बार ऐसा होता है कि किसी व्यक्ति के पास आप जाते हैं और आपके विचार तत्काल बदलने लगते हैं; बुरे या अच्छे होने लगते हैं।

संतों के पास अक्सर अनुभव होगा कि उनके पास जाकर आपके विचारों में एक झोंका आ गया; कुछ बदलाहट हो गई। बुरे आदमी के पास जाकर भी एक झोंका आता है, कुछ बदलाहट हो जाती है। संत किसी भावना में जीता है। उस भावना में वह इतनी सघनता से जीता है कि जैसे ही आप उसके पास जाते हैं, आपके मस्तिष्क में उसकी चोट पड़नी शुरू हो जाती है। वहा एक सतत वातावरण है। बुरा आदमी भी एक भावना में जीता है। वह उसकी एकाग्रता है। उसके पास आप जाते हैं कि चोट पड्नी शुरू हो जाती है।

भीड़ में जब भी आप जाते हैं, तभी आप लौटकर अनुभव करेंगे कि मन उदास हो गया, थक गया, जैसे आप कुछ खोकर लौटे हैं। क्योंकि भीड़ एक उत्पात है; उसमें कई तरह के मस्तिष्क हैं, कई तरह की एकाग्रताएं हैं। वे सब एक साथ आपके ऊपर हमला कर देती हैं।

इसलिए सदियों से साधक स्वात की तलाश करता रहा है। एकांत की तलाश, आप जानकर हैरान होंगे, जंगल और पहाड़ के लिए नहीं है। एकांत की तलाश आपसे बचने के लिए है। वह कोई जंगल की खोज में नहीं जा रहा है, न पहाड़ की खोज में जा रहा है। वह आपसे दूर हट रहा है। वह आपसे बच रहा है। नकारात्मक है खोज। पहाड़ क्या दे सकते हैं! पहाड़ कुछ नहीं दे सकते। लेकिन आप बहुत कुछ छीन सकते हैं।

पहाडों के पास कोई मस्तिष्क नहीं है। इसलिए पहाड़ों के पास आप निश्चित रह सकते हैं। वे न तो बुरा देंगे, न भला देंगे। जो आपके भीतर है, वही होगा। लेकिन आदमियों के पास आप निश्चित नहीं रह सकते। क्योंकि पूरे समय उनके विचार आप में प्रवाहित हो रहे हैं—वे न भी बोलें तो भी, वे न भी चाहें तो भी। उनका कचरा आप में बह रहा है; आपका कचरा उनमें बह रहा है। तो जब भी आप भीड़ में जाते हैं, आप कचरे से भरकर लौटते हैं। एक कनफ्यूजन, एक भीतर भीड़ पैदा हो जाती है।

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अगर आपको थोड़ी सी भी एकाग्रता अनुभव हो जाए, तो आप किसी के भी विचार बदल सकते हैं। बड़ी ताकत है विचार बदलने में। तर्क करने की जरूरत नहीं है। विवाद करने की जरूरत नहीं है।

सिर्फ एक विचार सतत किसी की तरफ फेंकने की जरूरत है। उसके विचार बदलने शुरू हो जाते हैं।

और अगर आप कोई अशुभ काम करवाना चाहें, तो कोई अड़चन नहीं है। उसकी जेब में हाथ डालकर उसके नोट निकालने की जरूरत नहीं है। उससे ही कहा जा सकता है कि निकालो नोट और सड़क पर गिरा दो। वह खुद ही रूमाल निकालने के बहाने रूमाल के साथ नोट भी गिरा देगा। और वह सोचेगा कि भूल से गिर गया।

जीवन के गहन में प्रवेश किया जा सकता है एकाग्रता के सेतु से। शुभ भी किया जा सकता है, अशुभ भी किया जा सकता है। इसलिए एकाग्रता की कला किसी शास्त्र में लिखी हुई नहीं है। और जो भी लिखा हुआ है, उसको आप वर्षों करते रहें, तो भी एकाग्र न होंगे।

इसलिए बहुत लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि हम वर्षों से एकाग्रता साध रहे हैं, लेकिन कुछ हो नहीं रहा है! वे किताब पढ़कर साध रहे हैं। कभी होगा भी नहीं। थोड़े दिन में थक जाएंगे। किताब भी फेंक देंगे, एकाग्रता को भी भूल जाएंगे।

वह एकाग्रता तभी कोई उनको बता सकेगा, जब पाया जाएगा कि उनका हृदय उस शुद्धि में है कि अब वे किसी को नुकसान नहीं पहुंचा सकते हैं। बच्चों के हाथ में तलवार नहीं दी जा सकती। और जो दे, वह आदमी मंगलदायी नहीं है।

ओशो - गीता दर्शन – भाग - 7, - अध्‍याय—15
(प्रवचन—पांचवां) — एकाग्रता और ह्रदय—शुद्धि

ओशो - गीता दर्शन - भाग – 7 A



आइंस्टीन से मरने के पहले किसी ने पूछा कि तुम अगर दुबारा जन्म लो तो क्या करोगे? तो उसने कहा, मैं एक प्लंबर होना पसंद करूंगा बजाय एक वैज्ञानिक होने के। क्योंकि वैज्ञानिक होकर देख लिया कि मेरे मांध्यम से, मेरे बिना जाने, मेरी बिना आकांक्षा के, मेरे विरोध में, मेरे ही हाथों से जो काम हुआ, उसके लिए मैं रोता हूं।

क्योंकि शक्ति तो खोजता है वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ के हाथ में पहुंच जाती है। और राजनीतिज्ञ शुद्ध रूप से अशुद्ध आदमी है। वह पूरा अशुद्ध आदमी है। क्योंकि उसकी दौड़ ही शक्ति की है। उसकी चेष्टा ही महत्वाकांक्षा की है। दूसरों पर कैसे हावी हो जाए! तो आइंस्टीन ने अपने अंतिम पत्रों में अपने मित्रों को लिखा है कि भविष्य में अब हमें सचेत हो जाना चाहिए। और हम जो खोजें, वह गुप्त रहे।

यह खयाल पश्चिम को अब आ रहा है। लेकिन हिंदुओं को यह खयाल आज से तीन हजार साल पहले आ गया।

पश्चिम में बहुत लोग विचार करते हैं कि हिंदुओं ने, जिन्होंने इतनी गहरी चितना की, उन्होंने विज्ञान की बहुत—सी बातें क्यों न खोजी!

चीन को आज से तीन हजार साल पहले यह खयाल आ गया कि विज्ञान खतरनाक है। चीन में सबसे पहले बारूद खोजी गई। लेकिन चीन ने बम नहीं बनाए; फुलझड़ी—फटाके बनाए। बारूद वही है, लेकिन चीन ने फुलझड़ी—फटाके बनाकर बच्चों का खेल किया, इससे ज्यादा उनका उपयोग नहीं किया।

यह तो बिलकुल साफ है कि जो फुलझड़ी—फटाके बना सकता है, उसको साफ है कि इससे आदमी की हत्या की जा सकती है। क्योंकि कभी—कभी तो फुलझड़ी—फटाके से हत्या हो जाती हैं। हर साल दीवाली पर न मालूम कितने बच्चे इस मुल्क में मरते हैं; अपंग हो जाते हैं; आंख फूट जाती है, हाथ जल जाते हैं।

तो तीन हजार साल पहले चीन को फटाके बनाने की कला आ गई। बम बड़ा फटाका है। लेकिन चीन ने उस कला को उस तरफ जाने ही नहीं दिया, उसको खेल बा दिया। जैसे ही यूरोप में बारूद पहुंची कि उन्होंने तत्काल बम बना लिया। बारूद की ईजाद पूरब में हुई और बम बना पश्चिम में।
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हिंदुओं को, चीनिओं को तीन हजार साल पहले बहुत—से विज्ञान के सूत्रों का खयाल हो गया। और उन्होंने वे बिलकुल गुप्त कर दिए। वे सूत्र नहीं उपयोग करने हैं।

न केवल विज्ञान के संबंध में, बल्कि धर्म के संबंध में भी हिंदुओं को, तिब्बतिओं को, चीनिओं को, पूरे पूरब को कुछ गहन सूत्र हाथ में आ गए। और यह बात भी साफ हो गई कि ये सूत्र गलत आदमी के हाथ में जाएंगे, तो खतरा है। तो उन सूत्रों को अत्यंत गुप्त कर दिया। जब गुरु समझेगा शिष्य को इस योग्य, तब वह उसके कान में दे देगा। सीक्रेसी, अत्यंत गुप्तता और गुह्यता है। और वह तब ही देगा, जब वह समझेगा कि शिष्य इस योग्य हुआ कि शक्ति का दुरुपयोग न होगा।

इसलिए जो भी महत्वपूर्ण है, वह शास्त्रों में नहीं लिखा हुआ है। शास्त्रों में तो सिर्फ अधूरी बातें लिखी हुई हैं। कोई भी गलत आदमी शास्त्र के मांध्यम से कुछ भी नहीं कर सकता। शास्त्र में मूल बिंदु छोड़ दिए गए हैं। जैसे सब बता दिया गया है, लेकिन चाबी शास्त्र में नहीं है। महल का पूरा वर्णन है। भीतर के एक—एक कक्ष का वर्णन है। लेकिन ताला कहा लगा है, इसकी किसी शास्त्र में कोई चर्चा नहीं है। और चाबी का तो कोई हिसाब शास्त्र में नहीं है। चाबी तो हमेशा व्यक्तिगत हाथों से गुरु शिष्य को देगा।

जिसको हम मंत्र कहते रहे हैं और दीक्षा कहते रहे हैं, वह गुप्तता में, जो जानता है उसके द्वारा उसको चाबी दिए जाने की कला है, जिससे खतरा नहीं है, जो दुरुपयोग नहीं करेगा; और चाबी को सम्हालकर रखेगा, जब तक कि योग्य आदमी न मिल जाए। और अगर योग्य आदमी न मिले, तो हिंदुओं ने तय किया कि चाबी को खो जाने देना, हर्जा नहीं है। जब भी योग्य आदमी होंगे, चाबी फिर खोजी जा सकती है। लेकिन गलत आदमी के हाथ में चाबी मत देना। वह बड़ा खतरा है। और एक बार गलत आदमी के हाथ में चाबी चली जाए तो अच्छे आदमी के पैदा होने का उपाय ही समाप्त हो जाता है।

ओशो - गीता दर्शन – भाग - 7, - अध्‍याय—15
(प्रवचन—पांचवां) — एकाग्रता और ह्रदय—शुद्धि

ज्ञान के सूत्र

       एक युवक ने विवाह के दो साल बाद
परदेस जाकर व्यापार करने की
इच्छा पिता से कही ।
पिता ने स्वीकृति दी तो वह अपनी गर्भवती
पत्नी को माँ-बाप के जिम्मे छोड़कर व्यापार
करने चला गया ।
परदेश में मेहनत से बहुत धन कमाया और
वह धनी सेठ बन गया ।
सत्रह वर्ष धन कमाने में बीत गए तो सन्तुष्टि हुई
और वापस घर लौटने की इच्छा हुई ।
पत्नी को पत्र लिखकर आने की सूचना दी
और जहाज में बैठ गया ।
उसे जहाज में एक व्यक्ति मिला जो दुखी
मन से बैठा था ।
सेठ ने उसकी उदासी का कारण पूछा तो
उसने बताया कि
इस देश में ज्ञान की कोई कद्र नही है ।
मैं यहाँ ज्ञान के सूत्र बेचने आया था पर
कोई लेने को तैयार नहीं है ।
सेठ ने सोचा 'इस देश में मैने बहुत धन कमाया है,
और यह मेरी कर्मभूमि है,
इसका मान रखना चाहिए !'
उसने ज्ञान के सूत्र खरीदने की इच्छा जताई ।
उस व्यक्ति ने कहा-
मेरे हर ज्ञान सूत्र की कीमत 500 स्वर्ण मुद्राएं है ।
सेठ को सौदा तो महंगा लग रहा था..
लेकिन कर्मभूमि का मान रखने के लिए
500 स्वर्ण मुद्राएं दे दी ।
व्यक्ति ने ज्ञान का पहला सूत्र दिया-
कोई भी कार्य करने से पहले दो मिनट
रूककर सोच लेना ।
सेठ ने सूत्र अपनी किताब में लिख लिया ।
कई दिनों की यात्रा के बाद रात्रि के समय
सेठ अपने नगर को पहुँचा ।
उसने सोचा इतने सालों बाद घर लौटा हूँ तो
क्यों न चुपके से बिना खबर दिए सीधे
पत्नी के पास पहुँच कर उसे आश्चर्य उपहार दूँ ।
घर के द्वारपालों को मौन रहने का इशारा
करके सीधे अपने पत्नी के कक्ष में गया
तो वहाँ का नजारा देखकर उसके पांवों के
नीचे की जमीन खिसक गई ।
पलंग पर उसकी पत्नी के पास एक
युवक सोया हुआ था ।
अत्यंत क्रोध में सोचने लगा कि
मैं परदेस में भी इसकी चिंता करता रहा और
ये यहां अन्य पुरुष के साथ है ।
दोनों को जिन्दा नही छोड़ूगाँ ।
क्रोध में तलवार निकाल ली ।
वार करने ही जा रहा था कि उतने में ही
उसे 500 स्वर्ण मुद्राओं से प्राप्त ज्ञान सूत्र
याद आया-
कि कोई भी कार्य करने से
पहले दो मिनट सोच लेना ।
सोचने के लिए रूका ।
तलवार पीछे खींची तो एक बर्तन से टकरा गई ।
बर्तन गिरा तो पत्नी की नींद खुल गई ।
जैसे ही उसकी नजर अपने पति पर पड़ी
वह ख़ुश हो गई और बोली-
आपके बिना जीवन सूना सूना था ।
इन्तजार में इतने वर्ष कैसे निकाले
यह मैं ही जानती हूँ ।
सेठ तो पलंग पर सोए पुरुष को
देखकर कुपित था ।
पत्नी ने युवक को उठाने के लिए कहा- बेटा जाग ।
तेरे पिता आए हैं ।
युवक उठकर जैसे ही पिता को प्रणाम
करने झुका माथे की पगड़ी गिर गई ।
उसके लम्बे बाल बिखर गए ।
सेठ की पत्नी ने कहा- स्वामी ये आपकी बेटी है ।
पिता के बिना इसके मान को कोई आंच न आए
इसलिए मैंने इसे बचपन से ही पुत्र के समान ही
पालन पोषण और संस्कार दिए हैं ।
यह सुनकर सेठ की आँखों से
अश्रुधारा बह निकली ।
पत्नी और बेटी को गले लगाकर
सोचने लगा कि यदि
आज मैने उस ज्ञानसूत्र को नहीं अपनाया होता
तो जल्दबाजी में कितना अनर्थ हो जाता ।
मेरे ही हाथों मेरा निर्दोष परिवार खत्म हो जाता ।
ज्ञान का यह सूत्र उस दिन तो मुझे महंगा
लग रहा था लेकिन ऐसे सूत्र के लिए तो
500 स्वर्ण मुद्राएं बहुत कम हैं ।
'ज्ञान तो अनमोल है '
इस कहानी का सार यह है कि
जीवन के दो मिनट जो दुःखों से बचाकर
सुख की बरसात कर सकते हैं ।
वे हैं - 'क्रोध के दो मिनट'
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क्योंकि आपका एक शेयर किसी व्यक्ति को
उसके क्रोध पर अंकुश रखने के लिए
प्रेरित कर सकता है ।

पिता के लिए दही इन्तजाम (लघु कथा)

✍✍✍✍✍✍

,,जब एक शख्स लगभग पैंतालीस वर्ष के थे तब उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया था। लोगों ने दूसरी शादी की सलाह दी परन्तु उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि पुत्र के रूप में पत्नी की दी हुई भेंट मेरे पास हैं, इसी के साथ पूरी जिन्दगी अच्छे से कट जाएगी।

पुत्र जब वयस्क हुआ तो पूरा कारोबार पुत्र के हवाले कर दिया। स्वयं कभी अपने तो कभी दोस्तों के आॅफिस में बैठकर समय व्यतीत करने लगे।

पुत्र की शादी के बाद वह ओर अधिक निश्चित हो गये। पूरा घर बहू को सुपुर्द कर दिया।

पुत्र की शादी के लगभग एक वर्ष बाद दोहपर में खाना खा रहे थे, पुत्र भी लंच करने ऑफिस से आ गया था और हाथ–मुँह धोकर खाना खाने की तैयारी कर रहा था।

उसने सुना कि पिता जी ने बहू से खाने के साथ दही माँगा और बहू ने जवाब दिया कि आज घर में दही  नहीं है। खाना खाकर पिताजी ऑफिस चले गये।

थोडी देर बाद पुत्र अपनी पत्नी के साथ खाना खाने बैठा। खाने में प्याला भरा हुआ दही भी था। पुत्र ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और खाना खाकर स्वयं भी ऑफिस चला गया।

कुछ दिन बाद पुत्र ने अपने पिताजी से कहा- ‘‘पापा आज आपको कोर्ट चलना है, आज आपका विवाह होने जा रहा है।’’

पिता ने आश्चर्य से पुत्र की तरफ देखा और कहा-‘‘बेटा मुझे पत्नी की आवश्यकता नही है और मैं तुझे इतना स्नेह देता हूँ कि शायद तुझे भी माँ की जरूरत नहीं है, फिर दूसरा विवाह क्यों?’’

पुत्र ने कहा ‘‘ पिता जी, न तो मै अपने लिए माँ ला रहा हूँ न आपके लिए पत्नी,
*मैं तो केवल आपके लिये दही का इन्तजाम कर रहा हूँ।*

कल से मै किराए के मकान मे आपकी बहू के साथ रहूँगा तथा आपके ऑफिस मे एक कर्मचारी की तरह वेतन लूँगा ताकि *आपकी बहू को दही की कीमत का पता चले।’’*

*-माँ-बाप हमारे लिये**ATM कार्ड बन सकते है,*

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समर्पण क्या है?

समर्पण का क्या अर्थ होता है?
यह व्यक्ति मेरा गुरु और इस व्यक्ति के अतिरिक्त मेरा कोई गुरु नहीं। इससे वहां अर्थ बिल्कुल नहीं होता कि दूसरे गुरु नहीं है। दूसरे गुरु हैं, वहीं दूसरे समर्पित लोगों के गुरु होंगे। जब तक तुम किसी के प्रति समर्पित नहीं हो, तब तक वह व्यक्ति तुम्हारे लिए गुरु नहीं है। ख्याल रखना, गुरु कोई ऐसी चीज नहीं है कि किसी के ऊपर छाप लगी है गुरु होने की। गुरु तुम शिष्य और ज्ञानी के सम्बन्ध का नाम है। कृष्ण नारायण किसी के गुरु होंगे। रामण किसी के गुरु होंगे। रामकृष्ण किसी के गुरु होंगे।
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     जो ऐसे करते हैं, कभी इनके पास, कभी उनके पास वे न तो शिष्य है, न समर्पित है और फिर चोरी - छुपे करने की तो कोई जरूरत ही नहीं है। चोरी-छिपे इसलिए करते हैं कि है तो विद्यार्थी, लेकिन दिखलाना चाहते हैं शिष्य हैं, शिष्य होने की जो गरिमा है, वह भी अहंकार छोड़ना नहीं चाहता। यह मानकर मन में कष्ट होता है कि मैं और विद्यार्थी तो चोरी - छुपे करते हैं।
कुछ हर्ज नहीं है। जो करना है सीधे-सीधे करना चाहिये। चोरी-छिपे करने की क्या जरूरत है? चोरी - छुपे तो और उल्टा पाप हुआ। चोरी - छुपे तो यह मतलब हुआ कि तुम मुझसे छुपाते हों, तो मुझसे सारे संबंध टूट गये। मेरे सामने खुलोगे तो संबंध घनिष्ठ होंगे। मुझसे छुपा होगा तो कैसे संबंध गहन होंगे।
                 ( परम पूज्य सद्गुरुदेव कैलाश चंद्र श्रीमालीजी )
                           ( कैलाश सिद्धाश्रम दिल्ली )
अगस्त की पत्रिका पेज नंबर 28,

क्यों शरीर पर भस्म लगाते हैं शिव?


धार्मिक मान्यता के अनुसार भगवान शिव को मृत्यु का स्वामी माना गया है. इसीलिए शव से शिव नाम बना. उनके अनुसार शरीर नश्वर है और इसे एक दिन इस भस्म की तरह शरीर राख हो जाना है. जीवन के इसी पड़ाव का भगवान शिव सम्मान करते हैं और इस सम्मान को वो खुदपर भस्म लगाकर जताते हैं.

वहीं, दूसरी तरफ एक और कथा प्रचलित है जब भगवान शिव और माता सति को यज्ञ के लिए निमंत्रण ना मिलने पर सति ने क्रोध में आकर खुद को अग्नि के हवाले कर दिया था. उस वक्त भगवान शिव माता सति का शव लेकर धरती से लेकर आकाश तक हर जगह घूमे. विष्णु जी भगवान शिव की ये दशा देख ना पाए और माता सति के शव को छूकर उन्होंने उसे भस्म में बदल दिया. अपने हाथों में सति की जगह भस्म देखकर शिव शान्त हो गए और सति जी को याद कर वो राख उन्होंने अपने शरीर पर लगा ली. 
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ॐ नमः शिवाय

हर हर महादेव

Motivation

एक अस्पताल में दो रोगी एक कमरे में दाखिल हुए | एक रोगी को खिड़की के पास बिस्तर मिला तो दुसरे को उससे कुछ दूरी पर | दोनों का रोग चरम सीमा पर था इसलिए उस कमरे में दोनों के अतिरिक्त ओर कोई नही था | खिड़की के पास वाले रोगी को खिड़की से बाहर झाकते देखकर दुसरे रोगी को मन ही मन इर्ष्या होती थी किन्तु बीमारी की दशा में वह क्या तर्क वितर्क करे | यह सोचकर चुप रह जाता था | बिस्तर में लेटे लेटे एक दिन जब वह बहुत उकता गया तो उसने अपने साथी रोगी से कहा “मित्र ! तुम्हारा बिस्तर तो खिड़की के समीप है अत: तुम मुझे खिड़की के बाहर क्या क्या हो रहा है देखकर जरा बताओ | ऐसा करने से मेरा मनोरंजन होगा”

“ठीक है सुनो” कहते हुए दुसरे रोगी ने बाहर के दृश्यों का सजीव वर्णन करना आरम्भ कर दिया  ” बाहर एक लॉन है जिसमे चार गुलाब है ……..उनमे से एक बड़ा गुलाबी रंग का है | लॉन के पास ही एक बच्चा हल्के हल्के कदमो से चल रहा है | उसने अपनी माँ की उंगली पकड़ रखी है ………..लो वह गिर पड़ा | अब उसकी माँ ने उसे उठा लिया है तथा खूब प्यार कर रही है | बच्चा फिर से मुस्कुरा रहा है ……..” वह रोगी बोलता जाता | इतना रोचक और सजीव वर्णन सुनते सुनते दुसरे रोगी को नीदं आ जाती | वह आराम से बिना दवाई लिए भी सो जाता था जबकि घटना सुनाने वाले रोगी को बड़ी मुश्किल से नींद आ पाती थी |

जागने पर बाते सुनने वाला रोगी फिर से फरमाइश करता कि उसका साथी ओर कुछ रोचक वर्णन करे | उसका अनुरोध उसका साथी कभी नही टालता था | वह उसे नये नये दृश्यों का आँखों देखा हाल सुनाता रहता | पहले रोगी की बाते सुनकर दुसरे रोगी का मनोरंजन तो खूब होता किन्तु वह अपनी ईर्ष्यालु प्रवृति के कारण फिर मन ही मन कुढ़ता कि उसका बिस्तर खिड़की के पास नही है | अत: असली आनन्द तो उसका साथी ले रहा है और जो सब कुछ देख भी पा रहा है उसे तो केवल सुनने को ही मिल रहा है | इसे अपना दुर्भाग्य मानकर वह सोचता है कि “काश उसका पलंग उस खिड़की के पास होता ”

एक दिन रात को दृश्य का वर्णन करने वाले रोगी की स्थिति बहुत खराब हो गयी और वह चल बसा | अस्पताल के कर्मचारी उसे ले गये | अब पीछे केवल वह दूसरा रोगी ही कमरे में था ,जो एकदम अकेला रह गया था | उसे खिड़की के पास वाले पलंग पर लिटाने की व्यवस्था कर दी गयी | मन ही मन रोगी अब सोच रहा था अब वह स्वयं आनन्द से उन दृश्यों को देखेगा जिसको वह केवल पहले वर्णन ही सुना करता था | जैसे ही उसने खिड़की के बाहर नजर डाली तो वह दंग रह गया | खिडके के बाहर तो कुछ भी नही था केवल एक लम्बी ऊँची दीवार थी जो अस्पताल की अंतिम दीवार थी | अस्पताल का विस्तार वहा खत्म था |

उसे सच्चाई समझते देर न लगी कि उसका उदार साथी इतना महान था कि केवल उसका मन बहलाने के लिए अपनी कल्पना से ही , सुंदर सुंदर दृश्यों और घटनाओं का वर्णन सुनाया करता था | वह जानता था कि मृत्यु कभी भी आ सकती है किन्तु इसके लिए विलाप करना आवश्यक नही माना वरन अन्तिम सांस तक सकारात्मक रहा व उसे निराश होने से रोकता रहा ।

Motivation

एक राजा ने अपने सारे बुद्धिमानों को बुलाया और उनसे कहा – मैं कुछ ऐसा सूत्र चाहता हूँ, जो छोटा हो, बड़े शास्त्र नहीं चाहिए, मुझे फुर्सत भी नहीं बड़े शास्त्र पढने की. वह ऐसा सूत्र हो जो एक वचन में पूरा हो जाये और जो हर घड़ी में काम आये. दुःख हो या सुख, जीत हो या हार, जीवन हो या मृत्यु सब में काम आये, तुम लोग ऐसा सूत्र खोज कर लाओ.

उन बुद्धिमानों ने बड़ी मेहनत की, बड़ा विवाद किया कुछ निष्कर्ष नहीं हो सका. वे आपस में बात कर रहे थे, एक ने कहा– “हम बड़ी मुश्किल में पड़े हैं बड़ा विवाद है, संघर्ष है, कोई निष्कर्ष नहीं हो पाया, हमने सुना हैं एक सिद्ध संत नगर में आए हैं,वह प्रज्ञावान व्यक्ति है, क्यों न हम उन्ही के  पास चलें?”

वे लोग संत के पास पहुँचे और उनसे राजभवन आने के लिए निवेदन किया। संत राजभवन आए और उन्होंने एक अंगुठी पहन रखी थी. अपनी अंगुली में वह निकालकर राजा को दे दी और कहा – इसे पहन लो. इसमें लगे पत्थर के नीचे एक छोटा सा कागज रखा है, उसमें सुत्र लिखा है, वह मेरे गुरू ने मुझे दिया था, मुझे तो जरूरत भी न पड़ी इसलिए मैंने अभी तक खोलकर देखा भी नहीं.

उन्होंने एक शर्त रखी थी कि जब कुछ उपाय न रह जायें, सब तरफ से निरुपाय हो जाओ, तब इसे खोलकर पढना, ऐसी कोई घड़ी न आयी उनकी बड़ी कृपा है इसलिए मैंने इसे खोलकर पढ़ा नहीं, लेकिन इसमें जरूर कुछ राज होगा आप रख लो, लेकिन शर्त याद रखना इसका वचन दे दो कि जब कोई उपाय न रह जायेगा सब तरफ से असहाय हो जाओगे तभी अंतिम घड़ी में इसे खोलोगे.

क्योंकि यह सुत्र बड़ा बहुमूल्य है अगर इसे साधारणतः खोला गया तो अर्थहीन होगा. राजा ने अंगुठी पहन ली, वर्षों बीत गये कई बार जिज्ञासा भी हुई फिर सोचा कि कहीं खराब न हो जाए, फिर काफी वर्षो बाद एक युद्ध हुआ जिसमें राजा हार गया, और दुश्मन जीत गया. उसके राज्य को हड़प लिया.

वह राजा एक घोड़े पर सवार होकर अपनी जान बचाने के लिए भागा, राज्य तो गया संघी साथी, दोस्त, परिवार सब छूट गये, दो–चार सैनिक और रक्षक उसके साथ थे, वे भी धीरे–धीरे हट गये. क्योंकि अब कुछ बचा ही नहीं था तो रक्षा करने का भी कोई सवाल न था.

दुश्मन उस राजा का पीछा कर रहा था, तो राजा एक पहाड़ी घाटी से होकर भागा जा रहा था. उसके पीछे घोडों की आवाजें आ रही थी, टापें सुनाई दे रही थी. प्राण संकट में थे, अचानक उसने पाया कि रास्ता समाप्त हो गया, आगे तो भयंकर गहरी गहरी घाटी है जहाँ वह लौट भी नहीं सकता था, एक पल के लिए राजा स्तब्ध खड़ा रह गया कि क्या करें ?

फिर अचानक याद आयी, अंगुठी खोली पत्थर हटाया कागज निकाला उसमें एक छोटा सा वचन लिखा था “यह भी बीत जायेगा”. सुत्र पढ़ते ही उस राजा के चेहरे पर मुस्कान आ गयी, उसे इस बात का खयाल आया कि सब तो बीत गया, मैं राजा नहीं रहा, मेरा साम्राज्य गया, सुख बीत गया, जब सुख बीत जाता है तो दुख भी स्थिर नहीं हो सकता.

शायद सूत्र ठीक कहता हैं अब करने को कुछ भी नहीं हैं लेकिन सूत्र ने उसके भीतर कोई सोया तार छेड़ दिया. कोई साज छेड़ दिया. “यह भी बीत जायेगा” ऐसा बोध होते ही जैसे सपना टूट गया. अब वह व्यग्र नहीं, बैचेन नहीं, घबराया हुआ नहीं था. वह बैठ गया.

संयोग की बात थी, थोड़ी देर तक तो घोड़ों की टापें सुनायी देती रही फिर टापें बंद हो गयी, शायद सैनिक किसी दूसरे रास्ते पर मुड़ गये. घना जंगल और बिहड़ पहाड़ उन्हें पता नहीं चला कि राजा किस तरफ गया है. धीरे–धीरे घोड़ों की टापें दूर हो गयी, अंगुठी उसने वापस पहन ली.

कुछ दिनों बाद हिम्मत जुटाकर दोबारा उसने अपने मित्रों को वापस इकठ्ठा कर लिया, फिर उसने वापस अपने दुश्मन पर हमला किया, पुनः जीत हासिल की फिर अपने सिंहासन पर बैठ गया. जब राजा अपने सिंहासन पर बैठा तो बड़ा आनंदित हो रहा था.

तभी उसे फिर पुनः उस अंगुठी की याद आयी उसने अंगुठी खोली कागज को पढा फिर मुस्कराया दोबारा विजय का दंभ विदा हो गया. वजीरों ने पूछा– आप बडे प्रसन्न थे अब एक दम शांत हो गये, क्या हुआ ?

राजा ने कहा – अंगुठी में यह सूत्र दिया गया है – “यह भी बीत जायेगा.” जो हमारे लिए सुख–दुःख दोनों में काम आता है. दोनों में हमें सावचेत करता है और हमें गलतियाँ करने व निराशा से बचाता है. हमें हमेशा उत्तेजित करने वाली परस्थितियों में शांति का एहसास करता है. इस दुनिया में मानसिक शांति से बड़ा कोई सुख नहीं है. शांति में ही हम हर तरह की प्रगति और समृद्धि हासिल कर सकते है. अत: अब हमें शांति से राज्य और जनता की भलाई पर ध्यान देना चाहिये.

जीवित गुरु

अगर कभी तुम्हें कोई जीवित गुरु मिल जाए,
तो उन क्षणों को मत चूकना।
मुर्दा संप्रदायों से तुम्हें कुछ भी न मिलेगा।
मुर्दा संप्रदाय ऐसे हैं
जैसे तुम कभी—कभी फूलों को किताब में रख देते हो,
सूख जाते हैं, गंध भी खो जाती है,
सिर्फ एक याददाश्त रह जाती है।
फिर कभी वर्षों बाद किताब खोलते हो,
एक सूखा फूल मिल जाता है।
संप्रदाय सूखे फूल हैं,
शास्त्र किताबों में दबे हुए सूखे फूल हैं।
उनसे न गंध आती है, न उनमें जीवन का उत्सव है,
न उनसे परमात्मा का अब कोई संबंध है।
क्योंकि उनकी कहीं जड़ें नहीं अब,
पृथ्वी से कहीं वे जुड़े नहीं, आकाश से जुड़े नही,
सूर्य से उनका कुछ अब संवाद नहीं,
 सब तरफ से कट गए, टूट गए,
अब तो शास्त्र में पड़े हैं। सूखे फूल हैं।

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आकर्षण के नियम ,  सहस्रार-चक्र
अगर तुम्हें जिंदा फूल मिल जाए तो
सूखे फूल के मोह को छोडना।
जानता हूं मैं, अतीत का बड़ा मोह होता है।
जानता हूं मैं, परंपरा में बंधे रहने में बड़ी सुविधा होती है।
 छोड़ने की कठिनाई भी मुझे पता है।
अड़चन बहुत है। अराजकता आ जाती है।
जिंदगी जमीन खो देती है।
कहां खड़े हैं, पता नहीं चलता।
अकेले रह जाते हैं।
भीड़ का संग—साथ नहीं रह जाता।
लेकिन धर्म रास्ता अकेले का है।
 वह खोज तनहाई की है।
और व्यक्ति ही वहां तक पहुंचता है,
समाज नहीं।
अब तक तुमने कभी किसी समाज को बुद्ध होते देखा?
किसी भीड़ को तुमने समाधिस्थ होते देखा?
व्यक्ति—व्यक्ति पहुंचते हैं, अकेले—अकेले पहुंचते हैं।
परमात्मा से तुम डेपुटेशन लेकर न मिल सकोगे,
अकेला ही साक्षात्कार करना होगा।

धर्म ?

🌹 जय गुरुदेव 🌹

पहली बात यह है की धर्म की बात हम मान लेते हैं और जो समझाया गया है वैसे करते हैं। धर्म की बात मानने की नहीं है मगर अपने अभ्यास से उसका अनुभव करने की बात है समझना ठीक है मगर अनुभव तो हर गुरु भक्त को करना पड़ेगा । अपना खुद का अनुभव आपको मंजिल तक ले जाएगा ।
जो अपना शरीर है वह अपनी आत्मा का मंदिर है । शरीर मरण धर्मा है सबका शरीर मरने वाला तो है मगर यह शरीर में एक अमर तत्व भी है उसको अपनी आत्मा बोलते हैं । अपने पास एक ही शरीर में दो चीज का अनुभव तो हो गया । एक शरीर जो मरण धर्मा है । दूसरा अमर आत्मा है । शरीर और आत्मा के बीच में मन है ।
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आज तक किसी का शरीर ने कोई झंझट कि नहीं है । जो भी झंझट है वह आपके मन की है । मन क्या करता है । मन का काम कुछ ना कुछ करना और शांति से बैठने नहीं देना यह मन का काम है आपको ऑक्यूपाइड रखना उसका काम है । जिसे आप अहंकार भी बोल सकते हो । धर्म के मार्ग में अपना अहंकार आत्म अनुभूति के लिए बाधक है ।
अभी साधक को क्या करना पड़ेगा ?
साधक को अपने मन में रहते हुए भी मन के बाहर होना पड़ेगा । यह कैसे होगा ?
पहले तो आप की मान्यता है कि आप शरीर हो । दूसरी मान्यता है आप मन हो । तीसरी मान्यता है आप भाव हो । सामान्य मनुष्य की यही मान्यता है ।
सिद्ध पुरुष का कहना है आप की मान्यता सही नहीं है और आप आत्मा हो और अपनी आत्मा को जानकर आप परमात्मा का भी अनुभव कर सकते हो ।
सभी गुरु भक्तों यह समझ लेना आपके भीतर दो चीज है एक है शरीर जो मरण धर्मा है और दूसरा आत्मा जो अमर ही है । यह भी अनुभव करना जरूरी है ।
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माँ पर शायरी

  "माँ के कदमों में बसी जन्नत की पहचान, उसकी दुआओं से ही रोशन है हर इंसान। जिंदगी की हर ठोकर से बचा लेती है, माँ की ममता, ये दुन...